जाग्रत जनमत ही राष्ट्र रक्षा की गारंटी होता है - अरविन्द सिसौदिया


 




 JAI JAI BHARAT - ARVIND SISODIA                               


 जाग्रत जनमत ही राष्ट्र रक्षा की गारंटी होता है 

 - अरविन्द सिसौदिया

स्वतंत्रता से ठीक पहले के एक दसक को देखें तो भारत की स्वतंत्रता संग्राम की राजनिति शौर्यपूर्ण नहीं बल्कि प्रशासन सत्ता प्राप्ती के इर्द गिर्द घूमती नजर आती है। जो शौर्य करोडों करोडों हिन्दुओं के प्रतिनिधित्व के तौर पर होना चाहिये था वह कहीं भी दूर दूर तक नहीं था। जबकि मुस्लि लीग शैने शैने ही अपने सही उददेश्य की तरफ बडती रही । स्वतंत्रता आन्दोलन महात्मागांधी के प्रयोगों एवं जवाहरलाल नेहरू की महत्वाकांक्षा के लिये नहीं था बल्कि वह भारत की अनादिकालीन सम्प्रभुता को पुनः उसी महत्वाकांक्षी स्वरूप में स्थापित करने का था । किन्तु हम महज अनुशासित और ब्रिटेन के आज्ञाकारी सेवक जैसे ही ज्यादातार दिखे। साम्राज्यशाही ब्रिटेन द्वारा किया गया भारत का यह विभाजन उसके द्वारा चार विभाजनों में से एक है। उसने आयरलैंड , फिलिस्तीन और साइप्रस के भी विभाजन कराये थे। इसके पीछे वही मूल उददेश्य कि इन्हे आपस में लडाकर अपने अर्न्तराष्ट्रीय राजनैतिक हित लम्बे समय तक बनाये रखना था। जो कि बाद में स्पष्टतः सामने आया कि पाकिस्तान ब्रिटेन-अमरीका के सामरिक गुट का हिस्सा था और भारत रूस के सामरिक गुट का हिस्सा था। आज भी ब्रिटेन का मीडिया भारत के प्रति नकारात्मकता रखता है। इसका एक बडा कारण यह भी रहा कि मुस्लिम समाज जाग्रत और तेजस्विता से अपने लक्ष्य के साथ खडा था वहीं भारत का हिन्दू समाज चंद नेताओं की मनमर्जी और निर्णयों तक ही सीमित रहा । जब महात्मा गांधी ने जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनाना स्विकार कर लिया जब भी जिन्ना की हिम्मत नहीं हुई कि वह पाकिस्तान की मांग छोड दे । क्यों कि वह जानता था उसके समर्थक उसे कल ही हटा देंगें। कांग्रेस को हिन्दू जनमत का भय नहीं था । उन्हे यह डर नहीं था कि भारत के विभाजन की जनता में क्या प्रतिक्रिया होगी । अर्थात जाग्रत जनमत ही राष्ट्र रक्षा की गारंटी होता है।

Awakened public opinion is the guarantee of national security

- Arvind Sisodia

If we look at the decade just before independence, the politics of India's freedom struggle is not heroic but the administration seems to revolve around the attainment of power. The valor that should have been there in the form of representation of crores of Hindus was nowhere to be seen. Whereas the Muslim League kept moving slowly towards its true objective. The freedom movement was not for Mahatma Gandhi's experiments and Jawaharlal Nehru's ambitions but it was to re-establish India's ancient sovereignty in the same ambitious form. But we mostly appeared to be just disciplined and obedient servants of Britain. This partition of India by imperialist Britain is one of the four partitions done by it. It had also partitioned Ireland, Palestine and Cyprus. The main objective behind this was to maintain its international political interests for a long time by making them fight among themselves. It was later clearly revealed that Pakistan was a part of the strategic bloc of Britain-America and India was a part of the strategic bloc of Russia. Even today the media of Britain has a negative attitude towards India. A big reason for this was that the Muslim society stood up for its goal with vigour and energy, while the Hindu society of India remained confined to the whims and decisions of a few leaders. When Mahatma Gandhi agreed to make Jinnah the Prime Minister of undivided India, Jinnah did not have the courage to give up his demand for Pakistan. Because he knew that his supporters would remove him tomorrow. Congress was not afraid of Hindu public opinion. They were not afraid of what the public reaction to the partition of India would be. That is, only awakened public opinion is the guarantee of national protection.


 अखण्ड भारत बनाने के लिये शौर्यवान बनो और पीढ़ियों को शौर्यवान बनाओ  - अरविन्द सिसौदिया

भारत में जब जब अहिंसा को सर्वोपरी माना गया, बुरे को सहन किया गया और शैतानों को दण्डित नहीं किया गया । तब तब ही इस देश का और इस देश की संस्कृति को भारी कीमत चुकानी पडी है, नुकसान हुआ है।  अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी देश में हो रही हिंसा के समय में भी यही कह रहे थे “ जो छोटे स्तर पर सफल है वह वृहत्तर स्तर भी सफल क्यों नहीं हो सकती “ और  वे विफल हुये देश को बडा नुकसान हुआ । स्वतंत्रता संग्राम में मुस्लिम लीग को जबरदस्त प्रतिरोध से ही रोका सकता था । मगर किसी ने नहीं कहा कि तुम यहां आक्रमणकारी हो । शत्रु को सम्पत्ती में अधिकार नहीं होता । अंग्रेज भी सब कुछ छोड कर जा रहे है। तुम भी जाओ या फिर हमसे मिल कर रहो ।  कायराना स्विकारोक्तियों के कारण देश की कितनी ही पीढ़ियां और वक्त कीमत चुकाता रहेगा । एक न एक दिन भारत के जनतम को फिर महान समा्रट चन्द्रगुप्त और चर्कवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के समान शौर्यवान बनना ही होगा ।

Be brave to build a united India and make your generations brave - Arvind Sisodia

Whenever non-violence was considered supreme in India, evil was tolerated and evil was not punished. Then only this country and its culture had to pay a heavy price, suffered losses. Mahatma Gandhi, the priest of non-violence, was saying the same thing even during the violence in the country, "What is successful on a small scale, why can't it be successful on a larger scale as well?" And he failed and the country suffered a great loss. In the freedom struggle, the Muslim League could have been stopped only by strong resistance. But no one said that you are an invader here. The enemy does not have rights over property. The British are also leaving everything and going away. You also go or stay with us. Due to cowardly acceptances, many generations and time of the country will keep paying the price. One day or the other, the people of India will again have to become as brave as the great emperor Chandragupta and the ruling emperor Vikramaditya.

