राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ वाले आरोप झूठे, बेबुनियाद और जनता को गुमराह करने वाले हैं। - अरविन्द सिसोदिया
हेडलाइन (Headline)
“कांग्रेस भी मतदाता सूची निर्माण में बराबर की भागीदार – अपनी विफलता का ठीकरा आयोग पर न फोड़े” – अरविन्द सिसोदिया
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5-लाइन मीडिया बाइट
1️⃣ “राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ वाले आरोप झूठे, बेबुनियाद और जनता को गुमराह करने वाले हैं।”
2️⃣ “मतदाता सूची राज्य सरकार के कर्मचारियों और सभी दलों के प्रतिनिधियों की निगरानी में, सर्वसम्मति से तैयार होती है।”
3️⃣ “कांग्रेस के पास भी BLA-1 और BLA-2 नियुक्त करने का अधिकार – अगर उन्होंने किया नहीं तो यह उनकी नाकामी है।”
4️⃣ “आधार लिंकिंग से फर्जीवोटर खत्म होंगे – 2012 से आयोग आग्रह कर रहा है, पर कांग्रेस इसका विरोध कर रही है।”
5️⃣ “लोकतंत्र जिम्मेदारी से मजबूत होता है, झूठे आरोप और भ्रम फैलाकर नहीं।”
प्रेस विज्ञप्ति
कांग्रेस भी मतदाता सूची निर्माण में बराबर की भागीदार,अपनी विफलता का ठीकरा आयोग पर नहीं फोड़े सकती ” – अरविन्द सिसोदिया
“मतदाता सूची निर्माण में कांग्रेस भी उतनी ही जिम्मेदार, झूठ फैलाना बंद करे” – अरविन्द सिसोदिया
“राहुल गांधी के आरोप जमीनी सच्चाई से उलट, सिर्फ राजनीतिक षड्यंत्र” – अरविन्द सिसोदिया
“कांग्रेस अपने कमजोर संगठन की नाकामी का ठीकरा चुनाव आयोग पर नहीं फोड़ सकती” – अरविन्द सिसोदिया
कोटा, 9 अगस्त – भाजपा राजस्थान के मीडिया संपर्क विभाग के प्रदेश सह-संयोजक अरविन्द सिसोदिया ने राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ संबंधी बयान को पूर्णतः झूठा, भ्रामक और देश को गुमराह करने वाला षड्यंत्र करार दिया।
उन्होंने कहा, “मतदाता सूची निर्माण की प्रक्रिया के प्रत्येक चरण से राजनैतिक दल बंधे हुये हैँ, उसमें सम्मिलित हैँ। इसमें व्यापक पारदर्शीता और सर्वसम्मत अवसर है कि किसी भी दल को किसी भी तरह का आरोप लगाने से पहले अपनी भूमिका पर खुद अपनी गिरेवान में देखना होगा । यह सूची संबंधित राज्य की राज्य सरकार के कर्मचारियों की देखरेख में और सभी राजनीतिक दलों के अधिकृत प्रतिनिधियों की सक्रिय भागीदारी से, तथा मतदातासूची के ऑनलाइन हमेशा उपलब्ध होते हुये तैयार होती है। ऐसे में कांग्रेस का आरोप सिर्फ राजनीतिक नौटंकी और दबाव की साजिश है।”
निर्वाचन प्रक्रिया में कांग्रेस की बराबर की भूमिका
सिसोदिया ने कहा, “निर्वाचन आयोग के पास हर बूथ पर अपने स्थायी कर्मचारी रखने की क्षमता नहीं है। बूथ लेवल अधिकारी से लेकर सहायक निर्वाचन अधिकारी और जिला निर्वाचन अधिकारी आदि, सभी राज्य सरकारों के कर्मचारी होते हैं और हर कदम पर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित कर उनकी निगरानी में ही सभी प्रक्रियायें पूरी की जाती है। इसीलिए इसे ‘सर्वसम्मति’ से हुई कार्यवाही माना जाता है।"
