खींची राजवंश : गागरोण दुर्ग




विश्व धरोहर बने राजस्थान के 6 किले
राजस्थान को मिली अंतर्राष्ट्रीय पहचान

कंबोडिया में यूनेस्को और वल्र्ड हैरिटेज काउंसिल की ओर से राजस्थान की इन छह हैरिटेज साइट्स को वल्र्ड हैरिटेज साइट्स में शामिल करने की घोषणा हो गई है। भारत से इस बार राजस्थान के एक साथ छह दुर्गों का चयन हुआ है, जो देश और राज्य दोनों के लिए बड़ी उपलब्धि है। हालांकि वल्र्ड हैरिटेज में शामिल होने से देश और राज्य को किसी भी तरह का फंड या राशि नहीं मिलती है, फिर भी इन धरोहरों की पहचान वैश्विक स्तर बढ़ जाती है। इससे पर्यटन उद्योग को काफी लाभ होता है। इन स्मारकों में जैसलमेर, चित्तौडग़ढ़, रणथंभौर और कुंभलगढ़ इन चार किलों का संरक्षण भारतीय पुरात्व
सर्वेक्षण करता है, जबकि बाकी दो आमेर और गागरोण किलों का संरक्षण राज्य सरकार करती है। ये किले 8वीं सदी से 19वीं सदी के बीच बने हैं, जो राजपूताना शैली को चित्रित करते हैं।गागरोण दुर्ग की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी अभेद्य सुरक्षा व्यवस्था। झालवाड़ा में बने इस दुर्ग के निर्माण में भौगोलिक
स्थितियों का पूरा ध्यान रखा गया है। इसकी बनावट पहाड़ी की बनावट के अनुरूप ही रखी गई है, जिसके कारण दूर से यह आसानी से दिखाई नहीं देता। बनावट की यही व्यवस्था इसकी विशेषता बनी हुई है। यह किला तीन तरफ से आहू और कालीसिंध नदियों से घिरा हुआ है।

Gagron Fort
The foundations of the fort was laid in the 7th century AD and was completed in the 14th century AD by king Bijaldev of the Pramara dynasty; it is surrounded by the rivers Ahu, Kali and Sindh on three sides, behind the fort are forests and the Mukundarrah Range of hills giving the fort a one of a kind location. It has been a witness to many battles and is reminiscent of the heroic Valor and martyrdom of Rajputs of the Khichi Chauhan Clan who stood valiantly against the Mandu ruler Hosheng Shah. It is situated 12 kilometres from the city of Jhalawar; right outside the fort lays the Dargah of Sufi saint Mittheshah, where a splendid fair is held every year during the month of Moharram. Inside the fort is a temple dedicated to the Hindu deities Shiva, Ganesha and Durga. Image credits William Warren
Rajasthan being the land of kings has numerous forts and palaces, but the aforementioned places are the ones which you might find the most mesmerising.


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इतिहास के पन्नों में गागरोन का किला
राजस्थान रा किला अर दुर्ग
जल दुर्ग - गागरोण
- नटवर त्रिपाठी
गागरोण दुर्ग दक्षिण पूर्वी-राजस्थान का सबसूं पुराणा अर विकट दुर्गां म्ह खास है। यो ख्यातनाम दुर्ग कोटा सूं 60 अर झालावाड़ सूं 4 किलोमीटर दूरो अरावली पर्वत माला की मजबूत चट्टान पै कालीसिंध अर आहू नदियां क्ह संगम पर बणायो तको है। अणी दुर्ग क्ह तीन आडिने ये दो भारी नदियों को पाणी बेवे है जणिसूं पुराणा शास्त्रा म्ह इने जल दुर्ग केता आया है। गागरोण को भव्य दुर्ग खींची चौहाणां को खास स्थान रह्यो हो जिणका जोद्धावां का शौर्य, पराक्रम अर वीरांगनावां का जौहर की रोमांचक गाथा जुड़ी तकी है।

गागरोण ऐतिहासिक व पौराणिक स्थान है जठे पाषाण युग की अर पुरातात्विक महत्व की गणी सारी वस्तुआं और पाषाणकालीन राछ-बीछ-उपकरण मिलिया है। ये सभ्यता का काल खण्डा पै खास रोशनी डाले है। इतिहासकारों को मानबो है क्ह प्रागैतिहासिक मानव फैली अस्या स्थानां न्ह आपणी विचरण स्थली बणावता हा। पौराणिक सभ्याता म्ह इंको सम्बन्ध भगवान कृष्ण का पुरोत गर्गाचार्य सूं माने है। ऋषि गर्गाचार्य को यो निवास स्थान हो अर इंको नाम ‘गर्गराटपुर’ जाणबा म्ह आवे है। राजस्थान रा इम्पिरियल गजेटियर म्ह इण बात की जाणकारी देखी जा सके है।

इतिहास की परम्परा म्ह गागरोण पै फैली डोड ‘परमार’ राजपूत राजा को अधिकार हो। परमार वंश का राजा इण दुर्ग न्ह बणवायो जो डोडगढ़ अर धूलर बाजतो हो। थोड़ा अरसां पछैं यो दुर्ग खींची चौहानां क्ह अधिकार म्ह आग्यो। ‘चौहान कुल कल्पद्रुम’ का अनुसार गागरोण का खींची राजवंश का संस्थापक देवनसिंह उर्फ धारू हो जो बीजलदेव नाम का वांका बहनोई डोड राजा न्ह मार..र धूलरगढ़ पै अधिकार कर लिदो और जदसूं ही यो गढ़ गागरोण कहलायो। आ घटना 12 सदी की बताई जावे है।

