ईसाई धर्मांतरण का भारत पर आक्रमण


ईसाई धर्मांतरण का भारत पर आक्रमण तो ब्रिटिश शासन के आने से पूर्व ही हो गया था । ब्रिट्शि शासन में ये खूब फले फूले और स्वतंत्र भारत में भी जम  कर धर्मांतरण में लगे हुए हैं । कांग्रेस के सर्वोच्च पद पर ईसाई बर्चस्व के कारण ये अति उत्साही एवं आक्रामक कारी हो गए हैं । विदेशी धन , बहुराष्ट्रीय कंपनियों का परोक्ष सहयोग और मिडिया में धनबल से अपनी पकड़ के द्वारा ये लोग भारत की ,एकता को  भयंकर नुकसान पंहुचा रहे हैं । हिन्दू नामों से भी  ईसाई बनाना तो अब आम प्रचलन हो गया है ।

Pope John Paul II meets Rajiv Gandhi and Sonia Gandhi on 01 February 1986 in New Delhi.

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बाबा माधवदास की वेदना और ईसाई मिसनरियां

साभार: शंकर शरण
कई वर्ष पहले दूर दक्षिण भारत से बाबा माधवदास नामक एक संन्यासी दिल्ली में ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ प्रकाशन के कार्यालय पहुँचे। उन्होंने सीताराम गोयल की कोई पुस्तक पढ़ी थी, जिसके बाद उन्हें खोजते-खोजते वह आए थे। मिलते ही उन्होंने सीताराम जी के सामने एक छोटी सी पुस्तिका रख दी। यह सरकार द्वारा 1956 में बनी सात सदस्यीय जस्टिस नियोगी समिति की रिपोर्ट का एक सार-संक्षेप था। यह संक्षेप माधवदास ने स्वयं तैयार किया, किसी तरह माँग-मूँग कर उसे छपाया और तब से देश भर में विभिन्न महत्वपूर्ण, निर्णयकर्ता लोगों तक उसे पहुँचाने, और उन्हें जगाने का अथक प्रयास कर रहे थे। किंतु अब वह मानो हार चुके थे और सीताराम जी तक इस आस में पहुँचे थे कि वह इस कार्य को बढ़ाने का कोई उपाय करेंगे।

माधवदास ने देश के विभिन्न भागों में घूम-घूम कर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ स्वयं ध्यान से देखी थीं। उन्हें यह देख बड़ी वेदना होती थी कि मिशनरी लोग हिन्दू धर्म को लांछित कर, भोले-भोले लोगों को छल से जाल में फँसा कर, दबाव देकर, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर आदि विधियों से ईसाइयत में धर्मांतरित करते थे। सबसे बड़ा दुःख यह था कि हिन्दू समाज के अग्रगण्य लोग, नेता, प्रशासक, लेखक इसे देख कर भी अनदेखा करते थे। यह भी माधवदास ने स्वयं अनुभव किया। वर्षों यह सब देख-सुन कर अब वे सीताराम जी के पास पहुँचे थे। सीताराम जी ने उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने न केवल जस्टिस नियोगी समिति रिपोर्ट को पुनः प्रकाशित किया, वरन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की ऐतिहासिक क्रम में समीक्षा करते हुए ‘छद्म-पंथनिरपेक्षता, ईसाई मिशन और हिन्दू प्रतिरोध’ नामक एक मूल्यवान पुस्तिका भी लिखी। पर ऐसा लगता है कि हिन्दू उच्च वर्ग की की काहिली और अज्ञान पर शायद ही कुछ असर पड़ा हो।

उदाहरण के लिए, सात वर्ष पहले जब ‘तहलका’ ने साप्ताहिक पत्रिका आरंभ की तो अपना प्रवेशांक (7 फरवरी 2004) भारत में ईसाई विस्तार के अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र पर केंद्रित किया। इस के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक विदेशी चर्च संगठनों द्वारा भारी अनुदान, अनेक मिशनरी संगठनों के प्रतिनिधियों से बात-चीत, उनके दस्तावेज, मिशनरियों द्वारा भारत के चप्पे-चप्पे का सर्वेक्षण और स्थानीय विशेषताओं का उपयोग कर लोगों का धर्मांतरण कराने के कार्यक्रम आदि संबंधी भरपूर खोज-बीन और प्रमाण ‘तहलका’ ने जुटा कर प्रस्तुत किया था। किंतु उस पर भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों, प्रशासकों की क्या प्रतिक्रिया रही? कुछ नहीं, एक अभेद्य मौन! मानो उन्होंने कुछ न सुना हो। जबकि मिशनरी संगठनों में उस प्रकाशन से भारी चिंता और बेचैनी फैली (क्योंकि वे उस पत्रिका को संघ-परिवार का दुष्प्रचार बताकर नहीं बच सकते थे!)। उन्होंने तरह-तरह के बयान देकर अपना बचाव करने की कोशिश की। मगर हिन्दू समाज के प्रतिनिधि निर्विकार बने रहे! हमारे जिन बुद्धिजीवियों, अखबारों, समाचार-चैनलों ने उसी तहलका द्वारा कुछ ही पहले रक्षा मंत्रालय सौदों में रिश्वतखोरी की संभावना का पर्दाफाश करने पर खूब उत्साह दिखाया था, और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस समेत सबके इस्तीफे की माँग की थी। वही लोग उसी अखबार के इस पर्दाफाश पर एकदम गुम-सुम रहे। मानो इस में कोई विशेष बात ही न हो।

