आपातकाल : लोकतंत्र की प्रथम हत्या Emergency: The First Murder of Democracy

जानें, आपातकाल से जुड़ीं हैं ये 10 बड़ी बातें 

 

Emergency: The First Murder of Democracy
                                     


लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों... आज से करीब 43 साल पहले इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था। 25 जून, 1975 को लगा आपातकाल 21 महीनों तक यानी 21 मार्च, 1977 तक देश पर थोपा गया। 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में पहला आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना, 'भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।' आइये आज आपातकाल से जुड़ी 10 बड़ी बातें जानते हैं... नेताओं की गिरफ्तरियां आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया। जेलों में जगह नहीं बची। आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस के द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई। प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो सकती थी। यह सब तब थम सका, जब 23 जनवरी, 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो गई। 


पृष्ठभूमि 

लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव शुरू हो गया था। यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना। आपातकाल के लिए 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार की। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुतम से सुनाए गए फैसले में यह कहा कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है। 

 

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प्रमुख कारण 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबर्दस्त जीत दिलाई थी और खुद भी बड़े मार्जिन से जीती थीं। खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। मामले की सुनवाई हुई और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया गया। इस फैसले से आक्रोशित होकर ही इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लगाने का फैसला लिया। 


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आपातकाल की घोषणा 

इस फैसले से इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गईं कि अगले दिन ही उन्होंने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया। 

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       इमर्जेंसी में हर कदम पर संजय के साथ थीं मेनका: आर के धवन इंदिरा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे आर.के. धवन ने कहा है कि सोनिया और राजीव गांधी के मन में इमर्जेंसी को लेकर किसी तरह का संदेह या पछतावा नहीं था। और तो और, मेनका गांधी को इमर्जेंसी से जुड़ी सारी बातें पता थीं और वह हर कदम पर पति संजय गांधी के साथ थीं। वह मासूम या अनजान होने का दावा नहीं कर सकतीं। आर.के.धवन ने यह खुलासा एक न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में किया था। धवन ने यह भी कहा कि इंदिरा गांधी जबरन नसबंदी और तुर्कमान गेट पर बुलडोजर चलवाने जैसी इमर्जेंसी की ज्यादतियों से अनजान थीं। इन सबके लिए केवल संजय ही जिम्मेदार थे। इंदिरा को तो यह भी नहीं पता था कि संजय अपने मारुति प्रॉजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण कर रहे थे। धवन के मुताबिक इस प्रॉजेक्ट में उन्होंने ही संजय की मदद की थी, और इसमें कुछ भी गलत नहीं था। 


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      बंगाल के सीएम एस.एस.राय ने दी थी आपातकाल लगाने की सलाह धवन ने बताया कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। इमर्जेंसी की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी। धवन ने बताया कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे। धवन ने यह भी बताया कि किस तरह आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें निर्देश दिया गया था कि आरएसएस के उन सदस्यों और विपक्ष के नेताओं की लिस्ट तैयार कर ली जाए, जिन्हें अरेस्ट किया जाना है। इसी तरह की तैयारियां दिल्ली में भी की गई थीं।

 

 इस्तीफा देने को तैयार थीं इंदिरा 

 धवन ने कहा कि आपातकाल इंदिरा के राजनीतिक करियर को बचाने के लिए नहीं लागू किया गया था, बल्कि वह तो खुद ही इस्तीफा देने को तैयार थीं। जब इंदिरा ने जून 1975 में अपना चुनाव रद्द किए जाने का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आदेश सुना था तो उनकी पहली प्रतिक्रिया इस्तीफे की थी और उन्होंने अपना त्यागपत्र लिखवाया था। उन्होंने कहा कि वह त्यागपत्र टाइप किया गया लेकिन उस पर हस्ताक्षर कभी नहीं किए गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी उनसे मिलने आए और सबने जोर दिया कि उन्हें इस्तीफा नहीं देना चाहिए। 


