हिन्दुन्व की जय जनचेतना की महाक्रांति : गोस्वामी तुलसीदास
तुलसी जयंती एवं पुण्य तिथि पर विशेष: श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी
- अरविन्द सीसौदिया
चन्दन है इस देश कि माटी, तपोभूमि हर ग्राम है ।
हर बाला देवी कि प्रतिमा, बच्चा बच्चा राम है ।
इन पंक्तियों को किसी ने वास्तव में अपने कर्म - कौशल से सिद्ध किया है तो उस महान राष्ट्रभक्त का नाम पूज्य श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी है,
श्रीरामचरित मानस वह ग्रंथ जिसने, मुगलों के आततायी हिंसक साम्राज्य में अपने अस्तित्व की लडाई लड़ रहे हिन्दुओं में नये विश्वास और नई ऊर्जा का संचार किया था, वह मौन धर्म क्रांति जो कलम से लिखी गई, सहास व आत्मोत्थान की अखण्ड ज्योती थी, जो सम्पूर्ण विश्व को आज भी प्रकाशमान किए हुये है।
जिसनें हिन्दुत्व को नई तेजस्विता प्रदान की। करोडों-करोड योद्धाओं जैसा काम उन्होने अकेले अपने बलवूते पर कर दिखाया। विश्व साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास की विशिष्ट पहचान,एक जनचेतना और लोक शिक्षण के महान कवि के रूप में है। उनके समकक्षता की बात तो बहुत दूर की है, कहीं कोई अन्य नजर ही नहीं आता।
जब-जब होई धर्म की हानी,बाढ़ैं पाप असुर अभिमानी।
तब तब प्रभु धरि सरीरा, हरां हं व्याधी, सज्जन की पीरा।।
समकालीन समाज
बाबर का साम्राज्य दिल्ली पर सन्1526-30 में स्थापित हुआ,उसके बाद हुमायू 1530- 56,अकबर 1556-1605 और जहांगीर 1605-27 ने शासन किया, इस दौरान ; सन् 1497 से सन् 1623 तक तुलसीदास जी थे। तुलसीदास जी ने उस समय के शासन की व्यवस्था पर प्रकाश डाला हैः-
गोड़ गंवार नृपाल महि,यमन महा महिपाल।
काम न दाम न भेद कलि,केवल दंड कराल।।
उस समय की सामाजिक दशा पर भी उन्होने प्रकाश डाला है :-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,बलि,
वनिक को बनिज न, चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग, सीद्यमान सोच बस,
कहं एक एकन सों, कहां जाई,का करी।।
कुल मिला कर उस समय शासन लुटेरा था,जनता में दीनता-हीनता की अवस्था थी।
जन्म तिथि
जिस समय मुस्लिम हिंसा हिन्दुत्व को जबरिया धर्मांतरण के द्वारा आक्रांत किए हुए थी, उस समय ईश्वर की इच्छा से तुलसी का जन्म होता है.....! गोसाई चरित में स्पष्ट तौर पर लिखा है,
पंद्रह सै चैवन विषै,कालिंदी (यमुना) के तीर,
सावन सुक्ला सप्तमी,तुलसी धरेउ शरीर।
विक्रमी संवत् 1554 (सन् 1497) के श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को भारतमाता की कोख से एक और महान राष्ट्रभक्त सपूत ने जन्म लिया था, जिसका नाम गोस्वामी तुलसीदास उर्फ रामबोला था। उनका जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ, इसे घोर अशुभ माना जाता है और यह व्यक्तिगत रूप से अशुभ साबित भी हुआ। घोर संकटों में ही उनका प्रारम्भिक जीवन रहा है। मगर राष्ट्र चेतना और धर्म संस्थापना की दृष्टि से तो यह वरदान साबित हुआ।
जन्म स्थान: विवाद
उत्तरप्रदेश के बुंदेलखण्ड के बांदा जिले के राजापुर ग्राम में,रामबोला का जन्म प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राहम्ण आत्माराम दुबे के घर हुआ था,उनकी माता का नाम हुलसी देवी था। रहीम अपने दोहे में माता हुलसी का वर्णन करते हुये कहते हैं किः-
