स्वामी रामकृष्ण परमहंस - सुरेन्द्र दुबे



                                                स्वामी रामकृष्ण परमहंस

- सुरेन्द्र दुबे 
साभार 
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एक मनुष्य जिसने भाषण और वक्तव्य दिए बिना, सभा-सम्मेलनों में शास्त्रार्थ किए बिना, केवल अपने आचरण और अपनी अनुभूतियों के बल पर सिद्ध कर दिया कि हिन्दुत्व का केवल वेद-उपनिषद् वाला ही नहीं बल्कि वह रूप भी पूर्ण सत्य है जिसका आख्यान पुराणों व संतों की जीवनियों में मिलता है।

उसने हिन्दुत्व की रक्षा अन्य धर्मों को पछाड़कर नहीं, प्रत्युत उन्हें अपना बनाकर की। हिन्दुत्व, इस्लाम और ईसाइयत पर उसकी श्रद्धा एक समान थी। ऐसा इसलिए क्योंकि उसने बारी-बारी से सबकी साधना करके एक ही परम-सत्य का साक्षात्कार किया था। साथ ही नरेन्द्र नामक एक नौजवान को स्वामी विवेकानंद बनाकर विश्वमंच पर प्रकाशित करने का पुरुषार्थ कर दिखाया।

इसी गुण की वजह से उनके जीवन-काल में ही उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। फलस्वरूप मैक्समूलर और रोम्यां रोला जैसे सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वानों ने उनकी जीवनी लिखकर स्वयं को धन्य कर लिया। गदाधर से सनातन परंपरा की साक्षात प्रतिमूर्ति रामकृष्ण परमहंस बनने तक की साधना पूरी करके दुनिया को चमत्कृत कर देने वाले ऐसे महात्मा रामकृष्ण परमहंस के जीवन-चरित से प्रेरणा लेकर अपना जीवन आलोकित करने की दिशा में प्रशस्त हों....।

रामकृष्ण बहुत-कुछ अनपढ़ मनुष्य थे, स्कूल के उन्होंने कभी दर्शन तक नहीं किए थे। वे न तो अंग्रेजी जानते थे, न वे संस्कृत के ही जानकार थे, न वे सभाओं में भाषण देते थे, न अखबारों में वक्तव्य। उनकी सारी पूंजी उनकी सरलता और उनका सारा धन महाकाली का नाम-स्मरण मात्र था।

दक्षिणेश्वर की कुटी में एक चौकी पर बैठे-बैठे वे उस धर्म का आख्यान करते थे, जिसका आदि छोर अतीत की गहराइयों में डूबा हुआ है और जिसका अंतिम छोर भविष्य के गहवर की ओर फैल रहा है। निःसंदेह रामकृष्ण प्रकृति के प्यारे पुत्र थे और प्रकृति उनके द्वारा यह सिद्ध करना चाहती थी कि जो मानव-शरीर भोगों का साधन बन जाता है, वही चाहे तो त्याग का भी पावन यंत्र बन सकता है।

द्रव्य का त्याग उन्होंने अभ्यास से सीखा था, किन्तु अभ्यास के क्रम में उन्हें द्वंदों का सामना करना नहीं पड़ा। हृदय के अत्यंत निश्छल और निर्मल रहने के कारण वे पुण्य की ओर संकल्प-मात्र से ब़ढ़ते चले गए। काम का त्याग भी उन्हें सहज ही प्राप्त हो गया। इस दिशा में संयमशील साधिका उनकी धर्मपत्नी माता शारदा देवी का योगदान इतिहास में सदा अमर रहेगा।

घर बैठे उन्हें गुरु मिलते गए। अद्वैत साधना की दीक्षा उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली, जो स्वयं उनकी कुटी में आ गए थे। तंत्र-साधना उन्होंने एक भैरवी से पाई जो स्वयं घूमते-फिरते दक्षिणेश्वर तक आ पहुंची थीं। उसी प्रकार इस्लामी साधना के उनके गुरु गोविन्द राय थे जो हिन्दू से मुसलमान हो गए थे। और ईसाइयत की साधना उन्होंने शंभुचरण मल्लिक के साथ की थी जो ईसाई धर्म के ग्रंथों के अच्छे जानकार थे।

