नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, मास्को जेल में..?


 
 
 
 
 
 
 

Netaji in Moscow jail
 
खे लेने दो नाव आज माँ, कल पतवार रहे न रहे ..
जीवन सरिता की नदियों में, फिर ये धार बहे न बहे ..
जीवन पुष्प चढ़ा चरणों पर, मांगे मातृभूमि से यह वर ..
तेरा वैभव सदा रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहे ....

  सही तथ्य सामने आने चाहिए ,नेताजी के साथ मास्को जेल में क्या हुआ था
 
- अरविन्द सीसोदिया 
     राजस्थान के कोटा जिले में आयोजित प्रबुद्ध जन सम्मलेन को संबोधित करते हुए ; राष्ट्रिय स्वयसेवक सघ के पूर्व सरसंघ चालक कु. सी. सुदर्शन जी ने अपने संबोधन में एक रहस्य उजागर किया क़ी , नेताजी सुभाषचन्द्र बोस  का निधन हवाई दुर्घटना में नहीं हुआ था.., बल्कि वे १९४९ तक जीवित थे और उनसे मास्को जेल में विजयलक्ष्मी पंडित और सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भेंट की थी.....!  वे ( विजयलक्ष्मी पंडित ) एक जगह यह रहस्य उजागर भी करने वाली थी.., मगर जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें रोक दिया...!! सुदर्शन जी का कहना था की नेताजी ने कूटनीतिक तोर  पर यह खबर फेलाई थी कि उनकी मृत्यु हो गई...! सच यह है कि वे पनडुब्बी और पैदल मार्ग से सोवियत संघ पहुचे थे, वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.., क्यों कि तब तक सोवियत संघ भी जर्मन हमले के कारण, ब्रिटेन-अमरीकी गुट अर्थात मित्र राष्ट्रों के समूह से मित्रता कर चुका था..!  

   सवाल यह है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु की संदिग्धता हमेशा ही रही है..!  उन्हें लगातार जीवित बताया जाता रहा है..! अनेकों वार उनकी मृत्यु  की जांच के लिए आयोग गठित हुए...! आयोगों को कभी भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने से, ये वे नतीजा ही रही जांचे..!! क्योंकि यह बहुत ही अधिक गंभीर बात है कि नेताजी सुभाष १९४९ में मास्को जेल में थे और कांग्रेस के नेताओं को मालूम भी था और देश के इस महान सपूत को बचानें के लिए कोई प्रयास नहीं हुए...!! उनका  क्या हुआ...; यह देश जानना चाहता है...? 
 राष्ट्रिय स्वयसेवक सघ के पूर्व सरसंघ चालक कु. सी. सुदर्शन जी ने जो बोला है वह तथ्यात्मक है...., उनका बोला हुआ सामान्य नहीं हो सकती.., बात में कोई दम तो है ...!!
 


विजय लक्ष्मी पंडित (स्वतंत्रता  सेनानी एवं नेहरूजी की सगी बहन )

लापता होना और मृत्यु की खबर
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
23 अगस्त, 1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को खबर दी, कि 18 अगस्त के दिन, नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।
दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्च्हय किया, लेकिन वे कामयाब नहीं रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह नतिजा निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। 18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
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लापता होना और मृत्यु की खबर

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये।

23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू (Taihoku Teikoku Daigaku) हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।


18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चन्द्र बोस के होने का मामला राज्य सरकार तक गया। परन्तु राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप के योग्य न मानते हुए मामले की फाइल ही बन्द कर दी। 
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भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का प्रभाव

कटक में सुभाष चन्द्र बोस का जन्मस्थान अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है।
हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।

नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।

आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् १९४६ के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।

आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।


जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।
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http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/173912/1/19

नेताजी की रहस्यमय मौत पर एक और सनसनीखेज खुलासा

29, Jan, 2013, Tuesday
कोलकाता !   नेताजी सुभाषचंद्र बोस की रहस्यम मृत्यु पर एक और सनसनीखेज खुलासा करते हुए रूस मे रामकृष्ण मिशन के प्रमुख मंहत ने कहा है कि नेताजी की मौत विमान दुर्घटना में नही बल्कि  रूस की एक जेल मे हुयी थी।
     रूस मे पिछले दो दशक  से रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष रहे ज्योतिरानंद ने अपनी हाल की असम यात्रा के दौरान एक टेलीविजन साक्षात्कार मे यह बात कही। उन्होंने कहा कि भारत सरकार का यह दावा गलत है कि  नेताजी 18 अगस्त 1945 को ताईवान में ताईहोकू हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटना मे मारे गए थे।
     उन्होने कहा कि सच्चाई यह है कि उन्हे रूसियों ने पकड लिया था और ओमस्क की जेल मे कैद कर दिया था जहां काफी समय बाद उन्होंने अंतिम सांस ली थी। ओमस्क रूस के हिम आच्छादित साइबेरिया क्षेत्र का एक छोटा शहर है। उन्होंने कहा कि इस बात की पूरी संभावना है कि नेताजी ने इसी जेल मे अपनी अंतिम सांस ली होगी।
     मास्को मे रामकृष्ण मिशन की सचिव सुश्री लिलियाना मालकोवा ने श्री ज्योतिरानंद के इस सनसनीखेज खुलासे को सही बताया है। मंहत ने कुछ दस्तावेजों और रूस में भारत की तत्कालीन राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित के बयान का हवाला देते हुए बताया कि जब सुश्री पंडित को नेताजी के ओमस्क जेल मे होने की खबर लगी तो वह उनसे मिलने वहां गयी थीं लेकिन रूसी अधिकारियो नें उन्हें नेताजी से नहीं मिलने दिया।
श्री ज्योतिरानंद ने कहा कि सुश्री पंडित जब जेल से बाहर निकल ही रहीं थीं कि उन्होंने हूबहू नेताजी से मिलते जुलते शक्ल वाले एक कैदी को वहां देखा। वह कैदी काफी थकाहारा दिखाई पड रहा था। ऐसा लगता था कि उसे जेल में काफंी यातना दी गयी है जिससे उसका मानसिक संतुलन बिगड गया है।
     मंहत ज्योतिरानंद के मुताबिक  सुश्री पंडित यह सब देख कर बहुत व्यथित हुयी थीं और फैांरन नयी दिल्ली पहुंच कर उन्होंने इस बात की जानकारी कांग्रेस के तत्कालीन बडे नेताओं को दी थी। लेकिन इस पर कोई कार्रवायी नहीं की गयी।
    इस बीच नेताजी पर शोध कर रहे एक शोधर्कता अनुज धर ने आज कोलकाता में विदेश मंत्रालय के 12 जनवरी 1996 के एक ऐसे गोपनीय दस्तावेज का हवाला दिया जिसमे मंत्रालय की ओर से रूस की मीडिया में लगातार आ रही उन खबरो पर गहरी चिंता जतायी गयी थी जिनमे कहा गया था कि नेताजी की मौत 1945 के बाद रूस की एक जेल मे हुयी थी। इस दस्तावेज पर मंत्रालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव आर एल नारायणन के हस्ताक्षर है और साथ ही उसमें एक पूर्व विदेश सचिव की टिप्पणी भी संलग्न है।
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मेरे दो और लेख जिनकी लिंक इस तरह से है ....

सोमवार, १७ जनवरी २०११

सुभाष जिनकी मृत्यु भी रहस्यमय है ..

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शनिवार, २२ जनवरी २०११

सुभाष जी का सच, सामने आना चाहिए ....!!

http://arvindsisodiakota.blogspot.com/2011/01/blog-post_22.html

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यह  लेख  भी पढ़ना चाहिए ...नेताजी की मृत्यु भारत में ही हुई बताया गया है .... 
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आडवानी जी ने भी कहा था....