सुरतिय नरतिय नागतिय,सब चाहत अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।। - रहीम
तुलसीदासजी के जन्म स्थान को लेकर विवाद है,लगता है कि यह विवाद अनावश्यक हैं। एक मान्यता यह है कि उनका जन्म राजापुर (सूकरखेत) जिला गोंडा में हुआ था,एक दूसरी मान्यता बांदा डिस्ट्रिक गजेटियर के अनुसार तुलसीदास ऐटा जनपद के सोरों नामक स्थान से आए थे और उन्होंने अकबर के शासनकाल में राजापुर को बसाया था। तीसरी मान्यता यह है कि वे बांदा जिले के अन्तर्गत यमुना तट पर स्थित राजापुर में जन्मे थे। अन्य दावेदारीयां हाजीपुर चित्रकूट के पास की भी है और तारी की भी है। मगर यमुना का तट बांदा जिले के राजापुर में ही है।
तुलसी के द्वारा किये गये संकेतों,राजापुर के सरयूपरीण ब्राहम्णों के पास मौजूद “हाट घाट मुआफीनामें ”की सनदों और अयोध्याकाण्ड के तायस प्रसंग,भगवान राम के वनगमन के क्रम में यमुना नदी से आगे बढ़ने पर व्यक्त कवि भावावेश आदि अंतर्साक्ष्यों से राजापुर को ही उनका जन्म स्थान माना गया है। गीताप्रेस गोरखपुर सहित तमाम प्रतिष्ठित प्रकाशन इसी को मान्यता देते हैं।
मुगल सम्राट अकबर तुलसीदास से बहुत प्रभावित थे,वे उन्हे अपने नवरत्नों में भी रखना चाहते थे,मगर तुलसी तो श्रीराम के दास थे सो उनसे कभी किसी अन्य की दासता स्विकार करने का सवाल ही नहीं था। तब अकबर ने राजापुर जिला बांदा के हाट घाट की चुंगी उगाह कर उससे अपनी जीविका चलाने कर अधिकार तुलसीदास जी को दिया था, इसे मुआफीनामा कहते हैं, इस अधिकार को बाद में औरंगजेब ने भी बहाल रखा था, मुगल शासन के अंत के बाद भी बुन्देलखण्ड के हिन्दू राजाओं ने भी इसे यथावत रखा जैसे महाराजा हिन्दुपति जूदेव ने,पन्ना नरेश अमानसिंह जूदेव ने, इस अधिकार को ब्रिटिश सरकार ने भी जारी रखा,मगर 1972 में कांग्रेस की राज्य सरकार के द्वारा इसे वापस ले लिया गया है। जो अब बंद है।
राजापुर में उनकी शिष्य पंरपरा की 11वीं पीढी के वंशज रामाश्रयदासजी के पास अन्य साक्ष्यों के अलावा,तुलसीदासजी की कुछ अन्य व्यक्तिगत सामग्री भी है जिसके दर्शन करने प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में लोग राजापुर पहुचते हैं।
किन्तु सोरों में भी तुलसीदास के जन्म स्थान के अवशेष,तुलसीदास के गुरू भाई नंददास के उत्तराधिकारीयों का नरसिंहजी का मंदिर और वहां उनके उत्तराधिकारियों की विद्यमानता से कुछ शोधकर्ता इसे जन्म स्थान मानते हैं। किन्तु कुछ शोधकर्ता इस तथ्य को यह कह कर अमान्य कर देते हैं कि यह कोई ओर तुलसीदास रहे होंगें,क्योंकि कम से कम 4 तुलसीदास रामकथा के क्षैत्र में ही प्रसिद्ध हुये हैं। हलांकी गोंडा जिले के राजापुर के साक्ष्य काफी प्रखर हैं मगर वहां यमुना तट नहीं हैं,जिस का जिक्र गोसाई चरित में स्पष्ट तौर पर आता है। अब यह कहा जाने लगा है कि तुलसी का जन्म गोंडा के राजापुर में हुआ था और कर्मभूमि बांदा का राजापुर रहा है,मगर इस मत को मान्यता नहीं मिली है।