गागरोण का खींची वंश में एक सूं बढ़कर एक वीर अर परतापी राजा व्या। सन् 1303 म्ह सुलतान अलाउद्दीन खिलजी इण किला पै हमलो कीदो। वणी टेम जैतसिंह राज करता हा, वे अणी हमला को जबरदस्त विरोध कीदो।  जैतसिंह का शासनकाल म्ह खरासाण सूं सूफी संत हमीद्दीन चिश्ती गागरोण आया जिंकी छतरी आज भी दुर्ग पै मौजूद है। ये सूफी संत ‘मिट्ठे साहब’ का नाम सूं लोक म्ह पूज्या जावे है।  गागरोण का खींची राजवंश म्ह तीन पीढ़ियां पछै पीपाराव नाम का एक भक्तिपरायण शासक व्या। वे दिल्ली का सुलतान फिरोजशाह तुगलक का समकालीन हा। पीपाजी आपणां जीवन का उत्तरार्ध म्ह राज वैभव छोड़..र संत रामानन्द को शिष्यत्व स्वीकार कर लीदो। गागरोण किला क्ह एक आडिने संत पीपाजी की समाधि बणी तकी है अर वठै हर साल जबर मेलो भरे है।

गागरोण को सबसूं पराक्रमी और प्रभावशाली राजा भोज को बेटो अचलदास व्यो। वांका शासनकाल म्ह गागरोण म्ह पहलो साको व्यो। अचलदास मेवाड़ का मोकल को दामाद हो। वांकी पटराणी लाला मेवाड़ी राणा मोकल की बेटी अर राणा कुंभा की बेण ही। सन् 1423 म्ह मांडू का सुलतान अलपखां गौरी उर्फ होशंगशाह गागरोण पै जोरदार हमलो कीदो और चारों मेर सूं लम्बी चौड़ी फौज सूं घेर लीदो। जिण वजह सूं घोर संग्राम व्यो जिमें अचलदास वांका शूरवीरां का साथे वीरगति प्राप्त व्या।

13-27 सितम्बर 1423 म्हयो युद्ध एक पखवाड़ा तक लड़्यो ग्यो और ज्येष्ठ बेटा पाल्हणसी न्ह दुर्ग सूं पलायन क्ह  बास्ते प्रेरित कीदो। कवि गाडण शिवदास भी पाल्हणसी के साथे पलायन कीदो। गागरोण को यो युद्ध हाड़ोती, मेवाड़ अर मालवा म्ह चारों खूंट बड़ा मानसूं जाणियो जावे है अर इण युद्ध की बराबरी रणथम्बौर, जालौर और चित्तौड़ का प्रसिद्ध साकावां म्ह व्ही है।

गागरोण पै अधिकार कर लेबा के बाद होशंगशाह वांका बेटा गजनीखां न्ह सौंप दीदो जो इं दुर्ग को विस्तार अर निमार्ण कीदो और किला न्ह और मजबूत बणायो। होशंगाशाह की मौत पछे गजनीखां मांडू सुलतान बणियो पण वांको शासनकाल बहुत छोटो रह्यो। वांके बाद महमूद खलजी प्रथम मांडू को सुलतान व्यो। अठिने पाल्हणसी आपणी बपौति का किला न्ह पाछो लेबा क्ह वास्ते सैनिकां को जमावड़ो कर रह्यो हो। आपणा मामा कुंभा की सैन्य सहायता सूं दिलशाद न्ह परास्त कर किला पै अपाणों अधिकार कर लीदो। पालहणसी को गागरोण पै करीब सात बरस राज रह्यो। अणी दौरान पालहणसी भी किला न्ह गणो खरो सुरक्षित बणायो।

सन् 1444 म्ह गढ़ गागरोण पै खल्जी एक और आक्रमण कीदो और अठे दूसरो साको व्यो। गागरोण का इस विशद साका को वर्णन ‘महासिरे महमूदशाही’ म्ह देखबा न्ह मळे है। 29 हाथियां और लंबा-चौड़ा लाव-लश्कर सूं सज्जित सुलतान खलजी की फौज क्ह आगे सात दिन की लड़ाई म्ह पालहणसी की सेना का घुटना चट्टान का माफिक टिक ग्या पण आखिर भारी फौजां के हामे रजपूती जोधा ठेर नी सक्या और भारी संख्या म्ह मारा गया। सेनानायक धीरो भी मारियो ग्यो। पालहणसी ने रात का अंधारा म्ह गढ़ गागरोण सूं पलायन कराई दीदो। ताकि पाछो संगठित वेर..ह दुश्मणासूं किलो हथिया सके। पण आगे भी जंगल म्ह भटकता तका बर्बर भीलां का हाथां सूं आपणां सैनिकां के साथे पालहणसी मारियो ग्यो। धीरा अर पालहणसी क्ह मारिया ग्या बाद गढ़ पर बच्या रजपूत केसरियो बानो फेर..र लड़बा न्ह निकळ ग्या और वीरांगनावां जौहर को अनुष्ठान कीदो। विजयी सुलतान दुर्ग पै एक और कोट बणायो और इंको नाम ‘मुस्तफाबाद’ राखियो।