हम अभी भी निर्णायक रूप से यह नहीं जानते और इसमें भी अभी यह संशय बना हुआ है कि नेताजी की मृत्यु कहां हुई और कैसे हुई? आधिकारिक तौर पर-और यहां मैं अंग्रेजी सरकार के उस आधिकारिक बयान का उल्लेख कर रहा हूं - उनकी मृत्यु ताइवान के ऊपर एक हवाई जहाज दुर्घटना में हुई थी जब वे 18 अगस्त 1945 को टोक्यो जा रहे थे। इसका यह अर्थ है कि जब उनकी मृत्यु हुई तो वे मात्र 48 वर्ष के थे। तथापि, उनका पार्थिव शरीर कभी भी नहीं मिला।
  इस मामले की जांच करने के लिए भारत सरकार द्वारा कई समितियों का गठन किया गया था। वास्तव में, जब मैं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन सरकार (1998-2004) में केन्द्रीय गृहमंत्री था तो हमने वर्ष 1999 में न्यायमूर्ति मुखर्जी की अध्यक्षता में एक जांच आयोग बैठाया था। इसकी रिपोर्ट मई 2006 में संसद में प्रस्तुत की गई थी जिसमें यह कहा गया कि नेताजी की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में नहीं हुई थी और टोक्यो में रेंकोजी मंदिर में रखी गई राख और अस्थियां उनकी नहीं हैं। तथापि यूपीए सरकार ने आयोग के निष्कर्षों को अस्वीकार कर दिया।

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नेहरूजी को माउण्टबेटन की चेतावनी
माउण्टबेटन के बुलावे पर नेहरूजी जब 1946 में (भावी प्रधानमंत्री के रूप में) सिंगापुर जाते हैं, तब गुजराती दैनिक ‘जन्मभूमि’ के सम्पादक श्री अमृतलाल सेठ भी उनके साथ होते हैं।
लौटकर श्री सेठ नेताजी के भाई शरत चन्द्र बोस को बताते हैं कि एडमिरल लुई माउण्टबेटन ने नेहरूजी को कुछ इन शब्दों में चेतावनी दी है-
‘हमें खबर मिली है कि बोस विमान दुर्घटना में नहीं मरे हैं, और अगर आप जोर-शोर से उनका यशोगान करते हैं और आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में फिर से शामिल करने की माँग करते हैं, तो आप नेताजी के प्रकट होने पर भारत को उनके हाथों में सौंपने का खतरा मोल ले रहे हैं।’
इस चेतावनी के बाद नेहरूजी सिंगापुर के ‘शहीद स्मारक’ (नेताजी द्वारा स्थापित) पर माल्यार्पण का अपना पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम रद्द कर देते हैं। बाद में वे कभी नेताजी की तारीफ नहीं करते; प्रधानमंत्री बनने पर आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल नहीं करते, नेताजी को ‘स्वतंत्रता-सेनानी’ का दर्जा नहीं दिलवाते, और... जैसाकि हम और आप जानते ही हैं... हमारी पाठ्य-पुस्तकों में स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास लिखते वक्त इसमें नेताजी और उनकी आजाद हिन्द सेना के योगदान का जिक्र न के बराबर किया जाता है।
(उल्लेखनीय है कि 15 से 18 जुलाई 1947 को कानपुर में आई.एन.ए. के सम्मेलन में नेहरूजी से इस आशय का अनुरोध किया गया था कि आजादी के बाद आई.एन.ए. (आजाद हिन्द) सैनिकों को नियमित भारतीय सेना में वापस ले लिया जाय, मगर नेहरूजी इसे नहीं निभाते; जबकि मो. अली जिन्ना पाकिस्तान गये आजाद हिन्द सैनिकों को नियमित सेना में जगह देकर इस अनुरोध का सम्मान रखते हैं।)
By: राम प्रसाद बिस्मिल
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नेहरू सरकार ने 20 साल तक करवाई थी 

नेताजी के परिवार की जासूसी?


नवभारतटाइम्स.कॉम| Apr 10, 2015,

http://navbharattimes.indiatimes.com/india/nehru-got-netaji-executed-swamy/articleshow/45999281.cms
नई दिल्ली
इंटेलिजेंस ब्यूरो की दो फाइल्स से साफ हुआ है कि जवाहरलाल नेहरू सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की 20 साल तक जासूसी करवाई थी । इंग्लिश न्यूज पेपर मेल टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक ये फाइल्स नैशनल आर्काइव्स में हैं। इनसे पता चलता है कि 1948 से लेकर 1968 तक लगातार बोस के परिवार पर नजर रखी गई थी। इन 20 सालों में से 16 सालों तक नेहरू प्रधानमंत्री थे और आईबी सीधे उन्हें ही रिपोर्ट करती थी।

ब्रिटिश दौर से चली आ रही जासूसी को इंटेलिजेंस ब्यूरो ने बोस परिवार के दो घरों पर नजर रखते हुए जारी रखा था। कोलकाता के 1 वुडबर्न पार्क और 38/2 एल्गिन रोड पर निगरानी रखी गई थी। आईबी के एजेंट्स बोस परिवार के सदस्यों के लिखे या उनके लिए आए लेटर्स को कॉपी तक किया करते थे। यहां तक कि उनकी विदेश यात्राओं के दौरान भी साये की तरह पीछा किया जाता था।

एजेंसी यह पता लगाने की इच्छुक रहती थी कि बोस के परिजन किससे मिलते हैं और क्या चर्चा करते हैं। यह सब किस वजह से किया जाता, यह तो साफ नहीं है, मगर आईबी नेताजी के भतीजों शिशिर कुमार बोस और अमिय नाथ बोस पर ज्यादा फोकस रख रही थी। वे शरत चंद्र बोस के बेटे थे, जो कि नेताजी के करीबी रहे थे। उन्होंने ऑस्ट्रिया में रह रहीं नेताजी की पत्नी एमिली को भी कई लेटर लिखे थे।

अखबार से बातचीत में नेता जी के पड़पौत्र चंद्र कुमार बोस ने कहा, 'जासूसी तो उनकी की जाती, जिन्होंने कोई क्राइम किया हो। सुभाष बाबू और उनके परिजनों ने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी है। कोई उनपर किसलिए नजर रखेगा?' पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज अशोक कुमार गांगुली ने मेल टुडे से बात करते हुए कहा, 'हैरानी की बात यह है कि जिस शख्स ने देश के लिए सब कुछ अर्पित कर दिया, आजाद भारत की सरकार उसके परिजनों की जासूसी कर रही थी।'

बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता एम.जे. अकबर ने अखबार से बातचीत में कहा कि इस जासूसी की एक ही वजह हो सकती है। उन्होंने कहा, 'सरकार को पक्के तौर पर नहीं पता था कि बोस जिंदा हैं या नहीं। उसे लगता था कि वह जिंदा हैं और अपने परिजनों के संपर्क में है। मगर कांग्रेस परेशान क्यों थी? नेताजी लौटते तो देश उनका स्वागत ही तो करता। यही तो वजह थी डर की। बोस करिश्माई नेता थे और 1957 के चुनाव में उन्होंने कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी होती। यह कहा जा सकता है कि अगर बोस जिंदा होते, तो जो काम 1977 में हुआ, वह 15 साल पहले ही हो जाता।'

आईबी की फाइल्स को बहुत कम ही गोपनीय दस्तावेजों की श्रेणी से हटाया जाता है। ऑरिजनल फाइल्स अभी भी पश्चिम बंगाल सरकार के पास हैं। अखबार का कहना है कि 'इंडियाज़ बिगेस्ट कवर-अप' के लेखक अनुज धर ने इस साल जनवरी में इन फाइल्स को नैशनल आर्काइव्ज़ में पाया था। उनका मानना है कि इन फाइल्स को गलती से गोपनीय की श्रेणी से हटा दिया गया होगा।


नेताजी की हत्या में नेहरू का हाथ था: स्वामी



एजेंसियां| Jan 24, 2015

मेरठ अपने दावों और खुलासों के लिए चर्चित बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी का कहना है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की हत्या रूस में स्टालिन ने कराई थी और इसमें जवाहर लाल नेहरू का हाथ था । उन्होंने वादा किया कि अगली बार नेताजी की जयंती पर वह मेरठ आएंगे तो अपने साथ इससे जुड़े दस्तावेज और फाइलें लेकर आएंगे। स्वामी ने यह भी कहा है कि सुनंदा पुष्कर की हत्या की गई है और इस मामले में कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी से भी पूछताछ होनी चाहिए। 

सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर एक कार्यक्रम में भाग लेने शुक्रवार को मेरठ आए स्वामी ने कहा, 'द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नेताजी को वॉर क्रिमिनल घोषित कर दिया गया तो उन्होंने एक फर्जी सूचना फ्लैश कराई गई कि प्लेन क्रैश में नेताजी की मौत हो गई। बाद में वह शरण लेने के लिए रूस पहुंचे, लेकिन वहां तानाशाह स्टालिन ने उन्हें कैद कर लिया। स्टालिन ने नेहरू को बताया कि नेताजी उनकी कैद में हैं क्या करें? इस पर उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को इसकी सूचना भेज दी और कहा कि आपका वॉर क्रिमिनल रूस में है। साथ ही उन्होंने स्टालिन को इस पर सहमति दे दी कि नेताजी की हत्या कर दी जाए।' 

बीजेपी नेता ने कहा, 'उस वर्ष 1945 में ताइवान में कहीं भी कोई हवाई दुर्घटना न तो दर्ज है और न ही बोस का नाम मृतकों की सूची में शामिल है। जवाहरलाल नेहरू के तत्कालीन स्टनॉग्रफर श्यामलाल जैन मेरठ के ही थे। उन्होंने खोसला कमिशन के सामने अपने बयान में बताया था कि रूस के प्रधानमंत्री स्टालिन ने संदेश भेजा था कि 'सुभाष चंद्र बोस हमारे पास हैं, उनके साथ क्या करना है?' उन्होंने बताया था कि इस पत्र का जवाब प्रधानमंत्री नेहरू ने 26 अगस्त 1945 को आसिफ अली के घर बुलाकर उनसे ही लिखवाया था। हालांकि कमिशन ने इस पर विश्वास न कर उनसे सबूत मांगा था।' 

स्वामी ने कहा कि इसी अहसान में नेहरू हमेशा रूस से दबे रहे और कभी कोई विरोध नहीं किया। उनहोंने कहा कि नेताजी की मौत के रहस्य से पर्दा उठेगा और सच सामने आएगा कि देश के गद्दार कौन थे। बीजेपी नेता ने कहा कि इस बारे में उनकी केंद्र सरकार से बात हो रही है। वादा किया कि अगले साल जब वह नेताजी के जयंती समारोह में शामिल होने मेरठ आएंगे तो सारे दस्तावेज और संबंधित फाइलें उनके पास होंगी। 

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CIA को था यकीन, 1964 में लौट आएंगे बोस
Feb 7, 2014


कोलकाता अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने 1945 में विमान दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस की मौत पर संदेह जताया था और उसे सूचना थी कि नेताजी 1964 में निर्वासन से लौट आएंगे। यह खुलासा गोपनीय दस्तावेजों से हुआ है। 

सीआईए की तरफ से जारी दस्तावेजों में कहा गया है कि दस्तावेजों की खोज से संकेत मिलते हैं कि नेताजी की मौत के बारे में कोई सूचना नहीं है, जो रिपोर्टों की विश्वसनीयता पर प्रकाश डालते हों। सीआईए की तरफ से फरवरी 1964 में जारी दस्तावेज के मुताबिक, इस तरह के विचार थे कि बोस वर्तमान नेहरू सरकार को कमजोर करने के लिए बागी समूह का नेतृत्व कर रहे थे। 

सीआईए के चार दस्तावेज शोधकर्ता अभिषेक बोस और अनुज धर के अलावा नेताजी के पड़पोते चन्द्र बोस को दिए गए थे, जिन्होंने सूचना की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत विस्तृत जानकारी मांगी थी। जनवरी 1949 की रिपोर्ट के मुताबिक एजेंसी ने इन अफवाहों पर गौर किया कि बोस अब भी जिंदा हैं। 

नवम्बर 1950 में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की विस्तृत व्याख्या में एक उच्चपदस्थ सूत्र ने सीआईए को सूचना दी थी कि नई दिल्ली में कहा जा रहा है कि बोस साइबेरिया में हैं, जहां वह वापसी की बड़ी संभावना का इंतजार कर रहे हैं। 

जारी दस्तावेजों में सबसे पुराना मई 1946 का है जिसमें नेताजी की मौत की पुष्टि के बारे में वाशिंगटन डीसी में विदेश मंत्री से जानकारी मांगी गई थी।


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नेताजी के बारे में सच बताएं

Friday, 03 April, 2015

मेजर जनरल (डॉ) जी डी बक्शी एसएम, वीएसएम (सेवानिवृत्त)
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने देश को ऎसे अनेक महान नेता दिए जिनके पास व्यापक दृष्टि थी। आज अगर पीछे मुडकर देखें तो उनमें सबसे बड़ा कद नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नजर आता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि महात्मा गांधी ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जन आंदोलनकारी चरित्र दिया था और भारत की व्यापक किसान आबादी को स्वतंत्रता संग्राम से जोडने में सफलता प्राप्त की थी। वे गांधी ही थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को भारतीय बनाया और उसे भारत के मुख्य शहरों में वकील समाज की अशक्त बहसबाजी के स्तर से उपर उठाया।

पहले ये वकील ब्रिटिश सरकार के सामने केवल याचिकाएं ही दिया करता था। लेकिन 1919 के जालियांवाला हत्याकांड के बाद तो स्थितियो का कोई स्पष्टीकरण ही नहीं बचा। तब गांधी जी ने अंग्रेजों के साथ असहयोग का लक्ष्य सामने रखकर पूर्ण स्वराज्य और जन आंदोलन की जरूरत को रेखांकित किया। 

गांधी और बोस में स्वतंत्रता संग्राम की मूल रणनीतिक दिशा तथा उसे प्राप्त करने के साधन और पद्धितियों पर भारी मतभिन्नता थी। यह बहस उस समय की सबसे निर्णायक बहसों में थी जिसने हमारी उस राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप को भी प्रभावित किया जो कि स्वतंत्रता के बाद उभरी। आगामी दिनों में भारतीय राज्य के नरम बनाम कठोर रूझान के मूल में यही बहस है। इस बहस को आज फिर से खोलने की जरूरत है।

निष्ठा पर सवाल
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए शांतिपूर्ण व अहिंसक मार्ग को अपनाया था जिसके केंद्र में मूल विचार अहिंसा थी। जबकि बोस का मानना था कि सिर्फ व्यापक हिंसा ही अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए मजबूर कर सकती है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के जारी रहने के पीछे सबसे बड़ा कारण था भारतीय सैनिकों की ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी। एक बार यह समाप्त हो जाए तो फिर ब्रिटिश राज भारत में एक दिन भी कायम नही रह सकता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बोस वैश्विक शक्तियों की सहायता लेना चाहते थे जिससे औपनिवेशिक साम्राज्य पर सैनिक दबाव बनाया जा सके और ब्रिटिश राज को उखाड फेंका जा सके।

आज उपलब्ध ऎतिहासिक अंत:दृष्टि ने यह साबित कर दिया है कि यह बोस की वृहत रणनीतिक सोच व बोस और उनकी आईएनए का ही साया था जिसने रॉयल भारतीय सेना तथा भारतीय सेना की इकाइयों में बगावत को प्रेरित किया था, जिससे अंग्रेज देश छोड़ने को विवश हुए। आज उस ऎतिहासिक बहस को पुन: समझना मार्गदर्शक हो सकता है, क्योंकि जिस व्यक्ति के प्रयास वास्तविक रूप से भारत को स्वतंत्रता दिलाने के केंद्र में रहे, उस व्यक्ति की समझ और निष्ठा पर सवाल उठाए जा रहे हैं। 

