रानी लक्ष्मीबाई : खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी..

रानी लक्ष्मीबाई

देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी और वह अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का मूल नाम मणिकर्णिका था और लोग उन्हें मनु कह कर बुलाते थे। 19 नवंबर 1835 को वाराणसी में पैदा हुई मनु बहुत दिन तक इस दुनिया में नहीं रह सकी, लेकिन इस कम समय में ही उन्होंने अपनी वीरता का ऐसा प्रदर्शन किया कि वह युगों-युगों तक अमर हो गई। काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में इतिहास विभाग के प्रमुख आनंद शंकर सिंह के अनुसार लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी के भदैनी इलाके में हुआ था जो गंगा नदी के तट पर स्थित है। आनंद के अनुसार 18वीं सदी में महाराष्ट्र के कई ब्राह्माण परिवार काशी आए थे। अहिल्याबाई के काल में भी महाराष्ट्रियन ब्राह्माणों के कई परिवार काशी आए थे। उन्हीं लोगों में से एक मोरोपंत तांबे के घर मनु का जन्म हुआ। अहिल्याबाई ने ही काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। उल्लेखनीय है कि अब भी महाराष्ट्र से काफी संख्या में लोग संस्कृत पढ़ने वाराणसी आते हैं। सिंह के अनुसार, पहले स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख हस्तियों में से एक लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली पर एक स्मारक बनाने की बात चल रही है और प्रदेश सरकार की योजना उनकी याद में एक स्मारक बनाने की है। मनु जब मात्र चार साल की थीं, तब उनकी मां का निधन हो गया। पत्नी के निधन के बाद मोरोपंत मनु को लेकर झांसी चले गए। मनु ने बचपन में शास्त्रों के अलावा शस्त्रों की भी शिक्षा हासिल की थी। कम उम्र में ही उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हो गई। उनकी शादी के बाद झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ। इसके बाद मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने बाद ही उसकी मौत हो गई। इसके बाद राजा का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा। उन्होंने दामोदर राव को गोद ले लिया। लेकिन राजा ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सके और जल्दी ही उनकी मृत्यु हो गई। युवा रानी पर एक के बाद एक मुसीबतें आ रही थीं। पहले पुत्र फिर पति की मृत्यु। मुसीबतें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। अंग्रेजों ने दत्तक पुत्र को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया। डलहौजी की राज्य हड़प नीति के तहत ब्रिटिश शासन ने झांसी को अपने राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया। इतिहास के जानकार आलोक कुमार के अनुसार लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की शर्ते मानने से इनकार कर दिया और अंग्रेजों से युद्ध का फैसला कर लिया। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उन्होंने अप्रतिम वीरता का परिचय दिया, लेकिन वह 18 जून 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई। कुमार के अनुसार, 1857 के संग्राम में झांसी एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा था। लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही साबित कर दिया कि वह न सिर्फ बेहतरीन सेनापति हैं बल्कि कुशल प्रशासक भी है। वह महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की भी पक्षधर थीं। उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी। लक्ष्मीबाई ने अपनी सुरक्षा में भी महिला सैनिकों को शामिल किया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के किरदार ने साहित्यकारों के अलावा फिल्मकारों को भी काफी आकर्षित किया है। उनके जीवन पर कई फिल्में बनी हैं। कई साहित्यकारों ने भी उन पर काफी कुछ लिखा है। इनमें कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की झांसी की रानी शीर्षक से लिखी गई कविता शामिल है। वीर रस में लिखी गई इस लंबी कविता में उन्होंने लक्ष्मीबाई को खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी कहा है। उल्लेखनीय है कि रचना के वर्षो बाद भी यह कविता काफी लोकप्रिय है।



कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान 




खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी...
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
*
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
*
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
*अभी उम्र कुल तेइस की थी,* मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
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