विष्णु भगवान का वराह अवतार की उपासना
।।लुप्त होती भगवान वराह की उपासना।।
श्री भगवान वराह भगवान विष्णु के दशावतर मे से एक प्रमुख अवतार है
इसी अवतार में प्रभु ने राक्षस हिरण्याक्ष वध व पृथ्वी का उद्धार किया था और गुरुत्वाकर्षण शक्ति को व्यवस्थित कर के पृथ्वी के विकास में योगदान दिया था।
प्राचीन काल में भगवान वराह के स्वरूप व उपासना का बहुत विस्तृत वर्णन शास्त्रों में प्राप्त होता है। इनकी उपासना प्राचीन समय में जनमानस में इतनी प्रचलित थी कि इनकी लीलाओं के विषय में एक स्वतंत्र पुराण "वराह पुराण" की रचना हुई तथा अनेकों तंत्र शास्त्रों मे भी इनकी उपासना पर बहुत जोर दिया गया।
परंतु आज दुर्भाग्य देखिए भारत के बहुत कम हिस्सों में ही आपको वराह भगवान के उपासक देखने को मिलेंगे आज इनकी उपासना लुप्त होती जा रही है।
इनकी उपासना को रोकने के लिए विधर्मी ने कई भ्रामक प्रचार किए जैसे वराह भगवान को सूअर बताना और विष्ठा खाने वाला बताकर उनका अपमान करना। परंतु सत्य बहुत अलग है वराह भगवान का स्वरूप आप देखेंगे तो पाएंगे वराह भगवान ग्राम सुकर स्वरूप में नहीं है वह जंगली शूकर स्वरूप में है और आपको पता ही होगा जंगली सूअर कंद मूल फल अधिक खाते हैं और अकाल की स्थिति में कभी-कभी शिकार करते हैं ग्राम सूअर जैसे विष्ठा जंगली सूअर नहीं खाते।
आइए वराह उपासना के बारे में थोड़ी सी चर्चा करते हैं-:
1) किसी व्यक्ति पर तंत्र मंत्र, अभिचार,भूत-प्रेत आदि की पीड़ा हो तो उसमें वराह उपासना तत्काल फल प्रदान करने वाली बताई गई है।
2) मकान बनाने में अड़चन आ रही हो भूमि का सुख प्राप्त नहीं हो रहा हो तो उसमें भी वराह उपासना चमत्कारिक फल प्रदान करती है
3) शत्रुओं से रक्षा के लिए वराह उपासना अमोघ है।
और भी अनेक लाभ शास्त्रों में वर्णित है आइए मिलकर वराह भगवान की उपासना करें अपने जीवन को धन्य बनाएं
नित्य पाठ करने हेतु सामग्री-:
1) वराह स्तोत्र
2) वराह सहस्त्रनाम
3) वराह अष्टोत्तर शतनाम
4) वराह पंचकम
5) वराह स्तुति
6) वराह कवच
7) वराह मंत्र
8) श्री वाराह आष्टक
9) वराह पुराण
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वराह स्तोत्र
ऋषयः ऊचुः
जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्रोमरन्ध्रेषु निलिल्युरध्वरा- स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥१॥
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम- स्वाज्यं दृशित्वंघ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥२॥
स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयो- रिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥३॥
दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥४॥
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः संस्थाविभेदास्तव देव धातवः।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि- स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥५॥
नमो नम्स्तेऽखिलमन्त्रदेवता- द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित- ज्ञानाय विद्यागुरवे नमोनमः ॥६॥
दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूः सभूधरा।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥७॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते।
चकास्ति शृङ्गोढघनेनभूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥८॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥९॥
कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबर्हणम्।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥१०॥
विधुन्वता वेदमयं निजं वपु- र्जनस्तपस्सत्यनिवासिनो वयम्।
सटाशिखोद्धूतशिवांबुबिन्दुभि- र्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥११॥
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥१२॥
जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्रोमरन्ध्रेषु निलिल्युरध्वरा- स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥१॥
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम- स्वाज्यं दृशित्वंघ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥२॥
स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयो- रिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥३॥
दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥४॥
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः संस्थाविभेदास्तव देव धातवः।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि- स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥५॥
नमो नम्स्तेऽखिलमन्त्रदेवता- द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित- ज्ञानाय विद्यागुरवे नमोनमः ॥६॥
दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूः सभूधरा।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥७॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते।
चकास्ति शृङ्गोढघनेनभूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥८॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥९॥
कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबर्हणम्।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥१०॥
विधुन्वता वेदमयं निजं वपु- र्जनस्तपस्सत्यनिवासिनो वयम्।
सटाशिखोद्धूतशिवांबुबिन्दुभि- र्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥११॥
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥१२॥
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चार लाख बार करें इस मंत्र का जप
भूमि प्राप्त करने के लिए भगवान वराह के मंत्र जप का भी विधान है. स्कंद पुराण के वैष्णव खंड के अनुसार ये मंत्र ‘ऊं नमो श्रीवराहाय धरण्युद्धारणाय स्वाहा’ है. पौराणिक मान्यता के अनुसार, भूमि प्राप्त करने के इच्छुक मनुष्य को सदा ही इस मंत्र का जप करना चाहिए. भक्तिपूर्वक चार लाख जप और घी तथा शहद मिश्रित खीर के हवन से वराह भगवान ज़रूर कृपा करते हैं.
भूमि प्राप्त करने के लिए भगवान वराह के मंत्र जप का भी विधान है. स्कंद पुराण के वैष्णव खंड के अनुसार ये मंत्र ‘ऊं नमो श्रीवराहाय धरण्युद्धारणाय स्वाहा’ है. पौराणिक मान्यता के अनुसार, भूमि प्राप्त करने के इच्छुक मनुष्य को सदा ही इस मंत्र का जप करना चाहिए. भक्तिपूर्वक चार लाख जप और घी तथा शहद मिश्रित खीर के हवन से वराह भगवान ज़रूर कृपा करते हैं.
वराह मंत्र
ॐ वराहाय नमः
ॐ सूकराय नमः
ॐ धृतसूकररूपकेशवाय नमः
ॐ वराहाय नमः
ॐ सूकराय नमः
ॐ धृतसूकररूपकेशवाय नमः
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