हिन्दुत्व की व्याख्या नहीं : सुप्रीम कोर्ट


न्याय का अधिकार

यदि कोई यह सोचता हे की श्री राम जन्म भूमि मुक्ति धर्म का मामला हे तो वह गलत सोचता हे ! यह अन्याय के विरुद्ध शुद्ध रूप से न्याय के अधिकार का मामला हे  और न्याय प्राप्त करने के लिए सभी  लोकतान्त्रिक रास्ते अपनाने के लिए श्री राम जन्म भूमि मुक्ति के  लिए आंदोलित लोगों  का अधिकार है ! जिस तरह स्वतन्त्रता प्राप्ति का अधिकार था ठीक उसी प्रकार श्री राम जन्म भूमि को अपनी मुक्ति ( स्वतंत्रता ) प्राप्त करनी है । इस हेतु  लोकतान्त्रिक रास्ते कोई भी कैसे रोक सकतें  है ।
- अरविन्द सिसोदिया , कोटा राजस्थान ।


कथित सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ पत्नी जावेद आनंद ने 1995 में आए फैसले पर दोबारा विचार की दरख्वास्त की। उनकी मांग थी चुनाव में राजनीतिक पार्टियों को ‘हिंदुत्व’ के नाम पर वोट मांगने से रोका जाए।


हिन्दुत्व की व्याख्या पर कोर्ट नहीं करेगा विचार

Publish Date:Tue, 25 Oct 2016
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जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। धर्म के आधार पर वोट की अपील करने की मनाही के कानूनी दायरे पर विचार कर रही सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने मंगलवार को एक बार फिर साफ किया कि वे हिन्दुत्व या धर्म के मुद्दे पर विचार नहीं करेंगे।

फिलहाल कोर्ट के सामने 1995 का हिन्दुत्व का फैसला विचाराधीन नहीं है। कोर्ट ने कहा कि उन्हें जो मसला विचार के लिये भेजा गया है उसमें हिन्दुत्व का जिक्र नहीं है। उन्हें विचार के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या का मामला भेजा गया है जिसमें धर्म के नाम पर वोट मांगने को चुनाव का भ्रष्ट तरीका माना गया है। कोर्ट इसी कानून की व्याख्या के दायरे पर विचार कर रहा है। बात ये है कि इस मामले की जड़ें नब्बे के दशक के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से जुड़ी है।

जिसमें हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांगने के आधार पर बंबई हाई कोर्ट ने करीब दस नेताओं का चुनाव रद कर दिया था। हाईकोर्ट ने इसे चुनाव का भ्रष्ट तौर तरीका माना था। हालांकि 1995 में सुप्रीमकोर्ट ने हाईकोर्ट का यह फैसला पलट दिया था। उस फैसले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं बल्कि जीवनशैली है। इन्ही मामलों से जुड़ी भाजपा नेता अभिराम सिंह की याचिका सुप्रीमकोर्ट में लंबित रह गई। इसके अलावा मध्यप्रदेश का सुन्दर लाल पटवा का मामला भी सुप्रीमकोर्ट आया। दोनों ही में धर्म के आधार पर वोट मांगने का मसला शामिल है। जो तीन और पांच न्यायाधीशों की पीठ से होता हुआ सात न्यायाधीशों के पास पहुंचा है। जिस पर आजकल विचार हो रहा है।

हालांकि मंगलवार की सुबह सुनवाई की शुरूआत में ही मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों के द्वारा स्थिति स्पष्ट कर दिये जाने के बावजूद कोर्ट के समक्ष 1995 के हिन्दुत्व के फैसले पर समीक्षा की मांग उठती रही। सुबह कुछ हस्तक्षेप याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने कोर्ट से कहा कि अगर कोर्ट 1995 के हिन्दुत्व के फैसले पर विचार कर रहा है तो उन्हें भी सुना जाए। इस पर पीठ ने कहा कि वे हिन्दुत्व या धर्म पर विचार नहीं कर रहे हैं। उनके समक्ष ये मसला विचाराधीन नहीं है।

वे मुद्दे को और व्यापक नहीं करना चाहते। उन्हें जो मुद्दा विचार के लिए भेजा गया है वह धर्म के आधार पर वोट मांगने का है उसमें हिन्दुत्व शब्द शामिल नहीं है। इसलिए फिलहाल वे उस पर विचार नहीं कर रहे अगर आगे बहस के दौरान किसी ने कोर्ट को बताया कि रिफरेंस में ये मुद्दा भी शामिल है तो वे उसे सुनेंगे। इसके बाद धारा 123(3) के दायरे पर बहस होनी लगी। भोजनावकाश के बाद एक अन्य हस्तक्षेप याचिकाकर्ता के वकील बीए देसाई ने फिर मुद्दा उठाया और कहा कि कोर्ट ये नहीं कह सकता कि उसके समक्ष हिन्दुत्व का मसला नहीं है या वह उस पर विचार नहीं करेगा।

