नर से नारायण बनने का मार्ग : एकात्म मानवदर्शन





नर से नारायण बनने का मार्ग बताता है एकात्म मानवदर्शन
साभार:: पाञ्चजन्य              साकेन्द्र प्रताप वर्मा




प्रख्यात चिंतक और विचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि स्वतंत्रता के पश्चात देश की दिशा को लेकर कोई स्पष्टता नहीं रही। स्वतंत्र भारत की गतिविधियों पर लगभग 18 वर्ष तक उन्होंने गहन चिंतन किया। उससे निकली भावधारा एकात्म मानव  दर्शन या एकात्म मानववाद के रूप में सामने आई। इस दर्शन की जड़ें हिन्दुस्थान में समाहित हैं तथा यह समाज के समस्त मानवों के लिए आत्मगौरव से परिपूर्ण, आत्मीयतायुक्त, सत्य के धरातल पर स्थापित कर्ता-बोध का संदेश है। भारत का यह दुर्भाग्य ही था कि इस चिंतन के जनक, इस चिंतन को प्रस्तुत करने के मात्र तीन वर्ष बाद 11 फरवरी, 1968 को चिंतन से घबराये लोगों की साजिश का शिकार बन गए।

दीनदयाल जी ने कहा था कि हमने अपनी प्राचीन संस्कृति का विचार किया है, परन्तु हम कोई पुरातत्ववेत्ता नहीं हैं जो किसी पुरातत्व संग्रहालय के संरक्षक बनकर बैठ जाएं। हमारा ध्येय संस्कृति का संरक्षण नहीं है, अपितु उसे गति देकर सजीव व सक्षम बनाना है। हमको अनेक रूढ़ियां छोड़कर सुधार करने होंगे। व्यवस्था का केन्द्र मानव होगा। भौतिक उपकरण उस मानव के सुख के साधन होंगे, साध्य नहीं। मानव की परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता, सृष्टि और परमेष्टि से आत्मीय एकात्मता होगी तथा मानव इन सभी से सहअस्तित्व स्थापित करेगा।

चिंतन की पृष्ठभूमि

लोकमान्य तिलक ने ‘गीता रहस्य’ नामक पुस्तक में स्वतंत्रता आंदोलन के पीछे की तात्विक
भूमिका का वर्णन किया है। गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ नामक पुस्तक में स्वतंत्र भारत में राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का चित्र खींचा है। उस समय सभी का एक ही ध्येय था कि देश को आजादी मिले। स्वतंत्रता के बाद जो शासन आया उसने कल्याणकारी राज्य, समाजवाद, उदारवाद जैसे लुभावने नारे दिए, जो केवल नारे बनकर रह गए। स्वतंत्रता भी हमारे लिए सुख का साधन नहीं बन सकी, क्योंकि हमको अपनी शक्तियों का ज्ञान ही नहीं था। स्वार्थ के कारण दल-बदल और गठबंधन होते गए, जिनका उद्देश्य भी चुनाव तक था, विचारधारा तक नहीं।
इसलिए जनता के मन में राजनीति के प्रति अविश्वास बन गया।

 1962 के चीन आक्रमण के समय एक ऐसी परिस्थिति भी आई जब जनता, नेता, पार्टी, सरकार अर्थात पूरा देश एकजुट हो गया। परन्तु यह सब तब हो सका जब दुश्मन देश द्वारा खड़ा किया गम्भीर संकट सामने था। यह स्वाभाविक स्थिति नहीं थी। प्रश्न यह खड़ा होता है कि हम किधर चलें, क्योंकि विश्व में हम ही अकेले तो हैं नहीं।
पिछले सैकड़ों वर्षों में दूसरे देशों ने काफी उन्नति कर ली और हम मुगलों या अंग्रेजों से अपनी स्वतंत्रता की ही रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे। परन्तु आज हम स्वतंत्र हैं और अन्य देशों के बराबर खड़े होना हमारे लिए चुनौती है।

