राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : परम पूज्य डा0 हेडगेवार जी


सारा समाज उस रंग को देख सिर झुकाता है
04 Oct 2014  
प्रशांत बाजपेई

यह जरूरी नहीं कि जिस क्षण इतिहास रचा जा रहा हो, उस क्षण उसकी महत्ता को भी समझा जाए। ऐतिहासिक विजय की ओर बढ़ती किसी क्रिकेट टीम, युद्घ के मैदान में निर्णायक बढ़त लेती सेना की किसी टुकड़ी, या तख्त की ओर प्रथम बार बढ़ते किसी बादशाह को यह अहसास होता होगा कि कोई तारीख बनने जा रही है, परंतु संघ की प्रथम शाखा में आए सामान्य पृष्ठभूमि के चंद किशोरों को इस बात की तनिक भी अनुभूति नही थी कि वह किसी नवयुग के प्रारंभ के साक्षी बने हुए हैं। संघ का जन्म एक गुमनाम घटना थी। वैसे भी सृजन अंधेरे से ही प्रारंभ होता है। बीज धरती के अंधकार में अंकुरित होता है। जीव माँ के गर्भ में विकसित होता है। संघ भी इसी प्रकार विकसित होता रहा। संघ को समझने के लिए संघ प्रवर्तक के जीवन पर दृष्टिपात करना उपयुक्त होगा। वैसे संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के कार्य की विलक्षणता को सही अर्थों मे वही समझ सकता है, जिसे सार्वजनिक जीवन में काम का कुछ अनुभव हो। आज भी विस्मय होता है, कि किशोरावस्था से ही स्वतंत्रता संग्राम में तपता आ रहा व्यक्ति, जिसने क्रांतिकारी जीवन, तत्कालीन कांग्रेस और सार्वजनिक जीवन के अनेक मंचों पर कार्य करने का अनुभव लिया हो, जब जीवन के 36 वसंत देखने के बाद राष्ट्र के नवनिर्माण का यज्ञ प्रारंभ करता है, तो अनगढ़, अनुभवहीन किशोरों पर विश्वास करता है। बाल्यकाल से अत्यंत उग्र देशभक्त केशव ने छत्तीस वर्ष की आयु में राष्ट्रीय चरित्र से संपन्न सामर्थ्यशाली युवकों को तैयार करने का जो काम हाथ में लिया था, उसमें एक माँ जैसे हृदय और वृद्घ पिता जैसी परिपक्वता की आवश्यकता थी, साथ ही एक चिरयुवा मन आवश्यक था। आने वाले समय में संघ के स्वयंसेवकों के कतृर्त्व ने यह सिद्घ किया कि डॉ़ हेडगेवार के पास ये सारे गुण थे। स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा गया है, कि जब वे एक सामान्य संन्यासी की तरह भारत भ्रमण कर रहे थे, तब भी इस अनुभवहीन युवा यति की प्रतिभा का छिपना कठिन था जैसे भभूति लपेटे महादेव का तेज छिप नहीं सकता वैसे ही गुमनाम, साधनहीन परंतु अनुुशासनबद्घ राष्ट्रभक्त दीवानों का यह संगठन सभी प्रकार के प्रचार से दूर रहकर भी जनमानस में स्थान बनाता गया, और भारत सफलता के छोटे बड़े कदम रखता गया। लेकिन यह सफलता यूँ ही नहीं आई थी। ''प्रत्येक दिन कम से कम एक घंटा देश के लिए दो'' इस आह्वान के साथ डॉ़ हेडगेवार ने जो कार्यपद्घति सामने रखी वह रामबाण साबित हुई। स्नेह के रेशों से मिलकर बने ध्येय के धागे पर संघ को गूंथा गया था। ऐसा न होता, तो राष्ट्र के लिए जीवन खपा देने वाले अनगिनत अनाम युवाओं की श्रंृखला न खड़ी होती।
डॉ़ हेडगेवार ने सामूहिक नेतृत्व, सामूहिक उत्तरदायित्व और सर्वसम्मति की कार्यशैली को व्यावहारिक रूप प्रदान किया। संघ का प्रत्येक सदस्य स्वयंसेवक होता है। औपचारिक व्यवस्थाएँ संगठन को सुचारु रूप से चलाने मात्र तक सीमित होती हैं, जबकि संघ की वास्तविक शक्ति अनौपचारिक व्यवहार में केंद्रित है। इसलिए यहाँ 'पद' नहीं 'दायित्व' होते हैं। संघ को बाहर से देखने वालों के लिए सबसे अबूझ पहेली यही है कि यहाँ शक्ति का केंद्र अपरिभाषित या अदृश्य रहता है। इन बातों को सरल रूप में समझने के लिए डॉ़ हेडगेवार द्वारा 1933 में की गई घोषणाओं को देखना चाहिए -