आईबी की रिपोर्ट और 1977 का चुनाव 

 

धवन ने कहा कि इंदिरा ने 1977 के चुनाव इसलिए करवाए थे, क्योंकि आईबी ने उनको बताया था कि वह 340 सीटें जीतेंगी। उनके प्रधान सचिव पीएन धर ने उन्हें यह रिपोर्ट दी थी, जिस पर उन्होंने भरोसा कर लिया था। लेकिन, उन चुनावों में मिली करारी हार के बावजूद भी वह दुखी नहीं थीं। धवन ने कहा, 'इंदिरा रात का भोजन कर रही थीं तभी मैंने उन्हें बताया कि वह हार गई हैं। उनके चेहरे पर राहत का भाव था। उनके चेहरे पर कोई दुख या शिकन नहीं थी। उन्होंने कहा था भगवान का शुक्र है, मेरे पास अपने लिए समय होगा।' धवन ने दावा किया कि इतिहास इंदिरा के साथ न्याय नहीं कर रहा है और नेता अपने स्वार्थ के चलते उन्हें बदनाम करते हैं। वह राष्ट्रवादी थीं और अपने देश के लोगों से उन्हें बहुत प्यार था। 

 

 इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा के घर में था अमेरिकी जासूस:

 

    विकिलीक्स पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में 1975 से 1977 के दौरान एक अमेरिकी भेदिया था, जो उनके हर पॉलिटिकल मूव की खबर अमेरिका को दे रहा था। यह खुलासा विकिलीक्स ने कुछ साल पहले अमेरिकी केबल्स के हवाले से किया था। विकिलीक्स के मुताबिक, इमर्जेंसी के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में मौजूद इस भेदिए की उनके हर राजनीतिक कदम पर नजर थी। वह सारी जानकारी अमेरिकी दूतावास को मुहैया करा रहा था। केबल्स में इस भेदिए के नाम का खुलासा नहीं किया गया है। 26 जून 1975 को इंदिरा गांधी के देश में इमर्जेंसी घोषित करने के एक दिन बाद अमेरिकी दूतावास के केबल में कहा गया कि इस फैसले पर वह अपने बेटे संजय गांधी और सेक्रेटरी आरके धवन के प्रभाव में थीं। केबल में लिखा है, 'पीएम के घर में मौजूद 'करीबी' ने यह कन्फर्म किया है कि दोनों किसी भी तरह इंदिरा गांधी को सत्ता में बनाए रखना चाहते थे।' यहां दोनों का मतलब संजय गांधी और धवन से है।

 

 आपातकाल और पीएम मोदी 

 

आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहम भूमिका निभाई थी। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जा चुकी थी। कई पत्रकारों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। सरकार की कोशिश थी कि लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंचे। उस कठिन समय में नरेंद्र मोदी और आरएसएस के कुछ प्रचारकों ने सूचना के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी उठा ली। इसके लिए उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। संविधान, कानून, कांग्रेस सरकार की ज्यादतियों के बारे में जानकारी देने वाले साहित्य गुजरात से दूसरे राज्यों के लिए जाने वाली ट्रेनों में रखे गए। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि रेलवे पुलिस बल को संदिग्ध लोगों को गोली मारने का निर्देश दिया गया था। लेकिन नरेंद्र मोदी और अन्य प्रचारकों द्वारा इस्तेमाल की गई तकनीक कारगर रही। 

 

 

