ईश्वर और धर्म का मर्म - अरविन्द सिसौदिया Meaning of God and Dharm & Religion - Arvind Sisodia

 

 ईश्वर और धर्म का मर्म - अरविन्द सिसौदिया

Meaning of God and Dharm & Religion - Arvind Sisodia

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मूलरूप से धर्म,पंथ,सम्प्रदाय,मान्यतायें,परम्परायें,वर्ण,जाती,गोत्र,रिश्ते-नाते,कुटुम्ब,परिवार और स्त्री-पुरूष,पशु-पक्षि, पेड-पौधे सहित चैतनायुक्त समाज व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग हैं। जिनको मानव ने अपने विकास के साथ प्रगाढ़ किया, व्यवस्थित किया, अनुसंधान और शोध किया है। इनकी अपनी अपनी परिभाषायें है, सीमायें हैं दायरे हैं। यह स्वयं से प्रारम्भ होकर ईश्वर तक पहुंचनें का मार्ग है। ईश्वर और उसकी व्यवस्था तथा ईष्वरीय प्रशासान के कर्ताधर्ता देवादि देवों देवियों तक पहुंचना भलेही दुर्लभ हो, किन्तु उनको जानने समझनें का महान परिश्रम पुरूषार्थ सबसे पहले भारत में ही हुआ और जिन्होनें इस कार्य में अपना जीवन समर्पित किया वे सनातन हिन्दू कहलाये।

सनातन हिन्दू व्यवस्था पृथ्वी की प्रकृति में 84 लाख प्रकार के शरीर अर्थात योनियां मानती है। स्त्री पुरूष होना और उनका जन्म जीवन मृत्यु और मृत्यु के बाद का जीवन सब कुछ ईश्वर की अपनी प्रभुसत्ता द्वारा सुनिश्चित किया हुआ है। यह सब एक पूर्ण विज्ञान है। प्रकृति में मनुष्य ही सबसे अधिक बौधिक क्षमता वाला शरीर है। जो ईश्वर की व्यवस्थाओं को समझ कर उनसे अपनी व्यवस्था निर्माण कर प्रगति पथ पर है। शेष अन्य शरीर उसी अवस्था में हैं जिसमें वे लाखों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुये थे। जैसे हाथी, गाय, घोडे , चींटी, पेड पौधे, पशु पक्षी इत्यादी । यह माना जाना सहज ही है कि ईश्वर की व्यवस्था को पृथ्वी पर प्रकृति में शरीरों के निर्माण और विकास में करोडो वर्षों की साधना व्यतीत करनी पडी है। पृथ्वी से बाहर अन्य किसी सौर मण्डल में , अन्य किसी आकाष गंगा में भी जीवन और उसकी व्यवस्थायें संभव है। भारतीय दर्शन इस मान्यता को मानता है। वैज्ञानिक भी इस खोज में हैं। चैतनायुक्त जीवन के विकास को सनातन हिन्दू विश्वास अवतारवाद के द्वारा प्रगट भी करता है,वही पाश्चात्य वैज्ञानिक डर्विन ने भी इसे अपने सिद्यांत के रूप में स्थापित किया है। यह सही है कि पृथ्वी पर मौजूद तापमान, कार्बनिक रसायन शास्त्र के लाखों यौगिक जो कि हाइ्रडौजन और आक्सीजन से संयुक्त होकर यौगिकों की विशाल संरचना बनाते हैं। इन्ही की सहायता से ईश्वर अपने अनुसंधान कृत सॉफटवेयर स्वरूप के शरीरों को हार्डवेयर स्वरूप में उत्पन्न कर पाया है। किन्तु अन्य परिस्थितियों में यह अन्य स्वरूपों में विद्यमान होना संभव है। इस तथ्य का समर्थन भी भारतीय दर्शन करता है।