आगे चाल रह्...र गागरोण दुर्ग पै मेवाड़ का राणा सांगा न्ह आपणो आधिपत्य कीदो अर आपणा विश्वापसपात्र मेदिनीराय न्ह दुर्ग सौंप दीदो। महमूद खलजी द्वितीय की भी नजरां इण किला पर गढ़ी और सन! 1518-19 म्ह एक बार फेर खलजी सेना गढ़ गागरोण न्ह चारो मेर घेर लीदो पण सांगा की सेन्य सहायता की वजहसूं खलजी की सेना न्ह घेरो उठावणूं पड़यो। इंके बाद गुजरात को शासक बहादुरशाह को चित्तौड़ पै अभियान सूं फैली गागरोण पै अधिकार कर लीदो। जद् शेरशाह मालवा को शासक बणयो तो गागरोण न्ह आपणा अधिकार म्ह ले लीदो। बाद म्ह अकबर इण दुर्ग न्ह आपणा हाथ म्ह ले लीदो।

गागरोन का खींची वंशज रजपूतां न्ह एक बार फेर हिम्मत कीदी पण अकबर सूं लोहो लेबो लोहा का चणा चबाबो हो। सन् 1567 म्ह चित्तौड़ जाती टेम अकबर भी गागरोण दुर्ग पै आयो हो। अकबर यो दुर्ग बीकानेर का राजा कल्याणमल का बेटा पृथ्वीराज न्ह जागीर म्ह दीदो। आईने अकबरी में गागरोण को वर्णन सूबे की सरकार का रूप म्ह पढ़बा न्ह मळै है जिसूं गागरोण को खास महत्व हर कोई जाण सके है। वांका बाद जहांगीर इण किला न्ह बूंदी का राव रतनसिंह हाडा न्ह सौंप दीदो। शांहजहां का शासनकाल म्ह कोटा म्ह जद हाडाओं को राज स्थापित व्यो तो गागरोण को दुर्ग कोटा का राव मुकन्दसिंह न्ह इनायत व्यो। हाडा राजाओं को राज स्वतन्त्रता प्राप्ति तक रह्यो और वे ही इण किला की देख रेख और जीर्णाद्धार का काम करावता हा। मुकन्दसिंह नया महल-माळिया बणाया। राव दुर्जनसाल दुर्ग म्ह भगवान मधूसूदन को भव्य मन्दर बणायो। कोटा रियासत को सेनापति जालिमसिंह इण किला की पिण्डारियां अर मरहठा सूं रक्षा कीदी। सुरक्षा की दृष्टि सूं परकोटा बणाया। कोटा राज्य की सिक्का बणाबा की टकसाल ई किला म्ह बणाई। अणी किला म्ह राजनैतिक बन्दिया न्ह नजरबंद भी राख्या जाता हा।

तिहरे परकोटा सू सुरक्षित गागरोण दुर्ग राजस्थान म्ह बेजोड़ है। अठ की सघन हरियाली, पहाड़, दो-दो नदियां का संगम नैसर्गिक स्वर्ग है। तीन आडिली नदियां अर ऊंचा मगरा पै ऊंचा परकोटा सूं बणियो यो किलो सुरक्षा कवच को अजब गजब उदाहरण है। मेवाड़, मालवा अर हाड़ोती का हीमाड़ा पै ई किला की मौजूदगी सामरिक महत्व न्ह आछी तरहसूं जणावे है। विशाल प्राचीरां, पाणीसूं भरी रेबावाली खईयां एक अजब परिदृश्य पैदा करे है। गागरोण जस्यों किला कठे भी देखबा म्ह न्ह मळै है। इंका द्वारां म्ह सूरजपोल, भैरवपोल, गणेशपोल खास है। इंकी विशाल बुर्जओं का भी खास नामां म्ह रामबुर्ज, ध्वजबुर्ज आदि है। जौहर कुण्ड की विशालता बखाणबा लायक है। राजा अचलदास अर वांकी राणियां का महल, नक्कारखानों, बारूदखानों, टकसाल, मधुसूदन अर शीतलामाता को मन्दर, सूफी संत मिट्ठे साहब की दरगाह अर औरंगजेब को बणायो बुलन्द दरवाजो पुरातत्व का बेमिसाल नमूना है। बाकी और किला म्ह जो बात देखबा म्ह नी आई वा या कि गागरोण का किला में पत्थर की वर्षा करबा को एक यंत्र है जो आज भी देखियो जा सके है। किला का एक आडिने सिंध नदी का किनारा पै एक पहाड़ी है जिन्ह गिध कराई पहाड़ी केवे है। जनश्रुति का अनुसार जिन्हे मौत की सजा सुणाई जाती ही इं ऊंची पहाड़ी पर सूं सजायाफ्ता न्ह पटक देता हा।

गागरोण का राय तोता गणा मशहूर रह्या हा। एक जनश्रुति का अनुसार राणी पद्मणी का पास जो हीरामन तोतो हो वो अणी प्रजाति को ही हो। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड जद इण किला न्ह देख्यो तोे वांकी आंख्या चुन्दियागी। वो अठा का नैसर्गिक सौन्दर्य न्ह देख..र मुग्ध वेगयो।