उन्होंने कहा कि " कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि उन्हें भी अन्य दलों की तरह बीएलए-1 और बीएलए-2 नियुक्त करने का पूरा कानूनी अधिकार है। बीएलए-1 विधानसभा स्तर पर और बीएलए-2 बूथ स्तर पर मतदाता सूची निर्माण और संशोधन की सीधी निगरानी करता है। पूरे देश में दस लाख से अधिक बूथ हैँ और 780 से अधिक जिला निर्वाचन अधिकारी हैँ। इतना बड़ा तंत्र प्रत्येकस्तर पर राजनैतिक दलों को लगातार आमंत्रित करता रहता है। अगर कांग्रेस बूथस्तर पर सहयोग व निगरानी हेतु अपने बीएलए नियुक्त करने में विफल रही है, तो यह उनकी संगठनात्मक कमजोरी है, इसके लिए वे निर्वाचन आयोग की जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते ।”
बैठक, रिकॉर्ड, पारदर्शिता – सबके लिए खुला
सिसोदिया ने कहा, “प्रत्येक जिला स्तरीय निर्वाचन बैठक में सभी मान्यता प्राप्त दलों के प्रतिनिधि बुलाए जाते हैं। ज्यादातर अवसरों पर प्रेस भी बुलाई जाती है। वर्ष में 2–3 बार दावे-आपत्तियों के लिए मतदाता सूची की मुफ्त प्रतियां दी जाती हैं। प्रत्येक विधानसभा की बूथवार सूची, मतदान केंद्र का पता, यहां तक कि बूथ अधिकारी का नाम और मोबाइल नंबर तक ऑनलाइन उपलब्ध है। मतदाता संसोधन कार्यक्रम के समय बूथ केन्द्रो पर भी मतदाता सूची उपलब्ध होती है। यह बेव साइड पर भी होती है जिसे कोई भी डाऊनलोड कर सकता हे। इतनी खुली और पारदर्शी व्यवस्था के बाद भी अगर कांग्रेस सवाल उठाती है, तो यह उनकी संगठनात्मक और बौद्धिक अक्षमता और अयोग्यता का ही प्रमाण है।”
गड़बड़ी हो तो जिम्मेदारी भी साझा हो
उन्होंने कहा, “यदि मतदाता सूची में कहीं त्रुटि है, तो यह केवल निर्वाचन आयोग की नहीं बल्कि कांग्रेस समेत सभी राजनैतिक दलों की सामूहिक जिम्मेदारी है। प्रत्येक बूथ पर राजनैतिक दलों के बीएलए के पास दावे-आपत्ति का पूरा अधिकार है। यदि कांग्रेस ने इसका उपयोग नहीं किया, तो वे आयोग पर दोष कैसे मढ़ सकते हैं ?, किसी भी पते पर अधिक मतदाता हैँ, या मृतकों के नाम हैँ, या जा चुके लोगों के नाम हैँ तो उन पर बीएलए को ही तो आपत्ति करनी है। ये अधिकार सीधे सरकारी बीएलओ को नहीं होते हैँ, वे दावे आपत्ति प्राप्त होनें पर ही कार्यवाही कर सकते हैँ। इसलिए सभी त्रुटिओं की सामूहिक जबाबदेही है। कोई भी राजनैतिक दल यह कह ही नहीं सकता कि उसे पता नहीं है, आयोग पूरा पूरा अवसर देता है। "
सिसोदिया नें आरोप लगाया कि " कांग्रेस का जमीनीस्तर पर संगठनात्मक भूमिका लगभग समाप्त हो चुकी है। वह सिर्फ हवा हवाई तीर चला कर मीडिया में बनी रहना चाहती है। उन्होंने चुनाव पूर्व संगठन सक्रिय किया होता तो इस तरह के आरोप ही नहीं लगा पाते।”
आधार लिंकिंग पर कांग्रेस का दोहरा खेल
