आशु को प्यार सहित बीते पलों की यादें... - दिग्विजय सिंह




मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने खुलासा किया है कि उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा सिंह की सलाह पर ही उन्होंने १९७१ में कांग्रेस पार्टी में शामिल होने का निर्णय लिया था। पूर्व मुख्यमंत्री सिंह ने अपनी जीवन संगिनी की यादों में डूबते हुए एक आलेख लिखा है। आप इस आलेख को पढ़ सकते हैं...

आशु को प्यार सहित बीते पलों की यादें...

- दिग्विजय सिंह

  आशा, जिन्हे मैं प्यार से आशु कहता था, अब इस दुनियां में नही रही। उनके पिताजी कर्नल डा. जगदेव सिंह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। ब्रिटिश सेना में सेवा करते हुये उन्हे जापानियां द्वारा बंदी बना लिया गया था, उसके बाद वे सुभाषचन्द्र बोस के नैतृत्व में इंडियन नेशनल आर्मी (आई.एन.ए.) में शामिल हो गये और अपने जीवन के अंतिम समय तक वे आई.एन.ए. के सचिव रहे। उनकी मा हिमाचल प्रदेश में बसंतपुर-अर्की से है। आशा का जन्म दिल्ली में हुआ और वह वहीं पली बढ़ी। हमारी शादी के बाद वह राघौगढ़ आ गई। उस समय राघौगढ़ 10000 से कम आबादी वाला एक छोटा शांत कस्बा था। वे यहां पर भली-भाति रम गई और हमेशा दिल्ली की बजाय राघौगढ़ में अधिक रही। उन्होने जीसस एण्ड मेरी कान्वेन्ट दिल्ली से सीनियर केम्ब्रिज परीक्षा पास की। वे एक मेधावी छात्रा रही और मैने सीनियर केम्ब्रिज में जितने अंक प्राप्त किये थे उससे कई ज्यादा अंक उन्होने प्राप्त किये। हमारे चार्टर्ड अकाउंटेंट नेमीचन्द जी जैन ने मुझे यह याद दिलाने का कोई मौका नही छोड़ा कि आशा मुझसे कई गुना ज्यादा बुद्धिमान है, और मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत था। हिन्दू कालेज से बी.एस.सी. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के तत्काल बाद उन्हे लेडी हार्डिंग मेडीकल कालेज में प्रवेश मिला ही था कि मैं उनके जीवन में आ गया और पढ़ाई की बजाय उन्हे राघौगढ़ ले आया।

हमारी शादी परिवार के लोगों द्वारा तय की गई थी जिसे पूरी तरह से मेरी बड़ी बहन और मौसी ने तय किया था, किन्तु यदि मैं स्वयं भी अपना जीवनसाथी चुनता तो वह इससे बेहतर नही हो सकता था। आशा बहुत सशक्त और दृढ़ निश्चयी थी जो कभी भी स्वयं के प्रति निर्धारित मूल्यों और सिद्धांतों से नही डगमगाई। वे जो भी काम अपने हाथ में लेती थी उसके प्रति बहुत ही सजग रहती थी। वे अपने काम को चुपचाप करने वाली और निजता पसंद स्वभाव की थी। उन्होने अपने सिद्धान्तों और मूल्यों के साथ कभी समझौता नही किया। अतएव जो लोग उनसे भली भाॅति परिचित नही थे, उन्हे कई बार गलत भी समझ लेते थे।