सनातन हिन्दू सभ्यता तो हमेशा ही यह मानती रही है कि हमारे सामनें मौजूद प्रकृति और सृष्टि की सत्ता के परे इनका सृजन,संचालन और समापन करनें वाली कोई अन्य प्रभुसत्ता है। जिसे ईश्व रनाम दिया गया है। परमेश्वर, परमपिता आदि उसी के नाम हैं। अर्थात जिस महाशक्ति का साम्राज्य समस्त सृजित सृष्टि पर है वह ईश्वर है। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि एक देश के रूप में भारत पर भारत की संसद साम्राज्य करती है। अर्थात भारत पर भारत की संसद का शासन है। उसके मुखिया के रूप में महामहिम राष्ट्पति शासन करते हैं। भारत के संसद द्वारा बनाई कानून एवं व्यवस्था पूरे भारत में अपना प्रभाव रखती है एवं व्यवस्था निर्माण करती है। इसी तरह से सृष्टि के सृजनकर्ता का प्रभाव एवं व्यवस्था निर्माण है। इसके नियम कानून हैं। इसे हम ईश्वर के नाम से सम्बोधित करते हैं। अन्य कोई अन्य कोई नाम से भी सम्बोधित कर सकता है। किन्तु इतना तय है ि कवह व्यवस्था एक ही है, अलग अलग राय या सम्बोधन महज हमारी सोच और उसकी क्षमता मात्र को प्रगट करता है। वह सत्य भी हो सकती है या महज असत्य बनुमान मात्र भी । उस परम शक्ति के लिये इस बात का कोई अर्थ ही नहीं है कि पृथ्वी का मानव उसके बारे में क्या सोच रहा है। या क्या धारणा बना रहा है।

ईश्वर के विशुद्ध नियम ही विज्ञान कहलाते हैं, इन नियमों पर परमाणु के अन्दर इलेक्ट्रान,प्रोटान,

न्यूट्रान से लेकर आकाशगंगायें तक चलती हैं। सृष्टि का मूल आधार पर्दाथ और उनमें व्याप्त तत्व,यौगिक एवं मिश्रण, उनके गुण अवगुण और विशेषतायें आदि सभी को नियमबद्ध कर्ता परमेश्वर है। प्रकाश,गुरूत्वाकर्षण,चुम्बकत्व,विद्युत और सम्प्रेण डाटा जिसे हम सोफटवेयर कहते हैं आदि उसकी व्यवस्थायें हैं। जो भी मानव खोजता है , वह पहले से मौजूद ईश्वरीय व्यवस्था में से ही खोजता है। जो नहीं है, उसे कोई खोज नहीं सकता है। ईश्वर के विशुद्ध नियमों, व्यवस्थाओं को पढ़ना,जानना,समझना ही विज्ञान है। इनकी सम्पूर्ण और व्यापक जानकारी को ज्ञान कहते है। इनका उपयोग मानवहित में करनें को विवके कहते है। ईश्वर से लेकर स्वयं तक को समझना धर्म कहलाता है। जो धारण किया हुआ है वही धर्म है। हम मानवहित तक सामित रख कर जब सोचते हैं तो इसे कर्तव्य मात्र में भी निहित कर लेते है। कि सैनिक को शत्रु का संहार करता उसका धर्म है कर्तव्य है। वही चिकित्सक को किसी भी घायल पीडित रोगी व्यक्ति को स्वस्थ करना धर्म है।
ईश्वर - God

ईश्वर मूलतः वह शक्ति है जो सृष्टि का निर्माण कर्ता है, जिसके अधिक्षण एवं नियंत्रण में यह सृष्टि गतिमान है। जिसके बनाये नियमों का, व्यवस्थाओं का पालन इस सृष्टि का कण कण कर्ता है। जिसके प्रभाव से इस सृष्टि में व्याप्त गति,गुरूत्वाकर्षण,चुम्बकत्व,विद्युत,घ्वनी,प्रकाश जैसी विविध प्रकार की शक्तियां कार्य करती हैं। जो विज्ञान के नियमों का नियंता है, जो उन्हे बनाने और पालन कराने वाला है। जिसके द्वारा पंचमहाभूतों का निर्माण हुआ है।  अर्थात अग्नि यानी कि तापमान - टेम्प्रेचर, जल यानी कि पदार्थ की द्रव अवस्था,वायु यानी कि पदार्थ की गैसीय अवस्था,पृथ्वी यानी पदार्थ की ठोस अवस्था और आकाश यानी कि पदार्थ के आकर को रहने के लिये स्थान जिसे आकाश कहा जाता है। जिसे आकर भी कह सकते है। इनका निर्माणकर्ता परमशक्ति ईश्वर ही है। जो समय को काल को उत्पन्नकर्ता है।