सावधानीपूर्वक निर्मित की गई लोकप्रिय समझ के विपरीत हकीकत यह है कि अहिंसा स्वतंत्रता दिलाने में असफल हो चुकी थी। इसको काफी कुछ बांध कर रखा गया था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद तो यह समाप्त सा हो चुका था। कांग्रेस ने 1942 में भारत छोडो आंदोलन छेड़ा था। अंग्रेजों ने इसका जवाब पूरे कांग्रेस नेतृत्व को जेल में डालकर दिया था। युद्ध के समय लागू डेकोनियन सेसरशिप ने आंदोलन को प्रेस कवरेज की ऑक्सीजन से वंचित कर दिया था और आंदोलन को जरूरी सफलता नहीं मिली थी। 1944-45 तक तो यह पूरी तरह खत्म हो चुका था।

अहिंसा की भूमिका "न्यूनतम" 
फिर वह क्या था जिस कारण अंग्रेज दो साल बाद ही देश को जल्दबाजी में छोड़कर चले गए। जस्टिस पीवी चक्रवर्ती जो प. बंगाल के प्रथम राज्यपाल थे, ने यह सवाल पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेट एटली के सामने (1956) रखा था। एटली जो भारतीय स्वतंत्रता के विषय में सर्वाधिक विवादास्पद निर्णयकर्ता समझे जाते हैं व अपने जवाब में अत्यंत स्पष्टवादी थे, उन्होंने कहा यह सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद सेना थी। राज्यपाल ने यह भी पूछा कि इस निर्णय को प्रभावित करने में महात्मा गंाधी के अहिंसक संघर्ष की क्या भूमिका थी। यह सुनते ही एटली के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कराहट आई और उन्होंने चबा-चबा कर एक ही शब्द कहा "न्यूनतम"।


बोस पहले अफगानिस्तान और फिर वहां से इटली निकल गए थे। वहां से वे जर्मनी चले गए जहां उन्होंने युद्ध कैदियों को मिलाकर सैन्य दल की स्थापना की। उन्होंने हिटलर को भारत पर आक्रमण करने के लिए मनाने की कोशिश की। जब यह कारगर नहीं हुआ तो निडर बोस एक जर्मन पनडुब्बी यू-180 में बैठकर अटलंाटिक पार कर कैप ऑफ गुड होप होते हुए मेडागास्कर पहंुचे। वहां से वे एक जापानी पनडुब्बी आई- 28 में बैठकर जापान पहुंचे। उन्होंने सिंगापुर में एक स्वतंत्र भारत सरकार की घोषणा की तथा ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।

उन्होंने 60,000 सैनिकों के साथ तीन बलों की इकाइयों में बंटी एक भारतीय आजाद हिंद सेना खडी की तथा जापान को कोहिमा तथा इंफाल होते हुए भारत पर आक्रमण करने के लिए मना लिया। आईएनए की लगभग दो टुकडियों ने इस आक्रमण में भाग लिया। लगभग 26,000 आईएनए जवानों ने इस आक्रमण में अपनी जान गंवा दी। आईएनए ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया।

ब्रिटिश सरकार भारतीय सेना में किसी व्यापक विद्रोह की आशंका से भयभीत हो गई। दुर्भाग्य से आईएनए काफी देर से पहुंची थी। अब तक युद्ध पलटी खा चुका था। हिरोशिमा और नागासकी पर परमाणु बम विस्फोट के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। हताश हुए बिना बोस रूस से संपर्क साधने के लिए एक जापानी बम वाहक विमान में मंचूरिया चले गए और उनकी सहायता से भारत का स्वतंत्रता संग्राम जारी रखा। एक विमान के नष्ट होने की खबरें आईं पर बोस की दंतकथाएं अब तक सुनी जाती हैं।

अंग्रेजों ने डर से छोड़ा देश
बौखलाए अंग्रेजों ने अपनी जीत का भौंडा प्रदर्शन करने के लिए आईएनए के तीन अफसरों पर जिनमें एक हिंदू, एक सिख और एक मुस्लिम था, लाल किले में अभियोग चलाया। इसने राष्ट्रवादी भावनाओं की सुनामी पैदा कर दी। रॉयल इंडियन नेवी तथा ब्रिटिश भारतीय सेना की कुछ इकाइयों में बगावत हो गई। नेवी में बगावत विशेष रूप से चिंताजनक थी। इसमें 72 जहाजों के 20 हजार सैनिकों ने भाग लिया था। युद्ध के बाद लगभग 25 लाख ऎसे भारतीय सैनिकों को, जो कि लड़ाई से मजबूत हो चुके थे, को फौज की सेवा से हटा दिया गया था। वे गुस्से में थे। इंटेलीजेंस की रिपोर्ट बहुत चिंताजनक थीं। इससे हिल चुके अंग्रेजों ने दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने में देर नहीं लगाई और सम्मान के साथ देश छोड़ने में ही भलाई समझी। 

सैन्य शक्ति को नहीं दिया महत्व
नेहरू ने जानबूझकर इस झूठे कथानक को गढ़ा कि भारत ने मात्र अहिंसा की सौम्य ताकत के बल पर ही आजादी हासिल कर ली थी। इसके परिणामस्वरूप भारत ने सैनिक शक्ति को संसाधनों से वंचित रखा तथा उसे जरूरी महत्व नहीं दिया। इसी कारण चीन ने भारत के सौम्य शक्ति के गुब्बारे को 1962 में फोड़ दिया और भारत को एक अत्यंत अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा। इस हार ने भारतीय विदेश और सुरक्षा नीति में यथार्थवाद का एक दौर का आरंभ किया जिसका चरमोत्कर्ष बांग्लादेश युद्ध में हमारी शानदार जीत में हुआ।

1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने भारत के विचार को नकारने की कोशिश की थी। 1872 से ही उन्होंने भारत में जाति आधारित जनगणना शुरू कर दी थी। इसके बाद उन्होंने मुस्लिम, ईसाई, सिख तथा दलित के लिए पृथक निर्वाचक-समूह बनाए। इस सबका उद्देश्य एक ही था कि भारत के विचार को इस कदर तोड़ देना, बिखेर देना कि उसमें कोई सुधार ही संभव न हो। आज उपराष्ट्रीय, नृजातीय, सांस्कृतिक तथा पंथ आधारित पहचानों के कई समर्थक भारत की समग्र पहचान को नष्ट करने के उत्सव में व्यस्त हैं। हमें इस समय बोस, उनकी आजाद हिंद सेना तथा अखिल भारतीय पहचान को रेखांकित करने वाले राष्ट्रीय अभियान को याद करना चाहिए। 

जो भी खबरें छन-छन कर आ रही हैं वो यही कहती हैं कि बोस उस मंचूरिया से भाग निकलने में सफल हो गए थे, जहां उन्होंने भारत की आजादी के लिए रूसी सेनाओं से सोवियत संघ की सहायता मांगने के लिए संपर्क साधा था। स्टालिन तो यही मानते थे कि नेताजी जापानी सेना में शामिल हो गए थे और उसने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। 

वहां से नेताजी साइबेरिया की याकुत्सक जेल-कोठरी क्रमांक 45 में भेज दिए गऎ, जहां उन्हें प्रताडनाएं दी गई थीं। ब्रिटिश इंटेलीजेंस को बोस के बारे में पता चल गया था उन्होंने रूस को बोस को खत्म करने के लिए राजी कर लिया था, क्योंकि अगर वे भारत आ जाते तो फिर नेहरू का शासन चलाना संभव नहीं रह जाता। इसलिए स्टालिन ने वैसा ही किया और नेताजी को एक प्लास्टिक बैग की सहायता से गला घोंट कर मार दिया गया।

नए सिरे से समझना होगा इतिहास
स्तब्ध करने वाला सवाल जो अभी भी अुनत्तरित रहता है, वह यह कि क्या नेहरू और भारत सरकार को इस सबकी जानकारी थी, और क्या बोस के साथ जो हुआ उसमें सरकार का गुपचुप सहयोग था? भारत की वर्तमान सरकार के सामने, नेहरू सरकार के समय हुई गलतियों को छिपाने की क्या मजबूरी है? अब न तो स्टालिन हैं और न ही पुराना सोवियत संघ। इसलिए बोस संबंधी विवाद के कारण रूस से भारत के संबंध खराब होगे ऎसा मानने का कोई कारण नहीं है। फिर सरकार क्यों अब भी बोस संबंधी फाइलों को "डिक्लासीफाई" कर सार्वजनिक करने से कतरा रही है। 


इस सच का हम सबके भविष्य से गहरा संबंध है। स्वतंत्रता के बाद देश में जो "वकील राज" शुरू हुआ उसने गांधी को हाशिए पर ढकेल दिया और बोस की यादों को भी दफना दिया। पाकिस्तान के विपरीत भारत में आजाद हिंद सेना के जवानों को भारत में शामिल नहीं किया गया और 1970 के उत्तरार्घ तक उन्हें कोई युद्ध संबंधी पेंशन भी नहीं दी गई। अर्थात नेहरू के शासनतंत्र में आजाद हिंद सेनानियों से गद्दार की तरह व्यवहार किया गया। यह विचार हमें हमारे मूल प्रश्न की तरफ ले जाता है। 
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Netaji Subhash Chandra Bose : 

क्या हवाई दुर्घटना से बच गए थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस?