सिसोदिया ने कहा, “शुद्ध मतदाता सूची के लिए आधार कार्ड से लिंक करना बेहद जरूरी है। एक मकान में 80-80 नाम जुड़े हों तो यह कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की सहमति से ही हुआ है। अगर सहमति नहीं थी, तो उनके बीएलए ने आपत्ति क्यों नहीं की ? कुल मिला कर यह कांग्रेस का सुनियोजित भ्रम फैलाने का षड्यंत्र है।"
उन्होंने कहा कि " एक व्यक्ति के नाम का अलग-अलग जगह पंजीकरण केवल आधार लिंकिंग से ही रोका जा सकता है। समाज का एक बड़ा वर्ग व्यवहारिक आवश्यकताओं के कारण जन्म स्थान और कार्य स्थान दोनों जगह नाम पंजीकृत करवाता है, सिर्फ कानून बनाने से यह नहीं रुकेगा। लेकिन आधार लिंक होते ही रुक जाएगा। यह दुर्भाग्य है कि 2012 से निर्वाचन आयोग आधार लिंकिंग का आग्रह कर रहा है, उसकी व्यवहारिक आवश्यकता है. किन्तु उसका सबसे बड़ा विरोध कांग्रेस ही कर रही है। कांग्रेस एक तरफ तुष्टिकरण के वोट बैंक को फर्जीवाड़े का अवसर देनें हेतु आधारलिंकिंग का विरोध करती है और स्थानीय स्तर पर फर्जीवाडा भी खुद करवाती और राजनैतिक नौटंकी कर आयोग पर आरोप लगती है। यह दोहरा चरित्र नहीं चल सकता। ”
लोकतंत्र की मजबूती जिम्मेदारी से, न कि आरोप-प्रत्यारोप से
अंत में सिसोदिया ने कहा, “ भारत का निर्वाचन आयोग विश्व का सर्वश्रेष्ठ और आधुनिकतम तकनीकी युक्त है। इसके जर्ये लोकतंत्र को मजबूत रखना प्रत्येक राजनीतिक दल की अपनी जिम्मेदारी भी है। राजनैतिक दलों को भी जमीनी स्तर पर सक्रिय होकर आयोग का सहयोग करना चाहिए । किन्तु कांग्रेस जनता को गुमराह करने की ओछी और शॉर्टकट राजनीती से काम चला रही है, जो स्वयं कांग्रेस के लिये और देश के लिये नुकसान देह है।"
भवदीय
अरविन्द सिसोदिया
9414180151
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चुनाव आयोग की मतदाता सूची राज्य के कर्मचारी जो blo होते हैँ वे तैयार करते हैँ। दूसरे प्रत्येक राष्ट्रीय दल को bla -1 और bla-2 नियुक्ति का अधिकार मिला हुआ है। अर्थात प्रत्येक बूथ और प्रत्येक विधानसभा में दलगत पार्टी एजेंट होते हैँ। मतदाता सूची प्रतिवर्ष कम से कम दो बार राज्य की प्रत्येक पार्टी को जिलास्तर पर निशुल्क दी जाति है, दावे आपत्तियों के लिये.. इसलिए हमेशा मतदाता सूची को प्रमुख दलों की सहमति का माना जाता है। दूसरा आधारकार्ड मतदाता के नाम से जोड़ दें तो नामों की डबलिंग रुक जाएगी। कांग्रेस ही मतदाता का नाम आधारकार्ड से जोड़ने का विरोध करती है, जिससे ये डवलिंग की समस्या है और तब तक रहेगी जब तक आधार नहीं जुड़ेगा।
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मतदाता सूची में “वोट चोरी” के आरोपों पर तथ्यात्मक प्रतिक्रिया
हाल के दिनों में कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा मतदाता सूची में तथाकथित “वोट चोरी” और “हेरफेर” के आरोप लगाए गए हैं। इस संदर्भ में आमजन एवं मीडिया के समक्ष निम्न तथ्यों को स्पष्ट करना आवश्यक है:
1. मतदाता सूची की तैयारी और नियंत्रण