जिसके पुरूषार्थ से - परिश्रम से इस आत्मा का,सूक्ष्म शरीर का और भौतिक शरीर का निर्माण हुआ है। जो जन्म, जीवन, मृत्यु एवं मृत्यु के पश्चात के जीवन का व्यवस्थापक है। जिस शक्ति नें सृष्टि को गतिमान किया हुआ है और प्रकृति में चेतना को व्याप्त कर , लाखों प्रकार के भौतिक शरीरों के द्वारा अनन्त क्रियाओं का स्वयं कर्ता भी है और चेतन जगत से करवाता भी है। वह परम शक्ति ही ईश्वर है। जो शक्ति अनन्त कोटि क्रियाओं को एक साथ संचालित करते हुये, सृष्टि और प्रकृति में अनन्त क्रियायें निरंतर करवाते हुये गतिमान है, जिसकी क्षमता, दक्षता और प्रशासन सम्पूर्ण जगत के कण कण में व्याप्त है।

ईश्वर का अपना इन्टरनेट है, अपना डाटा है, अपनी वाईफाई व्यवस्था है। उनका अपना सर्च इंजन है। उसकी सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्तता है, व्यवस्था है, उपलब्धता है। जो मानवनिर्मित कम्प्यूटर,इन्टरनेट,डाटा,सर्च इंजन से करोडो गुणा शक्तिशाली और प्रभाव युक्त है। वही शक्ति प्रथम इंजीनियर,प्रथम डाक्टर,प्रथम वैज्ञानिक भी है। ईश्वर ही सृष्टि में सभी प्रकार की प्ररेणाओं का प्रणेता है।

जो निराकार और साकार दोनों ही अवस्िाओं एवं व्यवस्थाओं को उत्पन्न कर्ता है। वह शक्ति जो चींटी से लेकर हाथी तक को भौतिक शरीर प्रदान कर्ता है। इन शरीरों के निर्माण का परम क्षमताओं से युक्त इन्जीनियर है, मन मतिष्क का निर्माता है। ज्ञान विज्ञान और विवके को उत्पन्न करने वाला है। जो सामान्य छोटी से छोटी चेतना को भौतिक शरीर प्रदानकर्ता है। जो स्वयं चेतनायुक्त होकर सम्पूर्ण जगत का संचालन करता है और वक्त जरूररत स्वयं भी भौतिक शरीरों म्ै। स्वयं को भी उत्पन्न कर्ता है। जो विविध प्रकार की क्षमताओं एवं उच्चताओं से सम्पन्न है, युक्त है। जो अपनी कलाओं से अपनी उच्चता व क्षमताओं को प्रगटकर्ता है। जो चेतन,अचेतन और चेतजन-अचेतन से परे भी व्याप्त है। जिस परम शक्ति को सृष्टि का नियंत्रण अनन्त कोटि कोटि गतिमान बृहमाण्डीय पिण्ड संरचना से लेकर काल एवं लय के साथ क्षय को प्राप्त हो कर एक महापिण्ड निर्माण तक पर नियंत्रण है। जो पुनः महा विस्फोट को प्राप्त होकर सब कुछ फिर से कर्ता है। कुल मिला कर जो परम शक्ति सृष्टि चक्र की उत्पन्नकर्ता-जनरेट, संचालनकर्ता-ओपरेट,संहारकर्ता-डिस्ट्राय करती है। वही परम शक्ति परमेश्वर अर्थात ईश्वर है।

