इतिहास : मोदी की कसौटी शुरू कर चुका है




यह लेख पढ़  कर , आपको लगेगा कि आलोचना के स्तर  पर नरेन्द्र मोदी जी को मीडिया किस कदर तौलने में लगा हुआ है , चिंतन मंथन विश्लेषण  चाहिए , कोई सारभूत बात आपको समझ आये तो अवश्य बताएं ।

इतिहास, मोदी की कसौटी शुरू कर चुका है

जनसत्ता   /    कुमार प्रशांत
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नई दिल्ली। नरेंद्र मोदी के कंधों पर बैठ कर भारतीय जनता पार्टी ने जैसी ऊंचाई छूई है, उसका अनुमान किसे था! लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेताओं, संघ परिवारियों और उनके भोले विश्वासी साधारण कार्यकर्ताओं को यह याद दिलाने की, और बार-बार याद दिलाने की जरूरत है कि इतने सारे हंगामे, इतनी कटुता फैलाने और इतना उन्माद भड़काने (और इतनी बड़ी रकम फूंक देने के बाद भी, जिसका सही अनुमान कोई कभी नहीं लगा सकेगा! ) मोदी को सिर्फ इकतीस फीसद मतदाताओं का समर्थन मिला है। संसदीय लोकतंत्र का हमारा इतिहास बताता है कि 1957 से अब तक जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें सबसे कम मतदाताओं के समर्थन से बनी सरकार यही है। मोदी के पास अपने 282 सांसद ही हैं जो 1957 से अब तक किसी भी सरकार के सांसदों से कम हैं।
जिस नेहरू-परिवार को मोदी (और उनकी सुन-सुन कर दूसरे भाजपाई भी!) पानी पी-पीकर कोसते रहे, उस परिवार ने 1957 में 47.7 फीसद वोट के साथ कुल 494 सीटों में से 371 सीटें; 1962 में, जब जवाहरलाल नेहरू का सितारा ढल चुका था, कांग्रेस ने 44.7 फीसद वोट के साथ 494 सीटों में से 361 सीटें; 1967 में 40.8 फीसद वोट के साथ 520 सीटों में से 283 सीटें; 1971 में 43.7 फीसद वोट के साथ 518 सीटों में से 352 सीटें; 1980 में 42.7 फीसद वोट के साथ 529 सीटों में से 353 सीटें; 1984-85 में 48.1 फीसद वोट के साथ 414 सीटें जीती हैं। आज वोट इतने बंटे हुए हैं कि 18.5 फीसद वोट मिलता है भाजपा को तो वह 116 सीटें निकाल ले जाती है; 19.3 फीसद वोट पाकर कांग्रेस महज चौवालीस सीटें निकाल पाती है।
इन आंकड़ों का संकेत यह नहीं है कि हम मोदी की जीत को तुक्का बताएं! इनका संकेत यह है कि 282 या 336 सीटें मिलने से आप सरकार बनाने के अधिकारी तो हो जाते हैं, देश चलाने की स्वीकृति इतने से ही नहीं मिलती है। यह सच्चाई कांग्रेसियों से अधिक किसे पता है! 1971 में, कुल 518 सीटों वाली संसद में, 43.7 प्रतिशत वोट के साथ 352 सीटें जीत कर इंदिरा गांधी ने सरकार बनाई थी; अटल बिहारी वाजपेयी को उनमें दुर्गा नजर आने लगी थीं! तब किसे अंदाजा था कि यह अपार बहुमत महज दो-ढाई साल में घुटनों के बल बैठ जाएगा और सारे देश और संसद को जेलखाने में बदलने के बाद भी महान इंदिरा, 1977 में अपनी और अपने कुल की जमानत भी नहीं बचा पाएंगी?