वर्ष 1971 से 1986 तक और उसके बाद भी मैंने उन्हे चार बेटियों और एक बेटे को जन्म देने और उनका पालन-पोषण करने में व्यस्त रखा। सभी की शिक्षा और बेटियों का विवाह पूरी तरह से उनके ही द्वारा संपन्न किये गये। हमारी सबसे बड़ी बेटी का विवाह 24 अप्रेल 1992 को हुआ। उस समय मैं मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष था। 21 अप्रेल को तिरूपति में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव थे। मेरे राघौगढ़ पंहुचने तक विवाह की रस्में प्रारंभ हो चुकी थी और इस दौरान मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी को मेरी तलवार के साथ बैठकर रस्म अदा करनी पड़ी। (पति की अनुपस्थिति में उसकी तलवार के साथ बैठना राजपूतों में एक आम प्रथा है।) हमारी दूसरी बेटी का विवाह 9 दिसंबर 1993 को हुआ। उस समय नवंबर के अंत में मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव थे। मैं 5 दिसंबर को मुख्यमंत्री चुना गया और मैने 7 दिसंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। आप कल्पना कर सकते है कि इस अवसर पर मैने परिवार को कितना समय दिया होगा। हमारी तीसरी बेटी का विवाह लोकसभा चुनावों के दौरान अप्रेल 1996 में हुआ और मैने उसकी शादी के लिये चुनाव प्रचार से तीन दिन की छुट्टी ली। हमारी चैथी बेटी का विवाह 2005 में हुआ, और उसी वर्ष बिहार में विधानसभा के चुनाव आ गये जहां का मैं उस समय प्रभारी था। जिस दिन दिल्ली में बेटी की शादी थी उसी दिन मतदान था। मैं ठीक विवाह के समय ही दिल्ली पंहुचा। आशा दुर्भाग्य से अपने जीवनकाल में मेरे बेटे का रिश्ता तय नही कर सकी, इस बात का मुझे हमेंशा दुःख रहेगा।

हम दोनों ने ही सदैव एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र का सम्मान किया। उन्होने कभी भी राजनीतिक मामलों और प्रशासन में हस्तक्षेप नही किया और न ही उन्होने मुझे कभी घर गृहस्थी के मामले में हस्तक्षेप करने दिया। यहां तक मुझे खाने के लिये सीधे रसाई घर से खाना मांगने का भी अधिकार नही था। मुझे यह उनके माध्यम से ही करना पड़ता था! जब तक वो थी मैने एक बार भी कभी अपना सामान नही जमाया। 43 वर्षों में पहली बार इस साल 27 फरवरी को मैंने अपना सामान स्वयं बांधा जब मुझे उनके पार्थिव शरीर के साथ राघौगढ़ आना था। हमने हमारे सभी जन्मदिन और विवाह की वर्षगांठ साथ-साथ मनाई। एक भी साल नही चूके। यहा तक इस साल 28 फरवरी को भी मेरे जन्मदिन के अवसर पर हम साथ-साथ थे, किन्तु मैं उनके पार्थिव शरीर को अंतिम यात्रा के लिये राघौगढ़ ले जा रहा था। मैंने उनके बगैर कभी भी विदेश यात्रा नही की, जैसा कि मैने उनसे वादा किया था।

वे जहां कहीं भी जाती थी, वहा से कलाकृतियां एकत्रित करने का उन्हे बहुत शौक था। उन्हे गुडि़यों से अत्याधिक लगाव था और वे जिस भी देश में गई वहां से उन्होने विशिष्ट प्रकार की गुडि़याएं एकत्रित की। वे पिछले वर्ष तब खूब खुश हुई जब अपने द्वारा कार्डिफ से लाये गये लकड़ी के बहुत बड़े गुडि़याघर को मेरे सबसे छोटे दामाद ने बड़ी मेहनत और चाव से जमाया। वे बहुत ही सुन्दर पेंटिंग करती थी। उन्होने दिल्ली में कला संबन्धी कोर्स के साथ ही दिल्ली संग्रहालय से कलाओं के संरक्षण पर भी कोर्स किया था। भले ही उन्होने राजनीति में हस्तक्षेप न किया हो किन्तु वे जो भी हो रहा है उसके पति पूर्णतया सजग रहती थी और सदैव संतुलित सलाह देती थी। वास्तव में उन्होने तथा उनके पिता ने ही मुझे 1971 में कांग्रेस पार्टी में शामिल होने की सलाह दी थी। एक साधारण गृहणी की अंतिम विदाई में एक लाख से अधिक लोग शामिल थे, जिसे देखकर कोई भी राजनीतिक व्यक्ति ईष्र्या कर सकता है! आशा मेरे लिये एक पत्नी से कहीं बढ़कर थी। वह 43 वर्षों तक मेरे लिये एक मित्र, मार्गदर्शक और हमसफर रही। वे एक बहुत ही शानदार इंसान और हमारे बच्चों के लिये बहुत अच्छी मां थी। उनके बिना अब जिन्दगी पहले जैसी तो नही रहेगी किन्तु जीवन को तो आगे बढ़ना ही है।

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।

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