राष्ट्रहित के लिए : राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता करे


अरविन्द सीसौदिया
हमारी पद्यति प्रतिनिधि पद्यति होनें से , जनता  और शासन के बीच  में जन प्रतिनिधि नामक एक बिचोलिय आ खड़ा हुआ .., यह कभी बहुत देश भक्त ही था.., मगर अभी हम इसे दयानिधि मारन और ए राजा के रूप में समर्थन की वसूली करते हुए देख रहे हैं .., अब तो पंच  भी बिकते देखे गये हैं .. जन प्रतिनिधि स्तर पर आई गिरावट का सुधार सीधे जनता के द्वारा प्रमुख पद को चुनने में ही है | यदि सरपंच की ही तरह या महापौर की ही तरह जनता को मुख्यमंत्री या राज्यपाल और प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति का चुनाव का अधिकार मिल जाये तो काफी समस्या का हल निकल आये और ये बेशर्म बिका बिकी समाप्त हो जाये.....  


हमारी स्वतंत्रता के लिये राष्ट्रपति पद का कितना महत्व है, यह समझने के लिए हमें 25 जून 1975 की रात्रि 11 बजकर 45 मिनिट पर, तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी के कहने पर, लगाये गये आपातकाल को समझना होगा। जिसमें राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आंतरिक आपातकाल लगा दिया था। जेलों में डाले गये निर्दोषों को न्यायालय मुक्त न कर पाये, इसलिये कि ‘मीसा’ कानून को न्यायालय के क्षैत्राधिकार से बाहर कर दिया गया था। लोगों की जबरिया नसबंदी कर दी गई थी, जबरिया मकान तोड़ दिये गये थे। कोई भी अखबार सरकार के खिलाफ लिख नहीं सकता था, विपक्ष नाम की कोई चीज नहीं रहने दी गई थी। व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाप्त हो गई थी।


सोचने समझने वाली बात यह है कि ऐसा क्यों हुआ! राष्ट्रपति ने बिना जनता की परवाह किये आपातकाल क्यों लगा दिया! इसके दो कारण थे, पहला कारण तो राष्ट्रपति जनता के द्वारा चुना नहीं जाता जो वह जनता के प्रति जवाबदेह होता........, क्योंकि उसको चुनने वाला निर्वाचक मण्डल सांसद और विधायक होते हैं। जनता इस चुनाव की महज दर्शक होती है! दूसरा कारण राष्ट्रपति पुनर्निवाचन के लिए उन दलों पर निर्भर रहता है जिस पर निर्वाचक मण्डल के सदस्यों का संख्या बल हो, इसलिये वह उस दल को संतुष्ट रखता है। इसी कारण राष्ट्रपति पद महत्वपूर्ण होते हुए भी एक प्रकार से दलगत राजनीति का दास होता है । इन दो कारणों से राष्ट्रपति सबसे महत्वपूर्ण पदाधिकारी होते हुए भी न तो जनता के प्रति जबाव देह हो पाता और न ही राष्ट्र के प्रति..!! वह मात्र दल के प्रति दासत्व में कैद रहता है। राष्ट्रपति को इस दासता से मुक्ति का एक ही उपाय है कि राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधे ‘जनता’ करे, ताकि वह जनता और राष्ट्र के प्रति जबाव देह हो सके।


केशवानन्द भारती प्रकरण में न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने चेतावनी दी थी ( 24 अप्रैल 1973 ) कि ‘‘जर्मनी के संविधान के आपातकाल सम्बन्धी अधिकारों की धारा 48 का दुरूपयोग कर हिटलर ने नाजी तानाशाही स्थापित कर ली थी। भारतीय संविधान की आपातकालीन धाराओं 352 व 357 का किसी प्रकार का संशोधन किये बिना इस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है कि जनतंत्र दिखावा मात्र रह जाये। शक्ति के इस दुरूपयोग पर अंकुश जागृत व जन विद्रोह का भय ही हो सकता है।’’


19 जुलाई 1947 को संविधान सभा में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति से संदर्भित प्रस्ताव रखे थे। संक्षिप्त में संघ का प्रधान राष्ट्रपति होगा, उसका निर्वाचन संघ की लोक प्रतिनिधि सभा पार्लियामेंट की दोनों सभाओं के सदस्य (संसद सदस्य) तथा सभी प्रदेशों की इकाईयों की व्यवस्थापिकाओं (विधानसभाओं) के सदस्य, जहां व्यवस्थापिका द्विसदनीय होंगी, उनमें नीचे वाली सभा के सदस्य (विधायक) करेंगें। तीसरी बात थी निवार्चन गुप्त मतपत्र द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त के आधार पर एकाकी हस्तान्तरित मत पद्धति से होगा।