अंग्रेजों ने अपने 150 वर्षों के राज में ऐसे ही प्रयास किए हैं जिनके भारत आत्मगौरव को भूल जाए और अंग्रेजों को ही अपना आदर्श मानने लगे। कुछ मात्रा में ऐसा हुआ भी। जब अंग्रेज थे तो हम स्वदेशी भाव के कारण अंग्रेजियत को दूर रखने की कोशिश करते थे परन्तु आज वही अंग्रेजियत हमारी प्रगतिशीलता का परिचायक बन गयी।

चिंतन का आधार हमारी  संस्कृति

प्रत्येक देश की अपनी ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थित होती है। उस देश में समय-समय पर जो भी नेता, विचारक, चिंतक होते हैं। वे उस समय की परिस्थिति में आगे बढ़ने की राह निर्धारित करते हैं। परन्तु ये विचार सब स्थानों पर प्रभावी नहीं दिखते। जो दवा इंग्लैड में लाभप्रद होगी, कोई आवश्यक नहीं कि वह भारत में भी उतनी ही कारगर हो। इसलिए बाहर का सब कुछ हमारे लिए उपयोगी ही है ऐसा सोचना हमारे लिए अनुचित है। हां, जो अच्छा है, उसको ग्रहण करने में कुछ हानि नहीं है।

इसी परिप्रेक्ष्य में जब हम अपने यहां का विचार करते हैं तो राष्ट्रीय दृष्टि से सोचना पड़ेगा अर्थात अपनी संस्कृति का विचार करना पड़ेगा। सम्पूर्ण जीवन तथा सम्पूर्ण सृष्टि का एकात्मवादी विचार प्रस्तुत करना पड़ेगा। क्योंकि हमारी संस्कृति है-‘अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम, उदार चरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम’। अर्थात मेरा है-तेरा है, यह सोचना लघुता है। सारी वसुधा ही मेरा परिवार है। हम प्रकृति की पूजा करते हैं, तुलसी, पीपल, मदार, बेलपत्र, नीम, बरगद आदि वनस्पतियां पूजनीय हैं।

यहां तो जड़, चेतन, नदी, पर्वत सभी के प्रति आत्मयीता का भाव है। अपने यहां कहा गया है-
त्यजेदेकं कुलस्यार्ते, ग्राम स्यर्थे कुलं त्यजेत।
ग्राम जनपस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्।

राष्ट्रहित के लिए जनपद का हित, जनपद के हित के लिए ग्राम का हित, ग्राम के हित के लिए परिवार का हित, परिवार के हित के लिए व्यक्ति का हित तथा पृथ्वी अर्थात सृष्टि के हित के लिए आत्मा का हित त्याज्य है। इसी सहअस्तित्व से सृष्टि चलती है।

संस्कृति के मूल तत्व

भाई-भाई का सम्बंध, पिता-पुत्र का सम्बंध, माता-पुत्र का संबंध, बहन-भाई का संबंध प्रवृत्ति प्रदत्त है। यह सम्बंध मनुष्यों की तरह पशुओं में भी होता है, परन्तु पशु इन सम्बंधों को भूल जाता है और मनुष्य इन सम्बंधों के आधार पर आगे की दिशा तय करता है। अगर हम देखें तो बच्चों के लिए मां का प्रेम बहुत महत्व का है। जो दूसरे के जीवन के लिए सहायक और पोषक है वही हमारी संस्कृति का आधार है। यही मूल तत्व है।

मनुष्य की प्रवृत्ति में मोह भी है, क्रोध भी है, प्रेम भी है, त्याग-तपस्या भी है। तो हम मनुष्य के जीवन का मापदण्ड किसको बनाएं? मनुष्य-पशु, सभी को क्रोध आता है परन्तु क्रोध जीवन का आधार नहीं हो सकता, जीवन का आधार क्रोध का दमन ही हो सकता है। क्रोध का दमन, झूठ न बोलना आदि तमाम शाश्वत सत्य संस्कृति के मूल तत्व हैं।

