भगवान विष्णु का दशावतार मंदिर : देवगढ़ उत्तर प्रदेश




भगवान विष्णु का मंदिर
दशावतार मंदिर, देवगढ़, उत्तर प्रदेश

दशावतार मंदिर उत्तरी भारत का सबसे पुराना जाना माना मंदिर है और यह भगवान विष्णु को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि यह गुप्त काल में बना है। यह मंदिर अब बर्बादी की कगार पर है पर यहाँ आप भगवान विष्णु के दस अवतार के दर्शन कर सकते हैं और यही नहीं मंदिर के दरवाज़े पर आप गंगा और यमुना देवियों की नक्काशी की गयी है और वैष्णव पौराणिक कथाओं की पट्टी पर नक्काशी भी की गयी है।
मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ती नर नारायण तपस्या के आकार में है और दूसरी मूर्ती है जिसमें वह एक नाग पर लेटे हैं। यह मंदिर हिन्दू श्रद्धालुओं को पूरे साल खासकर त्यौहार के समय भारी मात्रा में अपनी ओर आकर्षित करता है। उत्तरी भारत में स्थित यह पहला मंदिर है जिसमें शिकारा की सुविधा है जबकि अब काफी कुछ विलुप्त होता जा रहा है।
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देवताओं का गढ़ – देवगढ़ (उत्तर प्रदेश)
ललितपुर से हमें गाड़ी पकड़नी थी जो पाँच घंटे विलंब से आने वाली थी. वहीं बैठे रहते तो रात आठ बजने वाले थे. हम तो दिन के बारह बजे के पहले ही पहुँच गये थे. हमने सोचा कि अब क्या करें. भला हो हमारे ड्राइवर का जो हमारी रुझान से परिचित था. उसी ने कहा चलिए साहब अपन देवगढ़ हो आते हैं. और हम लोग निकल पड़े. ललितपुर, उत्तर प्रदेश (दिल्ली – चेन्नई मुख्य रेल मार्ग पर) से मात्र 33 किलोमीटर दक्षिण मे एक रमणीय स्थल है, देवगढ़. पहाड़ी पर प्राचीन मंदिरों के अतिरिक्त ऊँची चट्टानों के नीचे घूमती हुई बेतवा नदी एक अनोखी छटा प्रस्तुत करती है. इतना मनोरम है कि आप देखते ही रह जाएँगे और आँखें नहीं थकेंगी. इस प्रकार का प्राकृतिक दृश्य हमने केवल एक जगह और देखी है वह है सांची के पास सतधारा जहाँ पहाड़ियों के नीचे से बेस नदी बहती दिखती है.

पहाड़ी के ऊपर की समतल भूमि पर अनेकों मंदिर बने हुए हैं. बहुत सारे तो ध्वस्त हो गये हैं. एक तरफ कुछ भग्नावशेष दिखे जिसे वराह का मंदिर बताया गया, इसका केवल चबूतरा बचा हुआ है. यहाँ कहा जाता है कि कुल 40 जैन मंदिर और थे जिनमे से आज भी छोटे बड़े मिलाकर कुल 31 बचे हुए हैं.   शांतीनाथ जी का मंदिर इन सबमें उल्लेखनीय है. यहाँ मनौती के रूप में खंबों का निर्माण करवाए जाने की परंपरा रही है जिन्हें “मनस्थम्भ” कहा जाता है. ऐसे ही मनौती में शिलाखंड (आयपट्ट) दिए जाने की भी प्रथा थी. यहाँ चारों तरफ से दिखने वाली “सर्वतोभद्र” प्रतिमा तथा 1000 जैन मुनियों की आकृति उकेरी हुई “सहस्त्रकूट” खंबे विशिष्‍ट हैं. लगभग 8 वीं से 17 वीं शताब्दी तक यह स्थल जैन मतावलंबियों (दिगंबर) का एक केन्द्र रहा है.  यहाँ चट्टानों को काट कर बनाए गये गुफा मंदिर (सिद्ध की गुफा), राजघाटी, नहरघाटी आदि भी हैं. बेतवा नदी पहाड़ियों के नीचे बहती है और नीचे जाने के लिए पत्थरों को काट कर सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं. सीढ़ियों से नीचे उतरते समय बाईं तरफ चट्टानों को तराश कर छोटे छोटे कमरे बना दिए गये हैं जिनमे जैन मुनि एकांत में प्रकृति का आनंद लेते हुए अपनी साधना में निमग्न हुआ करते थे. चट्टानों पर लगभग 8 वीं शताब्दी की ब्राहमी लिपि में कई जगह लेख भी खुदे हैं.

