उन्नत राष्ट्र का संकल्प लें - मोहनराव भागवत, सरसंघचालक, रा.स्व.संघ





भारतीय स्वाभिमान और शौर्य का उदघोष
   
१० मार्च २०१३ पाञ्चजन्य 
           
स्वामी विवेकानंद सार्द्धशती समारोह का भव्य उद्घाटन उन्नत राष्ट्र का संकल्प लें -मोहनराव भागवत, सरसंघचालक, रा.स्व.संघ

'किसी भी राष्ट्र, समाज, व्यक्ति की उन्नति जिन तत्वों के कारण होती है, सारी दुनिया की उन्नति जिन तत्वों के कारण होती है उन्हीं बातों को स्वामी विवेकानंद ने भी कहा। उसी सनातन धर्म को उन्होंने 11 सितंबर, 1893 को शिकागो में भी कहा। वह तो जीवनभर कहते रहे कि ईश्वर प्रेम स्वरूप है। सारी दुनिया को प्रेम करना सीखो। वे कहते थे ʅइस प्रकार अपने आत्मीयता के दायरे का विस्तार ही जीवन हैʆ। हम संकुचित हो रहे हैं, हम अपने स्वार्थ में फंस रहे हैं। मैं, अधिक से अधिक मेरा परिवार, इससे आगे हम जाते ही नहीं हैं। हमें इससे बाहर निकलना होगाʆ। उक्त उद्गार रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने गत 11 जनवरी को नई दिल्ली स्थित सीरीफोर्ट सभागार में स्वामी विवेकानंद सार्द्धशती समारोह समिति के तत्वावधान में आयोजित स्वामी विवेकानंद सार्द्धशती समारोह के उद्घाटन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए व्यक्त किये। वे कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता समिति की अध्यक्षा प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु माता अमृतानंदमयी ने की। मंच पर समिति के मानद अध्यक्ष डा. सुभाष चंद्र कश्यप, सचिव श्री अनिरुद्ध देशपांडे, गायत्री परिवार के प्रमुख डा. प्रणव पंड्या, चिन्मय मिशन के स्वामी निखिलानंद, जैन संत लोकेश मुनि, स्वामी ऋतंभरानंद, राष्ट्र सेविका समिति की निवर्तमान प्रमुख संचालिका सुश्री प्रमिला ताई मेढ़े, विवेकानंद केन्द्र के अध्यक्ष श्री पी. परमेश्वरन् एवं अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली के न्यासी श्री जयेश भी आसीन थे।  

श्री भागवत ने अपने सारगर्भित उद्बोधन में कहा कि स्वामी विवेकानंद सार्द्धशती समारोह के आयोजन में रा.स्व.संघ तो है ही, क्योंकि स्वामी विवेकानंद की जो दृष्टि है अपने देश के भविष्यकालीन चित्र के बारे में, उसी को लेकर संघ काम करता है। राष्ट्र के नवोत्थान के लिए 1857 के बाद जिन-जिन धाराओं में से प्रामाणिक और निस्वार्थ बुद्धि से जिस किसी भी प्रकार के प्रयास हुये उन सबके मूल में भारत की सनातन धरोहर है। अध्यात्म और उस पर आधारित धर्म को जानने वाले, उसको चरितार्थ करने वाले स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसे साक्षात्कारी महापुरुष के दिग्विजयी शिष्य स्वामी विवेकानंद हुये। यह आध्यात्मिक जागरण अपने भारत की उन्नति में एवं संकट से भारत के बाहर निकलने में सदैव गति देने वाला प्रेरक प्रसंग है।

ʅस्वयं के लिए जीना मृत्यु है, दूसरों के लिए जीना ही जीना हैʆ। स्वामी विवेकानंद द्वारा कहे गये इन शब्दों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस से स्वामी विवेकानंद को जो दृष्टि मिली वह उन्होंने सारी दुनिया को दी। स्वामी जी ने कहा, ʅदीन, हीन, अज्ञानी तुम्हारे बांधव हैं, यही तुम्हारे भगवान हैं। आने वाले 50 वर्ष तक सारे देवी-देवताओं को भूलकर मातृभूमि के अपने इन बांधवांे की उनमें भगवान देखकर सेवा करोʆ। श्री भागवत ने कहा कि हम स्वामीजी की बातों को पढ़ते हैं, सुनते हैं लेकिन अब इनको प्रामाणिकता से, निस्वार्थ बुद्धि से करने में लग जायें।