व्यक्ति का एकात्म स्वरूप

सम्पूर्ण सृष्टि या समाज ही नहीं व्यक्ति का भी हमने एकात्म विचार किया है। सामान्यत: हम किसी व्यक्ति को उसके शरीर के रूप में जानते हैं परन्तु व्यक्ति मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर का सम्मिलित रूप होता है। यूरोप में जब प्रजातंत्र का आंदोलन चला तो मनुष्य को राजनीतिक जीव माना गया। इसमें उसकी राजनीतिक इच्छापूर्ति का उपाय खोजा गया, जिसमें से उसे राजा बनने अर्थात चुनाव लड़ने और राजा को चुनने अर्थात वोट का अधिकार दे दिया। फिर बताया गया कि राज तो तुम्हारा ही है क्योंकि राजा तो तुमने ही बनाया है माने तुम्ही राजा हो। परन्तु बेचारा मानव रोटी की आवश्यकता को भी पूरा नहीं कर पाया। इसलिए मार्क्स ने रोटी को हथियार बनाकर कहा-रोटी, कपड़ा, मकान व्यक्ति की सुख पूर्ति के लिए जरूरी है। इसके लिए संघर्ष करो। परन्तु दीनदयाल जी ने कहा कि यह मनुष्य ही अनिवार्य जरूरत है, किन्तु यही सुख के लिए आवश्यक नहीं है। सुख तो कहीं और छिपा है। अमरीका में तो रोटी भी है परन्तु नींद हराम है, नींद की गोली खाकर नींद आती है।

यदि मन चिंतित है तो स्वादिष्ट व्यंजन भी गले नहीं उतरते। किसी आदमी को जेल में बंद कर दो। वहां तो अच्छी बैरक है, समय से भोजन है, कैदी को कपड़े हैं फिर भी मन दु:खी है। भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास पाण्डवों का सन्धि प्रस्ताव लेकर गए।

जहां पर दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को भी भला-बुरा करा। फिर भोजन पर आने के लिए आमंत्रित किया। भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के यहां नहीं गए अपितु विदुर के यहां गए। विदुर की पत्नी आनन्द में इतनी भाव विह्वल हो गयीं कि केले का छिलका भगवान को खाने के लिए देती गयीं और गूदा कूड़े में डालती गयीं, परन्तु भगवान प्रेमपूर्वक भोजन का सुख उठाते रहे। अर्थात सुख भोजन में नहीं कहीं और है।

यदि किसी अध्यापक से कक्षा में कोई छात्र ऐसा प्रश्न पूछ ले जिसका उत्तर उसे मालूम न हो, तो अध्यापक घर जाकर सबसे पहले उस प्रश्न का उत्तर ही किताबें पलटकर खोजने की कोशिश करता है, भोजन की इच्छा भी पीछे छूट जाती है। जैसे ही प्रश्न का उत्तर मिलता है बुद्धि संतुष्ट हो जाती है। रक्षाबंधन के पर्व पर एक सैनिक को अपनी बहन की राखी न पहुंचे, तो सैनिक की बुद्धि में विभिन्न प्रकार के दृश्य घूमेंगे। उसका मन भी परेशान रहेगा और मेस (भोजनालय) में बने पकवान भी स्वादहीन लगेंगे।


आत्मा और शरीर एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात दोनों एकरूप हैं। मनुष्य की मृत्यु पर कहते हैं कि आत्मा चली गयी। शरीर प्रियजनों के लिए मिट्टी हो गया। आत्मा का पुन: जन्म तो होगा परंतु शरीर बदल जायेगा। इसलिए आत्मा का सुख भी बहुत आवश्यक है। श्राद्धपर्व में एक सज्जन अपने पितरों को जल दे रहे थे। बगल में एक नास्तिक सज्जन ने मजाक किया और कहा कि जल क्यों बर्बाद कर रहे हो, यहां दिया जल वहां कैसे पहुंचेगा? भक्त सज्जन नास्तिक के पिताजी को गालियां देने लगे। इस पर वह नास्तिक क्रोधित हो गया। भक्त सज्जन ने कहा- भाई! नाराज मत हो। अगर मेरे पितरों को यहां दिया जल नहीं पहुंच सकता तो तुम्हारे मृत पिता को मेरी दी गयी गालियां कैसे पहुंच सकती हैं? वस्तुत: यही आत्मा की संतुष्टि है।