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 15 जून 1947 को माउंटबेटन योजना पारित की गई और विभाजन के निर्णय को अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्यों ने स्वीकार कर लिया. पंजाब और बंगाल राज्यों को विभाजित किया गया. पश्चिम पंजाब का अधिकांश मुस्लिम हिस्सा पाकिस्तान का हिस्सा बन गया जबकि पश्चिम बंगाल अपने हिंदू बहुमत के साथ भारत में बना रहा.

15 जुलाई 1947 कांग्रेस द्वारा भारत विभाजन का समर्थन

15 जून 1947....वो तारीख जब पड़ी थी देश के बंटवारे की नींव
15 जून 1947 को माउंटबेटन की योजना पारित की गई और विभाजन के निर्णय को अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्यों ने स्वीकार कर लिया.

हर तारीख अपने अंदर कई कहानियों को समेट कर रखती है. वो घटनाएं जो अब तो गुजरे ज़माने की बात हो गई है लेकिन फिर भी जिस तारीख को वो घटी होती है उस तारीख को उस घटना की याद और उसके प्रभाव के बारे में हम जरूर सोचते हैं. इतिहास में ऐसी ही एक तारीख है 15 जून. यह वही तारीख है जिस दिन कुछ लोगों के 'निजी स्वार्थ' के लिए एक सियासी लकीर खींचने पर सहमति बनी थी. वही लकीर जिसने सबकुछ तक़सीम कर दिया था. तकसीम मुल्क़ को, क़ौम को, रिश्तों को, मुहाफ़िज़ों को, नदिओं-तलाबों को और सबसे ज़रूरी इंसानों को. एक खूनी खेल खेला गया. हिन्दुस्तान नाम का जिस्म बंट गया और एक हिस्सा पाकिस्तान बन गया. इक़बाल की पेशीन गोई और जिन्ना का ख़्वाब ताबीर की जुस्तजू में भटकता हुआ पंजाब के उस पार पहुंच गया. कई कारवां अपने अनजाने मंजिल की तरफ रवाना हो गए.


इस हादसे में कई औरतों/ बच्चियों का बलात्कार हुआ. इन हादसों के बारे में मंटो अपने अफसानों में कहते हैं, '' मैं उन बरामद की हुई लड़कियों और औरतों के मुताल्लिक सोचता तो मेरे ज़ेहन में सिर्फ़ फूले पेट उभरते  हैं. इन पेटों का क्या होगा. इनमें जो कुछ भरा है, उसका मालिक कौन है, पाकिस्तान या हिन्दुस्तान''

15 जून 1947 - अखिल भारतीय कांग्रेस ने भारत के विभाजन के लिए ब्रिटिश सरकार की योजना को स्वीकार किया

15 जून 1947 ही वो तारीख है जब अखिल भारतीय कांग्रेस ने नई दिल्ली में भारत के विभाजन वाली ब्रितानिया सरकार की योजना को स्वीकार किया था. इस विभाजन की योजना को माउंटबेटन योजना के रूप में भी जाना जाता है. इस योजना की घोषणा भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा की गई थी.



15 अगस्त 1947 में भारत का विभाजन निस्संदेह सबसे दुखद और हिंसक घटनाओं में से एक है. दरअसल पाकिस्तान के निर्माण की वकालत ऑल इंडिया मुस्लिम लीग जिसे 1906 में ढाका में स्थापित किया गया था, उसने की थी. इसके मुसलमान सदस्यों की राय थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों को हिंदू सदस्यों के जैसे समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं. कांग्रेस उनके साथ भेदभाव करती है.

1930 में मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य की मांग करने वाले पहले व्यक्ति अल्लामा इकबाल थे, जिनका उस वक्त मानना था कि 'हिंदू बहुल भारत' से अलग मुस्लिम देश बनना महत्वपूर्ण है.

अल्लामा इकबाल ने मुहम्मद अली जिन्ना और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर एक नए मुस्लिम राज्य के गठन के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया. 1930 तक, मुहम्मद अली जिन्ना, जो लंबे समय से हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयासरत थे, अचानक भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति के बारे में चिंतित होने लगे. इसके लिए वो कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने लगे, जिसके एक वक्त पर वो खुद भी सदस्य थे. उन्होंने कांग्रेस पर देश के मुसलमानों के साथ भेदभाव का आरोप लगाया.

1940 में लाहौर सम्मेलन में, जिन्ना ने एक अलग मुस्लिम देश की मांग करते हुए एक बयान दिया. उस समय के सभी मुस्लिम राजनीतिक दल, जैसे खाकसार तहरीक और अल्लामा मशरिकी धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन के पक्ष में नहीं थे. अधिकांश कांग्रेसी नेता धर्मनिरपेक्ष थे और देश के विभाजन का भी विरोध करते थे. महात्मा गांधी धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन के खिलाफ थे और उनका मानना ​​था कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक देश में शांति से एक साथ रहना चाहिए. गांधी ने मुसलमानों को कांग्रेस में बनाए रखने के लिए भी संघर्ष किया, जिनमें से कई ने 1930 के दशक में पार्टी छोड़ना शुरू कर दिया था.