संभवतः इसके पीछे मूल कारण यह प्रतीत होता है कि तुलसीदास जी का जन्म एक जगह होता है तथा मात्र 10-11 दिन की अवस्था में ही उन्हे दासीमाता लेकर माता हुलसी के मायके अथवा सुसराल चली जाती है। इस कारण जन्मकाल दो स्थानों से जुड गया है। यह अज्ञात है कि माता उस समय मायके में थीं अथवा सुसराल में तथा यह भी स्पष्ट नहीं है कि दासी माता रामबोला की अस्विकार्यता की स्थिती में कहां रही। मगर लगता है वह हुलसी के मायके (ग्राम दहौरा,जनपद बहराइच) गई थी और वहीं कहीं रही,तभी तो तुलसी को बहराइच याद रहा। वहां का मेला प्रसिद्ध था,बचपन में संभवतः वे वहां गये थे।
लहि आंख कब आंधरे,बांझ पूत कब पाय।
कब कोढी काया लही,जग बहराइच जाये।। - दोहावली से
असामान्य जन्म
तुलसीदास जी का जन्म असामान्य परिस्थिती में हुआ है,वे 12 माह माता के गर्भ में रहे,जन्म के समय उनके मुंह से रोने की आवाज नहीं निकली बल्कि वे “श्रीराम” शब्द बोले, मंुह में बतीसों दांत होते हैं,शरीर भी अधिक उम्र के बालक के समान था।
निश्चित रूप से परिवार सम्पन्न था,तभी तो दासी चुनिया थी,माता हुलसी को अनिष्ट की आशंका थी,वे स्वंय अस्वस्थ थीं,दसमी पूजन के बाद उन्होने रामबोला को दासी चुनिया के साथ मायके अथवा सुसराल भेजा था, जहां उनका पालन पोषण हो सके,उसके कुछ ही दिनों में माता की मृत्यु हो गई। कुछ मान्यता यह भी है कि पिता का भी देहांत यथा शीघ्र ही हो गया था। अशुभता के कारण किसी अन्य ने बालक को ग्रहण नहीं किया, सो वे दासी चुनिया के साथ ही रहे। पांच वर्ष उपरांत दासी की मृत्यु के बाद वे अनाथ हो गये। तुलसीदास को उन दिनों का दुःख सारी उम्र रहा,उन्होने कवितावली में इशारा किया है।
मातु पिता जग जाई तज्यो,
विधिहू न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच निरादर भाजन कादर,
कूकर टूकन लागि लगाई।।
अद्भुत बालक
भटकते हुए ‘रामबोला’ को जगत-जननी माता पार्वती, रात्री में भोजन करवातीं रहीं,इस तरह की भी लोकगाथा है। माना जाता है कि रामशैल पर रहने वाले स्वामी अनन्तानंदजी महाराज को शंकर भगवान की प्रेरणा हुई,तब उन्होने किसी विशिष्टि कार्य हेतु जन्में,रामबोला को ढूंढने की कोशिशे में शिष्यों को लगाया,उनके शिष्य नरहरिदास जी ने बालक को ढूंढ निकाला,नरहरी स्वामी ने संवत 1561माघ शुक्ल पंचमीं शुक्रवार को रामबोला का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया,तब बालक ने पूरा गायत्री मंत्र स्वंय बोला,तो सभी आश्चर्य चकित हो गये। स्वामी जी ने उनके पांचों वैष्णव संस्कार करवाये,नामकरण किया और श्रीराम मंत्र की दीक्षा दी तथा रामचरित्र सुनाया,अपने साथ रखा,तब रामकथा संस्कृत पाठ के साथ हुआ करती थी। तुलसीदास ने स्वयं लिखा है:-
‘‘वन्दौ गुरूपर कंज, कृपा सिंधु नर रूपी हरि।’’
स्वामी नरहरीदास जी का आश्रम सूकरखेत में था,सूकरखेत सरयू एवं घाघरा के संगम पर है, इसी आश्रम में पहलीवार बालक रामबोला ने रामायण सुनी थी,जिसका जिक्र रामचरित मानस में आता है:-
मैं पुनि निज गुरू सन सुनि कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहीं तसी बालपन,तब अति रहो अचेत।।