मतदाता सूची का निर्माण एवं अद्यतन निर्वाचन आयोग की निगरानी में होता है।
इसके लिए BLO (Booth Level Officer), जो राज्य सरकार के कर्मचारी होते हैं, नियुक्त किए जाते हैं। कार्यावधि में BLO सीधे चुनाव आयोग के निर्देशों के अधीन रहते हैं।
2. सभी दलों की सहभागिता
प्रत्येक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय दल को Booth Level Agents (BLA-1 एवं BLA-2) नियुक्त करने का अधिकार है।
BLA-1 मसौदा सूची की जांच करता है, जबकि BLA-2 दावे–आपत्तियों के दौरान संशोधनों की निगरानी करता है।
चुनाव आयोग वर्ष में कम से कम दो बार मतदाता सूची का मसौदा संस्करण जिला स्तर पर सभी दलों को निशुल्क उपलब्ध कराता है, ताकि वे त्रुटियों पर आपत्ति दर्ज कर सकें।
3. जवाबदेही और प्रक्रिया
यदि किसी बूथ या विधानसभा में फर्जी नाम जोड़े गए हों या वैध नाम हटाए गए हों, तो विपक्षी दलों के BLA को इस पर तुरंत आपत्ति करने का कानूनी अधिकार है।
आपत्ति न करना, सूची को मौन स्वीकृति देने के समान है।
4. आरोपों की वास्तविकता
“वोट चोरी” जैसे आरोप इस स्थापित और बहुस्तरीय निगरानी प्रणाली की अनदेखी करते हैं, जिसमें BLO (राज्य कर्मचारी) + BLA (दल प्रतिनिधि) + चुनाव आयोग, तीनों की संयुक्त भूमिका होती है।
यदि व्यापक गड़बड़ी होती, तो सबसे पहले सवाल संबंधित दल के नियुक्त BLA-1 और BLA-2 की निष्क्रियता पर उठना स्वाभाविक है।
निष्कर्ष:
मतदाता सूची को पारदर्शी बनाने की प्रक्रिया में सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की समान भागीदारी होती है। ऐसे में किसी एक संस्था या पक्ष पर “वोट चोरी” का आरोप लगाना भ्रामक है और इससे मतदाताओं में अनावश्यक संदेह उत्पन्न होता है। लोकतांत्रिक मर्यादा के अंतर्गत, सभी दलों को अपनी कानूनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिए।
— समाप्त —
संक्षिप्त मीडिया बयान
मतदाता सूची का निर्माण चुनाव आयोग के अधीन, राज्य कर्मचारियों (BLO) द्वारा होता है और इसकी जांच सभी दलों के नियुक्त एजेंट (BLA-1, BLA-2) करते हैं।
सूची का मसौदा वर्ष में दो बार सभी दलों को मुफ्त दिया जाता है ताकि वे त्रुटियां पकड़कर आपत्ति दर्ज करें।
अगर फर्जी नाम या कटे हुए नाम रह गए, तो यह विपक्ष के BLA की लापरवाही है, न कि केवल आयोग या सरकार की गलती।
“वोट चोरी” जैसे आरोप इस पारदर्शी और बहुस्तरीय प्रक्रिया की अनदेखी हैं और जनता को गुमराह करते हैं।
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राहुल गांधी के "वोट चोरी" आरोप का तथ्यात्मक खंडन
राहुल गांधी ने कई मौकों पर चुनावी प्रक्रिया में “वोट चोरी” या “मतदाता सूची में हेरफेर” जैसे आरोप लगाए हैं। इन आरोपों की जांच करते समय यह समझना जरूरी है कि भारत में मतदाता सूची तैयार करने की संस्थागत और बहुस्तरीय निगरानी कैसी होती है।
1. मतदाता सूची तैयार करने का असल ज़िम्मेदार कौन?