श्री भागवत ने कहा कि आज मुंह में कुछ और करने में कुछ, ऐसा जो चलता है उससे बाहर निकलना पड़ेगा। अपने लाभ के लिए नहीं, अपनी साख के लिए जीना पड़ेगा। एक इंजीनियर मित्र है, सरकारी नौकरी में है। उसने कहा कि रिश्वत लेने के लिए मुझ पर बहुत दबाव आ रहा है, पर मेरा मन नहीं है, लेकिन दबाव है। उसने कहा कि मैं रिश्वत के पैसे लेकर दान कर दूंगा मैं स्वयं नहीं लूंगा। मैंने उससे कहा कि तुम साख के लिए स्वयंसेवक हो, साख के लिए जियो। उसने रिश्वत नहीं लेने का प्रयास किया, पर ज्यादा दिन तक ऐसा नहीं चल सका तब उसने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद अपना व्यवसाय शुरू किया, आज भी कर रहा है, ठीक कर रहा है। उन्होंने कहा कि अगर हमने माना है कि रिश्वत नहीं लेना ठीक है तो उस पर डटे रहने की हमारी प्रामाणिकता चाहिए। और अगर यह ठीक है तो यह हमारे जीवन में रहे इसकी प्रामाणिकता चाहिए।

स्वामीजी ने कहा, ʅगीता नहीं पढ़ोगे तो चलेगा, लेकिन फुटबाल खेलोʆ। भगवा पहने एक भारतीय संन्यासी कहता है, गीता नहीं पढ़ोगे तो चलेगा, फुटबाल खेलो। हमें लोहे के, फौलाद के बाजू चाहिए। उतना मजबूत हृदय चाहिए, उतनी ही मजबूत मज्जाएं चाहिएं। शक्ति की आराधना हमको करनी होगी, यह शक्ति संगठन में होती है। आपस के भेदों को भूल जाओ और भेदों को भूलने के लिए स्वत्व को याद करो। अपने स्व के गौरव पर जो खड़ा नहीं हो सकता वह दुनिया में किसी प्रतिष्ठा की सुरक्षा के लायक नहीं रहता। जो खुदी को लजाएगा वह नीची गर्दन रखकर हमेशा दूसरों की गुलामी करता रहेगा। तुम्हारे पूर्वजों ने कोई रणगौरव, धनगौरव प्राप्त नहीं किया, लेकिन सारी दुनिया को ऐसा गौरवपूर्ण जीवन दिया है।

श्री भागवत ने कहा कि आज भी भारत का व्यक्ति जब दूर देश में जाता है तो वह भारत का है इसलिए वहां के निवासी उससे आदरपूर्वक व्यवहार करते हैं। सनातन ज्ञान की दुनिया को आवश्यकता है। वह तुम्हारा धर्म नहीं है, वह तुम्हारे पास पाथेय रखा है। तुम उसके विश्वस्त हो, समय-समय पर दुनिया को देना है। वह सबके लिए है तुम उसके रखवाले हो, उसके अधिकारी बनकर तुम खड़े रहो, उसका गौरव मन में धारण करके तुम खड़े रहो, उस पर पूर्ण श्रद्धा रखकर खड़े रहो। अपनी मातृभूमि, उसका जल, जंगल, जानवर, परम्परा, संस्कृति, इतिहास को रचने वाले पूर्वजों का गौरव मन में धारण करके सीना तानकर खड़े हो जाओ। ऐसे खड़े होकर सेवा करो, समाज को ऐसे खड़ा करो। इसमें बुद्धि का भाव कम है लेकिन कृतार्थता ऐसे ही आती है।

श्री भागवत ने कहा कि दुनिया के कल्याण के लिए भारत के खड़े होने का अभियान स्वतंत्रता के साथ पूर्ण नहीं हुआ था। स्वतंत्रता के साथ उसका प्रारम्भ बड़ी तेजी के साथ होना था। इसको भूलकर हम बैठ गये। हम आराम में लग गये। फिर हम विलास में फंस गये, फिर हम भूल गये। इसलिए दिखाई देता है कि दुनिया के साथ हम भी भटक रहे हैं। हम दुनिया के साथ भटकने के लिए नहीं हैं, भटकी हुई दुनिया को रास्ते पर लाने के लिए हैं। इसलिए भारत को बड़ा होना है। स्वामीजी ने कहा, ʅबड़े होकर अन्य लोगों के गले काटने के लिए तुम्हारा बड़ा होना नहीं है। तुम्हारा जन्म परोपकार के लिए है। याद रखो, हे भारत! तुम माता की बलिवेदी पर बलि के लिए बांधे जाने वाले पशु हो। विश्व कल्याण के लिए हलाहल ग्रहण करने वाले शिवशंकर के तुम वंशज हो, उसके लिए तुमको बड़ा होना हैʆ। भारत बड़ा होगा यह भारत का हृदय तब कहेगा जब भारत के बड़ा होने से दुनिया को बड़ा बनने की, एक नई सुखी-सुंदर दुनिया बनाने की नई राह निकलेगी। उस भारत को खड़ा करने के लिए हम स्वामीजी का उनकी सार्द्धशती पर स्मरण कर रहे हैं।