- इस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्मदाता अथवा संस्थापक मैं न होकर आप सब हैं - यह मैं भलीभांति जानता हूँ।
- आपके द्वारा स्थापित संघ का, आपकी इच्छा के अनुसार, मैं एक धाय का कार्य कर रहा हूँ।
- मैं यह काम आपकी इच्छा एवं आज्ञा के अनुसार आगे भी करता रहूँगा तथा ऐसा करते समय किसी भी प्रकार के संकट अथवा मान-अपमान की मैं कतई चिंता नहीं करूंगा।
- आपको जब भी प्रतीत हो कि मेरी अयोग्यता के कारण संघ की क्षति हो रही है तो आप मेरे स्थान पर दूसरे योग्य व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वतंत्र हैं।
- आपकी इच्छा एवं आज्ञा से जितनी सहर्षता के साथ मैंने इस पद पर कार्य किया है, इतने ही आनंद से आपके द्वारा चुने हुए नए सरसंघचालक के हाथ सभी अधिकार सूत्र समर्पित करके उसी क्षण से उसके विश्वस्त स्वयंसेवक के रूप में कार्य करता रहूँगा।
- मेरे लिए अपने व्यक्तिगत के मायने नहीं हैं, संघ कार्य का ही वास्तविक अर्थ में महत्व है। अत: संघ के हित में कोई भी कार्य करने में मैं पीछे नहीं हटूँगा।
- संघ की आज्ञा का पालन स्वयंसेवकों द्वारा बिना किसी अगर-मगर के होना अनुशासन एवं कार्य प्रगति के लिए आवश्यक है। 'नाक से भारी नथ' इस स्थिति को संघ कभी उत्पन्न नहीं होने देगा। यही संघकार्य का रहस्य है।
- अत: प्रत्येक स्वयंसेवक स्वेच्छा से आज्ञा पालन करके दूसरे स्वयंसेवकों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करे, यह स्वयंसेवक का कर्तव्य है।
इन घोषणाओं में डॉ़ हेडगेवार ने जो कुछ कहा उनका अक्षरश: पालन किया। साथ ही अपने जीवन और अपनी देह को संगठन के कार्य में खपा दिया।
संगठन संघ की देह है, परंतु आत्मा हिंदुत्व है। संघ का जब जन्म हुआ, तब देश के वातावरण में खिलाफत आंदोलन के मजहबी उन्माद का जहर घुल चुका था। मुस्लिम लीग अंगेजों और कांगे्रस के साथ निर्लज्ज मोलभाव कर रही थी, और दोनों ही लीग को रिझाने में लगे थे। हिंदुत्व के प्रखर ध्वजवाहक स्वामी श्रद्घानंद की हत्या हो चुकी थी, और गाँधी जैसे विशाल कद के नेता इस हत्याकांड की निंदा तक करने में असमर्थ हो रहे थे। हिंदू नाम-हिंदू पहचान को लेकर तत्कालीन नेतृत्व में जिस प्रकार की उपेक्षा, नैराश्य और समझौतावादी रुख था, उसके कारण हिंदू संगठन की बात करने पर भी विरोध होने लगता था। ऐसे समय डॉ़ हेडगेवार ने निर्भयतापूर्वक कहा कि ''भारत हिंदू राष्ट्र है''। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह किसी संप्रदाय विशेष की आक्रामकता की प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि सर्वसमावेशी व उदार प्राचीन हिंदू विचार की अभिव्यक्ति है। हिंदुत्व के इसी आधार ने संघ के स्वयंसेवकों को नयी परिस्थितियों व समय के हिसाब से ढलने का लचीलापन दिया है। बुद्घि को विस्तार और हृदय की विशालता दी है, जिसकी कार्यरूप में परिणति ने मानव क्षमता के नये आयाम और मापदंड खड़े किए हैं।

