‘‘भूरेटिया नी मानू रे’’: अंग्रेजों तुम्हारी नहीं मानूंगा - गोविन्द गुरू


वनवासी धर्मरक्षक गुरू और महान समाज सुधारक गोविन्द गुरू के स्मरण में,
मानगढ धाम ( जिला बांसवाडा , राजस्थान ) के शताब्दी वर्ष के अवसर पर, समरसता यात्रा साईकिल से निकाली जा रही है। यह यात्रा मण्डल केन्द्रों तथा सेवा बस्तियों में पहुचेगी।

 भारत का प्रथम जलियांवाला : मानगढ़ हत्याकाण्ड


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‘‘भूरेटिया नी मानू रे’’ पुस्तक का विमोचन

( अंग्रेजों तुम्हारी नहीं मानूंगा )
आदिवासी विश्वविद्यालय का नाम ‘गोविन्द गुरू विश्वविद्यालय’ होना चाहिए- गोपाल शर्मा
महिमा मंत्री
Published On January 15, 2013

आदिवासी विश्वविद्यालय का नाम ‘गोविन्द गुरू विश्वविद्यालय’ होना चाहिए और राजस्थान की विधानसभा के सामने महाराणा प्रताप की प्रतिमा लगनी चाहिए – यह कहना है जयपुर महानगर टाइम्स के प्रबंध संपादक गोपाल शर्मा का। वे आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना मानगढ़ धाम बलिदान के महानायक एवं भगत आन्दोलन के पुरोधा पूज्य गोविन्द गुरू के जीवन पर आधारित पुस्तक ‘‘भूरेटिया नी मांनू रे’’ (अंग्रेजों! नहीं मानूंगा) के विमोचन कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
कार्यक्रम का आयोजन मानगढ़ धाम बलिदान शताब्दी समिति द्वारा कुम्भा साभागार, भूपाल नोबल्स महाविद्यालय परिसर में किया गया।
शर्मा ने कहा कि देश का दूर्भाग्य है कि जिस जेल में तात्या टोपे रहे थे आज वहां बलात्कारीयों को रखा जाता है, रानी लक्ष्मी बाई के जन्मस्थान को कपड़े धोने का स्थान मात्र बना दिया है, वीर सावरकर के परिवार वालों पर सरकारी जांचें हो रही है। उन्होने कहा कि गोविन्द गुरू केवल आदिवासियों के नेता ही नहीं थे बल्की स्वाधीनता संग्राम के महानायक थे। भारत में संस्कृति का केन्द्र आदिवासी समाज ही रहा है।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख सुरेश चन्द्र ने कहा कि गोविन्द गुरू पर समाज में अथाह श्रृद्धा और मान है। उनके बारे में सभी को पर्याप्त जानकारी मिले इसलिए हमें दल व संस्थागत भावना से ऊपर उठ कर इस विषय को समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचना चाहिए, साथ ही विश्वविद्यालय में गोविन्द गुरू पर शोधकार्य भी होने चाहिए।
‘‘भूरेटिया नी मांनू रे’’ पुस्तक के लेखक विष्णुदत्त शर्मा ने पुस्तक परिचय देते हुए कहा कि आततायी अंग्रेज घुरुन्ड़ो (गाय के मुण्ड को खाने वाले) जिनका प्रमुख उद्देश्य संपूर्ण हिन्दू समाज को ईसाइ बनाना और गोमांस खाने के लिए विवश करना था, गोविन्द गुरू ने डुंगरपुर और बांसवाड़ा के आस-पास के क्षेत्र में जन जागरण कर अंग्रेजों के विरूद्ध आन्दोलन किया और अपनी शिक्षाओं के माध्यम से भगत आन्दोलन चलाया और लोगों को शपथ दिलाकर स्वाधीनता संग्राम में लगाया। दयानन्द सरस्वती से दीक्षा प्राप्त कर गोविन्द गुरू ने भीलों, मीणों आदि के घर घर जाकर चमत्कार किये और उन्हे दीक्षा दी। प्रतिदिन स्नान करना, दारू नहीं पीना, व्याभिचार नहीं करना और मांसाहार का त्याग आदि प्रमुख शिक्षाओं को मानने वाले 1लाख 80हजार भक्तों को तैयार कर सम्प सभा की स्थापना की।
कार्यक्रम की अध्यक्षता 1857 की क्रांति के नायक तात्या टोपे के प्रपौत्र सुभाष टोपे ने की। तात्या टोपे के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए कहा कि उनका नाम रामचन्द्र पांडूरंग था। तात्या टोपे को मेवाड़ का बहुत सहयोग मिला और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वो कई बार राजस्थान आये।
पूज्य गोविन्द गुरू के प्रपौत्र कन्हैया गीरी ने कहा कि गोविन्द गुरू का जन्म बांसिया (बांसवाड़ा) के बंजारा परिवार में हुआ। ब्रिटीश सरकार ने गुरू को कई बार सेन्ट्रल जेल, अहमदाबाद में कैद किया लेकिन गुरू फिर भी बाहर दिखाई देते थे। अंग्रजों ने एक मुसलमान की सहायता से धुणी को अपवित्र किया, तभी वो मानगढ़ धाम में तोपे और बन्दूके चला पाये।
विद्यानिकेतन की बालिकाओं द्वारा प्रस्तुत गीत ‘धरती धोरा री’ ने सबको खासा प्रभावित किया। कार्यक्रम के अंत में मानगढ़ धाम बलिदान शताब्दी समिति के अध्यक्ष लालशंकर पारगी ने आभार व्यक्त किया एवं कार्यक्रम का समापन शान्तिमंत्र के साथ हुआ।
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गोविन्द गुरू का सपना आज भी अधूरा है