ठीक यही पचपन वर्ष पहले नियोगी समिति की रिपोर्ट आने पर भी हुआ था। जहाँ मिशनरी संगठनों में खलबली मच गई थी, वहीं हमारे नेता, बुद्धिजीवी, अफसर, न्यायविद सब ठस बने रहे। अंततः संसद में सरकार ने यह कह कर कि समिति की अनुशंसाएं संविधान में दिए मौलिक अधिकारों से मेल नहीं खाती, मामले को रफा-दफा कर दिया। कृपया ध्यान दें – किसी ने यह नहीं कहा कि समिति का आकलन, अन्वेषण, तथ्य और साक्ष्य त्रुटिपूर्ण है। बल्कि सबने एक मौन धारण कर उसे चुप-चाप धूल खाने छोड़ दिया। (उसके तैंतालीस वर्ष बाद, 1999 में, यही जस्टिस वधवा कमीशन रिपोर्ट के साथ भी हुआ, जिसने उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस की हत्या के संबंध में विस्तृत जाँच की थी)। हिन्दू सत्ताधारियों व बौद्धिक वर्ग की इस भीरू भंगिमा को देख कर सहमे हुए मिशनरी संगठनों का साहस तुरत स्वभाविक रूप से बढ़ गया। सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में उनकी गतिविधियाँ इतनी अशांतिकारक हो गईं कि उड़ीसा व मध्य प्रदेश की सरकारों को क्रमशः 1967 और 1968 में धूर्तता और प्रपंच द्वारा धर्मांतरण कार्यों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने पड़े। उस से माधवदास जैसे दुखियारों को कुछ प्रसन्नता मिली। मगर वह क्षणिक साबित हुई क्योंकि उन कानूनों को लागू कराने में किसी ने रुचि नहीं ली। जिन स्थानों में मिशनरी सक्रिय थे, वहाँ इन कानूनों को जानने और उपयोग करने वाले नगण्य थे। जबकि शहरी क्षेत्रों में जो हिन्दू यह सब समझने वाले और समर्थ थे, उन्होंने रुचि नहीं दिखाई कि इन कानूनों के प्रति लोगों को जगाकर चर्च के विस्तारवादी आक्रमण को रोकें।
एक अर्थ में आश्चर्य है कि ब्रिटिश भारत में मिशनरी विस्तारवाद के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध सशक्त था, जबकि स्वतंत्र भारत में यह मृतप्राय हो गया। 1947 से पहले के हमारे राष्ट्रीय विचार-विमर्श, साहित्य, भाषणों आदि में इस का नियमित उल्लेख मिलता है कि विदेशी मिशनरी भारतीय धर्म-संस्कृति को लांछित, नष्ट करने और भारत को विखंडित कर जहाँ-जहाँ संभव हो स्वतंत्र ईसाई राज्य बनाने के प्रयास कर रहे हैं। तब हमारे नेता, लेखक, पत्रकार अच्छी तरह जानते थे कि यूरोपीय साम्राज्यवाद और ईसाई विस्तारवाद दोनों मूलतः एक दूसरे के पूरक व सहयोगी हैं। इसलिए 1947 से पहले के राष्ट्रीय लेखन, वाचन में इस के प्रतिकार की चिंता, भाषा भी सर्वत्र मिलती है। किंतु स्वतंत्रता के बाद स्थिति विचित्र हो गई। स्वयं देश के संविधान में धर्म प्रचार को ‘मौलिक अधिकार’ के रूप में उच्च स्थान देकर मिशनरी विस्तारवाद को सिद्धांततः वैधता दे दी गई!

जबकि स्वतंत्रता से पहले गाँधीजी जैसे उदार व्यक्ति ने भी स्पष्ट कहा था कि यदि उन्हें कानून बनाने का अधिकार मिल जाए तो वह “सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे जो अनावश्यक अशांति की जड़ है”। पर उन्हीं गाँधी के शिष्यों ने, यह सब जानते हुए भी कि कौन, किन तरीकों, उद्देश्यों से धर्मांतरण कराते हैं, मिशनरियों को उलटे ऐसी छूट दे दी जो उन्हें ब्रिटिश राज में भी उपलब्ध न थी। देशी-विदेशी मिशनरी संगठनों को यह देख आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई, जो उन्होंने छिपाई भी नहीं! उन्होंने भारत को अपने प्रमुख निशाने के रूप में चिन्हित कर लिया। परिणामस्वरूप अंततः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अलगाववाद की आँच सुलग उठी। इसके पीछे असंदिग्ध रूप से मिशनरी प्रेरणाएं थीं।

इसी पृष्ठभूमि में हम बाबा माधवदास जैसे देशभक्तों की वेदना समझ सकते हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता ने हिन्दू धर्म-संस्कृति व समाज की सुरक्षा निश्चित करने के बदले, उल्टे उसे अपने हाल पर छोड़ दिया है। विदेशी, साम्राज्यवादी, सशक्त संगठनों को खुल कर खेलने से रोकने का कोई उपाय नहीं किया। उन का अवैध, धूर्ततापूर्ण खेल देख-सुन कर भी स्वतंत्र भारत के नेता, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी उस से मुँह चुराने लगे। नियोगी समिति ने जो प्रमाणिक आकलन किया था, उसका महत्व इस में भी है कि स्वतंत्र भारत के मात्र पाँच-सात वर्षों में मिशनरी धृष्टता कितनी बेलगाम हो चली थी। उस रिपोर्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उस की एक-एक बात और अनुशंसाएं आज भी उतनी ही समीचीन हैं। कम से कम हम उसे पढ़ भी लें तो बाबा माधवदास की आत्मा को संतोष होगा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में ईसाई मिशनरी संगठनों को भय था कि अब उन का कारोबार बाधित होगा। आखिर स्वयं गाँधीजी जैसे सर्वोच्च नेता ने खुली घोषणा की थी कि कानून बनाने का अधिकार मिलने पर वह सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे। किंतु मिशनरियों की खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि उन की दुकान बंद कराने के बदले, भारतीय संविधान में धर्मांतरण कराने समेत धर्म प्रचार को ‘मौलिक अधिकार’ के रूप में उच्च स्थान मिल गया है! इसमें किसी संदेह को स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने दूर कर दिया था। नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पत्र (17 अक्तूबर 1952) में स्पष्ट कर दिया, “वी परमिट, बाई अवर कंस्टीच्यूशन, नॉट ओनली फ्रीडम ऑफ कांशेंस एंड बिलीफ बट आलसो प्रोजेलाइटिज्म”। और यह प्रोजेलाइटिज्म मुख्यतः चर्च-मिशनरी करते हैं और किन हथकंडों से करते है, यह उस समय हमारा प्रत्येक नेता जानता था!