मतदाता सूची तैयार करने और अद्यतन करने की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की होती है, जो एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है।
इसके लिए BLO (Booth Level Officer) नियुक्त किए जाते हैं। BLO राज्य सरकार के कर्मचारी होते हैं, लेकिन इस काम के दौरान वे सीधे चुनाव आयोग के अधीन काम करते हैं।
BLO घर-घर सर्वे करते हैं, नाम जोड़ते/हटाते हैं, और हर बदलाव को दस्तावेज़ी प्रमाण के साथ दर्ज करते हैं।
2. BLA-1 और BLA-2 की भूमिका
हर मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय/राज्यीय दल को Booth Level Agents नियुक्त करने का अधिकार है।
BLA-1 मुख्य रूप से मतदाता सूची के प्रारंभिक मसौदे की जांच करता है।
BLA-2 दावे-आपत्तियों के समय सूची की समीक्षा करता है।
ये एजेंट अपने-अपने बूथ की मतदाता सूची को लाइन-बाय-लाइन देखकर आपत्तियां दर्ज कर सकते हैं, फर्जी नाम हटाने या सही नाम जोड़ने का अनुरोध कर सकते हैं।
> मतलब — अगर किसी बूथ पर गलत नाम जुड़ते हैं, तो उसके बारे में विपक्षी दल के BLA को पहले से पता चल सकता है और वह आपत्ति दर्ज कर सकता है।
3. साल में कम से कम दो बार निरीक्षण
चुनाव आयोग हर साल कम से कम दो बार ड्राफ्ट वोटर लिस्ट सभी मान्यता प्राप्त दलों को जिला स्तर पर मुफ्त देता है।
विपक्षी दलों के पास कानूनी अधिकार है कि वे इसमें गलत नामों पर आपत्ति दर्ज करें और अपने रिकॉर्ड के अनुसार सुधार मांगें।
अगर किसी दल के BLA ने आपत्ति नहीं की, तो इसका मतलब है कि उसने सूची को मौन स्वीकृति दे दी।
4. वोट चोरी का आरोप और वास्तविक प्रक्रिया
“वोट चोरी” का सीधा अर्थ है — किसी के वोट को अवैध रूप से किसी और के नाम पर डालना। लेकिन मतदाता सूची में यह तभी संभव है, जब:
1. फर्जी नाम जुड़ जाएँ,
2. वैध नाम हटा दिए जाएँ,
3. और यह सब BLO + BLA की निगरानी से बच जाए।
चूँकि हर दल के पास बूथ-स्तरीय एजेंट (BLA) होते हैं और वे लिस्ट समय पर पाते हैं, इसलिए यदि बड़े पैमाने पर गड़बड़ी हो तो यह दलगत एजेंटों की निष्क्रियता या लापरवाही का मामला होगा, न कि सिर्फ “शासन या आयोग की मिलीभगत” का।
5. निष्कर्ष
राहुल गांधी का आरोप इस स्थापित व्यवस्था को नज़रअंदाज करता है, जिसमें विपक्ष के पास भी सूची को सत्यापित करने और सुधारने का कानूनी अधिकार है।
यदि किसी क्षेत्र में वोट चोरी या फर्जी नाम हैं, तो सबसे पहले सवाल उस क्षेत्र के कांग्रेस द्वारा नियुक्त BLA-1 और BLA-2 पर उठेगा, कि उन्होंने समय रहते आपत्ति क्यों नहीं की।
इस बहुस्तरीय निगरानी में BLO (राज्य कर्मचारी) + BLA (दल प्रतिनिधि) + चुनाव आयोग, तीनों की संयुक्त जिम्मेदारी है, इसलिए आरोप केवल एकतरफा करना भ्रामक है।
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आधार–वोटर ID लिंकिंग: पृष्ठभूमि, विवाद और वर्तमान स्थिति
भारत में मतदाता सूची तैयार करने और उसे अद्यतन करने की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की होती है। इस कार्य के लिए BLO (Booth Level Officer) — जो आमतौर पर राज्य सरकार के कर्मचारी होते हैं — घर-घर जाकर मतदाताओं की जानकारी जुटाते हैं और नए नाम जोड़ने, मृत व्यक्तियों के नाम हटाने तथा स्थानांतरण करने का काम करते हैं। चुनावी पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए, प्रत्येक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दल को Booth Level Agents (BLA) नियुक्त करने का अधिकार है, जो BLO के कार्य की निगरानी करते हैं और समय-समय पर त्रुटियों की सूचना आयोग को देते हैं।