नटवर त्रिपाठी
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़
म़ो: 09460364940
ई-मेल:-natwar.tripathi@gmail.com
नटवर त्रिपाठी

(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक 


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History of Khichis
Khichi is the name of a branch of the Chauhan clan of Agnivanshi rajputs. The Rajput (from the Sanskrit tatpurusha compound rājaputra, "Means the Son of a king) Chauhan kingdom became the leading Rajput state and a powerful kingdom in Northern India under King Prithviraj III (1165–1192), also known as Prithviraj Chauhan or Rai Pithora . The Chauhan kingdom collapsed after Prithviraj was defeated by Mohammed of Ghor in 1192 at the Second Battle of Tarain, but the Chauhans remained in Ajmer as feudatories of Mohammed of Ghor and the Sultans of Delhi until 1365, when Ajmer was captured by the rulers of Mewar. Rajput must belong to one of 36 specific clans and Khichi’s is one of them. During the rule of the British, Many Rajputs wer given power to continue their rules in that state, Rajput also made alliance with the mughals. Before Mughals and British, Rajputs were the only threatening power in subcontinent. Khilchipur is a town in Rajgarh District of Madhya Pradesh state in central India. It is the administrative headquarters.

Khilchipur was formerly the capital of a princely state of the same name, under the Bhopal Agency of British India's Central India Agency. It had an area of 273 square miles, and a population of 31,143 in 1901. Its estimated revenue in 1911 was 7000 rupees, and it paid a yearly tribute to Sindhia of Gwalior of 700 rupees. Its rulers were Khichi Rajputs of the Chauhan clan. The rulers acceded to the Government of India after India's independence in 1947, and the Khilchipur became part of the new state of Madhya Bharat. Madhya Bharat was merged into Madhya Pradesh on November 1, 1956.

HISTORY
According to their traditions, it claims that he descends from a Khichi Chauhan Rajput ruler of Ajmer. Driven out of Delhi by one of the Sultans of Delhi, his descendents Sisan and Vidar migrated to Multan. The Khichis then fought with the Johiyas, the paramount in the region. Due to their bravery and valour they conquered Multan as well as many other places in India. After partition of India, the Khichi's are on both sides in Pakistan and India.

KHICHI CHAUHAN DYNASTY PROVINCES
Name Type Updated
Baria बारिया Princely State 12th May, 2020
Chhota Udaipur छोटा उदैपुर Princely State 2nd Jan, 2018
Chorangala चोरंगाला Princely State 3rd Feb, 2017
Gad Boriad गढ़ बोरिआड Princely State 17th Apr, 2019
Ghelpur घेलपुर Jagir 8th Mar, 2019
Jawas जवास Thikana 13th Dec, 2019
Khilchipur खिलचीपुर Princely State 15th Sep, 2019
Mandwa मांडवा Princely State 22nd May, 2018
Raghogarh राघोगढ़ Thikana 27th May, 2019
Sohangarh सोहन्गढ़ Zamindari 14th Apr, 2020
 
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संत पीपा जी का जीवन परिचय इतिहास |
Sant Pipa Ji Maharaj Biography


राजस्थान में मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत पीपा जी खीची राजवंश से सम्बन्धित थे. इनकी माता का नाम लक्ष्मीवती था. पीपा जी के बालपन का असली नाम राजकुमार प्रतापसिंह था. ये माँ दुर्गा के भक्त थे बाद में रामानंद को अपना गुरु बनाया.

पीपा जी का जीवन परिचय Sant Pipa Ji Maharaj Biography In Hindi

दर्जी समुदाय के लोग पीपाजी को अपना आराध्य मानते हैं. बाड़मेर के समदड़ी कस्बे में इनका विशाल मंदिर है जहाँ हर वर्ष मेला भरता है. गागरोन और मसुरिया जोधपुर में भी पीपा जी का मेला भरता हैं. इन्होने चितावानी जोग नामक ग्रन्थ की रचना की. संत ने अपना अंतिम समय टोडा में बिताया चैत्र कृष्ण नवमी को यही उनका देहांत हो गया. इस स्थान को आज पीपाजी की गुफा के नाम से जानते हैं.

कालीसिंध नदी पर बना प्राचीन गागरोंन दुर्ग संत पीपा की जन्म स्थली रहा है. इनका जन्म विक्रम संवत् 1417 चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को खिचीं राजवंश परिवार में हुआ था. वे गागरोंन राज्य के वीर साहसी एवं प्रजापालक शासक थे.

शासक रहते हुए उन्होंने दिल्ली सल्तनत के सुलतान फिरोज तुगलक से संघर्ष करके विजय प्राप्त की, लेकिन युद्ध जनित उन्माद, हत्या, जमीन से जल तक रक्तपात को देखा तो उन्होंने सन्यासी होने का निर्णय ले लिया.

ऐसी मान्यता है कि ये अपनी कुलदेवी से नित्य प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया करते थे. वर्ष 1400 में पिताजी के देहांत के पश्चात पीपानन्दाचार्य जी का राज्याभिषेक होता है तथा ये अपने शासनकाल में फिरोजशाह तुगलक, मलिक जर्दफिरोज और लल्लन पठान जैसे यौद्धाओं को रण में धुल चटाते हैं.