संख्या महज अवसर देती है, अधिकार तो कमाना पड़ता है। भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के इस खाते में कोई रकम जमा नहीं है। विकास के जिस मॉडल का ढोल इतना पीटा गया उसकी पोल सबको पता थी- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी और खुद मोदी को भी। इसलिए तो विकास के नाम पर जो चुनाव अभियान शुरू किया गया था वह देखते-देखते जाति, संप्रदाय, नीच जाति, चाय बेचने वाला, चारित्रिक आक्षेप आदि तक ही नहीं पहुंचा, संवैधानिक संस्थाओं तक को आंखें दिखाने की हद तक गया!
विकास का  गुजरात-मॉडल हो या अमेठी का राहुल-मॉडल, सबकी पोल यही है कि वह प्रचार के काम आता है, प्रभाव के काम नहीं! गुजरात की नई मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल उस रोज टीवी पर खुलेआम स्वीकार कर रही थीं कि सारा गुजरात पीने के पानी की किल्लत से गुजर रहा है, कुछ खास हिस्से गंभीर किल्लत से गुजर रहे हैं। अब पीने के पानी की उपलब्धता तो विकास की सबसे बुनियादी कसौटी है! विकास का कैसा मोदी-मॉडल था वह, जो लगातार बारह सालों तक सत्ता अपने हाथ में रखने के बाद भी पानी का गिलास पूरा नहीं भर सका? अमेठी की सड़कें ऐसी हैं कि उन पर चलते हुए राहुल खुद लड़खड़ाने लगे हैं!
नहीं, यह मॉडल का सवाल नहीं है, यह सवाल इस सच्चाई को समझने और स्वीकार करने का है कि नारों के बल पर, खोखले नारों के बल पर भी आप सत्ता पा सकते हैं, लेकिन समाज नहीं चला सकते! तीन बार हो कि चार बार हो, आप कितनी बार मुख्यमंत्री बने, यह इतना ही बताता है कि चुनाव का तंत्र अपनी मुट्ठी में करने की कला दूसरों से ज्यादा आपको सधी है! आजादी के तीस सालों के बाद, 1977 में पहली बार केंद्र से कांग्रेस का एकाधिकार टूटा! क्या कोई कह सकता है कि उन तीस सालों में देश-समाज खुशहाल रहा? इसलिए आप सत्ता में कितने वक्त रहे, इससे कहीं ज्यादा जरूरी यह देखना है कि आप कैसे रहे?
अब रही बात नीच जाति और चाय बेचने वाले के प्रधानमंत्री बनने की, तो अगर यह कोई चमत्कार है या लोकतंत्र की मजबूती का प्रमाण है तो यह चमत्कार द्रविड़ आंदोलन ने तमिलनाडु  में बहुत पहले सिद्ध नहीं कर दिया था? हिसाब लगाएं विशेषज्ञ कि 1977 के बाद पिछड़ी जातियों से निकल कर कितने लोग सत्ता-समीकरण में अपनी जगह बना सके! बिहार के लालू यादव को हमने मोदी से कहीं ज्यादा अच्छी भाषा में लोकतंत्र का वह चमत्कार सुनाते नहीं सुना क्या कि उन जैसा भैंस चराने वाला मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा है और उड़नखटोला में उड़ता है? भैंस चराने वाला या कि चाय बेचने वाला या कि दून स्कूल या कि कैंब्रिज-ऑक्सफर्ड से पढ़ कर आने वाला लोकतंत्र के तंत्र की मदद से, कहीं भी, कुछ भी बन