धार्मिक आधार पर अलग देश की मांग के बाद उत्तर भारत और बंगाल के बड़े हिस्से में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भीषण सांप्रदायिक हिंसा हुई थी, जिसके कारण मुसलमान और असुरक्षित महसूस करने लगे थे. एक ऐसा वक्त आ गया जब विभाजन एकमात्र विकल्प की तरह दिखने लगा जो भारत में बड़े पैमाने पर गृहयुद्ध को छिड़ने से रोक सकता था.

1940 तक पाकिस्तान की परिभाषा अस्पष्ट थी और इसकी दो तरह से व्याख्या की जा रही थी. एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में या संघबद्ध भारत के सदस्य के रूप में. 1946 में, एक कैबिनेट मिशन ने एक विकेन्द्रीकृत राज्य का सुझाव देकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता करने की कोशिश की. इस सुझाव में कहा गया कि स्थानीय सरकारों को पर्याप्त शक्ति दी जाएगी. जवाहर लाल नेहरू ने एक विकेंद्रीकृत राज्य के लिए सहमत होने से इनकार कर दिया और जिन्ना ने पाकिस्तान के एक अलग राष्ट्र की अपनी इच्छा को बनाए रखा.

ब्रितानियां हुकूमत ने भारत को दो अलग-अलग भागों में विभाजित करने की माउंटबेटन की योजना को पूरा कर लिया. 3 जून 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा स्वतंत्रता की तारीख, 15 अगस्त 1947 तय की गई थी.

विभाजन की योजना के मुख्य बिंदु भी तय कर दिए गए.कहा गया कि पंजाब और बंगाल विधानसभाओं में सिख, हिंदू और मुस्लिम विभाजन के लिए मतदान करेंगे. यदि किसी भी समूह के बहुमत ने विभाजन के पक्ष में मतदान किया, तो प्रांतों को विभाजित कर दिया जाएगा. इसके अलावा, योजना में सिंध श्रेत्र को अपने लिए निर्णय खुद लेना था. वहीं उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और बंगाल के सिलहट जिले की नियति एक जनमत संग्रह द्वारा तय करने की बात की गई थी.

15 जून 1947 को माउंटबेटन योजना पारित की गई और विभाजन के निर्णय को अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्यों ने स्वीकार कर लिया. पंजाब और बंगाल राज्यों को विभाजित किया गया. पश्चिम पंजाब का अधिकांश मुस्लिम हिस्सा पाकिस्तान का हिस्सा बन गया जबकि पश्चिम बंगाल अपने हिंदू बहुमत के साथ भारत में बना रहा. मुख्य रूप से मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बन गया. यही हिस्सा बाद में पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बन गया.

भारत की स्वतंत्रता और रेडक्लिफ रेखा द्वारा देश के दो हिस्सों में विभाजन से बड़े पैमाने पर हिंसा हुई. लाखों लोग बेघर हुए. अधिकतर भारतीय मुसलमान पाकिस्तान में अपने 'नव निर्मित देश' जा रहे थे तो वहीं हिंदू और सिख जो अब पाकिस्तान में थे, भारत में आ रहे थे. विभाजन ने लाखों की जिंदगियां तबाह कर दी. लाखों को बेघर कर दिया. साम्प्रदायिक हिंसा का डर हर किसी को सता रहा था. भारत के विभाजन के कारण हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़े पैमाने दंगे हुए, जिसके परिणामस्वरूप अंतहीन हत्याएं, बलात्कार और अपहरण हुए.

इतना ही नहीं 1947 में दोनों मुल्क़ों के बीच जो नफरत की बीज बो दी गई वो आज एक बड़ा खतरनाक पेड़ बन गया है.
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 कांग्रेस ने विभाजन स्वीकार क्यों किया?

अंतरिम सरकार का अभिप्राय कांग्रेस और लीग के बीच हुए उस अनुबंध के प्रति था जिसके
तहत एक साथ प्रषासन को चलाना था। जबकि लीग के लिए यह एक मंच बन चुका था
जहाँ से लीग ने अन्य साधनों द्वारा एक तरह का गृह-युद्ध छेड़ रखा था। अंतरिम सरकार
में लीग के व्यवहार को नेहरू ने ‘आंतरिक असहयोग’ के रूप में व्याख्यायित किया।
पाकिस्तान को किसी भी तरह प्राप्त करने के लिए लीग ने हर संभव मोर्चे पर खुला युद्ध
छेड़ दिया। कांग्रेसी मंत्रियों द्वारा की गयी कई नियुक्तियों और अधिकतर नीति निर्णयों पर
लीग सदस्यों ने प्रष्न खड़े किये।

3 जून की योजना या विभाजन के निर्णय ने भारत छोड़ने की तारीख को 15 अगस्त
निर्धारित किया। सीमा निर्धारण की घोषणा 15 अगस्त 1947 या उसके बाद होनी थी। 15
अगस्त 1947 की तारीख की घोषणा के बाद अंग्रेजों के पास भारत को छोड़ने और इसका
विभाजन करने के लिए केवल 72 दिन शेष थे। इन सभी कार्यों को करने के लिए यह
अवधि पूरी तरह से अपर्याप्त सिद्ध हुई। यहाँ तक कि सीमा निर्धारण की रूपरेखा इतनी
कच्ची और उलझी हुई थी कि चेयरमैन सीरिल रेडक्लिफ की निंदा चारों तरफ से होने
लगी। स्वतंत्रता की तारीख के कुछ अंतराल बाद सीमा आयोग के निर्णयों में हुई देरी ने
अराजकता व तबाही का वह मंजर खड़ा कर दिया कि कई गांवों और शहरों को यह पता
ही नहीं चला कि वह किस सीमा में हैं। 15 अगस्त 1947 को लोगों ने खुद को सीमा रेखा
के गलत तरफ पाया और एक-दूसरे के खिलाफ खड़े ये समुदाय दोनों ही तरफ से भारत
और पाकिस्तान के झंडे लहराने लगे।

