लौहपुरुष सरदार पटेल,गांधीजी के कारण प्रधानमंत्री नहीं बन पाये




गांधी जी ने नेहरू को ही देश का नेतृत्व क्यों सौंपा? - डा.सतीश चन्द्र मित्तल
http://panchjanya.com/arch/2011/3/6/File22.htm
देश-विदेश के अनेक विद्वानों के मन में आज भी यह प्रश्न जस का तस है कि लोकमान्य तिलक के बाद देश के सर्वोच्च राष्ट्रीय नेता महात्मा गांधी ने देश की बागडोर नेहरू तथा पटेल में से नेहरू को ही क्यों सौंपी? इसके पीछे उनकी कौन-सी मनोभूमिका रही होगी? इस प्रश्न के उत्तर के लिए गांधी जी के नेहरू एवं पटेल के साथ संबंधों को जानना महत्वपूर्ण होगा।

गांधी-नेहरू संबंध

जवाहर लाल नेहरू ने गांधी जी को सर्वप्रथम 1916 में लखनऊ में देखा था। असहयोग आंदोलन में दोनों एक-दूसरे के निकट आए। 1924 में बेलगाम में गांधी जी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर नेहरू ने उन्हें कांग्रेस का स्थायी सुपर प्रेसीडेंट (नेहरू आत्मकथा, पृ.132) कहा था। फिर धीरे-धीरे उनके संबंध गहरे होते गये थे। परंतु यह भी सत्य है कि दोनों व्यक्तिगत जीवन तथा वैचारिक दृष्टि से एक-दूसरे के विपरीत थे। गांधी जी पूर्ण हिन्दू थे, उनकी हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू धर्म ग्रंथों के प्रति गहरी आस्था थी जबकि नेहरू हिन्दू होते हुए ही उसकी विचारधारा से कटे हुए थे। नेहरू का कथन था, "मैं संभवत: एक भारतीय की अपेक्षा अंग्रेज अधिक था। मैं विश्व को अंग्रेजों के दृष्टिकोण से देखता था और जब मैं भारत लौटा तो मैं इंग्लैण्ड के प्रति तथा अंग्रेजों के प्रति ज्यादा हितैषी था।" (जकारिया- ए स्टोरी आफ नेहरू, पृष्ठ 8) नेहरू ने बैरिस्टरी पास की पर उनकी वकालत चली नहीं, अत:राजनीति में प्रवेश किया। नेहरू ने गांधी जी द्वारा संचालित असहयोग आंदोलन तथा बाद में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया, परंतु दोनों आंदोलन वापस लिए जाने पर नेहरू ने गांधी जी की तीखी आलोचना की थी। 1942 के असहयोग आंदोलन के प्रारंभ में वे विरोधी थे पर बाद में गांधी जी के मनाने पर भाग लेने को तैयार हो गये थे। नेहरू आजादी से पूर्व चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे परंतु प्रत्येक बार गांधी जी की अनुकम्पा से। नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया कि "वह मुख्य द्वार या किनारे के द्वार से नहीं बल्कि पीछे के द्वार से आए थे (आत्मकथा पृ.134-135)

गांधी जी और पंडित नेहरू के राजनीतिक और आर्थिक विचारों में भी बड़ा अंतर था। गांधी जी का चिंतन भारतीय प्रजा की सोच पर आधारित था। वे ब्रिटिश संसद को वेश्या तथा बांझ तक कहते थे। वे ब्रिटिश संसद को बहुत महंगा खिलौना मानते थे। उन्होंने रामराज्य की कल्पना की थी जिसमें सभी की भागीदारी हो। जबकि नेहरू ने गांधी जी के हिन्द स्वराज को पढ़ा परंतु उसे पूर्णत: अस्वीकार कर दिया। गांधी जी ग्रामीण समाज के विकास के लिए स्वावलंबन तथा आत्मनिर्भरता पर बल देते, जबकि नेहरू ग्रामीण समाज को "गाय के गोबर का समाज" कहते थे। गांधी जी गोभक्त थे, नेहरू गोहत्या बंदी के लिए कानून के पक्ष में नहीं थे। गांधी जी परम्पराओं को महत्व देते थे जबकि नेहरू आधुनिक तथा पाश्चात्य सभ्यता के पोषक थे तथा वे गांधी जी को रूढ़िवादी तथा पुरानी पीढ़ी की सोच वाला भी मानते थे। गांधी जी आधुनिक साम्यवाद तथा समाजवाद के घोर विरोधी थे तथा वे 1929 तथा 1936 में नेहरू की समाजवाद की वकालत से क्षुब्ध थे। गांधी जी भारत की आत्मा का गांवों में वास मानते थे तथा ग्राम पंचायतों को महत्व देते हुए भारतीय संविधान इसके अनुरूप बनाना चाहते थे। जबकि नेहरू के पत्रों से ज्ञात होता है कि वे इसे हास्यास्पद समझते थे। गांधी जी स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विघटन चाहते थे परन्तु नेहरू इसके लिए तैयार न थे। अत: दोनों में वैचारिक मतभेद चरम पर थे।