जब स्वतंत्र भारत का संविधान बन रहा था, तो संविधान सभा में इस पर हुई पूरी बहस चकित करने वाली है। कि कैसे हिंदू समाज खुली आँखों जीती मक्खी निगलता है। एक ही भूल बार-बार करता, दुहराता है, चोट खाता है, फिर भी कुछ नहीं सीखता! धर्मांतरण कराने समेत ‘धर्म-प्रचार’ को मौलिक अधिकार बनाने का घातक निर्णय मात्र एक-दो सदस्यों की जिद पर कर दिया गया। इसके बावजूद कि धर्म-प्रचार के नाम पर इस्लामी और ईसाई मिशनरियों द्वारा जुल्म, धोखा-धड़ी, रक्तपात और अशांति के इतिहास से हमारे संविधान निर्माता पूर्ण परिचित थे। इसीलिए संविदान सभा में पुरुषोत्तमदास टंडन, तजामुल हुसैन, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, हुसैन इमाम, जैसे सभी सदस्य ‘धर्म-प्रचार’ के अधिकार को मौलिक अधिकार में जोड़ना अनुचित मानते थे। फिर भी केवल “ईसाई मित्रों का ख्याल करते हुए” उसे स्वीकार कर बैठे! यह उस हिन्दू भोलेपन का ही पुनः अनन्य उदाहरण था जो ‘पर-धर्म’ को गंभीरता-पूर्वक न जानने-समझने के कारण इतिहास में असंख्य बार ऐसी भूलें करता रहा है।

इसीलिए स्वतंत्र भारत में मिशनरी कार्य-विस्तार की समीक्षा करते हुए जेसुइट मिशनरी फेलिक्स अलफ्रेड प्लैटर ने अपनी पुस्तक द कैथोलिक चर्च इन इंडियाः येस्टरडे एंड टुडे (1964) में भारी प्रसन्न्ता व्यक्त की। उन्होंने सटीक समझा कि भारतीय संविधान ने न केवल भारत में चर्च को अपना धंधा जारी रखने की छूट दी है, बल्कि “टु इनक्रीज एंड डेवलप हर एक्टिविटी ऐज नेवर बिफोर विदाउट सीरियस हिंडरेंस ऑर एंक्जाइटी”। यह निर्विघ्न, निश्चिंत, अपूर्व छूट पाने का ही परिणाम हुआ कि चार-पाँच वर्ष में ही कई क्षेत्रों में मिशनरी गतिविधियाँ अत्यंत उछृंखल हो गईं। तभी सरकार ने मिशनरी गतिविधियों का अध्ययन करने और उस से उत्पन्न समस्याओं पर उपाय सुझाने के लिए 1954 में जस्टिस बी. एस. नियोगी की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय समिति का गठन किया। इस में ईसाई सदस्य भी थे। समिति ने 1956 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसका संपूर्ण आकलन आँखें खोल देने वाला था। किंतु कोई कार्रवाई नहीं हुई। न किसी ने उस के तथ्यों, साक्ष्यों को चुनौती दी, न खंडन किया। केवल मौन के षड्यंत्र द्वारा उसे इतिहास के तहखाने में डाल दिया गया।

तब से आधी शती बीत गई, किंतु उस के आकलन और अनुशंसाएं आज भी सामयिक हैं। जो सामग्री नियोगी समिति ने इकट्ठा की उस से वह इस परिणाम पर पहुँची कि मिशनरी गतिविधियाँ किसी राज्य या देश की सीमाओं में स्वायत्त नहीं है। उनका चरित्र, संगठन और नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय है। जब समिति ने कार्य आरंभ किया तब पहले तो ईसाई मिशनों ने सहयोग की भंगिमा अपनाई। किंतु जब उन्होंने देखा कि समिति अपने काम में गंभीर है तब उन्होंने बहिष्कार किया। फिर नागपुर उच्च न्यायालय जाकर इस का कार्य बंद कराने का प्रयास किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि समिति का गठन और कार्य किसी नियम के विरुद्ध नहीं है।

अपनी जाँच-पड़ताल के सिलसिले में नियोगी समिति चौदह जिलों में, सतहत्तर स्थानों पर गई। वह ग्यारह हजार से अधिक लोगों से मिली, उस ने लगभग चार सौ लिखित बयान एकत्र किए, इसकी तैयार प्रश्नावली पर तीन सौ पचासी उत्तर आए जिस में पचपन ईसाइयों के थे और शेष गैर-ईसाइयों के। समिति ने सात सौ गाँवों से भिन्न-भिन्न लोगों का साक्षात्कार लिया। समिति ने पाया कि कहीं किसी ने ईसा की निंदा नहीं की, सभी जगह केवल अवैध तरीकों से धर्मांतरण कराने पर आपत्ति थी। यह आपत्तियाँ सुदूर क्षेत्रों में, जहाँ यातायात न होने के कारण शासन या प्रेस का ध्यान नहीं, वहाँ गरीब लोगों को नकद धन देने; स्कूल-अस्पताल की बेहतर सुविधाएं देने के लोभ; नौकरी देने; पैसे उधार देकर दबाव डालने; नवजात शिशुओं को आशीर्वाद देने के बहाने जबरन बप्तिस्मा करने; आपसी झगड़ों में किसी को मदद कर के बाद में दबाव डालने; छोटे बच्चों और स्त्रियों का अपहरण करने; तथा विदेशों से आने वाले धन के सहारे इन्हीं तरीकों से किसी क्षेत्र में पर्याप्त धर्मांतरण करा कर पाकिस्तान जैसा स्वतंत्र ईसाई राज्य बना लेने के प्रयासों, आदि संबंधी थीं।