शरीर पुरुषार्थ का माध्यम

अपने यहां कहा गया है शरीर धर्म का प्रमुख साधन है। मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा की आवश्यकताओं
और इच्छाओं की पूर्ति के लिए चार पुरुषार्थ आवश्यक हैं। पुरुषार्थ यानी जिनसे मनुष्यत्व सार्थक हो। धर्म आधारित अर्थ और काम, तत्पश्चात मोक्ष अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। यहां मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है
क्योंकि जब तक इसके पहले के तीन पुरुषार्थ उचित रीति से पूर्ण नहीं होते तब तक कर्म बंधन से मुक्ति यानी मोक्ष नहीं मिल सकता। इसी प्रकार मानव की आर्थिक कामनाओं की पूर्ति का माध्यम अर्थ कहा गया है।

हमारे यहां ‘कमाने वाला खायेगा’ का विचार अपूर्ण माना गया है क्योंकि जो बच्चे, बुजुर्ग, अपाहिज, महिलाएं कमाती नहीं, क्या वे नहीं खायेंगी? हमने माना है कि जो भी जन्मा है, खायेगा। या तो वह कमाने का प्रबंध करेगा या समाज उसके योग क्षेम की चिंता करेगा। प्राचीन काल में अपने यहां गुरुकुल शिक्षा की व्यवस्था थी परंतु शुल्क नहीं था। रहने, भोजन की पूरी व्यवस्था होती थी। नि:शुल्क चिकित्सालय थे। आज भी बड़ी मात्रा में ऐसे काम चलते हैं। तिरुपति बालाजी मंदिर में दर्शन का भी शुल्क देना पड़ता है। परंतु वहां भी एक व्यवस्था ऐसी
कर रखी है कि नि:शुल्क दर्शन भी हों, उसे धर्म दर्शन कहा गया है। यही अर्थ का धर्म से सामंजस्य है।

अपनी संस्कृति में ‘धर्मस्य मूलं अर्थ’ अर्थात धर्म के मूल में अर्थ है। तुलसीदास ने भी कहा-भूखे भजन न होय गोपाला। अर्थ सब कुछ है। ऐसा भी हमारे यहां नहीं स्वीकार किया गया, इसी कारण कहा है-
ईशावास्य मिदं सर्वम् यत् किंचत जगत्याम् जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: मा गृध: कस्यविस्वद् धनम्।।

अर्थात सारा जगत ईश्वरमय है इसलिए त्याग के बाद ही उपभोग करना चाहिए तथा किसी के धन की इच्छा नहीं करनी चाहिए। मार्क्स तो बहुत बाद में पैदा हुए परंतु यहां तो हमारे ग्रंथों में बहुत पहले से हमारे अधिकार का धन कितना है इसका उल्लेख किया जा चुका है। आज के युग में गलत तरह से अर्थ संग्रह की दृष्टि अनेक समस्याओं की जननी है। व्यक्ति और परिवार बिगड़ रहे हैं।

व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र

व्यक्ति केवल एकवचन अर्थात मैं तक सीमित नहीं है बल्कि उसका संबंध हम अर्थात समूह से भी है। एक व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र सृष्टि, परमेष्टि सभी का अंग है। परंतु कोई भी समूह समाज या राष्ट्र नहीं हो जाता है। एक छात्र बहुत दुबला-पतला एवं अनुशासित है परंतु जब छात्रों का समूह एकत्र हो जाय तो वही छात्र उद्दण्ड  भी हो जाता है, ताकतवर भी। उसकी मानसिकता बदल जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि वह समूह भीड़ है, समाज नहीं। जब एक समूह लंबे समय तक साथ-साथ रहता है तो उसकी अपनी आदतों से पद्धतियां या सोचने, विचार करने की विशेष प्रणाली निर्माण हो जाती है। वह एक सीमा तक समाज या राष्ट्र होती है।