तब नेहरू जी ने संविधान सभा में राष्ट्रपति की शक्तियों के संदर्भ में कहा था कि ‘‘हम इस बात पर जोर देना चाहते हैं कि वस्तुतः शक्ति मंत्रीमण्डल और व्यवस्थापिका में सन्निहित है न कि राष्ट्रपति में ! पर साथ ही हम यह भी नहीं चाहते थे कि अपना राष्ट्रपति केवल काठ की मूरत हो, यानी नाममात्र का प्रधान हो जैसा कि फ्रांस का होता है। हमने उसे कोई वास्तविक क्षमता तो नहीं दी है पर उसके पद को बड़ा ही मर्यादा और क्षमता सम्पन्न बनाया है। विधान के इस मसविदे में आप देखेंगे कि अमेरिका के राष्ट्रपति की तरह यह समूची रक्षा सेना का प्रधान नायक है।’’


उन्होंने आम नागरिक को मताधिकार देने के पक्ष का विरोध करते हुए कहा था ‘‘.....राष्ट्रपति के चुनाव में भारत का हर वयस्क नागरिक भाग लेगा तो यह बड़ा ही भारी बोझ हो जायेगा। आर्थिक दृष्टि से यह एक बड़ा ही कठिन काम होगा तथा इससे वर्ष भर के लिए सारे कार्य अव्यवस्थित हो जायेंगे। अमेरिका में राष्ट्रपति के निर्वाचन से वस्तुतः कई महीनों तक बहुत से काम बन्द हो जाते हैं।’’


‘‘.......इस देश में इस पद्धति (अमेरिका) को ही अपनाने की कोशिश करेंगे तो मंत्रीमण्डल मूलक शासन व्यवस्था को यहां विकसित होने से रोकेंगे तथा अपने समय और शक्ति की बड़ी बर्बादी करेंगे। कहा जाता है कि राष्ट्रपति के निर्वाचन में सम्पूर्ण अमेरिका की सारी शक्ति और सारा ध्यान निर्वाचन में केन्द्रित हो जाता है और इससे देश की एकता को हाॅनि पहुंचती है। एक व्यक्ति समस्त राष्ट्र का प्रतीक बन जाता है। हमारे देश में भी राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रतीक होगा, परन्तु मैं समझता हूं कि हमारे राष्ट्रपति का ऐसा निर्वाचन हमारे लिए बुरी बात होगी।’’


राष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी चर्चा में बहुत सी बातें उठीं। श्री टी. चनय्या (मैसूर राज्य) चाहते थे कि राष्ट्रपति एक बार उत्तर भारत का हो तो दूसरी बात दक्षित भारत का हो। तो राय बहादुर श्यामनन्दन सहाय (बिहार) ने यह आपत्ति दर्ज की थी कि जब संघीय पालिर्यामेंट में दोनों सभाओं के सदस्यों मताधिकार दिया जा रहा है तो राज्य के द्विसदनीय सदनों में विधान परिषद को बाहर क्यों रखा जा रहा है। एक सदस्य श्री एच. चन्द्रशेखरिया (मैसूर) चाहते थे कि एक बार राष्ट्रपति रियासतों का हो और एक बार गैर रियासतों का..!


मगर शिब्बन लाल सक्सेना ने अपने संशोधन में स्पष्ट कहा कि ‘‘जनता राष्ट्रपति का चुनाव सीधे बालिग मताधिकार से करे।’’ उन्होंने तर्क दिया था कि ‘‘.......सारे देश के वोटर (वयस्क मतदाता) जिस व्यक्ति को अपना राष्ट्रपति चुनेंगे, उसकी नैतिक शक्ति और प्रतिभा सारे देश में अद्वितीय होगी। वह सचमुच जनता का आदमी और उनका सच्चा प्रतिनिधि होगा।’’ उन्होंने संविधान सभा में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा था ‘‘हमारे देश की एकता, जो आज टूट गई है और कुछ रियासतों के वर्तमान प्रयत्नों को देखते हुए जिस एकता के और भी अधिक टूटने का भय है, उस एकता को फिर से कायम करने के लिए हम प्रतिज्ञाबद्ध हैं। उसमें बालिग मताधिकार से राष्ट्रपति का चुनाव होगा, बहुत मदद करेगा। तब ट्रावनकोर से लेकर कश्मीर तक और कलकत्ता से लेकर बम्बई तक देश के कोने-कोने में गरीब से गरीब व्यक्ति भी यह महसूस करेगा कि वह भारत वर्ष के राष्ट्रपति को चुनने का अधिकारी है। अपने भारतीय होने के गौरव को तब वह पूरी तौर पर अनुभव करेगा और भारतीय एकता की जड़ इस प्रकार मजबूत हो जायेगी और आजकल (1946) हैदराबाद, कश्मीर, ट्रावनकोर इत्यादी में जो भारत से अलग होने की भावना है, उसकी जनता में भी फिर से भारत वर्ष में मिल जाने की इच्छा प्रबल होती जायेगी। इसलिये विशेषकर इस वर्तमान अवस्था में मैं राष्ट्रपति के बालिग मताधिकार से चुने जाने को अत्यंत आवश्यक व लाभदायक समझता हूं।’’