समिति ने पाया कि लूथरन और कैथोलिक मिशनों द्वारा नीतिगत रूप से धर्मांतरित ईसाइयों में अलगाववादी भाव भरे जाते हैं। उन्हें सिखाया जाता है कि धर्म बदल लेने के बाद उनकी राष्ट्रीयता भी वही नहीं रहती जो पहले थी। अतः अब उन्हें स्वतंत्र ईसाई राज्य का प्रयास करना चाहिए। मिशनरी दस्तावेजों, पुस्तकों, कार्यक्रमों आदि का अध्ययन कर समिति ने पाया कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत के प्रति मिशनरी नीतियाँ हैं – (1) राष्ट्रीय एकता का प्रतिरोध करना, (2) भारत और अमेरिका के बीच सहअस्तित्व के सिद्धांत से मतभेद, (3) भारतीय संविधान द्वारा दी गई धार्मिक स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए मुस्लिम लीग जैसी ईसाई राजनीतिक पार्टी बनाकर अंततः एक स्वतंत्र राज्य बनाना अथवा कम से कम एक जुझारू अल्पसंख्यक समुदाय बनाना। भारतीय संविधान की उदारता देखकर यूरोप और अमेरिका में मिशनरी सूत्रधारों ने अपना ध्यान भारत पर केंद्रित किया, समिति ने इसके भी प्रमाण पाए।
किंतु समिति की रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण अंश मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की स्थिति पर था। उस ने पाया कि जिन क्षेत्र में स्वतंत्रता से पहले स्वायत्त रजवाड़ो का शासन था और मिशनरियों पर अंकुश था, अब वहाँ उनकी गतिविधियाँ तीव्र हो गई हैं। इन नए खुले क्षेत्रों में पिछड़े आदिवासियों को धर्मांतरित कराने के लिए विदेशी धन उदारता से आ रहा है। ‘आज्ञाकारिता में भागीदारी’ नामक सिद्धांत के अंतर्गत चर्च को बताया जाता है कि वे जमीन से जुड़े रहें, किंतु अपनी निष्ठा और आज्ञाकारिता को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखें। समिति ने ईसाई स्त्रोतों से ही पाया कि वे मानते हैं कि उन के कार्य में सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति केवल धन है, हर जगह, हर समय, हर चीज धन पर ही निर्भर है। यहाँ तक कि जो भी व्यक्ति मिशनरियों से मिलने आता है केवल धन के लिए। भारतीय ईसाई विदेशी मिशनरियों का स्वागत भी केवल पैस के लिए करते हैं। कहीं किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक चर्चा या प्रेरणा का नामो-निशान नहीं था।

यह तथ्य एक लाक्षणिक उदाहरण भर था कि ‘नेशनल क्रिश्चियन काऊंसिल ऑफ इंडिया’ के खर्च का मात्र बीसवाँ अंश ही भारतीय स्त्रोतों से आता है, शेष बाहर से। कमो-बेश आज भी स्थिति वही है। यह कितनी विचित्र बात है कि जब जोर-जबर्दस्ती, छल-प्रपंच आदि द्वारा ईसाइयत विस्तार कार्यक्रमों पर चिंता होती है, तो ईसाइयत को भारत में दो हजार वर्ष पुराना, इसलिए, ‘भारतीय’ धर्म बताया जाता है। किंतु जब उसे राष्ट्रीय और आत्मनिर्भर होने के लिए कहा जाता है, तो उसे निर्बल होने के कारण विदेशी सहायता की आवश्यकता का तर्क दिया जाता है! जो भी हो, नियोगी समिति ने विदेशी स्त्रोतों से मिशनरी कार्यों के लिए आने वाले धन का भी हिसाब किया था और पाया कि ‘शिक्षा और चिकित्सा’ के लिए आए धन का बड़ा हिस्सा धर्मांतरण कराने पर खर्च किया जाता है।

जिन तरीकों से यह कार्य होता है वह आज भी तनिक भी नहीं बदले हैं। नियोगी समिति ने ठोस उदाहरण नोट किए थे। हरिजनों, आदिवासी छात्रों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उन्हें दी जानी वाली अतिरिक्त सुविधाओं को ईसाई प्रार्थनाओं में शामिल होने की शर्त से जोड़ा जाता है। बाइबिल कक्षा में शामिल न होने को पूरे दिन की अनुपस्थिति के रूप में दंडित किया जाता है। स्कूल के उत्सवों का उपयोग ईसाई चिन्ह की अन्य धर्मों के चिन्हों पर विजय दिखाने के लिए किया जाता है। अस्पतालों में गरीब मरीजों को ईसाई बनने के लिए दबाव दिया जाता है। सबसे जोरदार फसल अनाथालयों में काटी जाती है जहाँ बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक विपदा में तबाह परिवारों के बच्चों को लाकर सबको ईसाई बना लिया जाता है। अधिकांश धर्मांतरण अनिच्छा से होते हैं, क्योंकि सबमें किसी न किसी लाभ-लोभ की प्रेरणा रहती है। समिति ने पाया कि किसी ने अपने नए धर्म का कोई अध्ययन या विचार जैसा कभी कुछ नहीं किया। धर्मांतरित लोग केवल साधारण आदिवासियों के झुंड थे जिनकी चुटिया कटवा कर बस उन्हें ईसाई के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है।

रोमन कैथोलिक मिशनरी जरूरतमंदों को उधार देकर बाद में उसे वापस न करने के बदले ईसाई बनाने की विधि में सिद्धहस्त हैं। अन्य ईसाई मिशनरियों ने ही नियोगी समिति को यह बात बतायी। यदि कोई वापस करना चाहे तो उसे कड़ा ब्याज देना पड़ता है। कर्ज पाने की शर्त में भी कर्ज माँगने वाले को अपने हिन्दू चिन्ह छोड़ने, जैसे सिर की चोटी कटाने को कहा जाता है। कई लेनदार किशोर उम्र के और मजदूर होते हैं। यदि कोई व्यक्ति कर्ज लेता है, तो मिशनरी रजिस्टर में उस के पूरे परिवार को संभावित धर्मांतरितों में नोट कर लिया जाता है। कर्ज लेते समय ही एक वर्ष का ब्याज उस में से काट लिया जाता है। समिति को अपने संपूर्ण आकलन, अन्वेषण के दौरान एक भी ऐसा धर्मांतरित ईसाई न मिला जिस ने धन के लोभ या दबाव के बिना ईसाई बनना स्वीकार किया हो!