गांधी-पटेल संबंध

वल्लभ भाई पटेल एक गुजराती किसान के पुत्र थे। 1911 में उन्होंने बैरिस्टरी की शिक्षा 36 महीने की बजाय 30 महीनों में पूरी की थी तथा ब्रिटिश साम्राज्य के सभी विद्यार्थियों में प्रथम आए थे। वापस आने पर वे भारत के एक सफल तथा उच्च कोटि के वकील सिद्ध हुए। वे गांधी जी के व्यक्तित्व एवं विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे तथा उनके साथ चम्पारण गए थे। उन्होंने बारडोली सत्याग्रह में भी प्रसिद्धि प्राप्त की थी और तभी से सरदार की उपाधि से विभूषित किए गए थे। यरवदा जेल में वे गांधी जी के साथ 16 महीने रहे जहां दोनों को एक-दूसरे को समझने का अवसर मिला। वहीं पटेल ने संस्कृत भी सीखी थी। पटेल भारतीय कृषक की नब्ज को पहचानते थे। उन्होंने एक बार कहा भी था "मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में कभी उड़ान नहीं भरी, मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में गरीब किसान के खेती की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।" उन्हें गांव की गंदगी तथा जीवन से चिढ़ नहीं थी बल्कि स्वतंत्रता के पश्चात उन्होंने देश के नौकरशाहों को आदेश दिया था कि वे जब गांवों में जाएं तो मोटरगाड़ी गांव के बाहर खड़ी करें, नहीं तो उसकी आवाज से गांव के बैल बिगड़ जाएंगे। पटेल का चिंतन गांवों की मिट्टी से रचा-पगा था तथा वे गांधी जी के अनुरूप ऐसे ही भारत के भविष्य का विचार करते थे।

गांधी जी का हस्तक्षेप

1920 से 1946 तक कांग्रेस के कुल 20 अधिवेशन हुए और सभी में (एक को छोड़कर-1939) गांधी जी की इच्छा से ही अध्यक्ष बनाए जाते थे। प्राय: ये सभी संवैधानिक अध्यक्ष होते, परंतु गांधी जी वास्तविक अध्यक्ष रहते थे। इसी भांति कांग्रेस संगठन पर सरदार पटेल का प्रभुत्व था। परंतु यह आश्चर्यजनक है कि गांधी जी सरदार पटेल की राय को उतना महत्व नहीं देते थे, इससे कई बार पटेल क्षुब्ध भी हुए। उदाहरण के लिए 1927 में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए सरदार पटेल का नाम आया, पर गांधी जी ने एक हिन्दू की बजाय एक मुसलमान को बनाया जाना उचित बतलाया (कलैक्टेड वक्र्स, भाग 34, पृ.57) 1928 में भी पटेल का नाम अध्यक्षता के लिए प्रस्तुत हुआ पर गांधी के हस्तक्षेप से वे न बन सके। 1929 में प्रांतीय समितियों से अध्यक्ष के लिए गांधी जी के पक्ष में पांच, पटेल के पक्ष में तीन तथा नेहरू के पक्ष केवल दो मत आए, परंतु गांधी जी ने नेहरू का समर्थन किया। गांधी जी ने कहा-पटेल मेरे साथ रहेगा तथा वह अगले वर्ष होगा। आखिरकार सरदार पटेल को अपना नाम वापस लेना पड़ा। 1931 में जबकि कांग्रेस से प्रतिबंध अभी पूरी तरह हटा न था, तब कराची अधिवेशन में सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाया गया। मार्च, 1936 में भी सरदार पटेल, डा.अंसारी व राजगोपालाचारी के प्रस्तावित नामों में से अध्यक्ष न बनाकर दूसरी बार नेहरू को अध्यक्ष बनाया। तीसरी बार नवम्बर, 1936 में नेहरू को अध्यक्ष बनाते समय गांधी जी ने एक पत्र में इसे देशहित में बतलाया (कलैक्टेड वक्र्स, भाग 62, पृ.50) कांग्रेस अध्यक्ष की दृष्टि से 1946 का चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण था क्योंकि तब अंतरिम सरकार बननी थी । और जो कांग्रेस अध्यक्ष बनता उसे ही आजाद भारत का प्रधानमंत्री बनाना था । 16 प्रांतीय समितियों में से 13 के मत पटेल के पक्ष में, 2 डा.राजेन्द्र प्रसाद के पक्ष में तथा 1 गांधी जी के पक्ष से आया। परंतु चौथी बार भी अपने प्रभाव का उपयोग करके गांधी जी ने पंडित नेहरू को अध्यक्ष बनाया। सम्पूर्ण कांग्रेस संगठन को गांधी जी की हठ के सामने झुकना पड़ा। पटेल इससे पूर्व 1936 में भी नेहरू के अध्यक्ष बनने तथा कार्यसमिति में दक्षिणपंथियों को हटाकर वामपंथियों को नियुक्त करने से नाराज थे तथा उन्होंने कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिया था। परंतु गांधी जी के कहने पर वे मान गये।