मतदाता सूची का मसौदा संस्करण वर्ष में कम से कम दो बार तैयार होता है और इसे जिला स्तर पर सभी प्रमुख दलों को मुफ्त में उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे इसमें सुधार या आपत्ति दर्ज करा सकें। इस प्रक्रिया के कारण अंतिम मतदाता सूची को प्रायः सर्वसम्मत माना जाता है — अर्थात, सभी दलों को आपत्ति करने का अवसर मिला होता है।
डुप्लीकेट नामों की समस्या
इसके बावजूद, देश में डुप्लीकेट नाम एक पुरानी समस्या है। इसका मुख्य कारण है — प्रवासन (एक स्थान से दूसरे स्थान जाना), मृत्यु के बाद नाम न हटना, और अलग-अलग जगह पर एक ही व्यक्ति का पंजीकरण होना। इन समस्याओं को दूर करने के लिए एक तकनीकी उपाय सुझाया गया — मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से लिंक करना।
2015: पहला प्रयास और रोक
2015 में चुनाव आयोग ने "नेशनल इलेक्टर्स क्लीनअप ड्राइव" (NECD) चलाकर बड़े पैमाने पर वोटर ID और आधार कार्ड को लिंक करना शुरू किया। इसका उद्देश्य था डुप्लीकेट और फर्जी मतदाताओं के नाम हटाना। लेकिन उसी साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि आधार का उपयोग केवल सीमित सरकारी योजनाओं और सब्सिडी के लिए किया जा सकता है, चुनाव जैसे मामलों में नहीं। इसके बाद यह अभियान रोक दिया गया।
2018: गोपनीयता का अधिकार और आधार पर फैसला
2018 में Puttaswamy केस में सुप्रीम कोर्ट ने आधार को संवैधानिक रूप से वैध माना, लेकिन साथ ही इसे स्वैच्छिक रखा और स्पष्ट किया कि मतदान से जुड़े मामलों में अनिवार्यता लागू करने के लिए संसद को अलग से कानून बनाना होगा।
2019–2020: दूसरा प्रयास
चुनाव आयोग ने सरकार से दोबारा अनुमति मांगी, यह तर्क देते हुए कि आधार से लिंक करने से फर्जी और डुप्लीकेट नाम हटेंगे तथा प्रवासी मतदाताओं की पहचान में मदद मिलेगी। लेकिन उस समय डेटा प्राइवेसी बिल लंबित था, जिसके कारण पहल आगे नहीं बढ़ सकी।
दिसंबर 2021: नया कानून
केंद्र सरकार ने Representation of the People Act में संशोधन कर वोटर ID–आधार लिंकिंग का प्रावधान जोड़ा। इसमें यह लिंकिंग स्वैच्छिक रखी गई। भाजपा और कुछ अन्य दलों ने इसे चुनावी शुचिता के लिए जरूरी बताया, जबकि कांग्रेस, तृणमूल और वाम दलों ने विरोध करते हुए कहा कि आधार डेटाबेस में त्रुटियां हैं और इससे गरीब, ग्रामीण तथा प्रवासी मतदाताओं के नाम गलत तरीके से कट सकते हैं।
2022: लिंकिंग की वापसी
चुनाव आयोग ने BLO के माध्यम से फॉर्म 6B भरवाकर लिंकिंग प्रक्रिया फिर शुरू की। लेकिन इसे वैकल्पिक रखा गया, जिसके कारण राज्यों में अनुपालन दर अलग-अलग रही।
2023–2025: मौजूदा स्थिति
आज भी आधार–वोटर ID लिंकिंग वैकल्पिक है। आयोग का कहना है कि यह डुप्लीकेट नामों को खत्म करने का एक प्रभावी तरीका है, जबकि विपक्ष का तर्क है कि यह प्रक्रिया सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के मताधिकार को खतरे में डाल सकती है। राजनीतिक सहमति के अभाव में यह मुद्दा अधर में लटका हुआ है।
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अगर इसे अख़बारी अंदाज़ में देखें तो यह कहानी बताती है कि तकनीकी समाधान (आधार लिंकिंग) का रास्ता कानूनी सीमाओं, गोपनीयता की चिंताओं और राजनीतिक मतभेदों में कैसे अटक सकता है — और तब तक, डुप्लीकेट मतदाता सूची की समस्या बनी रह सकती है, जब तक कि इस पर सर्वसम्मत और कानूनी रूप से मज़बूत निर्णय नहीं हो जाता।
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