आतंकवाद को आतंकवाद मानें , वोट बैंक की राजनीती छोड़ दें..

- अरविन्द सिसोदिया
भारत यदि आतंकवाद को आतंकवाद मानें , वोट बैंक की राजनीती राजनैतिक दल छोड़ दें तो तीन दिन भी यह ठहर नही सकता ....
आज हैदराबाद की घटना भी,राजनैतिक डरपोक पण और वोट बैंक के कारण हुई , जरा भी साहस दखाया होता तो ये सब न केवल रुकता बल्कि आपराधी भी जेल के सीखचों में होते… जो अब शायद पकड़ में ही नहीं आयें ...
एक रिपोर्ट नीचे पेश हे इसे सरकारों ने अपनाया होता तो देश की दशा सुधर गई होती ....

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अमेरिका से क्या सीखें और क्या नहीं

चंद्रभूषण

नवभारत टाइम्स | Nov 28, 2008,
http://navbharattimes.indiatimes.com/thoughts-platform/viewpoint/--/articleshow/3766332.cms
मुंबई में 26 नवंबर 2008 की रात से शुरू हुए आतंकवादी हमले भारत में अब तक हुए ऐसे सभी हमलों से बुनियादी तौर पर अलग हैं। पुलिस वैन पर कब्जा कर के अंधाधुंध गोलीबारी के लिए उसका इस्तेमाल, सड़कों पर बेखटके ग्रेनेड, राइफलें और मशीनगनें लिए घूमना, आर्थिक राजधानी की समूची सुरक्षा व्यवस्था को पंगु बनाते हुए मुंबई के दो सबसे प्रतिष्ठित होटलों में लोगों को बंधक बना लेना और देश की सबसे ताकतवर आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों को 24 घंटे के लिए अपनी मुट्ठी में कस लेना कोई ऐसी घटना नहीं है, जिसकी मिसाल अतीत में खोजी जा सके। भलाई इसी में है कि भारत इसे अमेरिका के 9/11 और ब्रिटेन के 7/7 की तरह लेते हुए आतंक से निपटने की अंतिम तैयारी करे।
अमेरिका में 9/11 के बाद भी काफी समय तक आतंकवाद का खौफ बना रहा। खासकर एंथ्रेक्स से जुड़े बायो-टेररिज्म ने काफी समय तक अमेरिकियों का जीना मुहाल रखा। लेकिन अंतिम निष्कर्ष के रूप में 11 सितंबर 2001 के बाद से अब तक के सात सालों में आतंकवादी अमेरिका पर एक भी उल्लेखनीय हमला करने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। इसकी वजह क्या रही, अमेरिकी प्रशासन ने आतंकवाद से निपटने के लिए क्या-क्या कदम उठाए, इसकी नए सिरे से समझदारी कायम करना और उससे अपने काम की चीजें निकालना भारत के लिए जरूरी है।

बुश प्रशासन अमेरिकी जनमत को दबे-छुपे ढंग से यह समझाने का प्रयास करता रहा है कि 9/11 के बाद से अमेरिका पर आतंकी हमला न होने की मुख्य वजह लड़ाई का दुश्मन के इलाके की तरफ ठेल दिया जाना है। लेकिन हकीकत में अमेरिका की आतंकवाद विरोधी तैयारियों का यही सबसे कमजोर पहलू है।
पिछले हफ्ते अमेरिकी संसद में प्रस्तुत एक विशेषज्ञ रिपोर्ट में बताया गया है कि 1968 के बाद से दुनिया के 73 प्रतिशत आतंकवादी संगठनों का खात्मा स्थानीय खुफिया और पुलिस उपायों के जरिए ही संभव हुआ है, लिहाजा अमेरिका को आतंकवाद के खिलाफ विदेशी धरती पर युद्ध लड़ने के बजाय यह काम वहीं की संस्थाओं पर छोड़ कर सारा जोर अपनी आंतरिक सुरक्षा पर ही केंद्रित करना चाहिए।

भारत की तरफ से इस तरह की नी-जर्क-रिएक्शननुमा प्रतिक्रिया सन 2002 में संसद पर हुए हमले के बाद देखने को मिली थी, जब आतंकवाद से आखिरी लड़ाई एक ही बार में लड़ लेने के नाम पर 1500 करोड़ रुपये खर्च करके कई महीनों के लिए अपनी फौज को भारत-पाक सीमा पर तैनात कर दिया गया था। जाहिर है कि मौजूदा माहौल इसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं है।

9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए अमेरिकी संसद ने जो चार-सूत्रीय योजना बनाई थी, उसमें पहला बिंदु फौजी हमले का था, जिसे सिंहावलोकन के क्रम में ज्यादा कारगर नहीं माना जा सकता। दूसरा बिंदु था आतंकवादियों के धन के सोत सुखा देना। इस रणनीति को दुनिया भर में अभी तक अच्छी-खासी कामयाबी हासिल हुई है।