सभी साधनाओं में रमकर धर्म के गूढ़ रहस्यों की छानबीन करते हुए भी काली के चरणों में उनका विश्वास अचल रहा। जैसे अबोध बालक स्वयं अपनी चिंता नहीं करता, उसी प्रकार रामकृष्ण अपनी कोई फिक्र नहीं करते थे। जैसे बालक प्रत्येक वस्तु की याचना अपनी मां से करता है, वैसे ही रामकृष्ण भी हर चीज काली से मांगते थे और हर काम उनकी आज्ञा से करते थे। कह सकते हैं कि रामकृष्ण के रूप में भारत की सनातन परंपरा ही देह धरकर खड़ी हो गई थी।

रामधारी सिंह दिनकर के मुताबिक रामकृष्ण परमहंस राम, शिव और काली की पूजा के साथ ही वेदांत में अडिग विश्वास रखते थे। वे प्रतिमापूजक थे, किन्तु, निरंजन और निराकार की पूर्णता का ज्ञान कराने में भी उनसे ब़ढ़कर कोई और माध्यम नहीं हो सकता। उनका धर्म आनंद था, उनकी पूजा समाधि थी, अहर्निश उनका समस्त अस्तित्व एक विचित्र विश्वास और भावना की ज्वाला से प्रदीप्त था।

दरसअल, उन्होंने साधनापूर्वक धर्म की जो अनुभूतियां प्राप्त की थीं, कालांतर में स्वामी विवेकानंद ने उनसे व्यावहारिक सिद्धांत निकाले। रामकृष्ण अनुभूति थे, विवेकानंद उनकी व्याख्या बनकर आए। रामकृष्ण दर्शन थे, विवेकानंद ने उनके क्रियापक्ष का आख्यान किया। रामकृष्ण और विवेकानंद एक ही जीवन के दो अंश, एक ही सत्य के दो पक्ष थे।

स्वामी निर्वेदानंद ने रामकृष्ण परमहंस को हिन्दू धर्म की गंगा कहा है, जो वैयक्तिक समाधि के कमंडलु में बंद थी। स्वामी विवेकानंद इस गंगा के भागीरथी हुए और उन्होंने देवसरिता को रामकृष्ण के कमंडलु से निकालकर सारे विश्व में फैला दिया। वस्तुतः हिन्दू धर्म में जो गहराई और माधुर्य है, रामकृष्ण परमहंस उसकी प्रतिमा थे। उनकी इन्द्रियां पूर्ण रूप से उनके वश में थीं।

रक्त और मांस के तकाजों का उन पर कोई असर न था। सिर से पांव तक वे आत्मा की ज्योति से परिपूर्ण थे। आनंद, पवित्रता और पुण्य की प्रभा उन्हें घेरे रहती थी। वे दिन-रात परमार्थ- चिन्तन में निरत रहते थे। सांसारिक सुख-समृद्धि, यहां तक कि सुयश का भी उनके सामने कोई मूल्य नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस के वचनामृत की धारा जब फूट पड़ती थी, तब बड़े-से- बड़े तार्किक अपने- आपमें खोकर मूक हो जाते थे। उनकी विषय प्रतिपादन की शैली ठीक वही थी जिसका आश्रय भारत के प्राचीन ऋषियों पार्श्वनाथ, बुद्ध और महावीर ने लिया था, और जो परंपरा से भारतीय संतों के उपदेश की पद्धति रही है।

वे तर्कों का सहारा कम लेते थे, जो कुछ समझाना होता उसे उपमाओं और दृष्टांतों से समझाते थे। संत सुनी-सुनाई बातों का आख्यान नहीं करते, वे तो आंखों-देखी बात कहते हैं, अपनी अनुभूतियों का निचोड़ दूसरों के हृदय में उतारते हैं। ऐसे सनातन परंपरा की साक्षात प्रतिमूर्ति कहे जाने वाले महात्मा रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर उन्हें नमन।

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