 आपातकाल और लोकतंत्र


साभार -Posted On June 21, 2014 - विजय कुमार

 

 emergency -आपातकाल ( 25 जून, 1975) की वर्षगांठ  पर- जून महीना आते ही आपातकाल की यादें जोर मारने लगती हैं। 39 साल पहले का घटनाक्रम मन-मस्तिष्क में सजीव हो उठता है। छह दिसम्बर, 1975 को बड़ौत (वर्तमान जिला बागपत) में किया गया सत्याग्रह और फिर मेरठ जेल में बीते चार महीने जीवन की अमूल्य निधि हैं। वह मस्ती और जुनून अब एक सपना सा लगता है। 1975 को याद करने के लिए उसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। 1971 में पाकिस्तान पर भारत की अभूतपूर्व विजय हुई थी। इसमें सेना के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का साहस भी प्रशंसनीय था। यद्यपि ‘शिमला समझौते’ में उन्होंने बिना शर्त 93,000 बंदियों को छोड़कर अच्छा नहीं किया। इसकी आलोचना भी हुई, पर विजय के उल्लास में यह आलोचना दब गयी। इसके बाद इंदिरा गांधी निरंकुश हो गयीं। कांग्रेस का अर्थ इंदिरा गांधी हो गया था। देवकांत बरुआ जैसे चमचे ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ का राग अलापने लगे। संगठन और शासन, दोनों के सब सूत्र  इंदिरा गांधी के हाथ में थे। ऐसे माहौल में ही सत्ताधीश तानाशाह हो जाते हैं।        

 

        इंदिरा गांधी के आसपास बंसीलाल, विद्याशंकर शुक्ल, संजय गांधी, सिद्धार्थशंकर रे आदि का मनमानी करने वाला समूह बन गया। उधर समाजवादी नेता राजनारायण ने इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव में गलत साधन अपनाने पर मुकदमा ठोक रखा था। इंदिरा गांधी के स्टेनो यशपाल कपूर ने सरकारी सेवा में रहते हुए उनके चुनाव मेें काम किया था। न्यायालय में उनके हारने की पूरी संभावना थी। इससे वे बहुत परेशान थीं। इधर गुजरात के छात्रों ने चिमनभाई पटेल के भ्रष्ट शासन के विरुद्ध ‘नवनिर्माण आंदोलन’ छेड़ दिया था। गुजरात से होता हुआ यह आंदोलन बिहार पहुंच गया। वहां इंदिरा गांधी के प्रिय अब्दुल गफूर की भ्रष्ट सरकार चल रही थी। युवाओं के उत्साह को देखकर वयोवृद्ध जयप्रकाश नारायण ने इस शर्त पर नेतृत्व स्वीकार किया कि आंदोलन में हिंसा बिल्कुल नहीं होगी। पूरे देश और विशेषकर उत्तर भारत में 

 

‘जयप्रकाश का बिगुल बजा तो, जाग उठी तरुणाई है; 

तिलक लगाने तुम्हें जवानो क्रांति द्वार पर आयी है। 

 

हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा। जयप्रकाश है नाम देश की चढ़ती हुई जवानी का।’ आदि नारों से गांव, नगर और विद्यालय गूंजने लगे। इंदिरा गांधी ने आंदोलन को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारतीय जनसंघ के नानाजी देशमुख, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गोविन्दाचार्य और सुशील मोदी आदि भी पूरी तरह सक्रिय थे। चार नवम्बर, 1974 को हुई पटना रैली में लाठीचार्ज से जेपी को बचाने के लिए नानाजी उनके ऊपर लेट गये। इससे उनका हाथ तो टूट गया; पर जेपी बच गये। 12 जून, 1975 को प्रयाग उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्तकर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया। इसी दिन गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गयीं। 25 जून, 1975 को दिल्ली में हुई विराट रैली में जेपी ने पुलिस और सेना के जवानों से आग्रह किया कि शासकों के असंवैधानिक आदेश न मानें। अब तो इंदिरा गांधी पर जुनून सवार हो गया। उन्होंने जेपी को गिरफ्तार कर लिया। पूरे देश में इंदिरा गांधी पर त्यागपत्र देने के लिए दबाव पड़ने लगा; पर विधिमंत्री सिद्धार्थशंकर रे ने आपातकाल का प्रस्ताव बनाया और राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को रात में ही जगाकर हस्ताक्षर करा लिये। मंत्रिमंडल को भी इसका पता अगले दिन ही लगा। इस प्रकार 26 जून को देश में आपातकाल लग गया।