कांग्रेस ने विभाजन स्वीकार क्यों किया? कांग्रेस ने विभाजन स्वीकार क्यों किया?
कांग्रेस और गाँधी जी ने देष का विभाजन स्वीकार क्यों किया यह एक ऐसा प्रष्न है जो
आज तक पूछा जा रहा है। या तो विभाजन को ‘फूट डालो और शासन करो’ की ब्रिटिष
नीति के परिणाम के रूप में देखा जाता है या फिर सदियों से चले आ रहे हिन्दू-मुस्लिम
झगड़े की परिणति के रूप में देखा जाता है। यह सब लेखक के अपने विचारधारात्मक रवैये
पर निर्भर करता है। कुछ वाम पंथी लेखकों ने स्वतन्त्रता को साम्राज्यवादियों और भारतीय
बुर्जुआ लोगों के बीच एक व्यापार के रूप में वर्णित किया है जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र को
विभाजन जैसी कीमत चुकानी पड़ी। इसके अलावा, कांग्रेस ने लीग के साथ शक्ति बाँटने के
बजाय एक मजबूत केंद्र को चुना। या फिर विभाजन इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस के नेताओं
में सत्ता के प्रति लालसा थी जोकि देष की जनता के साथ धोखा था और गाँधी जी की अब
125 वर्ष जीने की कोई चाह नहीं। कांग्रेस और गाँधी जी ने जिन्ना और मुस्लिम लीग की
राजनीति और उसके द्वि-राष्ट्र के सिद्धान्त के विरोध में होने के बावजूद विभाजन स्वीकार
क्यों किया?
गांधी जी की स्थिति कांग्रेस से अलग थी लेकिन उसके विरोध में नहीं। उन्होंने वायसराय
को यह प्रस्ताव पेष किया कि जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दिया जाये। गांधी जी को यह
उम्मीद थी कि यह कदम जिन्ना के लक्ष्यों को संतुष्ट करेगा और उसकी पाकिस्तान की मांग
को छोड़ने में मददगार साबित होगा। गाँधी जी अपने विचार में सही थे कि यह जिन्ना के
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अंहकार को संतुष्ट करेगा। लेकिन इस समय तक पाकिस्तान जिन्ना से बड़ी चीज बन चुकी स्वतंत्रता की ओर स्वतंत्रता की ओर.प्प्
थी। बल्कि खुद जिन्ना भी पाकिस्तान की मांग को चाहकर भी नहीं छोड़ सकते थें। साथ
ही, कांग्रेस नेताओं ने यह महसूस किया कि प्रस्ताव बहुत ही जोखिमपूर्ण है। जिन्ना के हाथों
में पूरी तरह से सत्ता देने का अर्थ था कि राष्ट्र को पूर्ण रूप से प्रतिक्रियावादी लोगों के हाथों
में सौंप देना। कांग्रेस के कई अनुयायियों ने इसे दल की तरफ से एक धोखे के रूप में
देखा। इसके साथ ही गाँधी जी ने प्रस्ताव को वापस ले लिया।
अप्रैल 1947 के मध्य में गांधी जी और जिन्ना ने साझे तौर पर शांति के लिए अनुरोध किया।
तथापि पटेल ने यह दोहराया कि जिन्ना को शांति की अपील को अधिक प्रभावकारी बनाने
हेतु निष्चित ही प्रत्यक्ष कार्यवाही के विचार को वापस लेना चाहिए। पटेल का यह सुझाव
था कि जिन्ना अपने शांति अनुरोध को लेकर बिलकुल ईमानदार नहीं है। इस आकलन को
गाँधी जी के द्वारा साझा किया गया। 1947 के ग्रीष्म तक कांग्रेस के नेताओं को यह संज्ञान
हो चुका था कि अब सांप्रदायिकता को शांत करना नामुमकिन है। नेहरू ने हमेषा ज्यादा
की चाह रखने वाले के रूप में जिन्ना को वर्णित किया। कहीं उन्होंने जिन्ना को यह कहा
था कि “हम उसके लिए विरोध में हैं जो ना ही राजनीतिक है, ना आर्थिक, ना युक्तिसंगत
है और ना ही तार्किक’’। पटेल बिलकुल स्पष्ट थे कि अब मुस्लिम लीग का और अधिक
तुष्टिकरण नहीं होना चाहिए। उन्होंने यह भी साफ किया कि स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक
ताकतों और सांप्रदायिक चुनावों की कोई जगह नहीं होगी।

उत्तर प्रदेष विधानसभा के अध्यक्ष और कांग्रेसी नेता पी. डी. टंडन ने विभाजन के विकल्प
के तौर पर एकता को जबर्दस्ती थोपने का सुझाव दिया और कानपुर से कांग्रेसी नेता राम
रत्न गुप्ता ने इस विचार को प्रतिपादित किया। दोनों ने कांग्रेस के विभाजन को स्वीकार
करने के फैसले को “धोखा” करार दिया। लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने जबर्दस्ती एकता थोपने
की बजाय पाकिस्तान को स्वीकार किया। नेहरू इस विषय में पूर्ण रूप से स्पष्ट थे कि
तलवार और लाठी कभी भी सांप्रदायिक ताकतों को जड़ से मिटा नहीं सकती। इसके
परिणामस्वरूप गृह युद्ध होता जिसके दीर्घकालीन प्रभाव हो सकते थे। इस बात पर उन्होंने
15 जून 1947 के अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में जोर दिया। दो माह पूर्व
कांग्रेस अध्यक्ष कृपलानी ने वायसराय से कहा “कोई लड़ाई लड़ने से अच्छा होगा कि हम
पाकिस्तान को बनने दें”। यहाँ ध्यातव्य यह है कि इस समय तक कांग्रेस के पास कोई
राजकीय शक्ति नहीं थी। इसलिए एकता को जबर्दस्ती थोपने का अर्थ होता कि सांप्रदायिक
ताकतों की स्वैच्छिक सेनाएं इसके विरोध में जंग के मैदान में उतर आतीं। अतः जब विभाजन
अनिवार्य दिखने लगा तब कांग्रेस ने इसे सांप्रदायिक मांग की बजाय स्वप्रवृत सिद्धान्त पर
आधारित निर्णय के रूप में पेष करना चाहा। गांधी जी ने यह घोषणा की कि यह निर्णय
सभी संप्रदायों के लोगों के साथ विचार करके लिया गया है चाहे वे मुस्लिम हों, सिख या
फिर हिन्दू। नेहरू ने विभाजन को इस रूप में व्यक्त किया कि यह उन चंद लोगों की इच्छा
के फलस्वरूप हुआ है जो भारत से अलग होना चाहते थे।