धर्म -Dharma (not Religion )
धर्म के अपने अपने अर्थ बहुत निकाले गये, कारण कि धर्म के ज्ञान प्रदाता का, उपदेशक का , बतानें वाले का समाज में सम्मान बहुत अधिक रहा है, उसे परमशक्ति का प्रतिनिधि मान लिया जाता है। इसलिये एक कहावत भी चलती है कि धर्म की जड हमेशा हरी रहती है। इसके कारण मूलतःईश्वर प्रदत्त धर्म और अपने अपने तरीके से बताये गये धर्मों की मान्यताओं में व्यापक अन्तर व्याप्त है। जिसके कारण विविध प्रकार की साम्प्रदायिकतायें हैं।

धर्म का मूलतः अर्थ ईश्वर द्वारा सृजन को धारण करवाये गये सत्य से है। इसे हम सरल भाषा में कर्तव्य मान सकते हैं। जैसे सूर्य का प्रकाशमान होना सूर्य का अपना कर्तव्य है। गुरूत्वाकर्षण के आधार पर पृथ्वी सहित विविध ग्रह नक्षत्रों, सौर मण्डलों, आकाशगंगाओं  आदि आदि का गतिमान रहना उनका कर्तव्य है। अग्नि के द्वारा तापमान में वृद्धि करना, जल का बहना , वायु का गतिमान रहना उनका कर्तव्य है, उनका अपना अपना कर्तव्य ही अपना अपना धर्म है। धर्म का स्वरूप एवं क्रियायें प्रत्येक इकाई के अनुसार बदलत जाता है। अग्नि गर्म कर रही है, जल उसे शीतल कर रहा है। मनुष्य का धर्म मानव व्यवस्था में जो ईश्वरीय व्यवस्थाओं से समस्त उपलब्धताओं के रूप में प्राप्त है,उसका मानवता के हित विवके से तय किये गये कर्तव्य , मानव धर्म हैं। मानवता के हित के कार्यों को करना ही धर्म है। जैसे जन्म देनें वाले माता पिता के प्रति कृतज्ञभाव रखना,उनको सहयोग करना,उनका ऋण चुकाना धर्म है।


ईश्वरीय उत्पादन सृजन
divine production creation

ईश्वर परम शक्ति है, उसकी सरकार सम्पूर्ण सृष्टि पर साम्राज्य करती है। उसके नियम से बनें परमाणु में इलेक्ट्रान प्रोटान एवं न्युट्रान सम्पूर्ण सृष्टि में लगभग एक जैसे ही हैं। उसके नियम से उत्पन्न होनें वाले प्रकाश की चमक सभी जगह एक जैसी है। इसी तरह गुरूत्वाकार्षण, चुम्बकत्व,विद्युत,ईश्वरीय इन्टरनेट चेतना सभी जगह एक जैसी ही है। तत्वों का,यौगिकों का मिश्रणों का बनना सभी जगह एक जैसा ही है। कुछ बातें स्थानीय स्थिती परिस्रिथती पर निर्भर कर सकती हैं बांकी ज्यादातर सम्पूर्ण सृष्टि में एक जैसा ही होता है। जैसे हाईड्ोजन एक एच-2 और पानी का एच2ओ संयोजन सम्पूर्ण सृष्टि में एक सा ही है। अर्थात ईश्वरी के उत्पाद काल - समय, तापमान- अग्नि, आकाश - आकर,पदार्थ - मेटर, उर्जा- विद्युत, चुम्बकत्व,विकरण आदि आदि विविध अवस्थायें उत्पाद एवं प्रभाव लगभग एक जैसे रहते हुये भी बलग अलग परिस्थिती में अलग अलग भी होते है। जैसे पृथ्वी की परिस्थिती में प्रकृति का होना और उसी का पृथ्वी के ही चंद्रमा पर नहीं होना । मंगल, बुध, शुक्र , शनि पर भी नहीं होना । इन सभी प्रकार के उत्पादन का सृजन को कोई तो कारक होगा । जो कारक है कर्ता है वही तो ईश्वर है। वह इन सभी कार्यों को जिन जिन शक्तियों के सहयोग कर करवा रहा है। जिनसे इनक ार्यों की निरंतरता है, गतिमानता है। जो इनक ार्यों में दिन रात रत है। वे ही देवी देवता हैं। ईश्वरीय कार्यों के कर्ता देवी देवता हैं। जैसे कि प्रकाश के देव सूर्य हैं तो न्याय के देव शलि् महाराज हैं।

