भाड़े के विचारकों से सावधान - शशि शेखर



भाड़े के विचारकों से सावधान
शशि शेखर shashi.shekhar@livehindustan.com
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महर्षि वेद व्यास ने महाभारत  के स्वर्गारोहणपर्व में कहा है
ऊध्र्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे
धर्मादर्थश्च कामश्च स किर्मथ न सेव्यते।
(मैं अपने दोनों हाथ उठाकर कह रहा हूं, लेकिन मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से ही अर्थ और काम हैं, तो धर्म का पालन क्यों नहीं करते?)
ऋषि द्वैपायन अगर इस युग में पुनर्जन्म लें, तो उन्हें इससे भी अधिक दारुण अनुभव होंगे। उनके समय में लोकतंत्र नहीं था। उन दिनों राजा-महाराजा आपस में लड़ते थे। अब जम्हूरियत है और यहां नेता आपस में लड़ते-मरते हैं। दुर्गति तब भी प्रजा की होती थी और आज भी उसकी होती है। पहले महाभारत की बात करें। इस प्राचीनतम महायुद्ध में आर्यावर्त के हर परिवार को हानि उठानी पड़ी। कई विद्वानों का मानना है कि दहशत भरी जंग ने भारतीयों को इतना डरा दिया कि वे जंग के नाम से घबराने लगे। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि एक जागृत और स्वाभिमानी कौम खून-खराबे से डरने लगी। भारतीय इसी वजह से पीढ़ी-दर-पीढ़ी युद्ध भीरु होते गए और परदेसी आक्रमणकारी हम पर कब्जा जमाते गए। 15 अगस्त, 1947 को ऐसा लगा कि हम एक नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं। यह अर्धसत्य था। विक्टोरिया की हुकूमत का तो खात्मा हो गया था, पर नए राजघराने जन्म लेने वाले थे। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक नजर दौड़ा लीजिए। आपको ऐसे कई परिवार मिल जाएंगे, जिन्होंने जम्हूरियत को बंधक बना लिया है। वे दशकों से हुकूमत कर रहे हैं। उनके साथ कुछ पुराने राजा-महाराजा भी नए माहौल में खुद को ढालकर सत्ता के दावेदार बन गए हैं। है न कमाल? रजवाड़े राजनेता हो गए हैं और कई पार्टियां राजवंशों में तब्दील हो गई हैं।

सत्तामोह के इस अटूट सिलसिले का न कोई सिद्धांत है, न कायदा। इसीलिए सियासत काजल की एक ऐसी कोठरी बन गई है, जिसमें जो भी दाखिल होता है, वह कुछ दिनों बाद अपने दामन के उजलेपन की फिक्र छोड़ देता है। यही वजह है कि संसार के सबसे बड़े जनतंत्र में जनता की आवाज सुनने वाले बहुत कम लोग दिखाई देते हैं। और तो और, जो लोग जन-साधारण की आवाज बुलंद कर सत्ता की चौहद्दियों तक पहुंचते हैं, वे भी उन्हें कुछ दिनों में बिसरा देते हैं। हुकूमत की ड्योढ़ी में दाखिल होते ही ये लोग खुद को एक पुराने सामंत के तौर पर पेश करते हैं। उनके साथी भी चोला बदलकर अफगानिस्तान के ‘वारलॉर्डस’ की भूमिका में आ जाते हैं। जैसे अफगानिस्तान में किराये के सेनापतियों की निष्ठाएं बदलती रहती हैं, वैसे ही हिन्दुस्तानी राजनीति में नेता और उनके गुमास्ते सुविधानुसार नए घर तलाशते रहते हैं। इस दारुण दौर में दोस्ती और दुश्मनी के मायने बदल गए हैं।