श्री भागवत ने कहा कि उत्सवप्रियता इस समारोह का उद्देश्य नहीं है। वास्तव में इसको गांव-गांव, घर-घर में युवकों के प्रत्येक हृदय में ले जाना है। इसकी बहुत आवश्यकता है, क्योंकि परिस्थितियां अनुकूल हैं। प्रतिकूलताएं भी हैं, लेकिन लोग अनुकूलताएं खोज रहे हैं। उत्तर सबको एक मिलता है कि ऐसा करना पड़ेगा। करना पड़ेगा तो करने वाले लोग चाहिए और इसलिए विगत 25 दिसंबर को संकल्प ग्रहण का कार्यक्रम हुआ। हम उस संकल्प ग्रहण के कार्यक्रम में उपस्थित रहे होंगे तो भी और उपस्थित नहीं रहे होंगे तो भी, एक संकल्प यहां पर लें। चार बातें जो स्वामीजी ने बताई हैं- प्रामाणिकता से, निस्वार्थ बुद्धि से करूंगा, स्वगौरव के पक्के आधार पर खड़ा होकर करूंगा, भय का सम्पूर्ण त्याग करते हुए करने के लिए योग्य बनते हुए वैसी शक्ति अपने अंदर पैदा करते हुए अपने समाज के अंदर पैदा करते हुए करूंगा। उन्होंने कहा कि बहुत से सुझाव मंच से आये हैं और भी हो सकते हैं। अपने से इसका प्रारम्भ करूंगा, जहां हूं वहां से इसकी शुरुआत करूंगा। मैं करूंगा, यह संकल्प लें। अपने समाज को ऐसा समाज नहीं रहने दूंगा। अपने देश को उन्नत अवस्था पर ले जाऊंगा और इन सब बातों का विनियोग होगा दुनिया के कल्याण के लिए। इसलिए मेरे घर में मुझे जो प्रारम्भ करना है वह मैं इसी क्षण से प्रारम्भ करूंगा। मेरा करना और बढ़ सके और उपकारक हो सके, ऐसी शक्ति बढ़ाकर करूंगा और इस देश के स्वत्व को सारी दुनिया में बढ़ाकर करूंगा। यह संकल्प हम सिर्फ सार्द्धशती का अवसर है, इसलिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन के लिए लें।          

इस अवसर पर माता अमृतानंदमयी ने मलयालम भाषा में दिये अपने उद्बोधन में स्वामी विवेकानंद के अनेक प्रसंग सुनाते हुए युवाओं को संस्कारवान बनाने का आह्वान किया। दिल्ली में 23 वर्षीय युवती से हुये सामूहिक दुष्कर्म को उन्होंने आसुरी कर्म बताया। उन्होंने कहा कि इस तरह के अपराध सिर्फ कठोर कानून होने से नहीं रुक सकते, बल्कि परिवार में बच्चों को संस्कारित करना भी इसके लिए जरूरी है।

डा. प्रणव पंडया ने कहा कि स्वामी विवेकानंद के चिंतन को सभी महापुरुषों ने माना है। युवाओं को जगाना, नेतृत्व देना, यह आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। स्वामी निखिलानंद ने कहा कि स्वामी विवेकानंद के विचारों को पढ़ने के बाद उनके अपने व्यक्तित्व में बहुत परिवर्तन आया। आचार्य लोकेश मुनि ने कहा कि स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं की वर्तमान समय में बहुत आवश्यकता है। श्री पी. परमेश्वरन् ने सार्द्धशती समारोह को ऐतिहासिक आयोजन बताया। कार्यक्रम में रा.स्व.संघ के अ.भा.कार्यकारी मंडल के सदस्य श्री मधुभाई कुलकर्णी, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी, वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी सहित बड़ी संख्या में देशभर के प्रबुद्ध नागरिक उपस्थित थे।

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