संत पीपा जी के पिता पूजा पाठ व भक्ति भावना में अधिक विश्वास रखते थे. पीपाजी की प्रजा भी नित्य आराधना करती थी. देवकृपा से राज्य में कभी भी अकाल व महामारी का प्रकोप नही हुआ. किसी शत्रु ने आक्रमण भी किया तो परास्त हुआ. राजगद्दी त्याग करने के बाद संत पीपा रामानन्द के शिष्य बने. रामानन्द के 12 शिष्यों में पीपा जी भी एक थे.

वे देश के महान समाज सुधारकों की श्रेणी में आते है. संत पीपा का जीवन व चरित्र महान था. इन्होने राजस्थान में भक्ति व समाज सुधार का अलख जगाया. संत पीपा ने अपने विचारों और कृतित्व से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया.

पीपाजी निर्गुण विचारधारा के संत कवि एवं समाज सुधारक थे. पीपाजी ने भारत में चली आ रही चतुर वर्ण व्यवस्था में नवीन वर्ग, श्रमिक वर्ग सृजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

इनके द्वारा सृजित यह नवीन वर्ग ऐसा था जो हाथों से परिश्रम करता और मुख से ब्रह्म का उच्चारण करता था. समाज सुधार की दृष्टि से संत पीपाजी ने बाहरी आडम्बरों , कर्मकांडो एवं रूढ़ियों की कड़ी आलोचना की तथा बताया कि ईश्वर निर्गुण व निराकार है वह सर्वत्र व्याप्त है.

मानव मन में ही सारी सिद्धिया व वस्तुएं व्याप्त है. ईश्वर या परम ब्रह्म की पहचान मन की अनुभूति से है. संत पीपा सच्चे अर्थों में लोक मंगल की समन्वयकारी पद्धति के पोषक थे.

उन्होंने संसार त्याग कर भक्ति करते हुए कभी भी पलायन का संदेश नही दिया. उन्होंने ऐसें संतो की खुली आलोचना की जो केवल वेशभूषा से संत थे आचरण से नही. उंच, नीच की भावना, पर्दाप्रथा का कठोर विरोध उतरी भारत में पहली बार संत पीपा जी ने ही किया.

इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उन्होंने स्वयं से दिया. अपनी पत्नी सीता सह्सरी को आजीवन बिना पर्दे के ही रखा, जबकि राजपूतों में पर्दा प्रथा का विशेष प्रचलन था. गुरु भक्ति की भावना संत पीपा जी में कूट कूट कर भरी हुई थी. उनको जानकारी थी कि वे गुरु के बिना माया जाल से मुक्ति संभव नही है.

जीवन की प्रमुख चमत्कारी घटनाएं:-
1. द्वारिका भगवद्दर्षन-
ऐसा कहा जाता है कि संत पीपा ने अपनी पत्नी सीता सहित द्वारका पहुंचे और वहां के पंडों से पूछा कि भगवान कहां मिलेंगे। पंडों ने उन्हें बावला समझकर ‘समुद्र में होंगे’ ऐसा कह दिया था। कृष्ण-रुकमणि के दर्शन की उत्कृष्ठ लालसा में संत पीपा व उनकी पत्नी सीता समुद्र में कूद गए। इनकी भक्ति-भावना देखकर भगवान् ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए और नौ दिन दोनों पति-पत्नी समुद्र में भगवत् सान्निध्य में रहे। अंततः भगवान् ने पीपा को ब्रह्मज्ञान देकर पुनः धरती  पर भेज दिया।

2. सीता जी का अपहरण-
द्वारका से गागरोन की ओर आने पर इनको एक पठान मिला, जो इनकी पत्नी सीता जी के रूप पर मोहित हो गया। उसने पीपाजी से सीता को छीन लिया। दोनों पति-पत्नी ने इस घोर विपत्ति के समय गोविन्द का स्मरण किया। भगवान् ने पठान को दण्ड देकर सीता को उसके चंगुल से छुड़ा दिया।

3. हिंसक बाघ को उपदेष देना-
एक बार द्वारिका से लौटते हुए पीपाजी रास्ता भटक गए। निर्जन वन से जाते समय मार्ग में उन्हें एक शेर मिला। जिसने पीपा दंपती पर आक्रमण कर दिया। इनकी भगवद्भक्ति के चमत्कार से सिंह पीपा के चरणों में नतमस्तक हो गया और भविष्य में शिकार नहीं करने की प्रतिज्ञा की।

4. द्वारका के चंदोवे की आग टोडा कस्बे में सत्संग करते हुए बुझाना-
 एक समय जब संत पीपा टोड़ा गांव में सत्संग का लाभ जनता को दे रहे थे, तभी वे अचानक वहां से उठे और अपने हाथों को आपस में रगड़ने लगे। टोड़ा नरेश के पूछने पर उन्होंने बताया कि द्वारका में दीपक से द्वारकाधीष के चंदोवे में आग लग गई थी, इसलिए मैंने बुझा दी। दूत भेज कर ज्ञात किया गया तो यह घटना सत्य निकली।

5. सर्प दंष से ब्राह्मण बालक की जीवन रक्षा-
एक बार  नगर में एक ब्राह्मण के पुत्र को सांप ने डस लिया था और उसकी तत्काल ही मृत्यु हो गई। पीपाजी वहां से गुजर रहे थे। ब्राह्मण दंपती बालक को संत पीपा के चरणों में रखकर रोने लगे। संत पीपा ने दया कर ईश्वर से प्रार्थना की और वह बालक जीवित हो गया।