एक बार फिर चुनाव सामने है। आप टेलीविजन पर विज्ञापन देख रहे होंगे। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने वंशानुगत नेता राहुल गांधी की छवि चमकाने में जुटी है। कभी संगठन को वंश और व्यक्ति से ऊंचा मानने वाली भारतीय जनता पार्टी भी नरेंद्र मोदी के पीछे जा खड़ी हुई है। मुलायम सिंह, मायावती, जयललिता, शरद पवार, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, जगनमोहन रेड्डी, करुणानिधि, बादल, अब्दुल्ला आदि परिवार या व्यक्ति ऐसे हैं, जिनकी पार्टियां कद में कितनी भी बड़ी हो गई हों, पर रहती अपने नेता की परछाईं के नीचे ही हैं। भाजपा भी, जो कभी अटल-आडवाणी और जोशी की तिकड़ी का हवाला देती थी, एक व्यक्ति पर केंद्रित हो गई है। और तो और, राजनीति में बदलाव के वायदे और दावे के साथ उतरी ‘आप’ अरविंद केजरीवाल के बिना क्या है? दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान जो पोस्टर लगाए गए, उसमें दो ही चीजें प्रमुख थीं- केजरीवाल और ‘झाड़।’ सवाल उठता है कि व्यक्तियों पर आधारित पार्टियां 121 करोड़ की आबादी वाले देश की सच्ची प्रतिनिधि कैसे हो सकती हैं? लोकतंत्र जब शख्सियत-तंत्र में तब्दील हो गया हो, तो सार्वजनिक जीवन में निष्ठा और पवित्रता की उम्मीद बेमानी है।

यही वजह है कि हर ओर से कीचड़ उछाली जा रही है। शब्दों की मर्यादाएं टूट गई हैं। राजनीतिक शिष्टाचार किसी पुरानी सभ्यता की तरह समय की गर्त में दब गए हैं। झूठे आरोपों और तौहीनों की बरसात हो गई है। एक दौर था, जब नेताओं का झूठ छोटे समूहों तक सीमित रहता था, पर सोशल मीडिया के इस ताल-ठोकू काल में सब गड्ड-मड्ड हो गया है। राजनेताओं ने करोड़ों रुपये खर्च कर ऐसे विचार पुरुष ढूंढ़ लिए हैं, जिनकी उंगलियां कंप्यूटर के की-बोर्ड, आंखें स्क्रीन पर और दिमाग खुराफातों के जंजाल में उलझा रहता है। इनके जरिये हर पल, हर क्षण सत्य की शाश्वतता भोथरी करने की कोशिशें की जा रही हैं। इन जालसाज हरकतों से पूरे देश में अविश्वास का माहौल पैदा हो गया है। पता ही नहीं लगता कि कौन सच बोल रहा है, कौन झूठ? सोशल मीडिया के ‘भृत्य योद्धाओं’ ने सबको चपेट में ले लिया है। ऐसा लगता है कि हर ओर शीशे ही शीशे हैं, जिनमें चेहरे नहीं, परछाइयां दीखती हैं। ये लोग खुद को सच्चा बताते हुए हर स्थापित प्रतिमा को तोड़ने पर आमादा हैं। इसका अंजाम क्या होगा? खुद को सत्पुरुष अथवा देवपुरुष बताने वाले लोग इस दुनिया पर पहले ही बहुत कहर ढा चुके हैं।

रूस के धूर्त ग्रिगोरी रासपुतिन का किस्सा बताता हूं। एक गरीब किसान के यहां जन्मे इस जालसाज ने तत्कालीन जार निकोलाई द्वितीय के हरम में प्रवेश पाने में सफलता प्राप्त कर ली थी। देखते ही देखते वह सत्ता सदन पर इतना हावी हो गया कि दरबारी लोग उसकी पलकों के इशारे से फैसले करने लगे। अंजाम क्या हुआ? रूस में क्रांति हुई। राज-परिवार को जान से हाथ धोना पड़ा और रक्तपात के उथल-पुथल भरे तमाम दिन गुजर जाने के बाद ही लेनिन सत्ता पर काबिज हो सके। यह तो थी देवपुरुष की हकीकत। अब खुद को सच्चाई का मसीहा बताने वाले जॉर्ज डब्ल्यू बुश का किस्सा भी सुन लीजिए। बुश पिता-पुत्र ने पूरी दुनिया को यह भरोसा दिला दिया था कि इराक के पास खतरनाक जानलेवा हथियार हैं। नतीजा? आधे से ज्यादा अरब देश अराजकता की चपेट में आ गए और छिटपुट फैले आतंकवाद ने अंतरराष्ट्रीय स्वरूप धारण कर लिया।

खुद हमारा इतिहास गवाह है कि सत्ता नायकों के ‘प्रोपेगेंडा’ की कीमत देश और निरीह देशवासियों को चुकानी पड़ती है। दुर्भाग्य से एक बार फिर हम उसी दौर में आ पहुंचे हैं। समय सतर्क रहने का है, क्योंकि काल जब तक न्याय करता है, तब तक बहुत से लोग अपनी गफलत की कीमत चुका चुके होते हैं।

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