1 जून 1947 को कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष कृपलानी ने लोगों
को 1942 की याद दिलाते हुए यह स्वीकार किया कि भारत का कोई भी हिस्सा उस हिस्से
की मर्जी के बगैर भारत में शामिल होने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा। 15 जून 1947
को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में उन्होंने फिर से यह कहा कि विभाजन की
स्वीकृति कांग्रेस के द्वारा बल प्रयोग न करने के संकल्प के प्रभाव के रूप में देखा जाये।
सत्य यह था कि समझौता बिल्कुल निर्धारित था और कांग्रेस नेताओं के लिए विभाजन
स्वीकार करना बहुत ही दुखदायी था। पटेल ने विभाजन की घोषणा को इस आधार पर
स्वीकार किया कि इसके बाद अब कोई अनिष्चितता नहीं होगी। तथापि वे जिन्ना के अखिल
भारतीय रेडियो पर दिये गए सांप्रदायिक विचारों और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के 

प्रतिक्रिया में दिये गए दोहरे बयान से आषंकित थे जिसने इस समझौते को निर्धारित
किया था।

कुछ वर्षों बाद भारत और पाकिस्तान फिर से एक हो जाएंगे यह आषा विभाजन की सच्चाई
के प्रति नेताओं को संतोष देती रही। इस बात की उम्मीद की गयी थी कि एक बार आवेष
और आवेग खत्म हो जाये तब सामान्य हित लोगों को फिर से साथ ले आएगा और विभाजन
को रद्द कर दिया जाएगा। अतः नेहरू ने लोगों से यह अपील की कि वे विभाजन को दिल
से न स्वीकार करे : “हमें सूर्य की रोषनी से आच्छादित षिखर पर पहुँचने से पहले घाटियों
के अंधेरे में चलना ही होगा”। तथापि यदि दोनों राष्ट्र अगर फिर से सूत्रबद्ध हो भी जाते
तो विभाजन को मजबूत करने वाले किसी भी उपाय को दरकिनार करना होता। यह उपाय
सेना का विभाजन हो सकता था, जनता का हस्तांतरण या फिर दोनों डोमिनियन में सत्ता
के हस्तांतरण के लिए संसदीय प्रावधान। 3 जून योजना में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति
ने यह स्पष्ट किया कि हिंसा को रोकने के अस्थाई विकल्प के तौर पर विभाजन स्वीकार
कर लिया गया है। इस बात को 14-15 जून को हुई अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की
बैठक में गाँधी जी और नेहरू के भाषण में दोहराया गया। यह एक दिलचस्प बात है कि
गाँधी जी ने जिन्होंने अहिंसा की कसम खाई, कहा कि “बजाय इसके कि भारत को दो
संगठित सेनाओं में जंगी मैदान बनने दिया जाये ब्रिटिष को भारत छोड़ देना चाहिए।’’
कांग्रेस के लिए विभाजन का एक सकारात्मक पहलू यह था कि अब वे शेष भारत के विषय
में निर्णय लेने को स्वतंत्र थे। नेहरू ने कहा कि 80 या 90 प्रतिषत जनता भारत के नक्षे
के तहत आगे बढ़ रही है। इस स्वतन्त्रता को किस तरह से उपयोग में लाया जा सकता
है इसके लिए पटेल ने यह सुझाव दिया कि- सेना शक्तियों को सुदृढ़ करना होगा और केंद्र
में एक मजबूत सरकार बनानी होगी। समाजवादी नेता जयप्रकाष नारायण ने “मजबूत
संघात्मक केंद्र के उदय” का आदर किया फिर भी कांग्रेसी नेता आषंकित बने रहे। नेहरू
ने यह महसूस किया था कि यह योजना खंडित हो सकती है। कारण यह था कि वृहत
स्तर पर राज्यों के उतराधिकारियों को पहले भारत में शामिल होने के लिए अनुमति दी
जाएगी तब उन्हें एक होने का विकल्प सुझाया जाएगा। ब्रिटिष सरकार यह दिखाना चाहती
थी कि प्रान्त और रियासतें अपना भविष्य चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन वायसराय ने इस
विखंडन को दो डोमिनियन में बाँटकर सीमित कर दिया।
कांग्रेस ने इस विभाजन को इस आधार पर स्वीकार किया कि इस निर्णय में जनता की इच्छा
थी और इसके अलावा कोई चारा नहीं था। 4 जून को गाँधी जी ने अपनी नियमित प्रार्थना
सभा में जनता को यह सफाई दी कि कांग्रेस कार्यकारी समिति को हिंदुस्तान के विभाजन
को स्वीकार करना पड़ा क्योंकि मुस्लिम लीग से निपटने का कोई और रास्ता नहीं था। यह
सब हिंसा के डर से किया गया। उन्हें उम्मीद है कि यह विभाजन अस्थाई है और इसको
तब रद्द कर दिया जाएगा जब साम्राज्यवादी ताकतें देष से बाहर निकल जाएंगी और मुस्लिम
लीग को अपनी पाकिस्तान की मांग पर पछतावा होगा। कांग्रेस के सामने अब बस एक ही
विकल्प बचा था कि गैर सांप्रदायिक संघर्ष का संचालन करे और शक्ति का प्रयोग करे, यह
दोनों ही कदम नहीं लिए जा सके। आखिर में मुस्लिम जनता को राष्ट्रीय आंदोलन में
शामिल किए जाने की रणनीति असफल हो जाने के कारण कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार
कर लिया। इस सांप्रदायिक स्थिति पर गांधीजी का यह मानना था कि हिन्दू और मुस्लिम
दोनों ही अहिंसा से बहुत दूर चले गए हैं। उनकी प्रार्थना सभाओं के दौरान उनसे यह पूछा
जाता था कि उन्होंने एक जन आंदोलन क्यों नहीं शुरू किया। जो लोग उनसे यह प्रष्न
पूछते थे उनका विष्वास था कि आंदोलन ब्रिटिषों के विरुद्ध किया जा सकता था और
जिसके फलस्वरूप हिन्दू-मुस्लिम एकता पनपती या फिर यह एक सांप्रदायिकता
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विरोधी आंदोलन होता। उनका विष्वास था कि दोनों आंदोलन एकता लाने में सहायक हो स्वतंत्रता की ओर स्वतंत्रता की ओर.प्प्
सकते थे। तथापि सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष क्षमता सीमित थी क्योंकि दोनों दलों के
समूह और आम जनता तक सांप्रदायिक हो चुकी थी। गाँधी जी अपनी सीमाओं से
भली-भांति परिचित थे : “मैंने अपने जीवन में कभी भी ऐसी कोई स्थिति सृजित नहीं की.
... लोग कहते हैं कि मैंने यह स्थिति पैदा की है, लेकिन मैंने पहले से मौजूदा स्थिति को
आकारित करने के सिवाय और कुछ भी नहीं किया है। आज मैं उस स्वस्थ भावना को
महसूस नहीं कर पा रहा हूँ। अतः मुझे सिर्फ आने वाले समय का इंतज़ार करना होगा”।