लोक श्रुति है कि श्री नरहरिदासजी ने ही बालक तुलसीदास को काशी में सुप्रसिद्ध शेष सनातन पाठशाला में प्रवेश करवाया,जहां तुलसीदास जी ने संस्कृत एवं सनातन साहित्य का गहन अध्ययन किया। शेष सनातनजी की पाठशाला में 15 वर्ष उनका अध्ययन हुआ। सामान्य तौर पर वे एक बार जो सुन लेते थे उसे भूलते नहीं थे। वेद-वेदांग एवं अन्य तमाम धर्म ग्रंथों के अध्ययन के बाद, वे भी रामकथा वाचन का कार्य जीविकोपाजर्न की दृष्टि से करने लगे।
माता-पिता का श्राद्ध
अध्ययन समाप्त कर कुछ समय उन्होंने राजापुर में बिताया। यह लोक मान्यता है,उच्च शिक्षण के बाद वे राजापुर वापस आ गये,वहां सब कुछ समाप्त हो चुका था,उन्होने विधि विधान से माता-पिता का श्रा( किया। वहीं रह कर कथा वाचन का कार्य वे करने लगे।
राजापुर के उपाध्यायों के यहां सुरक्षित सनदें और एक मंदिर में तुलसीदास की स्थापित प्रतिमा सहित वहां रखी गई मानस के अयोध्याकाण्ड की पाण्डुलिपि प्रतिलिपि इस बात की पुष्टि करते हैं कि उनका गहरा सम्बंध राजापुर से रहा होगा।
विवाह और विच्छेद
उनका विवाह संवत1583 जेष्ठ शुक्ल 13 गुरूवार को भारद्वाज कुल की कन्या बुद्धिमति रत्नावती से हुआ था,तब उनकी आयु लगभग 29 वर्ष की थी, जिनके माता पिता नहीं होते उनके विवाह इसी तरह विलम्ब से होते हैं। वैवाहिक जीवन सुखी तो था मगर लम्बा नहीं चल सका। अब कुछ लोग तुलसी को अविवाहित करार देने में लगे हैं। मगर भविष्य पुराण में प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि “अकबर के काल में पुराणों में निपुण तुलसी शर्मा जनमें थे,जिन्होने नारी से शिक्षा प्राप्त कर,श्रीरामानंदजी परम्परा में, काशी में, अत्यंत विरक्त वैष्णव कवि हुये।” इसका स्पष्ट अर्थ है कि तुलसीदास जी की पत्नि थीं।
तुलसीदासजी की पत्नी रत्नावली, यमुना नदी के तट पर स्थित मईवा घाट गांव के भारद्वाज गोत्रीय दीनबंधु पाठक की एक ज्ञानवान तेजस्वी ब्राह्मण कन्या थीं और उन्हें धर्मपथ की गहरी समझ थी। उनके एक पुत्र तारापति का भी जिक्र आता है। जिसकी बाल्यकाल में ही मृत्यु हो गई थी।
एक बार वे अपने भाई के साथ मायके गई थीं कि उनके ही पीछे-पीछे तुलसीदासजी भी वहां पहुच गये,कहा जाता है कि भरी नदी में मुर्दे के सहारे तैर कर वे सुसराल पहुंच गये थे। तुलसीदास की इस अनावश्यक व अत्याधिक आशक्ती पर उन्होने उन्हे छिडकते हुए कह दिया था कि यदि उनसे आधी प्रीत भी ईश्वर अवतारी श्रीराम में लगाई होती तो सारे भव - भय दूर हो जाते।
हाड़ मांसमय देह मंम, तायो जैसी प्रीति।
वैसी जो श्रीराम में, होत न भव भय भीति।।
कुछ जगह यह दोहा इस तरह भी है:-
अस्थि चर्म मय देह मम,तापें ऐसी प्रीति,
अस जो होति श्रीराम मह तो ना होति भव भीती।
उसी दिन से तुलसीदास ने वैराग्य धारण कर लिया। लगता है कि प्रभुलीला अपना काम कर रही थी,तुलसी का जन्म तो हिन्दुत्व के उत्थान के लिये हुआ था। वे सन्यासी हो कर र्तीर्थाटन करने लगे,मानसरोवर की यात्रा पर उनकी श्रीरामकथा के प्रथम वाचक श्रीकाकभुशुण्डि जी के दर्शन हुए ।
श्रीराम दर्शन
उन्होने 14 वर्ष तक निरंतर पैदल चलते हुए तीर्थाटन किया। वे जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम्, द्वारका और बद्रीनारायणजी के दर्शन करने में भी सफल रहे। प्रतीत होता है कि उन्होन श्रीराम के वन गमन से जुडे स्थानों को भी विशेष कर स्वंय जाकर देखा होगा, तभी तो इतना सटीक व सजीव चित्रण सामने आता है।