हम नीचे नदी तक जाकर वापस लौट आए. फिर ऊपर के दृश्यों को मन में समेटने का प्रयास किया. पूरा इलाका जंगल की तरह झाड़ झंकाड़ से भरा था. ऊंचे घाँस भी उग आए थे. सारांश यह कि रख रखाव का कही नाम नहीं था. कुछ समय बिताकर हमारी वापसी की यात्रा प्रारम्भ हुई. कुछ ही दूर जाना हुआ था कि एक और मन्दिर दिख पड़ा, बिल्कुल जाना पहचाना. हम रुक गए और अवलोकन किया उस गुप्त कालीन मन्दिर का,  जिसके शिखर के कई पत्थर धराशायी हो चुके थेcolumn.  यहाँ यह बताना उचित होगा कि भारत में प्रारम्भ में देवताओं के लिए आश्रय स्थली के रूप में कंदराओं में जगह दी जाती थी जिसके अच्छे उदहारण हैं बराबर (गया), अजंता और एल्लोरा के गुफा मन्दिर. गांवों में तो पेड़ों के नीचे ही देव प्रतिमाएँ विश्राम करती थी, जो आज भी देखा जा सकता है लेकिन  फ़िर उनपर तरस आ गया. सर्व प्रथम मैदानी भूभाग में देवता के आश्रय स्थल के रूप में मढिया जैसे चौकोन, शिखर विहीन समतल छत वाले मंदिरों का निर्माण हुआ. फ़िर भक्तों का ख्याल आया तो आगे एक छोटा मंडप जोड़ दिया. 3 री 4 थी सदी के मंदिरों की प्रारंभिक अवस्था के  उदाहरण साँची तथा जबलपुर के पास तिगवा में अभी भी विद्यमान हैं. (लिंक पर क्लिक करने पर मन्दिर का चित्र दिखेगा). इसे हम मन्दिर निर्माण कला की शैशव अवस्था कह सकते हैं. तीसरे चरण में मन्दिर को टोपी पहनाई गई. अर्थात छोटे शिखर बनाये जाने लगे. देवगढ़ का यह, लाल बलुआ पत्थर से बना मन्दिर विष्णु को समर्पित है और “दशावतार” मन्दिर  कहलाता है. यह शिखरयुक्त “पंचायतन” शैली में बने मंदिरों में प्राचीनतम है जिसका निर्माण लगभग सन 470 में भारतीय इतिहास के उस स्वर्ण युग में हुआ था.

एक ऊँचे चबूतरे पर चढ़ कर जब प्रवेश द्वार पर पहुँचते हैं तो हमें द्वार के दोनो ओर बनी गंगा और यमुना की मूर्तियाँ सहज ही आकृष्ट करती है. गर्भगृह के अंदर प्रवेश संभव नहीं था अतः हमें मंदिर की परिक्रमा कर ही संतुष्ट होना पड़ा. मंदिर के चारों ओर पौराणिक कथाओं को अभिव्यक्त करती dancing-ganaमूर्तियों से सजाया गया है. गजेन्द्र मोक्ष, नर नारायण तपस्या तथा शेषासाई विष्णु की प्रतिमाएँ बहुत ही आकर्षक हैं. अचंभित करने वाला फलक विष्णु वाला है. विष्णु जी अपनी चिर परिचित मुद्रा में शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए हैं. ऊपर की ओर कार्तिकेय अपने मयूर पर आरूढ़, ऐरावत पर बैठे इन्द्र, कमल पर ब्रह्माजी तथा नंदी पर उमा महेश्वर बैठे हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं. शैय्या के नीचे पहली बार पॅंच पांडवों को द्रौपदी सहित दर्शाया गया है. इसके पूर्व ऐसा किसी और मंदिर में नहीं हुआ है. 7 वीं या 8 वीं शताब्दी के कुछ शिव मंदिरों में पांडवों को ज़रूर दर्शाया गया है.  यादों को संजोए हम लोग संध्या 6 बजे तक

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देवगढ़ उत्तर प्रदेश राज्य के ललितपुर ज़िले से लगभग 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मध्य रेलवे के जाखलौन से 9 मील (लगभग 14.4 कि.मी.) की दूरी पर पड़ता है। यहाँ के प्राचीन स्मारक बहुत ही उल्लेखनीय हैं। देवगढ़ में दशावतार विष्णु भगवान का मध्ययुगीन मन्दिर है, जो स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

इतिहास
देवगढ़ का इतिहास में बहुत ही ख़ास स्थान रहा है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्य दर्शनीय स्थलों में मुख्य हैं- सैपुरा ग्राम से 3 मील (लगभग 4.8 कि.मी.) पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक चतुष्कोण कोट, नीचे मैदान में एक भव्य विष्णु का मंदिर, यहाँ से एक फलांग पर वराह मंदिर, पास ही एक विशाल दुर्ग के खंडहर, इसके पश्चात दो और दुर्गों के भग्नावशेष, एक दुर्ग के विशाल घेरे में 31 जैन मंदिरों और अनेक भवनों के खंडहर।