23 Jan, 2013 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए सबसे अहम योगदान इतिहासकार क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों का मानते हैं. यह सत्य है कि भारत को आजादी गांधी जी के शांति आंदोलनों की वजह से मिली लेकिन सभी बड़े इतिहासकार इस तथ्य को भी नहीं नकारते कि बिना क्रांतिकारियों के यह संभव थी. क्रांतिकारियों के उस फौज में एक ऐसे शख्स भी थे जिन्हें लोग नेताजी कहते थे और वह थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस.

नेताजी सुभाष चन्द्र: एक असली शेर
कई इतिहासकार और तथ्य यह साबित करते हैं कि सुभाष चन्द्र असल मायनों में हीरो थे. उनकी गतिविधियों ने ना सिर्फ अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए बल्कि उन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अपनी एक अलग फौज भी ख़डी की थी जिसे नाम दिया आजाद हिन्द फौज. अंग्रेजों ने उन्हें देश से तो निकालने पर विवश कर दिया लेकिन अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने विदेश में जाकर भी ऐसी सेना तैयार की जिसने आगे जाकर अंग्रेजों को दिन में ही तारे दिखाने का हौसला दिखाया.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि भारत से अंग्रेजी हुकूमत को ख़त्म करने के लिए सशस्त्र विद्रोह ही एक मात्र रास्ता हो सकता है. अपनी विचारधारा पर वह जीवन-पर्यंत चलते रहे और उन्होंने एक ऐसी फौज खड़ी की जो दुनिया में किसी भी सेना को टक्कर देने की हिम्मत रखती थी.

Netaji Subhash Chandra Bose Quotes in Hindi: 
सुभाष चन्द्र बोस के कथन
सुभाष चन्द बोस ने हमेशा पूर्ण स्वतंत्रता और इसके लिए क्रांतिकारी रास्ते ही सुझाए. उन्होंने ही “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा” और “दिल्ली चलो” जैसे नारों से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नई जान फूंकी थी.

आजाद हिन्द फौज (Azad Hind Fauj )
सुभाष चन्द्र ने सशस्त्र क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की तथा ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन किया. इस संगठन के प्रतीक चिह्न एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था.

कदम-कदम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा – इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे.

आजाद हिंद फौज के कारण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई. इस फौज में न केवल अलग-अलग सम्प्रदाय के सेनानी शामिल थे, बल्कि इसमें महिलाओं का रेजिमेंट भी था.

यहां यह जानना आवश्यक है कि आजाद हिन्द फौज (इण्डियन नेशनल आर्मी) का गठन कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल ने मिलकर 1942 में किया था जिसे बाद में नेताजी ने पुनर्गठित किया और इसमें नई शक्ति का संचार किया.


मौत भी थी रहस्यमयी
कभी नकाब और चेहरा बदलकर अंग्रेजों को धूल चटाने वाले नेताजी की मौत भी बड़ी रहस्यमयी तरीके से हुई. द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूंढ़ना जरूरी था. उन्होंने रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया था. 18 अगस्त, 1945 में नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे. इस सफर के दौरान वे लापता हो गए. इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिए. 23 अगस्त, 1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को खबर दी कि 18 अगस्त के दिन नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम सांस ली. लेकिन आज भी उनकी मौत को लेकर कई शंकाए जताई जाती हैं.

लेकिन नेताजी की मौत पर बनी विभिन्न कमेटियों के नतीजे बेहद रोचक और आपस में मेल नहीं खाते. नेताजी की मौत के बाद कई लोगों ने तो खुद के नेताजी सुभाषचन्द्र होने का भी दावा किया लेकिन सब बेबुनियाद. खुद ताइवान सरकार ने भी अपना रेकॉर्ड देखकर खुलासा किया था कि 18 अगस्त, 1945 को ताइवान में कोई विमान हादसा हुआ ही नहीं था.

कई लोग तो यह भी मानते हैं कि भारत सरकार ये जानती थी कि नेताजी विमान दुर्घटना में नहीं मरे लेकिन उन्होंने जनता से यह सच्चाई छुपाई और इस सच्चाई को छुपाने का एक बहुत बड़ा कारण भी था कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस महात्मा गांधी के विरोधी थे और कोई भी कांग्रेसी गांधी के विरोधी को पसंद नहीं करता.

1956 में बनी शाहनवाज कमेटी और 1970 में बने खोसला आयोग ने तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत को विमान दुर्घटना ही बताया लेकिन 1978 में मोरारजी देसाई ने इन दोनों आयोगों की रिपोर्ट को खारिज कर दिया था. इसके बाद गठन हुआ मुखर्जी आयोग का जिसने सच्चाई जानने की कोशिश की लेकिन इस आयोग की रिपोर्ट को कांग्रेस ने मानने से इंकार कर दिया. आज हालात यह हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसे महानायक की मौत एक रहस्य बनी हुई है.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का यूं तो पूरा जीवन ही रहस्यों से भरा था जैसे रहस्यमयी तरीके से अंग्रेजों की जेल से निकलना और  रहस्यमयी तरीके से लड़ाई लड़ना लेकिन उनकी मौत भी रहस्यमयी होगी यह किसी ने नहीं जाना था. खैर आज उनकी जयंती पर हम देश के इस महानायक को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं और आशा करते हैं आने वाले समय में नेताजी की मौत के रहस्य से अवश्य पर्दा उठेगा और देश के इस असली हीरो को उसका असली स्थान मिलेगा.
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खुलासा : 

गांधी नहीं सुभाष चंद्र बोस की 

आर्मी ने दिलाई थी आजादी


नई दिल्ली। सुभाष चंद्र बोस की जिंदगी से जुड़े नए खुलासे होने के साथ ही अब भारत का इतिहास भी बदलता दिख रहा है। हाल में लिखी गई एक किताब में दावा किया गया है कि सुभाष चंद्र बोस की आर्मी यानी इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) ने भारत की आजादी में अहम भूमिका निभाई थी। किताब का दावा मानें तो गांधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के ज्‍यादा बोस की आर्मी की वजह से भारत काे आजादी मिली।

इंडियन नेशनल आर्मी पर नई किताब

नेताजी पर रिसर्च कर चुके मिलिट्री हिस्टोरियन जनरल जीडी बख्शी की किताब ‘बोस: इंडियन समुराई’ में यह बातें लिखी गई हैं। बख्शी के मुताबिक, तब के ब्रिटिश पीएम रहे क्लीमेंट एटली ने कहा था कि नेताजी की इंडियन नेशनल आर्मी ने आजादी दिलाने में बड़ा रोल निभाया। वहीं, गांधीजी के नेतृत्व में चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन का असर काफी कम था। बख्शी ने तर्क के तौर पर एटली और पश्चिम बंगाल के गवर्नर रहे जस्टिस पीबी चक्रबर्ती के बीच की बातचीत का जिक्र भी किया है।