कोर्ट के सामने जो अपीलें विचाराधीन हैं उनमें यह मुद्दा शामिल है। पीठ को पूरा मामला विचार के लिए भेजा गया है और कोर्ट को पूरे मामले पर तथ्यों के साथ विचार करना चाहिये। देसाई ने कहा कि मेरा मानना है कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) के दायरे में हिन्दू और हिन्दुत्व आता है और कोर्ट को उस पर विचार करना चाहिये। फिर उन्होंने चुनाव याचिका पर त्वरित सुनवाई के मुद्दे पर दलीलें रखीं। उनकी बहस कल भी जारी रहेगी। इस मामले में वैसे तो सिर्फ तीन याचिकाएं सुप्रीमकोर्ट में विचाराधीन हैं लेकिन राज्य सरकारों सहित कई हस्तक्षेप याचिकाकर्ताओं ने अर्जी दाखिल कर इस मुद्दे पर उन्हें सुने जाने की अपील की है।

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हिन्दुत्व धर्म है या जीवनशैली, 

इसकी व्याख्या नहीं करनी : सुप्रीम कोर्ट

आशीष कुमार भार्गव, अंतिम अपडेट: मंगलवार अक्टूबर 25, 2016
http://khabar.ndtv.com

खास बातें १-1995 के जजमेंट पर दोबारा विचार नहीं करेंगे२-वह ये तय करेंगे कि क्या धर्म के नाम पर वोट मांगे जा सकते हैं?३-20 साल पुराने हिंदुत्व जजमेंट को पलटने की मांग की गई थी

   नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि 'हिंदुत्व' क्या धर्म है या जीवन शैली, इस बात की सुनवाई नहीं करेंगे. 1995 के जजमेंट पर दोबारा विचार नहीं करेंगे. वह ये तय करेंगे कि क्या धर्म के नाम पर वोट मांगे जा सकते हैं?

CJI टीएस ठाकुर ने कहा कि 20 साल पुराने फैसले के बाद 5 जजों की बेंच ने जो रेफरेंस सात जजों की संविधान पीठ में भेजा उसमें यह बात कहां लिखी गई है कि संवैधानिक पीठ को हिंदुत्व की व्याख्या करनी है? फैसले के किसी भी हिस्से में इस बात का जिक्र नहीं है. जिस बात का जिक्र ही नहीं है.. उसें हम कैसे सुन सकते हैं? कोर्ट फिलहाल इस बड़ी बहस में नहीं जा रहा कि हिंदुत्व क्या है और इसका मतलब क्या है?

इस मामले की सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा कि किसी प्रत्याशी या उसके किसी समर्थक को ये इजाजत नहीं दी जा सकती कि वो धर्म के नाम पर वोट मांगे. ये चुनावी प्रक्रिया में सबसे बडी बुराई है, क्योंकि धर्म के नाम पर लोग प्रभावित होते हैं. किसी भी सेकुलर देश में मतदाताओं को की जाने वाली अपील भी सेकुलर सिद्धांत के तहत ही होनी चाहिए. धर्म के आधार पर वोट मांगकर राजनीतिक गतिविधियों को बढ़ावा देने की मंशा को मंजूरी नहीं दी जा सकती. मामले की सुनवाई बुधवार को भी जारी रहेगी.

सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, रिटायर्ड प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम और पत्रकार दिलीप मंडल की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने यह टिपप्णी की. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस अर्जी पर बाद में गौर किया जाएगा. कोर्ट ने इस याचिका को लंबित रखा है.