कितने आश्चर्य है कि जो प्रगतिवादी लेखक संगठन और वामपंथी नाट्यकर्मी प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहूँ’ पर हजारों नाटक मंचित कर चुके हैं, वे मिशनरियों की इस स्थायी, अवैध और घृणित महाजनी पर कभी कोई नाटक क्यों नहीं करते! मगर इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि भारतीय वामपंथियों को वैसा हर साम्राज्यवाद प्रिय है जिसका निशाना हिन्दू समाज हो।

मिशनरी साहित्य में हिन्दू देवी-देवताओं की छवियों और उन की पूजा पर अत्यंत भद्दे आक्षेप रहते हैं। स्कूलों में मंचित नाटकों में उनकी हँसी उड़ाई जाती है। उनका मखौल बनाने वाले गाने लिखे, गाए जाते हैं। हिन्दू ग्रंथों को विकृत करके प्रस्तुत किया जाता है। संविधान बनने के बाद से सरगुजा जिले में बने ईसाइयों की एक सूची सरकार ने समिति को दी थी। नियोगी समिति ने पाया कि वहाँ दो वर्ष में चार हजार उराँव ईसाई बने। उन में एक वर्ष से साठ वर्ष के पुरुष, स्त्री शामिल थे। समिति ने पाया कि उन में अपने नए धर्म का कहीं, कोई भाव लेश मात्र न था। प्रायः लोगों को झुंड में थोक भाव में धर्मांतरित करा लिया जाता है। किंतु रोमन कैथोलिक मिशनों ने समिति को अपने द्वारा धर्मांतरित कराए लोगों का विवरण नहीं दिया। क्योंकि उस से यह सच्चाई सामने आ जाती कि वह स्वेच्छा से नहीं, बल्कि संगठित, प्रायोजित हुआ था।

नियोगी समिति का प्रमाणिक निष्कर्ष था कि धर्मांतरण लोगों को राष्ट्रीय भावनाओं से विलग करता है (यही अपने समय में गाँधीजी ने भी कहा था)। धर्मांतरित ईसाइयों को सचेत रूप से इस दिशा में धकेला जाता है। उन से ‘राम-राम!’ या ‘जय हिन्द’ जैसे अभिवादन छुड़वा कर ‘जय यीशू’ कहना सिखाया जाता है। मिशनरी स्कूलों के कार्यक्रमों में राष्ट्रीय ध्वज से ऊपर ईसाई झंडा लगाया जाता है। ईसाई अखबारों में गोवा पर पुर्तगाल की औपनिवेशिक सत्ता बने रहने के पक्ष में लेख रहते थे, और इस बात की आलोचना की जाती थी कि भारत उसे अपना अंग बनाना चाहता है (तब गोवा पुर्तगाल के अधिकार में था)।

मिशनरी गतिविधियों की एक तकनीक समिति ने नोट की कि वह स्थानीय शासन और सरकार पर नियमित आरोप और शिकायतें करके एक दबाव बनाए रखते हैं, ताकि कोई उन की अवैध कारगुजारियों पर ध्यान देने का विचार ही न करे। यह एक जबरदस्त तकनीक है जो आज भी बेहतरीन रूप से कारगर है। समिति ने पाया कि मध्य प्रदेश शासन मिशनरी सक्रियता के क्षेत्रों में पूरी तरह तटस्थ रहा है, उस ने कभी कोई हस्तक्षेप किया हो ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिला। किंतु मिशनरी संगठन सरकार पर प्रायः कोई न कोई भेद-भाव जैसी शिकायत करते रहने की आदत रखते हैं। समिति ने पाया था कि यह प्रशासनिक अधिकारियों को रक्षात्मक बनाए रखने की पुरानी मिशनरी तकनीक रही है। यही आज भी देखा जाता है, जब दिल्ली, गुजरात, झारखंड, उड़ीसा या मध्य-प्रदेश में मिशनरी संगठन अकारण या उलटी बयानबाजी करके सरकार को रक्षात्मक बने रहने के लिए विवश करते हैं। उलटा चोर कोतवाल को डाँटे जैसी सफल तकनीक।

नियोगी समिति ने अनेकानेक मिशनरी दस्तावेजों का अध्ययन करके पाया था कि भारत में मिशनरी धर्मांतरण गतिविधियाँ एक वैश्विक कार्यक्रम के अंग हैं जो पूरे विश्व पर पश्चिमी दबदबा पुनर्स्थापित करने की नीति से जुड़ी हुई हैं। उस में कोई आध्यात्मिकता का भाव नहीं, बल्कि गैर-ईसाई समाजों की एकता छिन्न-भिन्न करने की चाह है। जो भारत की सुरक्षा के लिए खतरनाक है। समिति की राय में ईसाई मिशन भारत के ईसाई समुदाय को अपने देश से विमुख करने का प्रयास कर रहे हैं। यानी, धर्मांतरण कार्यक्रम कोई धार्मिक दर्शन नहीं, बल्कि राजनीतिक उद्देश्य के अंग हैं। भारत के चर्च स्वतंत्र नहीं, बल्कि उन के प्रति उत्तरदायी हैं जो उनके रख-रखाव का खर्च वहन करते हैं। समिति के अनुसार धर्मांतरण दूसरे तरीके से राजनीति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