संत पीपा जी के मेले
राजस्थान के बाड़मेर जिले के समदड़ी कस्बे में संत पीपा का एक विशाल मंदिर बना हुआ है जहां पर तीव्र संत पीपा जी का विशाल मेला भरता है इसके अतिरिक्त मसूरिया जोधपुर और गागरोन झालावाड़ में भी संत पीपाजी के विशाल मेले भरते हैं।

संत पीपा जी की मृत्यु
संत पीपा जी ने अपना अंतिम समय टोंक जिले के ‘ टोडा ग्राम ‘ में स्थित एक गुफा में भजन करते हुए बताया । जहाँ पर संत पीपा जी चैत्र कृष्ण नवमी को देवलोक (मृत्यु) को प्राप्त हुए । यह  गुफा वर्तमान में ” संत पीपा की गुफा’ (तहसील-टोड़ारायसिंह, जिला टोंक) के नाम से जानी जाती है। 
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खीची राजवंश

20 खिंची चौहान :-- खिंची चौहानों की भी उत्पति विवाद से परे नहीं है | नेणसी के अनुसार आसराव के अपने पुत्र माणकराव से कहा ,सूर्य अस्त होने तक जितनी भूमि में फिर कर आएगा वह भूमि में तुम्हे दे दूंगा | माणकराव ऊंट पर चढ़कर दिन अस्त होने पर वापिस आया | आते समय उसे बहुत भूख लगी थी | रास्ते में ग्वारियों की खिंचड़ी खायी | तब पिता ने कहा की तुमने खिचड़ी खायी | तब से पिता ने कहा तुमने खिचड़ी खायी इसलिए तुम्हारे संतान खींची कहलायेंगे | पर यह कथन नेणसी का गले नहीं उतरता हे |
 
भारत राज मंडल ग्रन्थ में लिखा है की अजेराव ने खिलचीपुर बसाया जिससे खीची कहलाये | खिचलीपुर रियासत की ख्यात में लिखा हे की अजबराज ने सोना चांदी की खिचड़ी बांटी | जिससे इनके वंश वालों का नाम खींची पड़ा | लेकिन यह बात भी गले नहीं उतरती सोने की खिंचड़ी भला लोग केसे खायेंगे |
 
ठाकुर माधोसिंह खिंची ने लिखा हे की बारठ ,चारण व् भाटों का कथन हे की सांभर के चौहान हठ करने वाले थे और बातों को खींचते थे अर्थात निभाते थे | इससे उनका नाम खिंची हुआ | नैनसी के अनुसार आसराज ( 1167-1172) के पुत्र माणकराव से खिंचियों की उत्पत्ति माने तो यह इतिहास सम्मत नहीं हे | क्यूँ की सं.1194 के शिलालेख से पाया जाता हे की लाखन (लक्ष्मण ) खिंची के पुत्र की स्त्री सती हुयी अर्थात 1194 से पूर्व खिंची चौहान प्रसिद्द में आ चुके थे | यह लक्ष्मण इस आसराज का समकालीन था | अतः इस आसराज के पुत्र माणकराव के वंशजों से खिंची चौहानों की उत्पति नहीं हुयी है | नैनसी ने माणकराव से गुदलराव तक का वंशक्रम दिया है :- माणकराव ,अजबराव,चन्द्रपाल ,गायंदराव ,संगमराव व् गुदलराव |
 
गुदलराव प्रथ्वीराव 11 का समकालीन था | प्रथ्वीराज चौहान 2 का समय ( संवत 1222-1226 ) था | इस द्रष्टि से प्रति पीढ़ी का समय 20 वर्ष माने पर 6 mahine पूर्व का समय वि.1226-120=1106 वि.पड़ता है | जो इस आसराज से पुर्व का हे | अतः खिंचियों का पूर्व पुरुष माणकराव ( 1162-1172 वि, ) का पुत्र नहीं हो सकता | मुंशी देवीप्रसाद जी को वि. सं. 1968 में दोरा करते समय पीपाड़ के पास बाघार गाँव के पुराने मंदिर में ऐक शिलालेख सं,1111 का मिला ,जिसमे लिखा हे की सांखला राजपूत के साथ ऐक खींचन और दूसरी महिला दो स्त्रियाँ सती हुयी | यदि यह शिलालेख ठीक से पढ़ा होता तो इससे भी अच्छी तरह जाना जा सकता है | की माणकराव नाडोल के शासक आसराज (1162-1172 ) का पुत्र नहीं हो सकता |
 