 मनोहर कुमार जोशी
मानगढ़ शताब्दी वर्ष- 17 नवम्बर
 जनजातिय लोगों में सामाजिक जागृति एवं स्वातंत्र्य चेतना का बिगुल बजाने वाला शहीदी धाम मानगढ़ इस वर्ष शताब्दी वर्ष मना रहा है। यह स्थान राजस्थान में बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर आनन्दपुरी के समीप स्थित है।
17 नवम्बर 1913 में लोकश्रद्धा के महानायक गोविन्द गुरू के नेतृत्व में यहां आयोजित सम्प सभा में एकत्रित हुये हजारों श्रद्धालु जनजातियों पर रियासती और अंग्रेजी फौज ने तोप व बंदूकों से कहर बरपाते हुये1500 से अधिक बेगुनाह जनजातियों को मौत के घाट उतार दिया था। उनकी स्मृति में शताब्दी वर्ष आयोजित किया जा रहा है।
शताब्दी वर्ष के शुभारंभ पर 17 नवम्बर को यहां कल्पवृक्षों का रोपण किया जायेगा तथा 25 हजार से अधिक श्रीफलों की आहूति दी जायेगी। शताब्दी वर्ष को देखते हुये राजस्थान सरकार ने मानगढ़ धाम के विकास के लिये पांच करोड़ रूपये आवंटित किये हैं। राज्य सरकार मानगढ़ पहाड़ी से जनजाति में जागरण का शंखनाद करने वाले गोविन्द गुरू द्वारा किये गये समाज सुधार के कार्यों एवं उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं तथा मानगढ़ धाम पर हुये बर्बर नरसंहार को लेकर ‘‘शहादत के सौ साल‘‘ पुस्तक प्रकाशित कर रही है।
1919 में हुये जलियावाला बाग हत्याकाण्ड से करीब छह साल पहले 17 नवम्बर 1913 को मानगढ़ पहाड़ी पर हुआ क्रूर, बर्बर एवं दिल -दहला देने वाला नरसंहार भले ही इतिहास में अपेक्षित स्थान प्राप्त नहीं कर पाया,मगर राजस्थान गुजरात और मध्यप्रदेश के इस सरहदी दक्षिणी अंचल के लाखों लोगों में स्वाभिमान एवं देश-प्रेम जागृत करने वाले लोक क्रांति के प्रणेता गोविन्द गुरू के प्रति आज भी आदर और आस्था कायम है।
इतिहासकारों की मानें तो 19 वीं शताब्दी के उत्‍तरा़र्द्ध में एक ऐसा जननायक जन्मा, जिसने जनजातियों में समाज सुधार का प्रचण्ड आंदोलन छेड़ कर लाखों भीलों को भगत बनाकर सामाजिक जनजागृति एवं भक्ति आंदोलन के जरिये आजादी की अलख जगाई। साथ ही भीलों के सामाजिक सुधार के अनेक कार्य किये। वस्तुतः यह अंग्रेजी शासन के खिलाफ स्वाधीनता का आंदोलन था।
जनजातिय लोगों को संगठित करने वाले गोविन्द गुरू का जन्म 20 दिसम्बर 1858 में डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव में बंजारा परिवार में हुआ था। बताया जाता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती के उदयपुर प्रवास के दौरान गोविन्द गुरू उनके सानिध्य में रहे थे तथा उनसे प्रेरित होकर गोविन्द गुरू ने अपना सम्पूर्ण जीवन सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जूझ रहे जनजातिय समाज को उबारने में लगाया था। इसके लिये उन्होंने 1903 में सम्प सभा अर्थात मेल मिलाप नामक संगठन बनाया था। इसके माध्यम से जनजातीय समाज में शिक्षा, एकता, बंधुत्व और संगठन का प्रचार-प्रसार किया।