अक्सर यह कहा जाता रहा है कि सत्ता हस्तांतरण के विषय में ब्रिटिष मंत्रालय से बातचीत
के दौरान गाँधी जी को उनके सहयोगियों द्वारा नजरंदाज किया जाता था। कुछ लोग यह
तर्क देते हैं कि गांधीजी अपने तथाकथित अनुयाईयों की सत्ता की लालसा के कारण
असहाय थे। कई बार यह भी कहा जाता है कि गाँधी जी का कांग्रेस से अलगाव हो गया
था। तथापि गाँधी अपने सहयोगियों द्वारा नजरंदाज नहीं किए गए। उनके विचारों को कुछ
महत्वपूर्ण नीतियों के मामलों में कांग्रेस अध्यक्ष कृपलानी और नेहरू द्वारा तवज्जो दी गयी
जबकि वे नोवाखली में थे। ये लोग उनसे मिलने वहाँ गए और उन्हे दिल्ली आने के लिए
कहा। नेहरू ने गाँधी जी से अपील की जो उस समय नोवाखली में थे : “मुझे अत्याधिक
अनुभूति हो रही है कि बड़े फैसले लिए जा रहे हैं और जो फैसले दिल्ली में लिए जाएंगे
वे वर्तमान के साथ-साथ हमारे समग्र भविष्य को प्रभावित करेंगे और आपकी उपस्थिति इस
क्षण में हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है”। गाँधी जी ने उनकी विनती को स्वीकार किया
लेकिन अपनी स्थिति को भी स्पष्ट किया : “लेकिन मैं अलग तरह से आगे बढ़ूँगा। मैंने यह
सीखा है कि “जैसे लघुजगत में, वैसे ही वृहत जगत में”। उनको उम्मीद थी कि अगर
अहिंसा के कार्य को एक छोटी सी जगह पर भी दर्षाया जा सके तो यह पूरे देष में
हिन्दू-मुस्लिम एकता की समस्या का हल उपलब्ध करवा सकता है। वे दिल्ली में वायसराय
से मिले और 1 मई, 25 मई और 2 जून को हुई कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठकों में
हिस्सा लिया और 14 तथा 15 जून 1947 को हुई अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठकों
में भी हिस्सा लिया।
तथापि इससे पहले कि कांग्रेसी नेता और गाँधी जी विभाजन को स्वीकार करते, गाँधी जी
ने पूरी कोशिश की कि वे सांप्रदायिक हिंसा को रोक सकें। उन्होंने अक्तूबर 1946 से अप्रैल
1947 के बीच दंगा प्रभावित क्षेत्रों नोवाखली और बिहार का दौरा किया, सांप्रदायिक हिंसा
के षिकार बने हिन्दू और मुस्लिम लोगों के जख्मों पर मरहम लगाया। उन्होंने जो हथियार
प्रयोग किए वे ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ थे। वे समुदायों के बीच डर और अविष्वास को
खत्म करना चाहते थे। नोवाखली के हिन्दू और बिहार के मुस्लिम लोगों की षिकायतें एक
जैसी थीं। सांप्रदायिक विचार राहत और सुधार के कार्यों में भी व्याप्त हो गए थे, जैसे कि
बिहार में शरणार्थी कैंप लीग के प्रचार का केंद्र बन गया था। इसमें ध्यातव्य बात उन हिन्दू
या मुस्लिम लोगों का साहस है जोकि गांधी के साथ खड़े रहे। जहाँ गाँधी जी के प्रयास
वीरोचित थे वहीं उनका प्रभाव सीमित था। हिन्दू शरणार्थी अपने भय से मुक्ति पाने में और
अपने गाँव लौटने में थोड़े धीमे थे। मुस्लिम लोग नोवाखली और अन्य जगहों पर भी उनके
प्रति विद्वेषी बने रहे। उनकी विधियों के प्रति आलोचक और सहयोगी एक जैसे विचार रखते
थे। सांप्रदायिक अविष्वास के वातावरण में हिन्दू और मुस्लिम संगठनों ने अपने प्रभाव को
विस्तारित करना शुरू किया। यदि हम हिन्दू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा उत्पन्न की गयी
चुनौतियों की तरफ ध्यान दें तो पाएंगे इसने बहु हठधर्मी और अल्पसंख्यक डर जैसे दो रूप
धारण कर लिए थे। किसी भी तरह का आष्वासन अल्पसंख्यकों के डर का ख्याल न रख
पाई। हिन्दू सांप्रदायिक ताकतों ने कांग्रेस पर उनके हितों को सर्वोपरि प्राथमिकता देने और
उसे एक हिन्दू निकाय के रूप में कार्य करने का दबाव बनाया। द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त पर
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भारत छोड़ो और उसके भारत छोड़ो और उसके भारत छोड़ो और उसके
परिणाम
आधारित पाकिस्तान के निर्माण के बाद हिन्दू राष्ट्र की माँग और ज्यादा तीक्ष्ण हो गयी। यह
माँग इसलिए थी क्योंकि कांग्रेस को एक राष्ट्रीय निकाय नहीं बल्कि हिन्दू निकाय के रूप
में स्वीकार किया जा रहा था। दिलचस्प बात यह थी कि यही स्थिति सरकार के साथ भी
थी, उसका भी यही मानना था कि कांग्रेस को एक सवर्ण हिन्दू निकाय के रूप में देखा
जाना चाहिए। कांग्रेस नेताओं ने ऐसा करने से इंकार कर दिया, यह कहा कि यह
वैधानीकरण का एक मुद्दा है, जो कि इसके राष्ट्रीय चरित्र को निर्धारित करता है। अतः इस
तर्क को व्यावहारिकता में नहीं लाया जा सकता। वहीं पाकिस्तान की माँग भी स्वीकार
करना इसलिए जरूरी हो गया था क्योंकि उस समय तत्कालिक परिस्थितियाँ ऐसी बन गयी
थीं। जबकि कांग्रेस उस द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त, सांप्रदायिक सिद्धान्त को नहीं मानना चाहती थी
जिसके आधार पर पाकिस्तान की माँग की गयी थी।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। नेहरू ने 14 अगस्त 1947 को निर्वाचन सभा के
मध्यरात्रि सत्र में ’’भविष्य से साक्षात्कार’’ नामक भाषण दिया। वह सत्र वंदे मातरम के गान
और अध्यक्ष के भाषण के साथ शुरू हुआ। अगली सुबह विष्व भर के देषों से बधाई संदेष
आने लगे। गांधी जी ने कलकत्ता में अपना पूरा दिन प्रार्थना, उपवास और खादी कातते हुए
बिताया। स्वतन्त्रता के उपलक्ष्य में जेल से कैदियों को रिहा किया गया। प्रमुख शहरों में
इस दिन की खुषी में कई सार्वजनिक समारोह किए गए। ज्यादातर उत्सव में विभाजन की
कड़वी सच्चाई साफ दिखाई दे रही थी। 15 अगस्त 1947 मातम और उत्सव दोनों का गवाह
बना। यह स्वतन्त्रता और विभाजन दोनों के लिए जाना जाता है, जोकि साम्राज्यवाद
विरोधी आंदोलन की सफलता और असफलता दोनों को दर्षाता है- स्वतन्त्रता प्राप्त करने
में सफलता और राष्ट्रीय आंदोलन में मुस्लिम के वृहतर हिस्से को शामिल ना कर पाने की
असफलता।