सैय्यद काजी करीमुद्दीन (मध्यप्रांत-बरार) भी चाहते थे कि राष्ट्रपति का चुनाव वयस्क मताधिकार पद्धति से हो, उन्होंने पं. नेहरू का प्रतिवाद करते हुए कहा था कि उन्होंने केवल एक तर्क पेश किया है कि ‘‘बहुत बड़ी व्यवस्था करनी पड़ेगी।’’ उन्होंने संविधान में अपने भाषण में कहा ‘‘अमरीका जैसे देश में राष्ट्रपति का निर्वाचन वयस्क मताधिकार से होता है और मेरा विचार है कि यदि राष्ट्रपति का चुनाव हर पांचवे या चैथे वर्ष वयस्क मताधिकार से हो तो उससे आम जनता को जागृत करने का अवसर मिल सकेगा।’’ उन्होंने आशंका व्यक्त की थी कि इससे तो राष्ट्रपति केवल बहुसंख्यक दल की कठपुतली बन जायेगा।’’ लगभग यही विचार मोहम्मद शरीफ (मैसूर) ने भी रखे थे।


असल में हमारे देश में जनता को बहुत से चुनावों में भाग लेने का अधिकार मिलता है जैसे ग्रामीण क्षैत्र की जनता पंच, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य, जिला परिषद सदस्य, विधायक और सांसद का निर्वाचन करती है, शहरी क्षैत्र में पार्षद, मेयर, विधायक और सांसद का चुनाव करती है। ये सारे चुनाव देश के एक अंश मात्र से जुड़े हैं। जैसे पंच वार्ड से, सरपंच पंचायत से, विधायक विधानसभा क्षैत्र से, सांसद लोकसभा क्षैत्र से, कोई भी एक चुनाव नहीं है जो देश के नागरिक को पूरे देश से जोड़ता हो! यानि कि हम जिस निर्वाचन पद्धति से चल रहे हैं उसमें ही हमने ‘‘राष्ट्र’’ और ‘‘राष्ट्रवाद’’ को छोटा किया है। भारत का सबसे महत्वपूर्ण पद राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पदों में से एक भी पद ऐसा नहीं है जिसे पूरा देश चुनता हो। जिससे सीधे जनता जुडती हो।


गुणवत्ता और व्यक्तित्व के अनुबंधन भी होने चाहिए


वर्तमान में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री आदी के लिए अनुभव सम्बन्धी, कार्य गुणवत्ता सम्बन्धी और विशिष्ट शैक्षणिक स्तर सम्बन्धी कोई भी बन्धन नहीं है जिनसे अनेकों बार इन पदों का अवमूल्यन हुआ, आलोचनायें हुई, समय-समय पर आरोप-प्रत्यारोप उछलते रहते हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि जैसे-जैसे पद की उच्च स्तरता बढ़ती जाये, वैसे-वैसे उसकी विशिष्टता सम्बन्धी कुछ बन्धनों का भी होना आवश्यक है। देश में सरकारी कर्मचारी को चपरासी, क्लर्क या कण्डक्टर जैसे बहुत मामूली पदों पर भी योग्यता और स्तर के मापदण्डों पर खरा उतरना पड़ता है, मामूली सा आपराधिक प्रकरण दर्ज हो तो सरकारी नौकरी नहीं मिलती, मगर उपरोक्त पदों पर यह सब बड़ी आसानी से पदासीन हो सकते हैं। सामान्य सी सैद्धान्तिक बात है कि चालक के लिये वाहन चलाना आना जरूरी है, इसी तरह इन पदों पर पहुंचने वाले व्यक्तियों के लिए कार्यक्षमताओं के मामले में दक्ष होना अनिवार्य है। उनकी जरा सी अकुशलता से पूरे देश को दुख भोगना पड़ता है।


गणित कहता है कि वर्तमान पद्धति खराब है..
देश की जनता के बजाये दल को महत्वपूर्ण बनाया गया !



