वेदांत ही एकमात्र धर्म है : सर्वपल्ली राधाकृष्णन



शिक्षक दिवस-
वेदांत कोई एक धर्म नहीं, बल्कि वेदांत ही एकमात्र धर्म है : सर्वपल्ली राधाकृष्णन
By Anand Kumar - September 5, 2016

राधाकृष्णन ने अपनी एम.ए. डिग्री के लिए जो थीसिस लिखी थी उसका विषय था “वेदांत में आचार और अध्यात्म की पूर्वमान्यताएं”. उनका इरादा अपने लेख के जरिये ऐसे लोगों को जवाब देने का था जो कहते थे वेदांत में आचारसंहिताओं जैसी कोई चीज़ नहीं थी. ये थीसिस जब छपी तो वो केवल 20 साल के थे.

अपनी इस थीसिस के बारे में खुद राधाकृष्णन कहते थे कि “इसाई आलोचकों ने मुझे हिंदुत्व के अध्ययन के लिए मजबूर कर दिया. मिशनरी संस्थानों में हिंदुत्व की जो व्याख्या होती थी, उस से, स्वामी विवेकानंद से प्रभावित मेरा मन बहुत खिन्न होता था. एक हिन्दू के तौर पर मुझे शर्मिंदगी होती थी.”

यही वजह रही कि उन्होंने जीवन भर भारतीय दर्शन और धर्म का अध्ययन किया. हिंदुत्व की ओर से “एकीकृत पश्चिमी आलोचकों” को करारा जवाब देने का काम उन्होंने जीवन भर किया.

राधाकृष्णन की दर्शनशास्त्र की पढ़ाई कोई शौकिया नहीं थी. वो एक साधनहीन छात्र थे और उनके रिश्तेदारों में से एक ने पास होने के बाद अपनी दर्शनशास्त्र की किताबें उन्हें दान कर दीं. कोई और किताबें खरीदने में असमर्थ राधाकृष्णन के लिए विषय का चुनाव भी अपने आप ही हो गया था. उनका कांग्रेस पार्टी में भी कोई इतिहास नहीं था. वो सिर्फ हिंदुत्व के लिए लड़ते रहे थे.

उन्होंने 1946-52 के दौरान UNESCO में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. 1949-52 के बीच वो सोवियत यूनियन में भारत के राजदूत थे. राधाकृष्णन संविधान सभा के भी सदस्य रहे और 1952 में उन्हें भारत का पहला उप-राष्ट्रपति चुना गया. सन 1962-67 के बीच वो भारत के दूसरे राष्ट्रपति चुने गए थे.

राधाकृष्णन अनुभव(धार्मिक अनुभूति) पर जोर देने वाले विद्वानों में से थे. उनका मानना था कि चैतन्य सोच से अनुभूति नहीं होती, अनुभूति एक अलग स्वतंत्र अनुभव है. उनका मानना था कि अनुभूति स्वतःसिद्ध, स्वसंवेद्य, और स्वयं प्रकाश है. अपनी किताब “एन आइडियलिस्ट व्यू ऑफ़ लाइफ” में अपने इस विचार के समर्थन में उन्होंने कई अच्छे तर्क प्रस्तुत किये हैं. उन्होंने पांच अलग अलग किस्म की अनुभूतियों में भी अंतर स्पष्ट किया है.

राधाकृष्णन यहीं नहीं रुके, उन्होंने पांच अलग अलग किस्म के धर्मों का भी वर्गीकरण कर डाला था. ये पांच किस्म के धर्म थे :
1. परमात्मा के उपासक
2. व्यक्तिगत देवता के उपासक
3. अवतार (राम, कृष्ण, बुद्ध) जैसों के उपासक
4. पूर्वजों, वंश के संस्थापकों, या ऋषियों के उपासक
5. भिन्न भिन्न शक्तियों और आत्मा के उपासक
अन्य सभी धर्मों को राधाकृष्णन हिंदुत्व के ही, बल्कि अद्वैत वेदांत के ही किसी छोटे अपभ्रंश रूप में देखते थे. अन्य धर्मों को अद्वैत की अपनी अपनी समझ मानते हुए राधाकृष्णन बाकी धर्मों का भी हिंदुत्विकरण कर डालते हैं.

राइनहार्ट, वसंत कैवार और सुचेता मजूमदार जैसे कुछ लोग उनकी आलोचना में दर्शन और धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल का जिक्र करते हैं. ऐसे विद्वानों का मानना है कि धर्म के राजनीतिकरण से राष्ट्रवाद को बल देने में सुविधा होती है. इसे सिद्ध करने के लिए वो राधाकृष्णन के वक्तव्य, “वेदांत कोई एक धर्म नहीं, बल्कि वेदांत ही एकमात्र धर्म है” पर ध्यान दिलाते हैं. ( Vedanta is not a religion but religion itself in its “most universal and deepest significance”)

स्वीटमैन जैसे विद्वानों का मत है कि अब धीरे धीरे करीब 1990 के समय से पश्चिमी विद्वान भी हिन्दुओं के प्रति दुर्भावना के साथ नहीं लिखते. अफ़सोस कि ऐसे मतों के बाद भी हमारे पास वेंडी डोनीगर जैसों की किताबें झेलनी पड़ती हैं. कमी कई बार हमारे अन्दर भी होती है, और यहाँ भी कमी काफी हद तक हमारी ही है.

सन 1962 से हम सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर “शिक्षक दिवस” तो मनाते आ रहे हैं, लेकिन उनका लिखा पढ़ने की, उस से सीखने की कोशिश कम ही की गई है. शिक्षक दिवस के मौके पर एक प्रखर हिंदुत्ववादी के लिखे को किताबों से बाहर निकाल कर आम जनता तक पहुंचा देना ही शायद सही अर्थों में शिक्षक दिवस मनाना होगा.

बाकी माल्यार्पण और अगरबत्तियां मूर्ति को दिखा कर किताबें अलमारी में ही पड़ी रहने देने का विकल्प भी है ही! हमने इस विकल्प का इस्तेमाल भी भरपूर किया है.

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