अंध-विश्वास और कुरीतियों को दूर कर बेगार जैसी अन्यायपूर्ण घृणित-प्रथा का विरोध शुरू किया और आजादी की अलख जगाई। जनजाति के लोगों को पाठशालाओं का संचालन कर शिक्षित करने का काम किया। इनके नेतृत्व में मानगढ़ धाम इन गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बना। नतीजन जनजातिय भीलों में निडरता एवं देशप्रेम जागृत होने लगा।
समाज सुधार के कार्यों से घबरा कर यहां के सामंतों को स्वतंत्र भील राज्य के गठन का डर सताने लगा और उन्होंने अनेक आरोप लगाते हुये अंग्रेजी फौज की मदद ली और 17 नवम्बर 1913 को इसी मानगढ़ पहाड़ी पर सामाजिक सुधार और धार्मिक अनुष्ठानों में जुटे हजारों जनजातियों पर ब्रिटिश नायक कर्नल शटन के आदेश पर हमला कर दिया। रियासती व अंग्रेजी फौज ने पूरी पहाड़ी को घेर कर तोप तथा बंदूकों से जिस बर्बरता और क्रूरता पूर्वक संहार किया, उसके आगे जलियावाला बाग हत्याकाण्ड की भीषणता भी फीकी नजर आती है। इस हत्याकाण्ड में सैकड़ों बेगुनाह मारे गये। पांव में गोली लगने से गोविन्द गुरू भी घायल हो गये।
उन्हें गिरफ्तार कर अहमदाबाद तथा संतरामपुर की जेल में रखा गया और गंभीर आरोप लगाते हुये फांसी की सजा सुनाई गई। हालांकि बाद में सजा को आजीवन कारावास में बदला गया व अंत में सजा को और कम करते हुये, उन्हें 1923 में रिहा कर दिया। रिहा होने के बाद गुरू फिर समाज- सुधार के कार्य में लग गये। अक्टूबर 1931 में गुजरात के पंचमहल जिले के कम्बोई गांव में इनका निधन हो गया, लेकिन उनकी बनाई सम्प सभाएं अब भी कायम हैं तथा धूंणियां अब भी मौजूद हैं। मानगढ़ की धूणी पर प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर गुरू के जन्म दिन पर मेला लगता है, जिसमें हजारों आदिवासी आते हैं।
भीलों में स्वाधीनता की अलख जगाने वाले गुरू की धूणी मानगढ़ नरसंहार के बाद बंद कर दी गयी थी तथा उस क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन उनके शिष्य जोरजी भगत ने आजादी के बाद 1952 में वहां फिर से यज्ञ कर धूणी पुनः प्रज्वलित की, जो आज भी चालू है। वर्तमान में इस स्थान पर हनुमान,वाल्मिकी, भगवान निष्कलंक, राधाकृष्ण, बाबा रामदेव, राम-लक्ष्मण-सीता एवं गोविन्द गुरू की मूर्तियां स्थापित हैं। गुजरात एवं राजस्थान सरकार ने यहां दो सामुदायिक भवन भी बना रखे हैं। आनन्दपुरी से मानगढ़ धाम तक जाने के लिये 14 किलोमीटर पक्की सड़क बनी हुई है, लेकिन गोविन्द गुरू ने यहां के हजारों जनजाति लोगों के जीवन में बदलाव का जो सपना देखा था, वो आज भी अधूरा है, जिसे पूरा करना बाकी है।

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