तुलसीदास जी सामान्य तौर पर रामकथा वाचन करते थे, काशी में रामकथा कहते थे,रहते थे,लोककथा है कि वे शौच से लौटते समय लोटे में बचा जल रास्ते के एक वृक्ष विशेष पर डाल कर आते थे। उसी वृक्ष पर एक प्रेत रहता था,जो उस जल से पाप मुक्त हो गया,उसी प्रेत ने बताया कि श्रीराम कथा सुनने के लिये हनुमान जी भी आते हैं और दूसरे वेष में पीछे की तरफ बैठते हैं। तुलसी की विनय पर उसने हनुमानजी को बता दिया, फिर तो तुलसीदास जी ने हनुमान जी को छोडा ही नहीं,हनुमानजी की सहायता से श्रीराम लक्ष्मण के दर्शन, विक्रमी संवत् 1607 में मौनी अमावस्या,बुधवार के दिन चित्रकूट के घाट पर हुई। इससे पहले भी एक बार उन्हे श्रीराम लक्ष्मण दर्शन दे चुके थे,मगर वे पहचान नहीं पाये थे। इस वार हनुमानजी के द्वारा इशारा पाकर वे प्रभु को पहचान तो गये,मगर सुधबुध खो बैठे,तब श्रीराम ने तुलसीदास के मस्तक पर स्वयं के हाथ से चन्दन लगाया। तब हनुमानजी ने तोते के रूप दोहा बोल कर श्रीराम की पहचान कराई थी।
‘‘चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर,
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।।’’
शंकर-पार्वती की प्रेरणा
हनुमानजी की प्रेरणा से वे संवत 1628 में प्रयाग गये, वहां मेला लगा हुआ था तथा उसमें रामकथा चल रही थी,वहां उन्हे मुनी भारद्वाज और याज्ञवल्क्य जी के दर्शन हुये, उन्होने वहां रामकथा का श्रवण किया। जब काशी लौटे तो उनमें कवित्व प्रस्फुटित हो गया। वे संस्कृत पद्यों की रचना करने लगे। मगर वे जो भी दिनभर में लिखते सुबह वह मिटा हुआ मिलता,आठवे दिन उन्हे रात्री में शंकर भगवान व पार्वती जी के दर्शन हुए “ उन्होने लोकभाषा में श्रीरामकथा लिखने की आज्ञा देते हुए कहा तुम्हारी रचना सामवेद के समान फलवती होगी,यह समाज के उद्धार और संस्कार का मार्ग बनेगी। ”
श्रीरामचरित मानस लेखन
संवत सोलह सो इकतीसा।
काउ कथा हरिपद धरि सीसा।
तुलसीदासजी ने 77 से 80 वर्ष की आयु के मध्य श्रीरामचरित मानस का लेखन किया, विक्रम संवत् 1631 में पवित्र पावन नगरी ‘‘अयोध्या’’ में श्रीरामजन्म दिवस, श्रीरामनवमी के अवसर पर प्रातःकाल श्रीरामचरित मानस का लेखन अवधी भाषा में प्रारम्भ किया। उस दिन प्रायः वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग में श्रीराम जन्म के समय रहा था। श्रीरामचरित मानस के प्रथम तीन काण्ड बाल काण्ड, अयोध्या काण्ड और अरण्य काण्ड की रचना अयोध्या में ही की गई तथा उसके बाद दैवीय प्रेरणा से वे काशी आ गए एवं प्रह्लाद घाट के पंडित श्री गंगाराम जोशी के आवास पर रहने लगे। वहां उन्होंने अन्य चार काण्ड यथा किष्किंधा काण्ड, सुंदर काण्ड, लंका काण्ड और उत्तर काण्ड की रचना की। मानस दो वर्ष सात महीने और 26 दिन में रामविवाह के अवसर पर पूर्ण हुआ। ग्रंथ पूर्ण होने पर उसे काशी में विश्वनाथ जी के चरणों में रखा उस पर शंकर भगवान ने “सत्यं शिवम् सुन्दरम्” लिखा था ।
1. मानस का अनुवाद विश्व की तमाम प्रमुख भाषाओं में हुआ है।
2. इसमें 51, 000 चैपाई और 1, 074 दोहे हैं।