 

 

          विरोधी दल के अधिकांश नेताओं तथा संघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं को बंदी बना लिया गया। तब चन्द्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत और मोहन धारिया भी कांग्रेस में थे। ये इंदिरा जी के इस रवैये के विरोधी थे। इन्हें ‘युवा तुर्क’ कहा जाता था। इन्हें भी बंद कर दिया गया। मीडिया पर सेंसर लगा दिया गया। देश एक ऐसे अंधकार-युग में प्रवेश कर गया, जहां से निकलना कठिन था। आगे की कहानी बहुत लम्बी है। इस तानाशाही के विरोध में ‘लोक संघर्ष समिति’ बनायी गयी। इसके बैनर तले सत्याग्रह हुआ, जिसमें देश भर में डेढ़ लाख लोगों ने गिरफ्तारी दीं। इनमें 95 प्रतिशत संघ वाले थे। वस्तुतः इस आंदोलन का सूत्रधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही था। इंदिरा जी ने सबको बंदकर सोचा कि अब आंदोलन दब गया है। अतः उन्होंने लोकसभा के चुनाव घोषित कर दिये; पर संघ का भूमिगत संजाल पूर्णतः सक्रिय था। जेल में बंद नेताओं से तुंरत सम्पर्क कर ‘जनता पार्टी’ के बैनर पर चुनाव लड़ने का आग्रह किया गया। अधिकांश बड़े नेता तो हिम्मत हार चुके थे; पर जब उन्होंने जनता का उत्साह देखा, तो वे राजी हो गये। इंदिरा गांधी की भारी पराजय हुई। त्यागपत्र देने से पहले उन्होंने अपनी कलम से संघ से प्रतिबंध हटा दिया। उन्होंने बाद में माना कि संघ पर प्रतिबंध लगाना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। 

 

 

          चुनाव के बाद जनता पार्टी का शासन आया; पर उसमें अधिकांश कांग्रेसी और समाजवादी थे, अतः वे कुर्सियों के लिए लड़ने लगे। जिस संघ के त्याग, बलिदान और परिश्रम के कारण वे सत्ता में पहुंचे थे, उसे ही उन्होंने नष्ट करना चाहा। परिणामस्वरूप जनता पार्टी टूट गयी। ढाई साल बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी फिर से जीत गयीं। जनता पार्टी ने अपने ढाई वर्ष के कार्यकाल में संविधान में ऐसे प्रावधान कर दिये, जिससे फिर आपातकाल न लग सके। 

 

    यद्यपि इसके बाद देश में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा है। कांग्रेस की देखादेखी वंशवाद प्रायः सभी दलों में पहुंच गया है। ऊपर से देखने पर लोकतंत्र तो है; पर वह कुछ परिवारों के पास बंधक बन कर रह गया है। लोकतंत्र की पालकी वे दल ढो रहे हैं, जिनमें स्वयं आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। अत्यधिक खर्चीले होने के कारण सामान्य व्यक्ति चुनाव लड़ ही नहीं सकता। अंग्रेजों से उधार ली गयी चुनाव प्रणाली ने भारत को जाति और क्षेत्र के मकड़जाल में फंसा दिया है। 2011 में नानाजी देशमुख द्वारा 1979 में लिखी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ को फिर प्रकाशित किया है। इसकी भूमिका में वे लिखते हैं, ‘आज की राजनीतिक कार्यप्रणाली का 28 वर्षों तक गहन अध्ययन और अनुभव प्राप्त करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आज जिस प्रकार की राजनीति चल रही है, उसके माध्यम से न तो ऐसे नेता जन्म ले सकते हैं, जिनका रचनात्मक दृष्टिकोण हो और न कोई सकारात्मक दृष्टिकोण सामने आ सकता है। देश को वर्तमान राजनीतिक कार्यप्रणाली के स्थान पर कोई नयी कार्यप्रणाली, जिसका दृष्टिकोण रचनात्मक हो, खोजनी होगी। मेरी इच्छा है कि अपनी अल्पक्षमता और दुर्बलताओं के रहते हुए भी मैं अपने शेष आयु इसी खोज में बिता दूंगा।’ नानाजी ने अपने अनुभव से जो निष्कर्ष निकाले थे, वे गलत नहीं लगते। क्योंकि आपातकाल विरोधी अधिकांश नेता और दल अब कांग्रेस की ही गोद में बैठे हैं। अपवाद है, तो केवल संघ और संघ विचार की सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएं। यद्यपि नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना इस अंधेरे में एक प्रकाश की किरण तो है; पर वे इस व्यवस्था को कितना बदल पाएंगे, कहना कठिन है। क्योंकि वे भी तो इसी में से होकर शीर्ष पर पहुंचे हैं। 1975 जैसे काले दिन तो शायद फिर न आयें; पर सच्चा लोकतंत्र भारत में कब आएगा, यह प्रश्न उन लोगों को चिंतित जरूर करता है, जो लोकतंत्र की रक्षार्थ जेल गये थे या फिर जिन्होंने भूमिगत रहकर आंदोलन का संचालन किया था।