सकता है लेकिन वह कोई नया नक्शा खींच सकें, यह तो समझ, ईमानदारी और साधना का सवाल है।
भारतीय जनता पार्टी के लोगों को इस बात का गहरा अहसास होना ही चाहिए कि इतिहास ने उनके सामने एक कोरा पन्ना खोल कर धर दिया है! त्रासदी यह है कि कागज ही कोरा नहीं है, वैकल्पिक सोच के संदर्भ में मन भी एकदम कोरा है। यहां-वहां से आवाजें आती हैं कि अब मोदी को अपने वादे पूरे करने हैं; कि अब उन्हें अपनी घोषित दिशा में काम करना है। लेकिन कोई बताए तो कि मोदी ने वादे क्या किए थे? इतने लंबे चुनावी हंगामे के दौरान कभी कोई दिशा या कार्यक्रम या योजना मोदी ने बताई हो तो कम-से-कम मेरे कानों पर तो वह बात आई नहीं!  दूसरी बातें छोड़िए, अरविंद केजरीवाल ने बार-बार एक ही सवाल तो राहुल और मोदी, दोनों से पूछा था कि आप सत्ता में आए तो अंबानी को गैस के कितने दाम देंगे? वह भी तो कोई नहीं बता सका!
गुजरात जैसे परंपरागत रूप से समृद्ध प्रांत में मोदीनुमा विकास का मॉडल पूंजी-केंद्रित हो सकता है लेकिन क्या वही मॉडल मिजोरम, मणिपुर या ओड़िशा में काम आएगा? मोदी ने बहुत बार कहा है कि कम-से-कम गवर्नमेंट और ज्यादा-से-ज्यादा गवर्नेंस उनका सिद्धांत है। अगर हम इसे समझने की कोशिश करें तो क्या हाथ आता है? गवर्नेंस मतलब नौकरशाही; गवर्नमेंट यानी दिशा-निर्देशक! गांधी ने भी कहा था कि वह सरकार सबसे अच्छी, जो सबसे कम शासन करती हो। इसे गवर्नेंस मानने की भूल हम न करें। यह दिशा-निर्देश है, जिसमें गांधी यह बताने की कोशिश करते हैं कि सरकार जितनी विकेंद्रित होगी, लोगों के ऊपर दिल्ली से शासन करने की जरूरत उतनी कम पड़ेगी। क्या मोदी इसकी संभावना परखना चाहते हैं? क्या पिछले पंद्रह सालों में गुजरात में इस दिशा में कोई संभावना बनाई गई?
मोदी का मॉडल तो उद्धारक का है!  सवा अरब से ज्यादा का यह मुल्क एक मसीहा के उद्धार करने से आगे बढ़ जाएगा, यह मान्यता जनता के स्तर पर जितनी भोली और निकम्मापन फैलाने वाली है, उतनी ही भयंकर है। इतनी ही खतरनाक यह सोच भी है कि कोई एक ही मॉडल है जो सारे देश में काम आएगा! कांग्रेस ने शुरू से यही गलती की और बीच-बीच में आने वाली दूसरे दलों की सरकारें भी उसकी ही नकल करती रही हैं। मोरारजी देसाई ने जब इंदिरा गांधी के उतारे जूते में पांव धरा या कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी के उतारे जूते में पांव धरा या कि अटल बिहारी वाजपेयी ने नरसिंह राव के उतारे जूते में पांव धरा तो क्या किसी को उस जूते ने काटा?
इन सबने पांव के नाप के जूते नहीं बनाए, जूते के नाप के पांव बना लिए! यह समझने के लिए कोई तैयार ही नहीं है कि आपने यह जो मॉडल खड़ा किया है वही है जो भ्रष्टाचार, अनैतिकता, कमीशनखोरी, निक्कमेपन आदि का जनक है। इसे समझने और रास्ता बदलने के लिए जिस राजनीतिक समझ और साहस की जरूरत है, वह कहीं नजर आती है क्या?
अगर मोदीजी की यह ईमानदार प्रतीति है कि वे सवा अरब भारतीयों के प्रतिनिधि हैं तो उन्हें यह प्रतीति भी होनी ही चाहिए कि क्या इनके साथ वह भारत है कि जिसमें बहुसंख्यक हिंदुओं के अलावा पारसी, सिख, दलित, मुसलमान, सिंधी आदि भी रहते हैं और पूरा अधिकार और सम्मान चाहते हैं, मांगते हैं और उसका दावा भी करते हैं? इन सबमें से कितने उनकी पार्टी में हैं? इनमें से कितनों को इस बार उन्होंने टिकट दिया था? कितनों को उनकी सरकार में जगह मिलेगी? इस शोर में बहुत सार नहीं है कि देश ने जाति, धर्म, संप्रदाय, भाषा आदि को भूल कर मोदीजी को वोट दिया। आंकड़े कुछ दूसरा सच भी बयान कर रहे हैं।
आम आदमी पार्टी की देखादेखी जैसे दूसरी पार्टियों ने कहीं-कहीं चुनाव-क्षेत्र विशेष घोषणापत्र जारी करने शुरू कर दिए हैं, वैसे ही विकास की योजनाओं और प्राथमिकताओं के भी कई मॉडल बनाने होंगे। योजना आयोग को भी और हर मंत्रालय को भी यह सख्त निर्देश देना होगा कि अपने वातानुकूलित कमरों में बैठ कर विकास की योजनाएं बनाने और कागजों पर ही उनकी फसलें उगाने का मॉडल रद्द कर दिया गया है। नया मॉडल विकास को धरती पर उतारने और लोग जिसे छू सकें वैसा बनाने का है। लोगों का मॉडल लोगों के बीच जाने और उनकी पहल से ही बनेगा। सरकार का काम उसकी सफलता सुनिश्चित करने और उसका रास्ता साफ करने भर का है। इसके लिए सरकार को भी और नौकरशाही को भी लोगों के बीच जाना और रहना होगा।
देश में थोक के भाव से बिखरे इतिहास के बौनों को भले रामदेव में गांधी-जेपी नजर आते हों; किसी को यह चुनावी सफलता सन सतहत्तर की सफलता से बड़ी नजर आती हो; कोई हिसाब लगा रहा हो कि तानाशाही को उखाड़ फेंकने के जेपी के आह्वान को भी मात्र इकतालीस फीसद वोट ही मिले थे, लेकिन इतिहास? वह तो इन खोखले तर्कों से आगे जाकर अभी से ही मोदी की कसौटी शुरू कर चुका है, सरकार बनते ही वह भी उसकी जद में आ जाएगी! हम अपनी नजरें खुली रख कर, उन्हें सच्ची और पूरी शुभकामनाएं देते हैं।

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