3. सात काण्ड में उप विभाजन है और प्रत्येक काण्ड के प्रारम्भ में देवों का स्मरण मंगलाचरण के रूप में है।
यही श्रीरामचरितमानस लोक शिक्षण और जन उद्धार की ऐसी धर्म पुस्तक बन गई जो कि विश्व में कोई भी पुस्तक पढ़ने और शिक्षा ग्रहण करने में इसके आगे नहीं टिकती। यह भारतीय समाज का समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र,धर्म शास्त्र , दर्शन शास्त्र और आध्यात्म शास्त्र की अभूतपूर्व कृति है,जो विश्व के सभी धर्मग्रन्थों में लोकप्रियता में सबसे आगे है।
सर्वाधिक पठनीय महाकाव्य
जिस तरह विश्व में सर्वाधिक पूजनीय देवों में गणेशजी सर्वोच्च हैं,वे हर आयोजन में प्रथम पूज्य है। उसी तरह श्रीरामचरितमानस भी विश्व में पढ़ने और उससे सीखने के मामले में सर्वोच्च महाकाव्य है। तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के अतिरिक्त कविता रूप हनुमान चालीस नामक प्रार्थना भी अत्यंत लोकप्रिय है और जिसका पाठ करोड़ों हिन्दू नित्यप्रति करते हैं। कुछ लोग उन्हें महर्षि वाल्मिकी का अवतार भी मानते हैं।
चमत्कारिक व्यक्ति
तुलसीदासजी एक चमत्कारिक व्यक्ति के रूप में पहले ही चर्चित हो गए थे। उनके द्वारा कई चमत्कारों की चर्चा है, उनमें एकऋ विधवा के पति का पुनः जीवित होना अत्यंत चमत्कारी रहा और इस पर बादशाह ने उन्हें कैद कर लिया। तुलसीदासजी ने हनुमान जी की स्तुति की और बंदरों की सेना तुलसीदास जी के पक्ष में पहुंच गई। बादशाह के कोट में बंदरों का भयानक उत्पात प्रारम्भ होते ही बादशाह तुलसीदास जी के चरणों में गिर पड़ा और मुक्त कर बहुत क्षमा याचना की।
मानस का विरोध
मुगल सम्राट अकबर के मध्योत्तर शासन काल में रचित ‘‘मानस’’ की रचना पूर्ण होते ही विद्वानों ने इसका विरोध प्रारम्भ कर दिया। कहा यह गया कि संस्कृत भाषा में श्रीरामकथा की जो गरिमा है, उसका अवधी भाषा की रामायण से हृास होगा।
काशी में कुछ लोग इस कृति को नष्ट करने पर उतारू हो गये,एक बार चोर भेजे गये,चोर जब पहुंचे तो देखा कुटी के बाहर श्रीराम और लक्षमण पहरा दे रहंे हैं, तो चोरों ने शरणागती कर चोरी छोड दी। मगर तुलसी को यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि उनके कारण प्रभु को कष्ट हुआ,उन्होने तुरंत अपना सारा सामान लुटा दिया,श्रीरामचरित्र मानस की प्रति,मित्र टोडरमल के यहां रख दी। विरोध के चलते उस समय काशी में मौजूद सबसे बडे धर्मज्ञाता श्री मुधुसूदन जी सरस्वती को यह पाण्डुलिपि दिखाई गई,उन्होने भी इसकी अथक प्रशंसा की।
जब समाज में इस कृति को स्विकृती मिलना प्रारम्भ हुआ तो अंतिम निर्णय काशी के विश्वनाथ मंदिर में हुआ,वहां सबसे नीचे मानस,फिर उसके ऊपर क्रमबद्यता में शास्त्र, पुराण, उपनिषद और वेदों को रखा गया,सुबह जब ताला खोला गया तो मानस सबसे ऊपर था। शैने शैने विरोध के स्वर समाप्त हो गये।
प्रथम रामलीला