ईश्वरीय प्रशासन divine administration

ईश्वर नाम की जो शक्ति है वह एक ही है, जैसे हमारे शरीर की स्वत्व आत्मा में मे निहित है, उसी प्रकार से सम्पूर्ण सृजन का स्वामित्व जिस में निहित है। वह ईश्वर है। किन्तु एक व्यक्ति एक समय में समस्त कार्यों को नहीं कर सकता और उसे अपने कार्य में सहयोग हेतु अन्य साथियों सेवकों की जरूरत है। ठीक उसी प्रकार से ईश्वर को भी अपना विराट कार्य सम्पादित करने हेतु एक प्रकार के केन्द्रीय प्रशासन की आवश्यकता है। वहीं विविध उत्पादों के लिये, विविध क्षैत्रों के लिये अलग अलग प्रशासनिक ताकतें तय होती होंगी जैसे राज्यों में राज्य सरकारें, हमारे यहां इन्द्र लोक की व्यवस्था सनातन हिन्दू विचारधारा बताती है। अर्थात आकाश गंगा में करोडों पिण्ड हैं जो विविध सूर्यों के सौर परिवार हैं। स्वतंत्र पिण्ड भी हैं किन्तु सभी एक केन्द्र के ही चारों ओर गतिमान होकर उस आकाशगंगा के गुरूत्वाकर्षण से नियंत्रित हैं बंधन युक्त हैं। जैसे कि हमारी आकाशगंगा में अतिमान हमारी पृथ्वी 27 नक्षत्रों के क्षेत्रों से साल भर में गुजरती है। मगर एक नक्षत्र जो बहुत शुभमाना जाता है , उसे अभिजीत कहते हैं वह दूसरी आकाश गंगा का है। उसे हम 27 नक्षत्रों की गणना में नहीं लेते हैं। अर्थात चाहे पृथ्वी हो, सौर मण्डल हो, आकाशगंगा हो, आकाशगंगोओं का समूह हो, सभी किसी न किसी एक अदृष्य शक्ति से बंधे हें। शासित हैं।

अर्थात जिस तरह केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय स्तर की नगरीय एवं पंचायती राज सरकारें हैं। विविध प्रकार के मंत्रालय हैं। अनकों स्वतंत्र या स्वायत्त व्यवस्थायें हैं। उसी तरह से ईश्वर की व्यवस्थायें हैं।

यह कहा जाता है कि परम शक्ति एक ही मगर हम जब एक पदार्थ के सबसे छोटे अंश परमाणु में भी तीन आवेशों को संयुक्त देखते हैं। और उन तीनों के कारण ही पदार्थ का अस्तित्व देखते हैं। तो सनातन हिन्दू मान्यता त्रिदेव पर सहज विश्वास हो जाता है। यह संभव है। जब वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक अस्तित्ववान वस्तु के विपरीत प्रभाव वाली वस्तु भी अनिर्वायरूप से होती है। जो सहज ही सनातन हिन्दू मान्यता की देवी शक्तियों पर भी विश्वास करना होता है।

मनुष्य ही ईश्वर का धन्यवाद ज्ञापित कर पाता है

Only Human's can thank God !


पृथ्वी पर मौजूद चेतन शक्ति से 84 लाख प्रकार के शरीर योनियां मानी गई है। इनमें मात्र मनुष्य ही ईश्वर की खोज कर सकता है, उनके बारे में सोच सकता है, उन्हे धन्यवाद ज्ञापित कर सकता है।


 

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