यह संयोग नहीं है कि नियोगी समिति ने अवैध, राष्ट्र-विरोधी, समाज-विरोधी मिशनरी गतिविधियों को रोकने के लिए जो अनुशंसाएं दी थीं, उन का आज भी उतना ही मूल्य है। वे अनुशंसाएं यह थीं – (1) जिन विदेशी मिशनों का प्राथमिक कार्य मात्र धर्मांतरण कराना है, उन्हें देश से चले जाने के लिए कह देना चाहिए, (2) चिकित्सा और अन्य सेवाओं के माध्यम से धर्मांतरण बंद करने के लिए कानून बनाए जाने चाहिए, (3) किसी की विवशता, बुद्धिहीनता, अक्षमता, असहायता आदि का लाभ उठाते हुए धोखे या दबाव से धर्मांतरण को पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिए, (4) विदेशियों द्वारा तथा छल-प्रपंच से धर्मांतरण रोकने के लिए संविधान में उपयुक्त संशोधन होना चाहिए, (5) अवैध तरीकों से धर्मांतरण बंद करने के लिए नए कानून बनने चाहिए, (6) अस्पतालों में नियुक्त डॉक्टरों, नर्सों और अन्य अधिकारियों के रजिस्ट्रेशन में ऐसे संशोधन करने चाहिए जिस से उनके द्वारा किसी मरीज के ईलाज और सेवा के कार्यों के दौरान उस का धर्मांतरण न होने की शर्त हो, (7) बिना राज्य सरकार की अनुमति के धार्मिक प्रचार वाले साहित्य के वितरण पर प्रतिबंध हो।

जब नियोगी समिति की यह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई तो मिशनरी संगठनों ने इसे तानाशाही की ओर बढ़ने का उपाय बताकर निंदा की। किंतु किसी ने इस रिपोर्ट के तथ्यों, आकलनों को मिथ्या कहने का साहस नहीं किया। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे नेताओं, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों ने समिति की किसी अनुशंसा को लागू करने का प्रयास नहीं किया। यही कारण है कि रोग, उस के फैलने के तरीके, उस से होने वाली हानि और देश की सुरक्षा और अखंडता को खतरा भी यथावत है। इस अर्थ में नियोगी समिति की ऐतिहासिक रिपोर्ट आज पचपन वर्ष बाद भी सामयिक और पठनीय है।

बाबा माधवदास संभवतः अब नहीं हैं, किंतु उनकी वेदना का कारण यथावत है। न रोग दूर हुआ, न उस के निदान की कोई चिंता है। कंधमाल (उड़ीसा) की घटनाएं इस का नवीनतम प्रमाण हैं। नियोगी समिति ने उस के सटीक उपचार के लिए जो सुचिंतित, विवेकपूर्ण अनुशंसाएं दी थीं। वह आज भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी तब थीं। परंतु उस के प्रति हिन्दू उच्च वर्ग की उदासीनता भी लगभग वैसी ही है। इन में वैसे हिन्दू भी हैं जो सभी बातें जानते हैं, किंतु अपने सुख-चैन में खलल डाल कोई कार्य नहीं करना चाहते। कोई दूसरा कर दे तो उन्हें अच्छा ही लगता है। पर उसके लिए एक शब्द कहने तक का कष्ट वह उठाना नहीं चाहते।

इस भीरू प्रवृत्ति को महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने ‘म्यूनिख भावना’ की संज्ञा दी थी। इस मुहावरे की उत्पत्ति 1938 में जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली के बीच हुए म्यूनिख समझौते के बाद हुई। उस समझौते में महत्वपूर्ण यूरोपीय देशों ने चेकोस्वोवाकिया को हिटलरी जर्मनी की दया पर छोड़ कर स्वयं को सुरक्षित समझ लिया था। अपने नोबेल पुरस्कार भाषण (1970) में सोल्झेनित्सिन ने कहा था, “The spirit of Munich is a sickness of the will of successful people, it is the daily condition of those who have given themselves up to the thirst after prosperity at any price, to material well-being as the chief goal of earthly existence. Such people – and there are many in today’s world – elect passivity and retreat, just so that their accustomed life might drag on a bit longer, just so as not to step over the threshold of hardship today – tomorrow, you’ll see, it will all be all right. (But it will never be alright! The price of cowardice will only be evil; we shall reap courage and victory only when we dare to make sacrifices.)” भारत के उच्च वर्गीय हिन्दुओं में यह भावना केवल ईसाई मिशनरियों के आध्यात्मिक आक्रमण के प्रति ही नहीं, बल्कि इस्लामी आतंकवाद, कश्मीरी मुस्लिम अलगाववाद और नक्सली विखंडनवाद जैसे उन सभी घातक परिघटनाओं के प्रति है जिनका निहितार्थ उन्हें मालूम है। किंतु इन से लड़ने के लिए वे कोई असुविधाजनक कदम उठाना तो दूर, दो सच्चे शब्द कहने से भी वे कतराते हैं।

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चर्च के साम्राज्यवाद का खुलासा करती पुस्तक – ‘‘ऊँटेश्वरी माता का महंत”