कहा जा सकता है कि अमेरिका के अलावा यूरोप पर भी आतंकी हमले तुलनात्मक रूप से कम होने की यह काफी बड़ी वजह है। इसमें अभी तक थोड़ी-बहुत भूमिका भारत की भी रही है, लेकिन इसके संदर्भ पश्चिमी ही होते आए हैं।

भारत को अपनी जमीन पर या पड़ोसी देशों में आतंकवाद के वित्तीय सोतों को समाप्त करना है, तो इसके लिए उसे विस्तार से योजना बनानी होगी। खासकर किसी भी स्रोत से पैसा उगाहने पर उतारू भारतीय बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को आतंकवादी ढांचों तक पैसा पहुंचने की आशंका को लेकर मुस्तैद बनाने के लिए काफी कुछ करने की जरूरत है।

अमेरिका में सबसे ज्यादा काम आतंकवाद विरोध के बाकी दोनों सूत्रों पर हुआ है, जिससे सीखना भारत के लिए बहुत जरूरी है। इनमें एक है आंतरिक सुरक्षा ढांचे की पुनर्रचना और दूसरा, सीमाओं की नए सिरे से मजबूती। इन दोनों सूत्रों की अपनी कई समस्याएं हैं। खासकर लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अति सजग अमेरिकी समाज ने शुरू के सालों में इनसे जुड़े कई उपायों का पुरजोर विरोध किया। लेकिन धीरे-धीरे चीजें पटरी पर आती चली गईं और अपने लिए कमोबेश एक फूल-प्रूफ सिक्युरिटी बनाने में अमेरिकी कामयाब रहे।

आंतरिक और सीमा सुरक्षा के लिए अमेरिका में 9/11 के बाद नैशनल इंटेलिजेंस डाइरेक्टर का एक राष्ट्रीय पद निर्मित किया गया, जिसका काम सभी खुफिया एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष से राष्ट्रपति को अवगत कराना है। नैशनल काउंटर-टेररिज्म सेंटर नाम की एक राष्ट्रीय संस्था खड़ी की गई, जिसका काम सभी खुफिया सूचनाओं की लगातार स्कैनिंग करके काम की सूचनाओं को क्रमबद्ध रूप देना है।

डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्युरिटी नाम से बाकायदा आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय खड़ा किया गया, जिसका काम सभी राज्यों की पुलिस और कोस्टल गार्ड के बीच तालमेल बिठाना है।

अमेरिका जैसे घोर संघवादी देश के लिए, जहां हर राज्य अपनी स्वतंत्र पहचान का जबर्दस्त आग्रही है, यह काम कतई आसान नहीं था। आगे शांतिकाल में यह संस्था कितनी कारगर हो पाएगी, इसे लेकर अमेरिकी राजनीति विज्ञानियों में आज भी घोर संशय मौजूद है। इस सबके अलावा अमेरिका ने 10 अरब डॉलर खर्च करके विजिटर एंड इमिग्रेंट स्टेटस टेक्नॉलजी प्रोग्राम नाम का एक ऐसा राष्ट्रव्यापी ढांचा तैयार किया, जिसके जरिए देश में बाहर से आने वाले एक-एक व्यक्ति पर चौबीसों घंटे नज़र रखी जा सकती है।

दोनों केंद्रीय खुफिया संस्थाओं सीआईए और एफबीआई के ढांचों को शीतयुद्धोत्तर युग की चुनौतियों के अनुरूप ढालने का काम अमेरिका में पहले से ही चल रहा था। लेकिन 9/11 के बाद उस प्रक्रिया को खारिज करते हुए इन्हें पहली बार अमेरिकी मुख्यभूमि पर हमले की चुनौती को केंद्र में रखते हुए नए सिरे से गढ़ने की कसरत की गई।

भारत इनमें से किसी भी कदम से कुछ सीख पाए या नहीं, लेकिन खुफिया और पुलिस ढांचों को राज्य सरकारों की जमींदारी का अंग मानने की परंपरा 26 नवंबर 2008 के बाद से समाप्त कर दी जानी चाहिए। केंद्र सरकार की तरफ से इस आशय का प्रस्ताव राज्य सरकारों द्वारा लगातार खारिज किया जा रहा है, लेकिन यह रवैया अगर जारी रहा तो हर राज्य को बारी-बारी पिटने के लिए तैयार रहना होगा।

खुफिया और पुलिस ढांचों के एक हद तक केंद्रीकरण और टेक्नॉलजी के स्तर पर इन्हें एक नए धरातल पर उठाए बगैर अभी के आतंकवाद से निपटने की बात सोची भी नहीं जा सकती। राज्य सरकारों को इसके लिए तैयार करने और केंद्र सरकार को भी अपने नियंत्रण वाली खुफिया संस्थाओं के राजनीतिक इस्तेमाल का लोभ छोड़ने का मन बनाने के लिए देश में एक बड़ी राजनीतिक सहमति की आवश्यकता है। ऐसी सहमति अगर अब भी नहीं बनी तो फिर कब बनेगी?

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