अब यदि माणक राव (माणिक्यराव ) इस आसराज का पुत्र नहीं था तो कोन था ? 1377 वि.के अचलेश्वर शिलालेख शाकम्भरी के चौहानों में लाखन ( लक्ष्मण ) नाडोल से पूर्व माणिक्यराज शासक का नाम आता है | कई विद्वानों ने चौहान शासक सामंत ?( 741-766) को माणिक्यराज माना है | अगर इस माणिक्यराज को खिंचियों का पूर्व पुरुष माने तो फिर समस्त चोहान हि खिंची हो जाते हे | इस द्रष्टि से यह माणिक्यराज भी खिंचियों का आदी पुरुष नहीं था | तो फिर यह मानिकराव कोन हो सकता हे | जैसे देवडों की उत्पति के सन्दर्भ में कई आसराज होने के बाद की ख्यातों वंश वृक्ष बडबडा गया और इस कारन इस कारन देवड़ा -खिंची आदी की उत्पति भी गडबडा गयी जैसा पहले लिखा जा चूका है की माणकराव का समय 1106 वि.के लगभग पड़ता है | माणिक्यराज के पूरवज लाखन नाडोल का समय वि.सं.1039 है | लाखन के ऐक पुत्र आसरा ( अधिराज -आश्पाल ) था | इसके पुत्र गद्धी 1082 विक्रमी में मिली | अतः इस आसराज का ऐक पुत्र माणकराव होना चाहिए | राव गणपतसिंह चितलवाना ने आसराज ( आश्पाल) शब्द की विवेचना कर आसराज ( आश्पाल) को हि माणिक्यराव माना है | अतः मत से आसराज का पुत्र हि माणिक्यराव हे | ऐसी स्थति में कहा जा सकता हे की खिंचियों का आदी पुरुष मानिकराव ,लाखन नाडोल के पत्र वंशज खींची हुए |
 
मी.एस ,सरदेसाई ने लिखा है की पंजाब में खींचीपुर पटके कारन खिंची कहलाये |
इन दोनों मतों को सत्य के नजदीक नहीं माना जा सकता | खिंचिपुर पट्टनको पंजाब में मानना सही नहीं हे वस्तुतः खिलचीपुर (मालवा) में कालीसिंध के किनारे है | कालीसिंध को गलती से सिंध मानकर और खिलचीपुर पाटन को खिंचीपुर पटन मानकर use पंजाब मान लिया जिसका कोई ओचित्य नहीं | पहले कालीसिंध नदी को सिंध भी कह जाता था | 
गढ़ वासे नदी बहे छे | परगनों मऊ खिंचियो रो सिंध नदी बहे छे , इससे मालूम पड़ता हे की आलिसिंध को बाद के लेखकों ने गलती से सिंध पंजाब मान लिया | अतः धारणा गलत हे की खीचिपुर पट्टन स्थान से खिचियों की उत्पति हुयी | खिंचीयों का आदी स्थान तो राजस्थान में हि जायल था ,जैसा नेंसी ने लिखा हे - ''माणक ने जायल ,भदाने दो गढ़ कराया '' माणक का सत्व वंशज गुदलराव भी जायल क्षेत्र में रहता था | इससे जाना जा सकता हे की प्रारंभ में न तो खिंची पंजाब गए न हि खिलचीपुर |
 
खिलचीपुर पर तो उन्होंने अधिकार 14 वीं सताब्दी से संभव हे | अतः न तो खिंची शब्द की उत्पति खिचिपुर पत्तन से न खिलचीपुर से | खिलचीपुर नाम खिंचियों के वहां रहने से हुआ |
अब इनकी उत्पति केसे हुयी नेंसी ने कहा खिचड़ी खाने से माधोसिंह खींची ने कहा सांभर के चौहान बात को खींचते इसलिए | अतः खिंची कहलाये | यदि सांभर के चौहानों के लिए उक्ति प्रसिद्द होती तो समस्त चौहान खिंची कहलाते ,पर ऐसा नहीं है चौहानों को अनेक खापे है | पहले के किसी भी ख्यात में या ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख नहीं हे अतः इसे कल्पना हि माना जावेगा | लगता हे खिंचियों के आदी पुरुष के सन्दर्भ में खिंची सम्बन्धी कोई घटना घाट गयी हे और इसी आधार पर खिचड़ी का विकृत रूप खिंची हो गया लगता हे या फिर लक्षमण ( नाडोल ) के पुत्र आसराज के पोत्र अजबराव का दूसरा नाम खिंची नाम पड़ने के सन्दर्भ में कुछ नहीं कहा जा सकता |
 
बूंदी राज्य में घाटी ,घाटोली ,गगरुण,,गुगोर ,चाचरनी ,चाचरड़ी ,खिंचियो के ठिकाने थे | तथा राघवगढ़ ,धरमावदा ,गढ़ा,नया किला ,मक़सूदगढ़ ,पावागढ़ ,असोधर व् खिलचीपुर (मालवा ) खिंचियो के ठिकाने थे |