जब सीधे जनता के हाथ में निर्वाचन होता है तो जनता के प्रति बहुत अधिक जवाबदेह बनना पड़ता है। जरा सी जन उपेक्षा में जनता पद से बाहर कर सकती है, अर्थात जो चुनाव सीधे जनता से होता है वह अधिक लोकतंत्रीय होता है, जनता के प्रति जवाबदेह होता है।


इसलिये कम मेहनत व जोड़तोड़ से पद प्राप्ति की पद्धति हमने अपनाई। उदाहरण के तौर पर 100 वोटर हैं उनमें से मान लो 60 ने वोट डाले, बहुमत सिद्धांत 51 प्रतिशत के आधार पर, 60 वोटों का बहूमत लगभग 31 हुआ! अर्थात 31 वोट पर तो हम सांसद या विधायक चुन लिये गये अब इनके 51 प्रतिशत पर सरकार बन गई! यानि कि लगभग 16 प्रतिशत मत शक्ति की सरकार बन गई और उस पर भी स्वतंत्रता यह कि हम किसी को भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बना दें। वह सदन का सदस्य हो न हो। वर्तमान में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार भी लोकसभा चुनाव नहीं जीते है। कुल मिला कर यह सब इसलिये हुआ कि देश की जनता के बजाये सारे निर्णय राजनैतिक दल के कार्यालय में होते रहें। जाने अनजाने जनता बाहर हो गई और लोकतंत्र पर दल तंत्र का कब्जा हो गया ।


दलगत हित की निर्वाचन पद्धति


वर्तमान निर्वाचन पद्धति मूलतः जनता के हित के बजाय राजनीतिक दलों के हित की रणनीति पर टिकी हुई है। इस पद्धति से जनता को पूरा लोकतंत्र नहीं मिला है बल्कि सारा मामला अर्द्ध लोकतंत्र पर अटक गया है। हम अपने देश में सामान्य तौर पर अपनी पसन्द के व्यक्ति को मुख्यमंत्री नहीं बना पाते। इसका दल के मुखिया की पसन्द होना जरूरी है और इस देश में लगभग पहले तीस वर्ष तक मुख्यमंत्री दल की पसन्द की आधार पर ही बनते और बदलते रहे। वर्तमान में सम्भवतः जनता ने दलों की मनमर्जी की इस प्रवृत्ति के कारण ही क्षैत्रीय दलों के व्यक्तियों को मुख्यमंत्री के रूप में चुनना प्रारम्भ कर दिया। इसी प्रकार राज्यों में राज्यपाल भी वही होते हैं जो किसी दल की पसन्द हों। राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण पद पर उस प्रदेश की जनता की राय कोई मायने नहीं रखती है। कई बार तो जनता द्वारा लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में हराये गये व्यक्ति को राज्यसभा सांसद निर्वाचित कर मंत्री बना दिया जाता है। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री रहे शिवराज पाटिल लोकसभा के सदस्य नहीं अर्थात्् जनता द्वारा निर्वाचित नहीं है किंतु फिर भी मंत्री परिषद में प्रथम और द्वितीय पायदान पर बैठे । लोकतंत्र का इससे बड़ा मखौल और क्या हो सकता है।


कुल मिलाकर देश की निर्वाचन पद्धति में बदलाव और जनता को सीधे अपने शासक नियुक्त करने के अधिकार पर पुनर्विचार आवश्यक है। वहीं देश की राष्ट्रवादी सोच और समझ को बढ़ाने के लिए देश के राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधे आम जनता से होना चाहिए ताकि जनता का जुड़ाव सीधा राष्ट्र से बने। आज ऐसी कोई मतपद्धति नहीं है, जिससे अरूणाचल प्रदेश के नागरिक, मणिपुर के नागरिक, नागालेण्ड के नागरिक, असम के नागरिक, जम्मू कश्मीर के नागरिक राष्ट्रीय स्तर के किसी पद के लिए मतदान करें।
- बेकरी के सामनें,राधाकृष्ण मंदिर रोड़, डडवाड़ा,कोटा जंक्शन


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