परंतु इस समाज या राष्ट्र की आत्मा भी होती है, जिसे चिति कहते हैं, जो जन्मजात है। मानव या परिस्थिति निर्मित नहीं है। बिल्कुल वैसे ही जैसे मनुष्य के शरीर में आत्मा होती है। इस चिति के साथ ऐतिहासिक और वातावरणीय परिस्थिति के अनुसार उत्पन्न स्थिति के सामूहिक परिणामों को मिलाकर संस्कृति कही जाती है। अपने यहां विभीषण को धार्मिक तथा जयचंद को देशद्रोही कहा गया। कृष्ण ने अपने मामा कंस की हत्या की, राजा के खिलाफ खड़े हुए परंतु कृष्ण भगवान कहे गये। रावण और दुर्योधन के प्रति आदर नहीं परंतु राम और युधिष्ठर के प्रति आदर भाव। क्यों? क्योंकि हमारे मन की प्रवृति और चिति के अनुरूप जो-जो हुआ उसे हम संस्कृति से जोड़ते गये तथा शेष को विकृति से।

व्यक्ति और राज्य
एक व्यक्ति किसी का पुत्र है, किसी का भाई है, किसी का पिता है, किसी का पति है, किसी का गुरु है। किसी राज्य का नागरिक है, किसी जाति का हिस्सा, मानवता का हिस्सा है, विश्व और सृष्टि का हिस्सा है। आत्मा-परमात्मा का हिस्सा है। व्यक्ति को सभी के साथ समझदारी और सामंजस्य का व्यवहार करना चाहिए, यही संस्कृति का एकात्म भाव है। यही परस्पर पूरकता है। इसके विपरीत जाना विकृति है।

इन संस्थाओं में राज्य बहुत महत्वपूर्ण है परंतु सर्वोपरि नहीं है। केवल राज्य ही समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता। फिर भी महाभारत में भीष्म पितामह ने कहा- राजा कालस्य कारणम् अर्थात राजा ही काल का कारण है। उसी को देखकर आज कार्यपालिका और विधायिका को काल का कारण माना जाता है। परंतु यदि राजा ही सर्वप्रभुता संपन्न माना गया होता तो फिर वेणु को राज सिंहासन से हटाकर प्रभु को राजा बनाने का काम ऋषियों को प्राप्त हो गया होता। इस कारण हम राज्य के प्रति उदासीन हुये, तो भी नहीं चलेगा। यह ठीक है कि राज्य का प्राणतथ्व धर्म में है परंतु राज्य का अपना अलग महत्व है। जैसे कि शरीर के हर अंग का महत्व है। सिर के बाल काटने से नुकसान नहीं है। परंतु बालों के साथ थोड़ी खाल कट जाय तो उपचार से ठीक हो जायेगी। यदि बालों के साथ सिर भी कट जाय तो सब समाप्त हो जायेगा। इसलिए राज्य भी जरूरी है। यदि केवल धर्म में ही पूर्ण शक्ति होती तो समर्थ गुरु रामदास शिवाजी को राज्य चलाने के लिए नहीं कहते। उनसे भी वही करवाते जो स्वयं करते थे।

इसलिए यदि धर्म प्राणतत्व है तो भी राज्य की अनदेखी नहीं की जा सकती।

 क्या है धर्मतत्व?

कई बार बहस होती है कि देश का कानून हम बनाते हैं इसलिए विधायिका बड़ी। परंतु न्यायपालिका कहती है कि कानूनों की व्याख्या तो हम करते हैं इसलिए हम बड़े।

परंतु न तो विधायिका बड़ी, न ही न्यायपालिका बड़ी। सभी को धर्मानुसार काम करने का अधिकार है। अंग्रेजों से लड़ने के लिए कुछ क्रांतिवीर खड़े हो गये। तिलक जी ने कहा, स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, परंतु यह सब बहुमत से प्रस्ताव पारित करवाकर नहीं किया। समग्र स्वाधीनता का प्रस्ताव रावी के तट पर पारित हुआ परंतु जनमत संग्रह से इसे स्वीकार नहीं करवाया गया। इसलिए  सत्य क्या है, यह बहुमत से तय नहीं होता। बहुमत से राजा तय हो सकता है