ब्रिटिश पीएम की बातचीत का खुलासा

साल 1956 में एटली भारत आए थे और कोलकाता में पीबी चक्रबर्ती के गेस्ट थे। भारत की आजादी के डॉक्यूमेंट्स पर एटली ने ही साइन किए थे। इसीलिए एटली और पीबी चक्रबर्ती का बातों को तवज्‍जो दी जा रही है। चक्रबर्ती कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और वेस्ट बंगाल के एक्टिंग गवर्नर भी थे।चक्रबर्ती ने इतिहासकार आरसी मजूमदार को उनकी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ बंगाल’ के लिए खत लिखा था।
इंडियन नेशनल आर्मी

बोस की आर्मी का असर

चक्रबर्ती ने लिखा, ‘मेरे गवर्नर रहने के दौरान एटली दो दिन के लिए गवर्नर हाउस में रुके थे। इस दौरान ब्रिटिशर्स के भारत छोड़ने के कारणों पर लम्बा डिस्कशन हुआ। मैंने उनसे पूछा था कि गांधीजी का भारत छोड़ो आंदोलन (1942) आजादी के कुछ साल पहले ही शुरू हुआ था। क्या उसका इतना असर हुआ कि अंग्रेजों को इंग्‍लैण्‍ड लौटना पड़ा।’ बक्‍शी की किताब के मुताबिक ‘जवाब में एटली ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आर्मी की कोशिशों को अहम बताया था।’ किताब के मुताबिक चक्रबर्ती ने जब एटली से पूछा कि गांधीजी के अहिंसा आंदोलन का कितना असर हुआ तो एटली ने हंसते हुए जवाब दिया-काफी कम। चक्रबर्ती और एटली की इस बातचीत को 1982 में इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल रिव्यू में राजन बोरा ने ‘सुभाष चंद्र बोस-द इंडियन नेशनल आर्मी एंड द वॉर ऑफ इंडियाज लिबरेशन’ आर्टिकल में छापा था।

सैनिकों का विद्रोह आया काम

1946 में रॉयल इंडियन नेवी के 20 हजार सैनिकाें ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थी। सैनिक 78 जहाज लेकर मुंबई पहुंच गए थे। इन जहाजों पर तिरंगा भी फहरा दिया गया था। हालांकि तब इस बगावत को दबा लिया गया। लेकिन अंग्रेजों के लिए यह घतरे की घंटी थी।

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सुभाष चंद्र बोस की हत्या हुई या मृत्यु?

पंडित नेहरू के साथ सुभाष चंद्र बोस.इमेज कॉपीरइटNETAJI RESEARCH BUREAU
Image captionपंडित नेहरू के साथ सुभाष चंद्र बोस.
भारत की स्वतंत्रता के लिए आज़ाद हिंद फ़ौज का नेतृत्व करने वाले सुभाष चंद्र बोस की मौत एक रहस्य बनी हुई है. हाल में इस मुद्दे पर फिर राजनीतिक हलकों और बुद्धिजीवियों के बीच तीखी बहस छिड़ गई है.
आख़िर 'नेताजी' सुभाष बोस किन परिस्थियां में ग़ायब हुए या फिर उनकी मौत हुई? क्यों कई जाने-माने लोग उनकी मौत की ख़बर पर भरोसा नहीं कर रहे है?
नेताजी सुभाष बोस से संबंधित इन्ही मुद्दों पर है इस बार की विवेचना.

ज़ियाउद्दीन ने इंटेलिजेंस को चकमा दिया

अठारह जनवरी, 1941. रात एक बज कर पैंतीस मिनट पर 38/2, एलगिन रोड, कोलकाता पर एक जर्मन वांडरर कार आ कर रुकी.
कार का नंबर था बीएलए 7169. लंबी शेरवानी, ढीली सलवार और सोने की कमानी वाला चश्मा पहने बीमा एजेंट मोहम्मद ज़ियाउद्दीन ने कार का पिछला दरवाज़ा खोला.

ड्राइवर की सीट पर उनके भतीजे बैठे हुए थे. उन्होंने जानबूझ कर अपने कमरे की लाइट बंद नहीं की. चंद घंटों में वो गहरी नींद में सोए कोलकाता की सीमा पार कर चंदरनागोर की तरफ़ बढ़ निकले.
वहाँ भी उन्होंने अपनी कार नहीं रोकी. वो धनबाद के पास गोमो स्टेशन पर रुके. उनींदी आँखों वाले एक कुली ने ज़ियाउद्दीन का सामान उठाया.
महात्मा गांधी के साथ सुभाष चंद्र बोस.इमेज कॉपीरइटGANDHI FILM FOUNDATION
Image captionमहात्मा गांधी के साथ सुभाष चंद्र बोस.
कोलकाता की तरफ से दिल्ली कालका मेल आती दिखाई दी. वो पहले दिल्ली उतरे. वहाँ से पेशावर होते हुए काबुल पहुंचे... वहाँ से बर्लिन... कुछ समय बाद पनडुब्बी का सफ़र तय कर जापान पहुंचे.
कई महीनों बाद उन्होंने रेडियो स्टेशन से अपने देशवासियों को संबोधित किया... 'आमी सुभाष बोलची.'
अपने घर में नज़रबंद सुभाष चंद्र बोस बीमा एजेंट ज़ियाउद्दीन के भेस में 14 ख़ुफ़िया अधिकारियों की आखों में धूल झोंकते हुए न सिर्फ़ भारत से भागने में सफल रहे बल्कि लगभग आधी दुनिया का चक्कर लगाते हुए जापान पहुंच गए.

दृश्य दो: 'नेताजी आगे से निकलिए'

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दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो चला था. जापान को आत्मसमर्पण किए हुए अभी तीन दिन हुए थे. 18 अगस्त 1945 को सुभाष बोस का विमान ईंधन लेने के लिए ताइपे हवाई अड्डे पर रुका था.
दोबारा उड़ान भरते ही एक ज़ोर की आवाज़ सुनाई दी थी. बोस के साथ चल रहे उनके साथी कर्नल हबीबुररहमान को लगा था कि कहीं दुश्मन की विमानभेदी तोप का गोला तो उनके विमान को नहीं लगा है.
बाद में पता चला था कि विमान के इंजन का एक प्रोपेलर टूट गया था. विमान नाक के बल ज़मीन से आ टकराया था और हबीब की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था.
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जब उन्हें होश आया तो उन्होंने देखा कि विमान के पीछे का बाहर निकलने का रास्ता सामान से पूरी तरह रुका हुआ है और आगे के हिस्से में आग लगी हुई है. हबीब ने सुभाष बोस को आवाज़ दी थी, "आगे से निकलिए नेताजी."
बाद में हबीब ने याद किया था कि जब विमान गिरा था तो नेताजी की ख़ाकी वर्दी पेट्रोल से सराबोर हो गई थी. जब उन्होंने आग से घिरे दरवाज़े से निकलने की कोशिश की तो उनके शरीर में आग लग गई थी. आग बुझाने के प्रयास में हबीब के हाथ भी बुरी तरह जल गए थे.
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Image captionसुब्रह्मण्यम स्वामी के अनुसार स्टालिन बोस से इसलिए नाराज़ थे क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने हिटलर से हाथ मिलाया था.
उन दोनों को अस्पताल ले जाया गया था. अगले छह घंटों तक नेता जी को कभी होश आता तो कभी वो बेहोशी में चले जाते. उसी हालत में उन्होंने आबिद हसन को आवाज़ दी थी.
"आबिद नहीं है साहब, मैं हूँ हबीब." उन्होंने लड़खड़ाती आवाज़ में हबीब से कहा था कि उनका अंत आ रहा है. भारत जा कर लोगों से कहो कि आज़ादी की लड़ाई जारी रखें.
उसी रात लगभग नौ बजे नेता जी ने अंतिम सांस ली थी. 20 अगस्त को नेता जी का अंतिम संस्कार किया गया. अंतिम संस्कार के पच्चीस दिन बाद हबीबुररहमान नेता जी की अस्थियों को लेकर जापान पहुंचे.