1945-47 का समय भारतीय इतिहास में सर्वाधिक अस्थिरता का समय था। साम्राज्यवाद
विरोधी लहर लोकप्रिय हुई, औपनिवेषिक शासन के विरुद्ध वृहत प्रदर्षन हुए, चुनाव जिसने
देष में सांप्रदायिक विभाजन को एकदम से उजागर कर दिया, ब्रिटिषों द्वारा भारत को
छोड़ने का निर्णय लेना, बंगाल और बिहार में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे होना, सभी बड़े
दलों द्वारा विभाजन को स्वीकार करना, पंजाब में उग्र दंगे होना और अंततः स्वतन्त्रता
हासिल करना यह सब इस बहुत ही कम अंतराल में देखा गया। आजादी की नई सुबह
पर विरोधाभासी प्रतिक्रिया देखने को मिली - विजयोत्सव और व्यथा, नई अस्मिताओं का
सृजन और पुरानी अस्मिताओं पर प्रष्न। इस इकाई में उस समय के अर्थ को संप्रेषित करने
की कोषिष की गयी है जोकि हमारे देष के लंबे इतिहास में अत्याधिक निर्णायक रहा है।

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विभाजन : अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ब्रिटेन के सामरिक और राजनीतिक हित
अगस्त, 1947 में भारत और पाकिस्तान में सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटेन द्वारा उपनिवेशवादी शासन् को खत्म करने की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम था, जिसके साथ उसकी अंतरराष्ट्रीय शक्ति के दूरगामी परिणाम जुड़े थे।

भारत का यह विभाजन अठारहवीं सदी में यूरोप, एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व में किए गए अनेक विभाजनों में से एक है। प्रायः अधिकांश विभाजनों में जिस तरह विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच जितनी हिंसा हुई, उससे कहीं अधिक हिंसा इस विभाजन में हुई। साम्राज्यशाही ब्रिटेन द्वारा किया गया भारत का यह विभाजन उसके द्वारा किए गए चार विभाजनों में से एक है। उसने आयरलैंड, फिलिस्तीन और साइप्रस के भी विभाजन कराए। उसने इन विभाजनों का कारण यह बताया कि अलग-अलग समुदायों के लोग एक साथ मिलकर नहीं रह सकते। जबकि इन विभाजनों के पीछे केवल धार्मिक और नस्ली कारण नहीं थे, बल्कि ब्रिटेन के सामरिक और राजनीतिक हित भी शामिल थे, जिनके आधार पर समझौतों के समय उसने अपनी रणनीति बनाई और चालें चलकर विभाजन कराए। वस्तुतः, ब्रिटेन की इन्हीं चालों की वजह से ये चारों विभाजन हुए।

 पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड़ रुपये
ब्रिटिश भारत की संपत्ति को दोनों देशों के बीच बाँटा गया लेकिन यह प्रक्रिया बहुत लंबी खिंचने लगी। गांधीजी ने भारत सरकार पर दबाव डाला कि वह पाकिस्तान को धन जल्दी भेजे जबकि इस समय तक भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरु हो चुका था और दबाव बढ़ाने के लिए अनशन शुरु कर दिया। भारत सरकार को इस दबाव के आगे झुकना पड़ा और पाकिस्तान को धन भेजना पड़ा ।२२ अक्टूबर १९४७ को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड़ रुपये की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गांधी जी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के इस काम को उनकी हत्या करने का एक कारण बताया।

 जन स्थानान्तरण

विभाजन के बाद के महीनों में दोनों नये देशों के बीच विशाल जन स्थानांतरण हुआ। पाकिस्तान में बहुत से हिन्दुओं और सिखों को बलात् बेघर कर दिया गया। लेकिन भारत में गांधीजी ने कांग्रेस पर दबाव डाला और सुनिश्चित किया कि मुसलमान अगर चाहें तो भारत में रह सकें। सीमा रेखाएं तय होने के बाद लगभग 1.45 करोड़ लोगों ने हिंसा के डर से सीमा पार करके बहुमत संप्रदाय के देश में शरण ली। भारत की जनगणना 1951 के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गये और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। इसमें से 78 प्रतिशत स्थानांतरण पश्चिम में, मुख्यतया पंजाब में हुआ।

 
दंगा फ़साद
बहुत से विद्वानों का मत है कि ब्रिटिश सरकार ने विभाजन की प्रक्रिया को ठीक से नहीं संभाला। क्योंकि स्वतंत्रता की घोषणा पहले और विभाजन की घोषणा बाद में की गयी, देश में शांति कायम रखने की जिम्मेवारी भारत और पाकिस्तान की नयी सरकारों के सर पर आई। किसी ने यह नहीं सोचा था कि बहुत से लोग इधर से उधर जाएंगे। लोगों का विचार था कि दोनों देशों में अल्पमत संप्रदाय के लोगों के लिए सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाएगा। लेकिन दोनों देशों की नयी सरकारों के पास हिंसा और अपराध से निपटने के लिए आवश्यक इंतज़ाम नहीं था। फलस्वरूप दंगा फ़साद हुआ और बहुत से लोगों की जाने गईं और बहुत से लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा। अंदाज़ा लगाया जाता है कि इस दौरान लगभग 5 लाख से 30 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की मुश्किलों से।

आलोचकों का मत है कि आजादी के समय हुए नरसंहार व अशांति के लिये अंग्रेजों द्वारा समय पूर्व सत्ता हस्तान्तरण करने की शीघ्रता व तात्कालिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता उत्तरदायी थी।

सम्बन्धित कालक्रम
- 1 सितम्बर 1939 - 2 सितम्बर 1945 - द्वितीय विश्वयुद्ध चला। युद्ध के पश्चात ब्रितानी सरकार ने आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर मुकद्दमा चलाने की घोषणा की, जिसका भारत में बहुत विरोध हुआ।
-  जनवरी १९४६ - सशस्त्र सेनाओं में छोटे-बड़े अनेकों विद्रोह हुए।
-  १८ फरवरी सन् १९४६ - मुम्बई में रायल इण्डियन नेवी के सैनिकों द्वारा पहले एक पूर्ण हड़ताल की गयी और उसके बाद खुला विद्रोह भी हुआ। इसे ही नौसेना विद्रोह या 'मुम्बई विद्रोह' (बॉम्बे म्युटिनी) के नाम से जाना जाता है।
-  फरवरी 1946 - ब्रितानी प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय उच्चस्तरीय शिष्टमंडल भेजने की घोषणा की। इस मिशन को विशिष्ट अधिकार दिये गये थे तथा इसका कार्य भारत को शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिये, उपायों एवं संभावनाओं को तलाशना था।
-  १६ मई १९४६ - आरंभिक बातचीत के बाद मिशन ने नई सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा जिसमें भारत को बिना बांटे सत्ता हस्तान्तरित करने की बात की गयी थी।
-  १६ जून १९४६ - अपने १५ मई की घोषणा के उल्टा इस दिन कैबिनेट मिशन ने घोषणा की कि भारत को दो भागों में विभाजित करके दोनों भागों को सत्ता हस्तान्तरित की जाएगी।
-  20 फरवरी 1947 - ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमन्त्री सर रिचर्ड एडली ने घोषणा की कि ब्रितानी सरकार भारत को जून १९४८ के पहले पूर्ण स्वराज्य का अधिकार दे देगी।
-  १८ मार्च १९४७ - एडली ने माउन्टबेटन को पत्र लिखा जिसमें देशी राजाओं के भविष्य के बारे में ब्रितानी सरकार के विचार रखे।
-  3 जून 1947 - माउंटबेटन योजना प्रस्तुत ; इसका प्रमुख बिन्दु यह था कि आगामी १५ अगस्त १९४७ को भारत को दो भागों में विभाजित करके दो पूर्ण प्रभुतासम्पन्न देश (भारत और पाकिस्तान) बनाए जाएंगे।
-  ४ जून १९४७ - माउण्टबैटन ने पत्रकार वार्ता की जिसमें उन्होने ५७० देशी रियासतों के प्रश्न पर अपने विचार रखे।
-  18 जुलाई 1947 - ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित कर दिया।
-  15 अगस्त 1947 - ब्रितानी भारत का विभाजन / भारत और पाकिस्तान दो स्वतन्त्र राष्ट्र बने।
- अगस्त प्रस्ताव = 1940
- क्रिप्स मिशन = 1942
-  बेवेल मिशन= 1945

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