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       जब इंदिरा के फरमान से देश पर बरपा सरकारी कहर हिंदुस्तान की नौजवान पीढ़ी, आज के आजादी के माहौल में खुलकर अपने विचार रखती है। आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन जिन लोगों ने 43 साल पहले आपातकाल का दौर देखा है-वो जानते हैं तब क्या होगा? जब इंदिरा के फरमान से देश पर बरपा सरकारी कहर हिंदुस्तान की नौजवान पीढ़ी, आज के आजादी के माहौल में खुलकर अपने विचार रखती है। आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन जिन लोगों ने 43 साल पहले आपातकाल का दौर देखा है-वो जानते हैं तब क्या होगा?

 
साभार - News18India.com Updated: 

June 26, 2018, 6:53 PM IST

 

    हिंदुस्तान की नौजवान पीढ़ी, आज के आजादी के माहौल में खुलकर अपने विचार रखती है. सरकार की आलोचना भी करती है लेकिन सोचिए अगर नौजवानों को फेसबुक की हर पोस्ट पहले सरकार को भेजनी पड़े और सरकार जो चाहे वही फेसबुक पर दिखे तो क्या होगा. अगर, ट्विटर, व्हाट्सएप के मैसेज पर लग जाए सेंसर? टीवी पर वही दिखे-अखबार में वही छपे जो सरकार चाहे-यानी लग जाए बोलने-लिखने-सुनने की आजादी पर सेंसर तो क्या होगा? आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन जिन लोगों ने 43 साल पहले आपातकाल का दौर देखा है-वो जानते हैं तब क्या होगा? 43 साल पहले जब इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल लगाया था तो जुल्म का ऐसा ही दौर चला था. सवाल ये है कि 43 साल पहले देश में क्या हुआ कि आपातकाल की जरूरत पड़ गई, वो आपातकाल जो आजाद भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। आपातकाल का वो दौर इतना भयानक था कि कांग्रेस भी अब उसे भूल मानती है लेकिन उस वक्त की बगावत जैसे हालात की दुहाई भी दी जाती है तो क्या देश में सचमुच बगावत के हालात बन रहे थे? सच ये है कि सरकार की नीतियों की वजह से महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई थी. गुजरात और बिहार में शुरू हुए नॉछात्र आंदोलन से उद्वेलित जनता सड़कों पर उतर आई थी. उनका नेतृत्व कर रहा था सत्तर साल का एक बूढ़ा जिसने इंदिरा सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया. 