चौहानों के अन्य ठिकाने :- राजस्थान में चीतलवाना ,कारोली ,डडोसण ,सायला ,(जालोर) जोजावर ( पाली ) नामली उजेला ,झर संदला ,उमरण ,पीपलखुटा मलकोई आदी रतलाम रियासत ( म.प्र.) चौहानों का ऐक ठिकाना था | मुंडेटी (गुजरात ) आदी सोनगरो चौहानों के मुख्या ठिकाने थे |
मेरा मत हे की किसी भी खाप को प्रसिद्द होने में सो साल लग हि जाते हे | खिंची चौहानों की उत्पति में सन्दर्भ में हम देखते हे तो पाते हे की वि.1111 के शिलालेख में खींचन शब्द स्त्री के लिया आया हे तो लक्ष्मण वि.1039 के पुत्र पोत्रों से खिंची शब्द की उत्पति मुक्ति सांगत नहीं हे तो फिर खिंची कोंसे मानिकराव से सम्बन्ध रखते है | इसके बाद हमारे पास केवल सांभर के चौहानों का आदी पुरुष मानिकराव सेष रहता हे | इस मानिकराव के वंशजों के सन्दर्भ में बही भाटों की बही के आधार पर सूर्यमल मिश्रण ने वंश भाष्कर में लिखा हे की मानिकराव के पुत्र मोहकम का पुत्र अन्नड़ ( खींची) राज हुआ | इसके वंशज खिंची कहलाये | वीर विनोद की द्रष्टि से देखे तो चौहानों में सबसे पहले काटने वाली खाप खिंची हे |म इसके अतिरिक्त खिंची जाती की उत्पति के सन्दर्भ में हमारे पास कोई अन्य आधार नहीं हे | वह यह हे की कर्नल टाड को नानी उमरखा ( चांपानेर के पास ) गुजरात में विक्रमी 1525 का ऐक gujrati भाषा का शिलालेख मिला हे |रघुनाथ के सोजन्य से जिससे मालूम होता हे की चांपानेर चावागढ़ पर शासन करने वाली शासक रणथम्भोर के प्रसिद्द 6ठी हम्मीर के वंशधर थे और यहाँ के प्रसिद्ध शासक जयसिंह देव ( पताई रावल ) के वंशज अपने को खिंची मानते है यधपि शिलालेख में खिंची शब्द नहीं हे ,पर जब इनके वंशज आपने को खिंची मानते हे तो निश्चिन्त रूप से जयदेव खिंची थे | अगर जयदेव खींची नहीं थे तो उसके पूरवज प्रथ्वीराज चौहान ( अजमेर ) के वंशज थे | अतः प्रथ्विराज भी खिंची चौहान हुए पर इतिहास ,साहित्य ,शिलालेख आदी किसी में भी प्रथ्वीराज या छठी हम्मीर किसी का खिंची नहीं लिखा गया है | सबमे इनको चौहान हि लिखा गया है फिर चांपानेर पावागढ़ के चौहानों के वंशजों को खिंची क्यूँ मान रहे हे ? यदि आदी पुरुष माणिक्यराय को हि खिंची मान ले तो खिंची और चौहान ऐक दुसरे के प्रयाय्वाची वाची शब्द हो गए फिर खिंची चौहानों की कोई खाप नहीं ,पर यह कथन भी युक्ति संगत नहीं | वस्तुत खिंची चौहानों की अन्य खांप देवड़ा हाड़ा आदी की तरह खाप हि हे अतः अभी मानिकराव से खिंचियों की उत्पति केसे मानी जाय | अगर ऐसा नहीं तो छठी हम्मीर के वंशजो द्वारा स्थापित चांपानेर पावागढ़ ( गुजरात ) के शासक जयदेव के वंशज आपने को खिंची क्यूँ मानते हे ? यधपि कोई प्रमाण नहीं पर ऐक संभावना 1480 में मालवा को शासक होसंगशाह के आक्रमण होने पर गागरोण दुर्ग की रक्षा करते हुए काम आये | उनके पुत्र पल्हन वंश रक्षा के लिए किले के बहार निकल गए |उन्होंने फिर मेवाड़ की सहायता से मुसलमानों से गागरोन छीन लिया पर फिर मुहम्मद शाह ने गागरोण छीन लिया संभतः इसके बाद पालहण काम आये | अचलदास के दुसरे पुत्र उदयसिंह थे | सम्भत व् पाल्ह्ण के उतराधिकारी हुए | शायद पाल्हण के उतराधिकारी उनकी उपाधि रावल थी | चांपानेर पावागढ़ के शासक जयसिंह को फारसी तवारीखों में उदयसिंह का पूरा लिखा हे जबकि शिलालेख में गंगदास के बाद जयसिंह का नाम आया है | मालूम होता हे शिलालेख में अंकित नामवली ,राजावली मालूम होती हे वंशवली नहीं | इस कारन अंकित किया गया है की गंगदास के बाद जयसिंह हुए जबकि वे उदयसिंह के पुत्र थे गंगदास से वि. 1503 में गुजरात के सुल्तान मुह्मद्द शाह ने चांपानेर छीन लिया | संभतः उसके बाद जयसिंह गंगदास के गोद थे | और उसी ने फिर चांपानेर पर अधिकार किया हो | इस द्रष्टि से जयसिंह खिंची संभतः अचलदास खिंची का वंशज हे इसके कारन चांपानेर के जयसिंह के वंशज खिंची कहलाते हे | पावागढ़ से निकलने वाले चौहान नहीं पावेचा कहलाते हे |
चितोड़ के राणा उदयसिंह का लालन पालन करने वाली आपने स्वामी की रक्षा करने वाली पन्ना धाय खिंची हि थी | मालवा के शासक हुसेन शाह ने अब गागरेंण पर आक्रमण किया तो उसका मुकाबला करने वाला अचलदास खिंची हि था


टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूबसूरत जानकारी आपने लिखी है...
    ऐतिहासिक पुस्तकों का सार समाहित कर दिया...

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  2. श्रीमान खींची गोत्र तो खटीक जाति में भी होता है तो क्या राजा अचलदास खींची खटीक जाति से ताल्लुक रखते थे?

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