मदर टैरेसा पर उठा विवाद अभी थमा भी नही है कि एक ईसाई संगठन से जुड़े कैथोलिक विश्वासी पी.बी.लोमियों की हाल ही में आई पुस्तक ‘‘ ऊँटेश्वरी माता का महंत” ने ईसाई समाज के अंदर चर्च की कार्यशैली पर कई गंभीर सवाल उठा दिये है।
“ऊँटेश्वरी माता का महंत” र्शीषक से लिखी गई यह पुस्तक एक येसु समाजी (सोसाइटी ऑफ जीजस) कैथोलिक पादरी (फादर एंथोनी फर्नांडेज) जिन्होंने अपने जीवन के 38 वर्ष कैथोलिक चर्च की भेड़शलाओं का विस्तार करने में लगा दिए, चर्च की धर्मांतरण संबधी नीतियों का परत दर परत खुलासा करती है और साथ ही चर्च नेतृत्व का फरमान न मानने वाले पादरियों और ननों की दुर्दशा को बड़ी ही बेबाकी से उजागर करती है।
“ऊँटेश्वरी माता का महंत” र्शीषक से लिखी गई यह पुस्तक कैथोलिक चर्च व्यवस्था, रोमन कूरिया, जेसुइट कूरिया पर कई स्वाल खड़े करते हुए ‘‘उतरी गुजरात” के कुछ हिस्सों में चर्च द्वारा अपनी भेड़शलाओं को बढ़ाने का चौंकाने वाला खुलासा करती है – कि, विदेशी मिश्नरियों की धर्म प्रचार क्षमता का लोहा मानना पड़ेगा। स्पेनिश फादर गैर्रिज ने यह देखा कि ‘ऊँट इस क्षेत्र का प्रधान पशु है’-(रेगिस्तान का जहाज) यह इस बंजर जमीन पर रहने वालों का परिवारिक अभिन्न अंग है व्यापार का साधन भी है। अतः ऊँट से संबधित रक्षक देवी के रुप में उन्होंने मदर मेरी को एक ‘नया अवतार’ प्रदान किया, ‘‘ऊँटेश्वरी माता” -ईशूपंथियों, ऊँट-पालकों की कुल माता!
विदेशो से आर्थिक सहायता प्राप्त कर उन्होंने मेहसाना क्षेत्र के बुदासान गांव में 107 एकड़ का विशाल भूखण्ड खरीद कर पहाड़ी नुमा जमीन पर एक विशाल वृक्ष के नीचे एक ‘डेहरी’ (चबूतरा) का निमार्ण करवाया और घोषणा की, कि यह डेहरी ऊँटेश्वरी माता की ‘डेहरी’ है। यह देवी जगमाता है। जो ऊँटों की रक्षा करती है।
फादर एंथोनी फर्नांडेज को आदिवासियो व मूल निवासियों को ईशुपंथी बनाने के काम पर लगाया गया था। उन्होंने जब वस्तु स्थिति का सामना किया तो उन्हें मिशनरियों की कुटिलता और धोखेबाजी का आभास होता गया। फादर एंथोनी इस तथ्य से बहुत आहत थे कि विदेशी मिशनरियों का मुख्य उदे्श्य, उत्तरी गुजरात के आदिवासियों और अनुसूचितजातियों का धर्मांतरण करवाना ही था, चाहे इसके लिए कोई भी नीति क्यों न अपनानी पड़े। वास्तव में उनके विकास से उनका कोई लेना देना नहीं था। सभी योजनाएं चाहे वह समाज सेवा, शिक्षा एवं स्वस्थ्य सेवाएं हो, वे केवल उन्हें लालच वश ही प्रस्तुत की जा रही थी।
इस हकीकत को सामने लाने का प्रयास करने वाला अब नहीं हैं – उनका देहान्त पिछले साल 11 मई 2014 को बनारस में हो चुका हैं – वह व्यक्ति थे फादर एन्थनी फर्नांडेज – येसु समाजी – एक कैथोलिक प्रीस्ट – एक सच्चा सन्यासी, एक सच्चा संत और एक राष्ट्रभक्त हिन्दुस्तानी।
महात्मा गांधी की भूमि – गुजरात में जन्मा – पला – बढ़ा, यह कैथोलिक प्रीस्ट गुजरातियों की धार्मिक आस्था का पर्याय था। गुजरात के महान संत नरसिंह मेहता के गीत और भजनों में रमा हुआ था – ’’वैष्णव जन तेने कहिए, जो पीर पराई जाने रे” – पराई पीर को दूर करने, पीड़ितों का कल्याण करने की साफ नीयत लिये हुए फादर एन्थनी फर्नांडेज, जेसुइट समाज (कैथोलिक चर्च) का अंग बन गया। उत्तरी गुजरात, जो अक्सर कम वर्षा का शिकार रहता हैं – के गरीब किसानों और आदिवासियों के लिए कैथौलिक जेसुइट मिशनरियों द्वारा चालयें जा रहे राहत कार्यों में अपने सुपीरियरों और प्रोविंशियलों द्वारा लगा दिया गया। लेकिन जब उसे इन देशी विदेशी मिशनरियों की धूर्ता और देश के प्रति षड्यंत्रों से साक्षात्कार हुआ तो उसने उनका पुरजोर विरोध करने के उपाय तलाशना शुरू कर दिया। लेकिन क्या यह ’’अकेला चना” भाड़ फोड़ सका?
ईसाइयत में शुरु से ही पूरी दुनियां को जितने का एक जानून रहा है और इसके इस कार्य में जिसने भी बाधा खड़ी करने की कौशिश की वह इस साम्राज्यवादी व्यवस्था से सामने ढेर हो गया। भारत में भी पोप का साम्राज्यवाद उसी नीति का अनुसरण कर रहा है। अगर कोई पादरी या नन व्यवस्था के विरुद्व कोई टिप्पणी करते है तो उनका हाल भी फादर एंथोनी फर्नाडिज जैसा ही होता है क्योंकि चर्च व्यवस्था में मतभिन्नता के लिए कोई स्थान नहीं है। इसी कारण भारत में कैथोलिक चर्च को छोड़ चुके सैकड़ों पादरी ओर नन चर्च व्यवस्था के उत्पीड़न से बचने के लिए ‘‘कैथोलिक चर्च रिफॉर्मेशन मूवमेंट (केसीआरएम) का गठन कर रहे है।
“ऊँटेश्वरी माता का महंत” के नायक फादर एंथोनी फर्नांडेज को भी ‘ईसा की तरह कू्रसित’ (सलीबी मौत) करने का लम्बा षड्यंत्र चल पड़ा। इस संघर्ष में वह अकेला था – उसके साथ कोई कारवां नहीं था। ईसा भी तो अकेले ही रह गये थे – उनके शिष्य उन्हें शत्रुओं के हाथ सौंप कर भाग गये थे और जिस यहूदी जाति के उद्धार के लिए वे सक्रिय थे वही जनता रोमन राज्यपाल पिलातुस से ईसा को सलीब पर चढ़ाये जाने के लिए प्रचण्ड आन्दोलन कर रही थी। यही हुआ था – ऊंटेश्वरी माता के इस महंत – फादर टोनी फर्नांडेज़ के साथ।