पत्नी एमिली फूट-फूट कर रोईं

सुभाष चंद्र बोस की पत्नी एमिली और उनकी बेटी अनीता.इमेज कॉपीरइटNETAJI RESEARCH BUREAU
Image captionसुभाष चंद्र बोस की पत्नी एमिली और उनकी बेटी अनीता.
1945 मेें ही अगस्त के आख़िरी महीने में नेताजी की पत्नी एमिली अपने वियना के फ़्लैट के रसोईघर में अपनी माँ और बहन के साथ बैठी हुई ऊन के गोले बना रही थीं.
हमेशा की तरह वो रेडियो पर शाम का समाचार भी सुन रही थीं. तभी समाचार वाचक ने कहा कि भारत के 'देश द्रोही' सुभाषचंद्र बोस ताइपे में एक विमान दुर्घटना में मारे गए हैं.
एमिली की माँ और बहन ने स्तब्ध हो कर उनकी ओर देखा. वो धीरे से उठीं और बगल के शयन कक्ष में चली गईं, जहाँ सुभाष बोस की ढ़ाई साल की बेटी अनीता गहरी नींद में सोई हुई थीं.
सालों बाद एमिली ने याद किया कि वो बिस्तर के बगल में घुटने के बल बैठीं और 'सुबक सुबक कर रोने लगीं.'

'विमान दुर्घटना का रिकॉर्ड नहीं'

सुभाष चंद्र बोसइमेज कॉपीरइटNETAJI RESEARCH BUREAU
हालांकि सुभाष बोस के साथ उस विमान में सवार हबीबुररहमान ने पाकिस्तान से आकर शाहनवाज़ समिति के सामने गवाही दी कि नेता जी उस विमान दुर्घटना में मारे गए थे और उनके सामने ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था.
लेकिन भारत में बहुत बड़ा तबका ये मानता रहा कि सुभाष बोस उस विमान दुर्घटना में जीवित बच निकले थे और वहाँ से रूस चले गए थे.
सुब्रह्मण्यम स्वामी बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ.
Image captionसुब्रह्मण्यम स्वामी बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ.
भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी कहते हैं कि विमान दुर्घटना के समय ताइवान जापानियों के कब्ज़े में था. उसके बाद उस पर अमरीकियों का कब्ज़ा हो गया. दोनों देशों के पास इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं है कि उस दिन वहाँ कोई विमान दुर्घटना हुई थी.
उन्होंने कहा, "1991 के सोवियत विघटन के बाद एक सोवियत स्कॉलर ने मुझे बताया था कि नेता जी तो ताइवान गए ही नहीं थे. वो साएगोन से सीधे मंचूरिया आए थे, जहाँ उन्हें हमने गिरफ़्तार किया था. बाद में स्टालिन ने उन्हें साइबेरिया की यकूत्स्क जेल में भिजवा दिया था जहाँ 1953 में उनकी मौत हो गई थी."

नेहरू के स्टेनोग्राफ़र की गवाही

सुभाष चंद्र बोसइमेज कॉपीरइटNETAJI RESEARCH BUREAU
Image captionमोती लाल नेहरू के साथ बोस.
स्वामी नेहरू के स्टोनोग्राफ़र श्याम लाल जैन की शाहनवाज़ जांच समिति के सामने दी गई गवाही का ज़िक्र भी करते हैं.
जैन ने आयोग के सामने कहा था कि 1946 में उन्हें एक रात नेहरू का संदेश मिला कि वो उनसे तुरंत मिलने आ जाएं. उनके निवास तीन मूर्ति पर नहीं बल्कि आसफ़ अली के यहाँ जो उस ज़माने में दरियागंज में रहा करते थे.
जैन के अनुसार नेहरू ने उन्हें ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली के लिए एक पत्र डिक्टेट कराया था जिसमें कहा गया था कि उन्हें स्टालिन से संदेश मिला है कि सुभाष बोस जीवित हैं और उनके कब्ज़े में हैं.
स्वामी के अनुसार स्टालिन बोस से इसलिए नाराज़ थे क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने उनके सबसे बड़े दुश्मन हिटलर से हाथ मिलाया था.

जापान का अजीब अनुरोध

सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधीइमेज कॉपीरइटNETAJI RESEARCH BUREAU
Image captionमहात्मा गांधी के साथ सुभाष चंद्र बोस.
सुब्रह्मण्यम स्वामी ने बीबीसी को बताया कि इसका दूसरा बड़ा सबूत उन्हें तब मिला जब वो चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में मंत्री बने.
उन्होंने बताया, "हमारे पास जापान से अनुरोध आया कि रिंकोजी मंदिर में सुभाष बोस की जो अस्थियाँ रखी हैं, उनको आप ले लीजिए लेकिन एक शर्त पर कि आप इसका डीएनए टेस्ट नहीं कराएंगे."
स्वामी कहते हैं कि उन्हें पता चला था कि इंदिरा गाँधी ने अपने कार्यकाल में नेता जी पर एक पूरी फ़ाइल को अपने सामने फड़वाया (श्रेड करवाया) था. लेकिन इस बात की पुष्टि किसी और सूत्र से नहीं हो पाई है.

'विदेशी ताकतों से संबंध ख़राब होंगे'

बीबीसी हिंदी के स्टूडियो में अनुज धर (बाएं से पहले) के साथ रेहान फ़ज़ल.
Image captionबीबीसी हिंदी के स्टूडियो में अनुज धर (बाएं से पहले) के साथ रेहान फ़ज़ल.
सुभाष बोस की मौत पर 'इंडियाज़ बिगेस्ट कवर-अप' नाम की किताब लिखने वाले अनुज धर कहते हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से मांग की थी कि उन्हें वो दस्तावेज़ उपलब्ध कराए जाएं जिसमें सोवियत संघ में सुभाष बोस के होने की जांच की गई.
अनुज बताते हैं, "पीएमओ ने ये कह कर इसे देने से इंकार कर दिया कि इससे विदेशी ताक़तों से हमारे संबंधों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा."
धर कहते हैं कि विदेशी संबंध तो एक बहाना है. असली भूचाल तो इस देश के अंदर ही आएगा.
सुभाष चंद्र बोस, आज़ाद हिंद फौजइमेज कॉपीरइटNETAJI RESEARCH BUREAU
नेता जी के प्रपौत्र और उन पर 'हिज़ मैजेस्टीज़ अपोनेंट' नाम की किताब लिखने वाले सौगत बोस भी कहते हैं कि विदेश से संबंध ख़राब होने की बात गले नहीं उतरती.
उनके अनुसार उन्होंने अपने शोध में पाया कि विंस्टन चर्चिल ने 1942 में सुभाष बोस की हत्या के आदेश दिए थे लेकिन इसका अर्थ ये नहीं हुआ कि इस मुद्दे पर भारत आज ब्रिटेन से अपने संबंध ख़राब कर ले.
स्वामी भी कहते हैं, "पहली बात सोवियत संघ अब है नहीं. उस ज़माने में जनसंहार के ज़िम्मेदार माने गए स्टालिन पूरी दुनिया में बदनाम हो चुके हैं. पुतिन को इस बात की कोई परवाह नहीं होगी अगर स्टालिन पर सुभाष बोस को हटाने का दाग लगता है."

बोस के निजता में सेंध

सुभाष चंद्र बोसइमेज कॉपीरइट
सौगत बोस कहते हैं कि उन्हें ये जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि नेहरू के कार्यकाल में इंटेलिजेंस ब्यूरो उनके पिता, चाचा और सुभाष बोस की पत्नी एमिली की चिट्ठियाँ खोलता रहा, पढ़ता रहा और उसकी प्रतियाँ बनाता रहा.
उनका कहना है, "किसी व्यक्ति की निजता में सेंध लगाने का इससे बड़ा उदाहरण नहीं मिलता. और ये तब जब कि निजी तौर पर नेहरू मेरे पिता को बहुत मानते थे. जब भी वो दिल्ली जाते थे, उन्हें अपने यहाँ नाश्ते पर बुलाते थे. कमला नेहरू की अंत्येष्टि में खुद सुभाष चंद्र बोस मौजूद थे."
सौगत बोस ने बताया, "नेता जी ने आज़ाद हिंद फ़ौज की एक रेजिमेंट का नाम नेहरू के नाम पर रखा था और जब 1945 में बोस की कथित मौत की ख़बर आई थी तो नेहरू की आखों से आंसू बह निकले थे."