         रामलीला मैदान में रैली से हिली इंदिरा सरकार जिस रात को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, उस रात से पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में एक विशाल रैली हुई. वो तारीख थी 25 जून 1975. इस रैली में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ललकारा था और उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया. इस रैली में कांग्रेस और इंदिरा विरोधी मोर्चे की मुकम्मल तस्वीर सामने आई, क्योंकि इस रैली में विपक्ष के लगभग सभी बड़े नेता थे. यहीं पर राष्ट्रकवि दिनकर की मशहूर लाइनें सिंहासन खाली करो कि जनता आती है की गूंज नारा बन गई थी. 

         इंदिरा, 12 जून 1975 को आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले से पहले से पहले ही बेचैन थीं जिसमें रायबरेली से उनका चुनाव निरस्त कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें आधी राहत मिली थी. आखिरकार उन्होंने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की सलाह पर धारा-352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल लगाने का फैसला किया. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और इंदिरा गांधी के सहायक आर के धवन कहते हैं कि अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार हो तो वो सिद्धार्थ शंकर रे थे, जिनका रोल सबसे अहम था. 29 जून को कांग्रेस विरोधी ताकतों ने हड़ताल का अह्वान किया था इसलिए 25 जून को इमरजेंसी लगानी पड़ी क्योंकि पहले से ही हालत काफी खराब थी. 

 आधी रात को हुई आपातकाल की घोषणा

        25 और 26 जून की दरमियानी रात आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ देश में आपातकाल लागू हो गया. अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना, "भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है" ...लेकिन, सच इंदिरा की घोषणा से ठीक उलटा था. देश भर में हो रही गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर पिछली रात से ही शुरू हो गया था. रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर देश में न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई. रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर के धवन के कमरे में बैठ कर संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था. नामों पर बार-बार इंदिरा गांधी से सलाह-मशवरा किया जा रहा था. 26 जून की सुबह जब इंदिरा सोने गईं तब तक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई समेत तमाम बड़े नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे. मगर ये तो अभी शुरुआत ही थी, क्योंकि जुल्म का दौर अब शुरू ही होने वाला था जिसने अगले 19 महीने तक देश को दहलाए रखा. आपातकाल, मतलब सरकार को असीमित अधिकार आपातकाल वो दौर था जब सत्ता ने आम आदमी की आवाज को कुचलने की सबसे निरंकुश कोशिश की. इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती है. आपात काल का मतलब था- -इंदिरा जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं. -लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी. -मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे. -सरकार कोई भी कानून पास करा सकती थी. सारे विपक्षी नेताओं को जेल, मीसा-डीआईआर का कहर सरकार का विरोध करने पर दमनकारी कानून मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिए गए. खुद जेपी की किडनी कैद के दौरान खराब हो गई. कर्नाटक की मशहूर अभिनेत्री डॉ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकलीं, बाद में उनकी मौत हो गई. उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं. देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए.

 

 एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं. 

       बड़े नेताओं के साथ जेल में युवा नेताओं को बहुत कुछ सीखने-समझने का मौका मिला. लालू-नीतीश और सुशील मोदी जैसे बिहार के नेताओं ने इसी पाठशाला में अपनी सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक पढ़ाई की. एक तरफ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे. संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया उसके लिए जेल के दरवाजे खुले थे.

  

जुल्म की इंतेहा ही हो गई....