प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक श्री कुमारप्पा (जो कि स्वयं कैथोलिक ईसाई थे) का विचार था: – पश्चिमी देशों की सेना के चार अंग हैं – ’”थल सेना, वायु सेना और नौसेना तथा चर्च (मिशनरी) ।“ इन्हीं चार अंगीय सेना के बलबूते पर पश्चिमी देश पूरे विश्व पर राज्य करने की योजना रचने में माहिर हैं।“ आज की परिस्थतियों में एक और सेना भी जोड़ी जा सकती हैं – वह पांचवी सेना हैं ’’मीडिया”
वर्तमान समय में अविकसित या अर्द्धविकसित देशों की प्राकृतिक सम्पदाओं – तेल – वनों – खनिजों की जितनी समझ पाश्चात्य देशों की हैं, उतनी समझ या जानकारी स्वयं इन देशों की सरकारों को नहीं हैं।
इस पुस्तक में स्पेनिश मिशनरियों द्वारा अपनाई गई ’’ऊँट की चोरी” करने की नायाब तरकीब बताई गई हैं – इस चोरी की विधि में केवल ऊँट ही नहीं चुराया जा सकता हैं अपितु ऊँट पालकों की जर जमीन, मान मर्यादा, धर्म-संस्कृति आदि सभी पर हाथ साफ किया जा सकता हैं। यहाँ तक की आदिकाल से चली आई सामाजिक एकता और समरसता को भी आसानी से विभाजित किया जा सकता है।
इन विदेशी मिशनरियों की सोच है किः – ’’यदि कोई ’’ईसाई युवती” अपनी पूर्व जाति के, ’’गैर-ईसाई” युवक से विवाह करना चाहती है, तो उसे मना मत करो – कालान्तर में वह अपने पति व सास-ससुर तक को ईसाई बना लेगी और उसके बच्चे तो पैदायशी ईसाई होंगे ही।’’
आपने कई बार ’’समानान्तर सरकार” शब्द भी सुना होगा या पढ़ा होगा। लेकिन समानान्तर सरकार या पैरलल गवन्रमेंट का असली स्वरूप क्या होता है? कैसा होता हैं? इस तथ्य से शायद रू-ब-रू नहीं हुए होंगे – ‘‘ऊँटेश्वरी माता का महंत” में आप को यह तथ्य भी समझ में आ जायेगा। कुल 107 एकड़ तिकोनी जमीन पर स्थापित ’’वेटिकन नगर राज्य” किस प्रकार से विश्व के तमाम देशों में किस तरह अपनी समानान्तर सरकार चला रहा है यह तथ्य फादर टोनी की कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है।
“ऊँटेश्वरी माता का महंत” पुस्तक में चर्च के साम्राज्यवाद का जिक्र जिस तरीके से किया गया है उसे पढ़कर देशभक्त भारतवासियों की आँखें खोल देने वाला है। पुस्तक का लेखक बताता है कि भारत में वेटिकन की ’’समानान्तर सरकार” स्वतंत्रता से पूर्व 1945 में ही स्थापित हो गई थी (जब यहाँ कैथोलिक बिशप्स कान्फ्रेंस ऑफ इण्डिया ;ब्ठब्प्द्ध का गठन हो गया था तथा वेटिकन का राजदूत (इंटरनुनसियों) नियुक्त हो गया था। भारत सरकार और राज्य सरकारों तथा उच्चधिकारियों पर इसकी कितनी मजबूत पकड़ हैं – को भी आप स्पष्ट रूप से देख-समझ सकेंगे – समाज सेवा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के खेल द्वारा यह समानान्तर सरकार जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को अपने पॉकिट में किस तरह और किस ठसक से रखती हैं, आप कल्पना ही नहीं कर सकते! इस कार्य में पांचवी सेना ’’मीडिया” भी अपना अहम रोल अदा करती हैं।
“ऊंटेश्वरी माता का महंत” पुस्तक उन लोगों को अवश्य ही पढ़ना चाहिए जो राष्ट्रीयता, स्वाभिमान और सार्वभौमिकता के मायने समझते हैं और उन्हें भी पढ़ना चाहिए जो धर्मों की चारदीवारी में कैदी जीवन बिता कर कूपमण्डूक स्थिति में जीवित रहकर, स्वयं को सार्वभौम समझे हुए है। इस पुस्तक में अप्रत्यक्ष रूप से उन लोगों के लिए भी संदेश उपस्थित हैं, जो धर्मान्तरितों की ’’घर वापसी” चाहते हैं।
यह पुस्तक धर्मांतरित ईसाइयों की दयनीय स्थिति और चर्च नेतृत्व एवं विदेशी मिशनरियों द्वारा भारत में धर्मांतरण के लिए अपनाई जाने वाली घातक नीतियों और चर्च के राष्ट्रीय – अतंरराष्ट्रीय नेटवर्क का भी खुलासा करती है। पुस्तक में आज की परिस्थितियों का सही आंकलन हैं और इसके घातक परिणामों को रोकने के कुछ उपाय भी ढूंढने के प्रयास किये गए हैं।
“ऊंटेश्वरी माता का महंत” पुस्तक बताती है कि धर्मों की स्थापना, मानव समाज को विस्फोटक स्थिति से बचाए रखने के लिए, ’’सेफ्टी वाल्व” के रूप में हुई है। लेकिन जब यह ’’सेफ्टी डिवाइस” (रक्षा उपकरण) गलत और अहंकारी लोगों की निजी संपत्ति बन जाते हैं, तो मानवता के लिए खतरा बढ़ जाता है। वर्तमान समय में, ऐसे ही स्व्यंभू धर्म माफियाओं की जकड़ में प्रायः प्रत्येक धर्म आ गया है। अतः अब समय आ गया है, कि ऐसे तत्वों को सिरे से नकारा जाये ताकि मानवता सुरक्षित रहे।“
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“ऊंटेश्वरी माता का महन्त”
लेखक – पी.बी.लोमियों
प्रकाशकः जे.के. इन्टरप्रईजर,
डब्लयू बी/27 प्रथम तल, शकरपुर, दिल्ली – 110 092
मूल्यः 300/-
पृष्ठः 184
प्रथम संस्करणः 2015
ISBN -978-93-84380-01-4


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