दशावतार विष्णु मंदिर
देवगढ़ में सब मिला कर 300 के लगभग अभिलेख मिले हैं, जो 8वीं शती से लेकर 18वीं शती तक के हैं। इनमें ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी द्वारा अंकित अठारह लिपियों का अभिलेख तो अद्वितीय ही है। चंदेल नरेशों के अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। देवगढ़ बेतवा नदी के तट पर स्थित है। तट के निकट पहाड़ी पर 24 मंदिरों के अवशेष हैं, जो 7वीं शती ई. से 12वीं शती ई. तक बने थे। देवगढ़ का शायद सर्वोत्कृष्ट स्मारक 'दशावतार का विष्णु मंदिर' है, जो अपनी रमणीय कला के लिए भारत भर के उच्च कोटि के मंदिरों में गिना जाता है। इसका समय छठी शती ई. माना जाता है, जब गुप्त वास्तु कला अपने पूर्ण विकास पर थी। मंदिर का समय भग्नप्राय अवस्था में है, किन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में इसमें अन्य गुप्त कालीन देवालयों की भांति ही गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ रहा होगा। इस मंदिर के एक के बजाए चार प्रवेश द्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप तथा सीढ़ियां थीं। चारों कोनों में चार छोटे मंदिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक सीढ़ियों की पंक्ति के पास एक गोखा था। मुख्य मंदिर के चतुर्दिक कई छोटे मंदिर थे, जिनकी कुर्सियाँ मुख्य मंदिर की कुर्सी से नीची हैं। ये मुख्य मंदिर के बाद में बने थे। इनमें से एक पर पुष्पावलियों तथा अधोशीर्ष स्तूप का अलंकरण अंकित है। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मंदिरों में भी प्रचुरता से प्रयुक्त है।

गुप्त वास्तुकला का प्रभाव
दशावतार मंदिर में गुप्त वास्तु कला के प्रारूपिक उदाहरण मिलते हैं, जैसे, विशाल स्तम्भ, जिनके दंड पर अर्ध अथवा तीन चौथाई भाग में अलंकृत गोल पट्टक बने हैं। ऐसे एक स्तम्भ पर छठी शती के अंतिम भाग की गुप्त लिपि में एक अभिलेख पाया गया है, जिससे उपर्युक्त अलंकरण का गुप्त कालीन होना सिद्ध होता है। इस मंदिर की वास्तु कला की दूसरी विशेषता चैत्य वातायनों के घेरों में कई प्रकार के उत्कीर्ण चित्र हैं। इन चित्रों में प्रवेश द्वार या मूर्ति रखने के अवकाश भी प्रदर्शित हैं। इनके अतिरिक्त सारनाथ की मूर्तिकला का विशिष्ट अभिप्राय स्वस्तिकाकार शीर्ष सहित स्तम्भयुग्म भी इस मंदिर के चैत्यवातायनों के घेरों में उत्कीर्ण है। दशावतार मंदिर का शिखर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरचना है। पूर्व गुप्त कालीन मंदिरों में शिखरों का अभाव है।

देवगढ़ के मंदिर का शिखर भी अधिक ऊँचा नहीं है, वरन् इसमें क्रमिक घुमाव बनाए गए हैं। इस समय शिखर के निचले भाग की गोलाई ही शेष है, किन्तु इससे पूर्ण शिखर का आभास मिल जाता है। शिखर के आधार के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ की सपाट छत थी, जिसके किनारे पर बड़ी व छोटी दैत्य खिड़कियाँ थीं, जैसा कि महाबलीपुरम के रथों के किनारों पर हैं। द्वार मंडप दो विशाल स्तम्भों पर आधृत था। प्रवेश द्वार पर पत्थर की चौखट है, जिस पर अनेक देवताओं तथा गंगा और यमुना की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर की बहिर्भित्तियों के अनेक विशाल पट्टों पर गजेन्द्रमोक्ष, शेषशायी विष्णु आदि के कलात्मक मूर्ति चित्र अंकित हैं। मंदिर की कुर्सी के चारों ओर भी गुप्त कालीन मूर्तिकारी का वैभव अवलोकनीय है। रामायण और कुष्ण लीला से संबंधित दृश्यों का चित्रण बहुत ही कलापूर्ण शैली में प्रदर्शित है।

अन्य स्थल
देवगढ़ के अन्य मंदिरों में गोमटेश्वर, भरत, चक्रेश्वरी, पद्मावती, ज्वालाभालिनी, श्री, ह्री, तथा पंच परमेष्ठी आदि जैन तथा तांत्रिक मूर्तियों का सुंदर प्रदर्शन है। दूसरे दुर्ग से पहाड़ी में नदी तक काटकर बनाई हुई सीढ़ियों द्वारा नाहरघाटी व राजघाटी तक पहुँचा जा सकता है। मार्ग में पांच पांडवों की मूर्तियां, जिन प्रतिमाएं, शैलकृत सिद्ध गुहा तथा गुप्त कालीन अभिलेख मिलते हैं।

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