परंतु राजा क्या करेगा, इसे धर्म तय करेगा।  अब राष्ट्रीय एकता हमारा धर्म है। इसलिए कश्मीर पर जनमत संग्रह करवाने की बात पूर्णतया अधर्म है। धर्म की तत्वनिष्ठा जनता का बहुमत या राजसत्ता नहीं बदल सकती। अमरीका में जब अब्र्राहम लिंकन ने दास प्रथा को समाप्त किया तो दक्षिण अमरीका के राज्यों में बड़ा विरोध किया गया। गृहयुद्ध तक हुआ, वे राज्य अमरीका से अलग होने पर आमादा थे। परंतु लिंकन ने कहा कि दास प्रथा अमरीका की परंपरा और ‘धर्म’ के विरुद्ध है इसलिए कोई समझौता या दासप्रथा पर कदम वापसी का प्रश्न
ही नहीं उठता है। और रही बात अलग होने की तो इसकी भी अनुमति नहीं दी जा सकती।

कभी-कभी धर्म की व्याख्या लागों को पूजा पद्धति की ओर घसीटकर खड़ा कर देती है, जबकि धर्म का अर्थ किसी मात्रा तक राष्ट्रीय कर्तव्य ही है। राक्षसों से परेशान देवता महर्षि दधीचि के पास गये। वज्र निर्माण करने के
लिए उनकी अस्थियां दान में मांगी, क्योंकि वही राक्षसों के विनाश का अस्त्र था। दधीचि ऋषि ने अस्थियां दान कर दीं, देश और मानवता की रक्षा के लिए, क्यों? यही धर्म है। भोजन तो है परंतु यदि रोगी का भोजन स्वस्थ आदमी को और स्वस्थ मनुष्य का भोजन रोगी को दे दिया तो दोनों के साथ अधर्म हो जायेगा।

जब वक्ता बोल रहा हो तब सभा में शांत बैठना धर्म है परंतु यदि उसी प्रकार बिना बताये घर में भी मौन हो गये तो घर वाले डाक्टर को बुला लेंगे। इसलिए वैध-अवैध का निर्धारण केवल धर्म ही कर सकता है।

अपने यहां प्राचीन काल में शासन व्यवस्था के लिए न राजा की आवश्यकता थी न कि दण्ड की। धर्म ही सबकी रक्षा करता था। इसलिए जब राजाओं के राज्याभिषेक की परंपरा प्रारंभ हुई तब राजा कहता था कि मैं दण्डनीय नहीं हूं। तो उस समय पुरोहित राजा के सिर पर पलाश की छड़ी मारकर तीन बार कहता था कि धर्म दण्ड दे सकता है। कई बार लोग बहस करते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, धर्म नहीं। परंतु विचारक ने कहा है कि ईश्वर  का अवतार ही धर्म की स्थापना के लिए हुआ है। ईश्वर सर्वशक्तिमान भी इसी कारण है क्योंकि वह धर्म पर ही चलता है। तभी यह सृष्टि चलती है। देश का संविधान भी राष्ट्रधर्म के लिए है। संविधान में संशोधन करने वाले जन प्रतिनिधि प्रभुता संपन्न हैं।

संविधान परंपरा विरुद्ध नहीं हो सकता। अपना संविधान भी भारत को एकात्म नहीं मानता, केवल संघात्मक मानता है, राज्यों का समूह मानता है, जीवंत भारत माता नहीं। यह धर्म विरुद्ध है। इसीलिए दीनदयाल जी ने कहा है कि एकात्म मानव दर्शन अपनी-अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार प्रत्येक राष्ट्र को विकास करने की स्वतंत्रता देगा, जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण-कर्म के अनुसार विकास करके विकास का संपूर्ण फल समाज और राष्ट्र को देता है। उसी प्रकार राष्ट्र स्वयं को मानवता का अंग समझेगा और प्रत्येक व्यक्ति समाज, राष्ट्र और मानवता, परमेष्टि, सृष्टि के साथ एकात्म हो जायेगा। यही एकात्म मानव दर्शन के रूप में नर से नारायण बनने की प्रक्रिया है।          

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