दरअसल, सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और कई अन्य लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर 20 साल पुराने हिंदुत्व जजमेंट को पलटने की मांग की है. याचिका में कहा गया है कि पिछले ढाई साल से देश में इन आदेशों की आड़ में इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है, जिससे अल्पसंख्यक, स्वतंत्र विचारक और अन्य लोग खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को ऐसे भाषण देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, हालांकि पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट में CJI ठाकुर ने कहा था :-
क्यों ना चुनाव में धर्म के आधार पर वोट मांगने को चुनावी दोष माना जाए?
चुनावी प्रक्रिया धर्मनिरपेक्ष होती है और उसमें किसी धर्म को नहीं मिलाया जा सकता
चुनाव और धर्म दो अलग-अलग चीजें हैं, उनको एक साथ नहीं मिलाया जा सकता
क्या किसी धर्म निरपेक्ष राज्य में किसी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि में धर्म को शामिल किया जा सकता है?
20 साल से संसद ने इस बारे में कोई कानून नहीं बनाया
इतने वक्त से मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो क्या इंतजार हो रहा था कि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ही फैसला करे जैसे यौन शौषण केस में हुआ. अगली सुनवाई 25 अक्तूबर को होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी याचिकाकर्ता सुंदर लाल पटवा के वकील की दलील पर की थी जब कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट को 1995 के जजमेंट को बने रहने देना चाहिए. चीफ जस्टिस ने कहा कि पटवा का केस ही देखें तो वह जैन समुदाय से हैं और कोई उनके लिए कहे कि वह जैन होने के बावजूद राम मंदिर बनाने में मदद करेंगे तो ये प्रत्याशी नहीं बल्कि धर्म के आधार पर वोट मांगना होगा. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस ने कई बड़े सवाल भी उठाए थे :-
क्या कोई एक समुदाय का व्यक्ति अपने समुदाय के लोगों से अपने धर्म के आधार पर वोट मांग सकता है? क्या ये भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आता है ?
क्या एक समुदाय का व्यक्ति दूसरे समुदाय के प्रत्याशी के लिए अपने समुदाय के लोगों से वोट मांग सकता है?
क्या किसी धर्म गुरु के किसी दूसरे के लिए धर्म के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण होगा और प्रत्याशी का चुनाव रद्द किया जाए?

दरअसल, भारत में चुनाव के दौरान धर्म, जाति समुदाय इत्यादि के आधार पर वोट मांगने या फिर धर्म गुरूओं द्वारा चुनाव में किसी को समर्थन देकर धर्म के नाम पर वोट डालने संबंधी तौर तरीके कितने सही और कितने गलत हैं ? इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है.


वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने मामले की पहली सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को फिलहाल पार्टी बनाने से इंकार कर दिया था। CJI ठाकुर ने केंद्र सरकार को मामले में पार्टी बनाने संबंधी मांग को खारिज करते हुए कहा कि यह एक चुनाव याचिका का मामला है, जोकि सीधे चुनाव आयोग से जुड़ा है। इसमें केंद्र सरकार को पार्टी नहीं बनाया जा सकता।
दरअसल 1995 के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि- 'हिंदुत्व' के नाम पर वोट मांगने से किसी उम्मीदवार को कोई फ़ायदा नहीं होता है।' उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व को 'वे ऑफ़ लाइफ़' यानी जीवन जीने का एक तरीका और विचार बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हिन्दुत्व भारतीयों की जीवन शैली का हिस्सा है और इसे हिंदू धर्म और आस्था तक सीमित नहीं रखा जा सकता। कोर्ट ने कहा था कि हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगना करप्ट प्रैक्टिस नहीं है और रिप्रजेंटेशन ऑफ पिपुल एक्ट की धारा-123 के तहत ये भ्रष्टाचार नहीं है.

याचिकाकर्ता के वकील ने रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट की धारा-123 व इसके अनुभाग 3 पर करते हुए कहा कि वर्ण, धर्म, जाति, भाषा और समुदाय के आधार पर अगर कोई व्यक्ति वोट मांगता है तो इसे चुनाव के गलत तरीकों की संज्ञा दी जाती है. ऐसा मामला पाए जाने पर दोषी व्यक्ति का पूरा चुनाव रद्द कर दिया जाता है.

गौरतलब है कि 1992 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हुए थे. उस समय वहां के नेता मनोहर जोशी ने बयान दिया था कि महाराष्ट्र को वे पहला हिंदू राज्य बनाएंगे. जिस पर विवाद हुआ था और 1995 में बांबे हाईकोर्ट ने उक्त चुनाव को रद्द कर दिया था. फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। बाद में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जेस एस वर्मा की बेंच ने फैसला दिया था कि हिंदुत्व एक जीवन शैली है, इसे हिंदू धर्म के साथ नहीं जोड़ा जा सकता और बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया था.

2005 के तीन जजों के फैसले को पांच जजों की संवैधानिक पीठ को भेजा गया. जनवरी 2014 में सुंदर लाल पटवा का केस आने के बाद इस मामले को सात जजों की संविधान पीठ को भेजा गया.


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