  मीडिया ही नहीं न्यायपालिका भी डर गई थी. दरअसल, जबलपुर के एडीएम ने अपने आदेश में कहा था कि आपातकाल में संविधान के आर्टिकल 19 के तहत स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी. यहां तक कहा गया कि किसी निर्दोष को गोली भी मार दी जाए तो भी अपील नहीं हो सकती क्योंकि आर्टिकल 21 के तहत जीने के आधिकार भी खत्म हो चुके हैं. लिहाजा जुल्म की इंतेहा ही हो गई. संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम एक तरफ जुल्म हो रहा था तो दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया था, जिसमें शामिल था -वयस्क शिक्षा -दहेज प्रथा का खात्मा -पेड़ लगाना -परिवार नियोजन -जाति प्रथा उन्मूलन कहते हैं सुंदरीकरण के नाम पर संजय गांधी ने एक ही दिन में दिल्ली के तुर्कमान गेट की झुग्गियों को साफ करवा डाला लेकिन पांच सूत्रीय कार्यक्रम में ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था. लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई. कांग्रेस नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी कहते हैं कि उस समय यूथ कांग्रेस ने बहुत अच्छा काम भी किया था लेकिन नसबंदी प्रोग्राम ने खेल खराब कर दिया क्योंकि यूथ कांग्रेस और अधिकारियों ने जबरदस्ती शुरू की और जनता में आक्रोश फैल गया. कहते हैं 19 महीने के दौरान देश भर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई. कहा तो ये भी जाता है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी. देश को शॉक देना था इंदिरा का मकसद आपातकाल क्यों लगा? क्या इसलिए कि जेपी ने सेना-पुलिस तक से सरकार का आदेश न मानने को कहा था? क्या इसलिए कि बगावत का अंदेशा था? शायद नहीं क्योंकि इमरजेंसी के बहुत बाद एक इंटरव्यू में इंदिरा ने कहा था कि उन्हें लगता था कि भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है. लेकिन, इस शॉक ट्रीटमेंट की योजना 25 जून की रैली से छह महीने पहले ही बन चुकी थी. 8 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पूरी योजना भेजी थी. चिट्ठी के मुताबिक ये योजना तत्कालीन कानून मंत्री एच आर गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और बांबे कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी. इंदिरा जिस शॉक ट्रीटमेंट से विरोध शांत करना चाहती थीं, उसी ने 19 महीने में देश का बेड़ागर्क कर दिया. 

 

सिर्फ तानाशाही चल रही थी....

    संजय गांधी और उनकी तिकड़ी से लेकर सुरक्षा बल और नौकरशाही सभी निरंकुश हो चुके थे. सुशील मोदी कहते हैं कि एक मरघट की शांति पूरे देश में स्थापित हो गई. स्वयं मुझे 9 महीने जेल में रहना पड़ा था. हम लोगों ने जवानी का बड़ा हिस्सा जेल के अंदर बिता दिया. सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि अफसर तानाशाह हो गए थे. पुलिस कुछ भी कर सकती थी. राजनीतिक गतिविधियां बिल्कुल बंद थीं. कोई जुलूस-प्रदर्शन नहीं. जनता की परेशानियों के लिए कोई जगह नहीं थी सिर्फ तानाशाही चल रही थी. बॉलीवुड पर भी चला सरकारी डंडा विरोध प्रदर्शन का तो सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि जनता को जगाने वाले लेखक-कवि और फिल्म कलाकारों तक को नहीं छोड़ा गया. कहते हैं मीडिया, कवियों और कलाकारों का मुंह बंद करने के लिए ही नहीं बल्कि इनसे सरकार की प्रशंसा कराने के लिए भी विद्या चरण शुक्ला सूचना प्रसारण मंत्री बनाए गए थे. उन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने-गाने पर मजबूर किया, ज्यादातर लोग झुक गए, लेकिन किशोर कुमार ने आदेश नहीं माना. उनके गाने रेडियो पर बजने बंद हो गए-उनके घर पर आयकर के छापे पड़े. अमृत नाहटा की फिल्म 'किस्सी कुर्सी का' को सरकार विरोधी मान कर उसके सारे प्रिंट जला दिए गए. गुलजार की आंधी पर भी पाबंदी लगाई गई. आर के धवन कहते हैं कि संजय गांधी के पॉलीटिक्स में आने के बाद 5 सूत्रीय प्रोग्राम के तहत नसबंदी का मामला खराब हो गया और जब इंदिरा को लगा कि अब दुरुपयोग हो रहा है तो उन्होंने इमरजेंसी हटाने का फैसला किया.