निरंतर चल रहा हवन

संघ के उद्भव को दो दशक ही बीते थे, कि स्वतंत्रता के साथ देश के विभाजन की विपदा भी आई। मारकाट मची। पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में फँसे लाखों हिंदू परिवारों के प्राण और सम्मान संकट में पड़ गए। तब संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी सारी शक्ति लगाकर लाखों प्राणों की रक्षा की। बचाए गए लोगों में अनेक मुस्लिम परिवार भी शामिल थे। वषोंर् तक पुनर्वास के कार्य भी चलते रहे। स्वतंत्रता के बाद सत्ता में आई सरकार के कुछ लोगों ने संघ को अपना शत्रु मानकर दमनचक्र चलाया, परंतु गाँधी हत्या के झूठे आरोप से लेकर आपातकाल में लगाए प्रतिबंध तक, संघ सदा निदार्ेष निकलकर सामने आया एवं और भी प्रखर होकर उभरा। 1947 में कश्मीर पर हुआ कबायली हमला हो या चीन का आक्रमण या 1965 अथवा 1971 का भारत पाक युद्घ, संघ के स्वयंसेवक सेना के जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। स्वयंसेवकों के इस राष्ट्रीय चरित्र को देख विरोधी भी समय-समय पर संघ के मुरीद होते रहे। यही कारण था कि जो पं़ नेहरू कहते थे कि संघ के लोगों को उनका झंडा लगाने के लिए एक इंच जमीन नही देंगे, उन्हीं पं़ नेहरू ने संघ के स्वयंसेवकों को 1962 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने को आमंत्रित किया था। जब कभी कोई प्राकृतिक आपदा हो, दुर्घटना हो या मानव निर्मित त्रासदी, हो संघ का स्वयंसेवक बिन बुलाए पहुँच जाता है, चुपचाप राहत कार्य करता है और लौट जाता है।
1972-73 में महाराष्ट्र के साढ़े चार हजार गाँव अकाल की चपेट में आए। स्वयंसेवकों ने 'महाराष्ट्र दुष्काल विमोचन समिति' बनाकर साढ़े चार लाख लोगों को काल के मुँह से बचाया। 1964 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में दंगों से त्रस्त होकर 36,000 नर नारियों का पुनर्वास किया। 1966 के बिहार के अकाल में 700 गाँवों में हजारों कुंतल अनाज का वितरण किया। नवंबर 1977 में आंध्र के तटवर्ती इलाके में भयंकर चक्रवात आया। 20 हजार लोग मारे गए। अगले दिन सुबह होते होते संघ के स्वयंसेवक वहाँ पहुँच गए। मनुष्यों व पशुओं के सड़ रहे शवों के बीच, जहाँ सरकारी तंत्र के हाथ पैर और मस्तिष्क सुन्न हो रहे थे, वहाँ स्वयंसेवकों ने अपनी मेहनत से नवजीवन की आशा का संचार किया। स्वयंसेवकों के इस कार्य को देख वयोवृद्घ सवार्ेदय नेता श्री प्रभाकर राव बोल पड़े कि 'आऱएस़एस को नया नाम दिया जाना चाहिए-रेडी फॉर सेल्फलेस सर्विस: नि:स्वार्थ सेवा के लिए तत्पर' ऐसे न जाने कितने प्रसंग आए। गत वर्ष उत्तराखंड में हुई विनाशलीला हो या इसी सितंबर माह में जम्मू-कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़, स्वयंसेवकों ने सेवा का मोर्चा संभाला हुआ है। ये अलग बात है, कि ये बातें मीडिया की सुर्खियों में जगह नहीं बनातीं।
केरल में पाकिस्तान की शह पर मोपलिस्तान बनाने का षड्यंत्र हो, या कश्मीर अथवा पंजाब में चलाया गया अलगाववाद का षड्यंत्र, स्वयंसेवकों ने संगीनों के आगे अपनी छाती अड़ाई है। निज़ाम के भारत विरोधी षड्यंत्रों से सामना हो, या गोवा की मुक्ति का संघर्ष हो, स्वयंसेवकों ने प्राण न्योछावर किए हैं। सामाजिक समरसता का वातावरण बनाने की दिशा में संघ निरंतर कार्य कर रहा है। छुआछूत और जातिगत भेदभाव दूर करने के संघ के प्रयासों की प्रशंसा स्वयं डॉ़ अंबेडकर और महात्मा गाँधी कर चुके हैं। आज भी संघ के कार्यकर्ता गाँव-गाँव संदेश दे रहे हैं, कि हमारा कुआं, मंदिर और श्मशान एक होना चाहिए।' आज संघ के स्वयंसेवक देश में 1,38,667 सेवा के प्रकल्प चला रहे हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्राम विकास, पर्यावरण रक्षा, वंचित वर्ग का सशक्तिकरण, स्वावलंबी समाज का निर्माण कोई क्षेत्र स्वयंसेवकों के पराक्रम से अछूता नहीं है। नित्यशाखा के माध्यम से अपनी संस्कृति का गौरव जाग्रत करके, संस्कार देकर सामान्य देशवासियों से असामान्य कार्य करवाया जा सकता है, यह संघ ने प्रत्यक्ष प्रमाणित किया है। सन्यासी का भगवा वस्त्र उसके त्याग का प्रतीक होता है, सारा समाज उस रंग को देख सिर झुकाता है। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने स्वयं संन्यास लेने के पश्चात् भी सामाजिक क्षेत्र में काम करने का उद्देश्य लेकर भगवा वस्त्र धारण नहीं किए।
संघ के संस्थापक डॉ़ हेडगेवार को स्वामी सत्यमित्रानंद जी 'श्वेत वस्त्र युक्त संन्यासी' कहते आए हैं। इसी गंगोत्री से देश के लिए सबकुछ करके अनाम बने रहने की परंपरा प्रारंभ हुई है। इसीलिए संघ का अपने स्वयंसेवकों को संदेश है, कि संघ को समाज में अलग संगठन खड़ा नहीं करना है, बल्कि समाज का संगठन करना है। देश के लिए सब कुछ करना है, और श्रेय समाज के खाते में डालना है। 

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