नेहरू को गद्दी क्यों सौंपी?

अब महत्वपूर्ण प्रश्न यही उभरकर आता है कि क्या गांधी जी का नेहरू को देश के भविष्य की बागडोर सौंपना उचित था? तथ्यों से तो यह भी लगता है कि वे नेहरू की मानसिक पृष्ठभूमि तथा तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की सोच से भी भलीभांति परिचित थे तथा राष्ट्रहित की बजाय अन्तरराष्ट्रीय जगत की घटनाओं तथा उनके अपेक्षित परिणामों से ज्यादा चिंतित थे। उन्होंने कहा था कि आज जवाहरलाल नेहरू का स्थान कोई अन्य नहीं ले सकता। वह हैरो का छात्र, कैम्ब्रिज का स्नातक तथा एक बैरिस्टर है तथा अंग्रेजों से बातचीत करने के लिए उपयुक्त है। (तेंदुलकर-महात्मा, भाग-आठ पृष्ठ-13) जे.बी.कृपलानी का निश्चित मत था कि गांधी जी पटेल की तुलना में नेहरू को अधिक चाहते थे। गांधी जी को लगता था कि सरकारी गाड़ी को चलाने के लिए दो बैल हैं-इसमें अन्तरराष्ट्रीय कार्य के लिए नेहरू तथा राष्ट्र के अन्तर्गत कार्यों के लिए पटेल होंगे (दुर्गादास, इंडिया फ्राम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर, पृ.230)। गांधी जी को लगता था कि पं.नेहरू यूरोप, चीन, रूस आदि गये हुए हैं तथा वहां की मनोरचना से परिचित हैं। साथ ही यह भी सम्भव है कि गांधी जी ब्रिटिश सरकार के नेहरू के प्रति उदार विचारों से भी परिचित हों। कांग्रेस नेताओं में नेहरू ही लार्ड वैवल, लार्ड माउंटबेटन तथा भारत मंत्री सर लारेंस के चहेते थे। इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री ऐटली ने नेहरू को गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहा था। विश्वविख्यात इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी से जब इस प्रश्न पर पूछा गया तो उन्होंने भी नेहरू के प्रति अंतरराष्ट्रीय रुचि को इसका कारण बताया। गांधी जी ने अपनी राजनीतिक विरासत सौंपते हुए कहा था "मेरे मरने के पश्चात जवाहर लाल मेरी ही बात बोलेगा।"

संक्षेप में नेहरू की लालसा, ब्रिटिश सरकार की चाहत तथा गांधी जी के नेहरू के प्रति मोह ने उन्हें भारत की भावी बागडोर नेहरू को देने के लिए उद्यत किया। अन्तरराष्ट्रीय राजनीति राष्ट्रीय हितों पर छा गई। गांधी जी के प्रति सम्मान ने राष्ट्र समर्पित लौहपुरुष सरदार पटेल को झुका दिया। अब यह प्रश्न आप सबके सोचने का है कि क्या यह गांधी जी की महान भूल नहीं थी?

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