क्या नेहरू को जानकारी थी?

सुभाष चंद्र बोसइमेज कॉपीरइटNETAJI RESEARCH BUREAU
सवाल उठता है कि क्या सुभाष बोस के परिवार पर हो रही जासूसी की जानकारी नेहरू को व्यक्तिगत तौर पर थी.
भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ में विशेष सचिव के पद पर काम कर चुके सी बालाचंद्रन कहते हैं कि ये एक ऐसी परंपरा है जो आज़ाद भारत की ख़ुफिया एजेंसियों ने ब्रिटेन से ग्रहण की है.
उन्होंने कहा, "1919 के बाद से ही ब्रिटिश सरकार के लिए कम्युनिस्ट आंदोलन एक चुनौती रहा है. उन्होंने शुरू से ही उन लोगों पर नज़र रखना शुरू किया जिनका कहीं न कहीं सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध रहा है."
बालाचंद्रन कहते हैं, "इसी सिलसिले में बोस की भी जासूसी शुरू की गई. एक इनसाइडर के तौर पर मैं बता सकता हूँ कि ख़ुफ़िया एजेंसियों में जो चीज़ एक बार शुरू हो जाती है, वो बहुत लंबे समय तक जारी रहती है."

नेहरू के हाथ से लिखा नोट

नेहरू के हाथ की लिखी चिट्ठीइमेज कॉपीरइटBBC WORLD SERVICE
लेकिन अनुज धर बालाचंद्रन के इस आकलन से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि इस तरह की जासूसी नेहरू की जानकारी के बगैर नहीं हो सकती थी.
धर कहते हैं कि आईबी वाले कोई भी काम बिना अनुमति के नहीं करते. सुभाष बोस के बारे में उनका हर नोट आईबी के बड़े अफ़सर मलिक और काव तक पहुंचता था.
अनुज धर के मुताबिक, "मेरे पास ऐसे दस्तावेज़ हैं जिसमें नेहरू ने अपने हाथों से आईबी को चिट्ठी लिख कर निर्देश दिया है कि पता लगाओ कि बोस का पौत्र अमिय बोस जापान क्यों गया है और वहाँ क्या कर रहा है? क्या वो रेंकोजी मंदिर भी गया था?"

नेहरू के मन में संदेह

एम जे अकबरइमेज कॉपीरइटPTI
Image captionएम जे अकबर
भारतीय जनता पार्टी के नेता और जाने माने पत्रकार एमजे अकबर का मानना है कि इस पूरे प्रकरण से यही संकेत मिलता है कि कहीं न कहीं नेहरू के मन में संदेह था कि बोस उस विमान दुर्घटना में नहीं मरे थे.
अकबर कहते हैं, "कॉमन सेंस कहता है वो अपने परिवार से ज़रूर संपर्क करते. शायद इसलिए नेहरू उनके पत्रों की निगरानी करवा रहे थे."
किन परिस्थितियों में सुभाष बोस की मौत हुई और बीस वर्षों तक उनके परिवार पर क्यों नज़र रखी गई, ये तो उनसे संबंधित दस्तावेज़ सार्वजनिक होने के बाद ही पता चल पाएगा.
लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं उन्होंने इस कहावत को ग़लत साबित करने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता और अपनी इस मुहिम में बहुत हद तक वो सफल भी रहे.



टिप्पणियाँ

  1. एक दिन लोकसभा में पं.विजय लक्ष्मी ने कहा कि मै आपको एक खुश खबरी सुनना चाहती हू सुभाष बाबू जिन्दा है और बात पूरी नहीं कर पाई नेहरु ने उनका मुह बंद कर दिया ------वे बतानी चाहती थी कि सुबाष बाबू मास्को जेल में है,

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  2. मुख्य सवाल यह है कि ; नेताजी सुभाष चन्द्र बोस मास्को जेल में थे, उनकी गिरफतारी से जवाहरलाल नेहरु सहित बड़े हेता परिचित थे, देश के लिए जीने - मारने वाले इस महान देशभक्त का मास्को जेल में क्या हुआ...?
    दूसरी सबसे बड़ी बात इतने बड़े सच को देश से छुपाया क्यों गया..?
    तीसरी बात उन्हें भारत क्यों नहीं लाया गया ...?????
    इसलिए कि देश उन्हें चुनाव के द्वारा सत्ता सोंप देगा ..!
    नेताजी के बारे में बार- बार यह बात उठी कि वे जिन्दा है....! इस का कारण यही है कि वे जिन्दा थे और सोवियत संघ ने नेहरु जी के पक्ष में भारत से धोका किया....!!

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  3. नेहरू तो खुद मुल्ला था ! दादा का नाम गयासुद्दीन गाजी नहर वाला तो खुद का नाम जवाहर लाल कैसे ? और किसी ने नेहरू नाम की गोत्र सुनी है देश मे अपनी अकल दौड़ाओ !

    जवाब देंहटाएं
  4. सुभाषचन्द्र बोस (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু शुभाष चॉन्द्रो बोशु) (२३ जनवरी १८९७ - १८ अगस्त, १९४५ विवादित) जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।
    १९४४ में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि अगर उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था।

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  5. नेहरू तो खुद मुल्ला था ! दादा का नाम गयासुद्दीन गाजी नहर वाला तो खुद का नाम जवाहर लाल कैसे ? और किसी ने नेहरू नाम की गोत्र सुनी है देश मे अपनी अकल दौड़ाओ !

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    उत्तर
    1. किसीका ध्यान इस तरफ गया ही नहीं ! अपने सहही कहा !

      हटाएं
  6. subas bubu ki murtu ko chhupane men pandit jawahar lal ka bahut bada hath hai jab iski bahan vijay lakhmia pandit ne batana chahi to iska muh band karwa diya iska pura khandan beti chhod aur madar chhod hai.

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  7. I always doubted 'death'of Netaji...but today he's certainly not alive. If Vijay Laxmi Pandit tried to say it in parliament then please put the record of that word "कि मै आपको एक खुश खबरी सुनना चाहती हू सुभाष बाबू जिन्दा है..." officially every word uttered in parliament is recorded,so I request you to put the scanned copy of that record even if it was not completed...otherwise it's just a hoax as many years back a "Baba" was also claimed to be Netaji in UP.

    Gajendra Kumar Maharia
    Avlble on FB.

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    उत्तर
    1. if the voice of Vijaya Laxmi stopped forcefully by Neharu then its possible to delete that words which Mrs Pandit said in parliament.It may be deleted all statement of that time .

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  8. rona aata hi es mahan bharat m mahan saputo k sath kya huaa

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  9. nehru ne netaji ki baat chupakar desh ke sath bada dhoka kiya ,aaj nehru jinda hota to g--- mar deta

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  10. -Jai Hind-
    Desh ka sabse bada Gaddar Nehru hai.Kamina tha Sala..Kutta.

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  11. aaj prashan yah nahi hai ki neta ji jinda hain yaa nahi,prashan yah hai ki kya ham us swantartaa ke samarthak veer ko tatha uski aazad hind fauj ko sammaan dena chahte hain , kam se kam is punit karya ko aaj to karo, bina subhash ke bharat aazad ho hi nahi sakata tha, azad hind fauj ke sainaninyon ko bhi pura samman diya jaana chahiye aur rahasya se parda bhi uthana chahiye,

    tum mujhe khoon do--main tumhe aazadi dunga "

    aur jantaa ne unhe vah sab diya magar jawahar lal ki mahtvakakshaaon ne kabhi kisi ko aage badhane nahi diya , sardaar patel ko bhi .......

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  12. nehru ya gandhi familly hi puri tarah se desh ke sath bagavat karti aayi h...aur aaj bhi ye sabko bevkuf samajh rhe h .....ye desh ke gadhar h kutte ki tarah mero matherchhodo ko........

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  13. rajiv gandhi tak to Mugulo ka raj chalta raha
    ab italy raj chal raha he
    hum apne aap ko bharatwasi kehte he
    per bharat hai kahan
    hum to ab b gulam he

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