 

संजय गांधी ने मुझे बताया कि वो 35 साल तक इमरजेंसी रखना चाहते थे....

  वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर कहते हैं कि संजय गांधी ने मुझे बताया कि वो 35 साल तक इमरजेंसी रखना चाहते थे लेकिन मां ने चुनाव करवा दिए. एक बार इंदिरा ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे, लेकिन 19 महीने में उन्हें गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया. 18 जनवरी 1977 को उन्होंने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया. 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा और संजय दोनों ही हार गए. 21 मार्च को आपातकाल खत्म हो गया लेकिन पीछे छोड़ गया है लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक.

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इन्दिरा गांधी को "आयरन लेडी" कहने वाले, जरा ध्यान से पढ़ें..


विंग कमांडर अभिनंदन का नाम तो याद है, ना ? जिनको छुड़वाने के लिए मोदी सरकार ने पाकिस्तान पर 'ब्राह्मोस मिसाइल' तान दी थी, जिनके कारण अमरिका भी सख्ते में आ गया था!

 

कुछ अन्य पायलट के नाम यहाँ दिए हैं ! पढ़िए ये नाम....


विंग कमांडर हरसरण सिंह डंडोस,


स्क्वाड्रन लीडर मोहिंदर जैन,


स्क्वाड्रन लीडर जे एम मिस्त्री,


स्क्वाड्रन लीडर जे डी कुमार,


स्क्वाड्रन लीडर देव प्रसाद चैटर्जी,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट सुधीर गोस्वामी,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट वी वी तांबे,


फ्लाइट लेफ्टिंनेंट नागास्वामी शंकर,


फ्लाइट लेफ्टिंनेंट राम एम आडवाणी,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट मनोहर पुरोहित,


फ्लाइट लेफ्टिंनेंट तन्मय सिंह डंडोस,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट बाबुल गुहा,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट सुरेशचंद्र संदल,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट हरविंदर सिंह,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट एल एम सासून,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट के पी एस नंदा,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट अशोक धवळे,


फ्लाइट लेफ्टिंनेंट श्रीकांत महाजन,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट गुरदेव सिंह राय,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट रमेश कदम,


फ्लाइट लेफ्टिनेंट प्रदीप वी आप्टे,


फ्लाइंग ऑफिसर कृष्ण मलकानी,


फ्लाइंग ऑफिसर के पी मुरलीधरन,


फ्लाइंग ऑफिसर सुधीर त्यागी,


फ्लाइंग ऑफिसर तेजिंदर सेठी,

 

ये भारतीय वायुसेना के वे योद्धा थे, जो १९७१ के युद्ध में पाकिस्तान में युद्ध बंदी बने, और कभी वापस नहीं आए..!!


कांग्रेस सरकार ने कभी भी इनकी कोई खोज नहीं की.. ना ही दबाव डलवाया!


इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से समझौते में ९३,००० पाकिस्तानी युद्धबंदी छोड़ दिए, परंतु अपने सैनिक वापस मांगने की "याद नहीं आई" - हिम्मत ही नहीं दिखा पाई..!!


देश के लोगों से इन लापता भारतीय योद्धाओं के समाचार छुपाए रख्खे! और तो और, समाचारपत्रों ने फोटो तक नहीं छापी!


मरने के लिए इन्हे, पाकिस्तानी जेलों में छोड़ दिया गया, और हमारे ये सैनिक गुमनाम मृत्यु मर गए!


यही सच्चाई रही है, भारत के प्रति इन धूर्त, लुटेरे, सत्ता लोलुप नेहरू-गांधी परिवार की!


यह पोस्ट नेहरू-गांधी परिवार के चाटुकारों के लिए है, जो पूछते हैं, कि "लोग इस परिवार व कांग्रेसका इतना तिरस्कार क्यौ करते हैं ?" पीड़ादायक होगी, लेकिन देश के आम नागरिकों की आँखें यह पढ कर अवश्य ही खुल जाएंगी.....!


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