मान्यता है कि विश्व में पहली रामकथा का मंचन तुलसीदासजी ने ही प्रारम्भ करवाया था, इसे काशी नरेश के द्वारा प्रारम्भ करवाया गया था। तुलसी का अयोध्या जाना आना लगा रहता था,एक बार जब वे अयोध्या में थे, तो सरयू स्नान को जाते रहते थे,वहां एक संत समाधिस्थ थे,वे उन्हे सष्टांग दण्डवत करके ही स्नान करते थे,यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा,एक दिन वह संत समाधी से बाहर आ गये और तुलसी को अपने साथ कुटिया में ले गये और उन्होने श्रीराम का मुकुट,धनुष-बाण,खडाऊ और कमण्डल आदी सौंपते हुये कहा यह श्रीराम की दिव्य वस्तुऐं हैं,इन्हे अब में तुम्हे सौंप कर निश्चिंत हुआ। वे वस्तुयें तुलसी काशी ले आये। वहीं शिष्यों के द्वारा उन्होने रामलीला मंचन का अभ्यास किया, फिर वे अपने शिष्यों के साथ काशी महाराज के पास पहुचें,नरेश ने उनका स्वागत किया और रामनगर ;वाराणसीद्ध में रामलीला के मंचन की व्यवस्था करवाई। तब 22 दिन में रामलीला होती थी और दशहरे के दिन रावण का दहन किया जाता था। यह रामलीलायें सुधार व संगीत के साथ तमाम देश में फैल गई। आज गांव-गांव, कस्बे-कस्बे में तुलसीकृत रामायण के आधार पर रामलीलाओं का मंचन और रावण दहन अनिवार्य उत्सव हो गया है। रामलीला मंचन विश्व के कई देशों में होता है।
कहा जाता है कि काशी महाराज के संरक्षण में श्रीराम की दिव्य वस्तुयें काशी में स्थित प्राचीन बृहस्पित मंदिर में आज भी सुरक्षित हैं। वर्ष में एक वार भरत मिलाप के दिन इनका प्रयोग किया जाता है,इस दिन की लीला विषेश महत्व की होने से देश और विदेश से पयर्टक व श्रृध्दालू रामगनर,वाराणसी पहुचते हैं।
ग्रन्थ
तुलसीदास जी ने कितने ग्रंथ लिखे इस पर भी विवाद है, शिवसिंह सेंगर ने 18 कृतियों को माना है तो जार्ज ग्रिथर्सन ने 16 ही कृतियों को माना है मगर मिश्र बुधुओं ने हिन्दी नवरत्न में उनके 25 ग्रन्थों की संख्या बताई है और नागरी प्रचार सभा ने 35 ग्रन्थों के नाम दिये हैं।
1. दोहावली 2. कवित्त रामायण 3. गीतावली 4. रामचरितमानस 5. रामलला नहछू 6. पार्वती मंगल 7. जानकी मंगल 8. बरदै रामायण 9. रामाज्ञा 10. विनय पत्रिका 11. वैराग्य संदीपनी 12. कृष्ण गीतावली, 13.रामसत सई, 14.संकट मोचन, 15.हनुमान बाहुक, 16.रामनाम मणि, 17.कोष मंजूषा, 18.रामशलाका, 19.हनुमान चालीसा आदि उनके अत्यंत प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।
देवलोक गमन
संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
देवलोक गमन सन् 1623, संवत1680 श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी,शनीवार को ही हुआ। इस प्रकार उन्हें 126 वर्ष का लम्बा जीवन प्राप्त हुआ और जिस तिथि में उनका जन्म हुआ था उसी तिथि में उन्होने देह का त्याग किया।
विशिष्टता
तुलसीदास की पहचान,सिद्धी-प्रसिद्धी,किसी चमत्कार के कारण नहीं रही,किसी मत या परम्परा के चलाने के कारण नहीं रही, बल्कि उन्होने हिन्दुत्व के निचोड़ को सरल व समझ में आने वाली सहज भाषा में समाज को दिया,उसीसे समाज उनसे उपकृत है और वे पूज्यनीय हैं।
जैसे धर्म का मर्म उन्होने कुछ शब्दों में ही समझा दियाः-
दया धर्म का मूल है,पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छाडिये,जब लगि घट में प्रान।। और
परहित सरिस धर्म नहिं भाई,परपीड़ा यम नहिं अधमाई।
तुलसीदासजी की जयंती पर यदि हम अपने जीवन में इन दो चार पंक्तियों को उतार लें तो यही उन्हे सच्ची श्रृद्धजंली या भावाजंली होगी।
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तुलसीदास जी के दोहे (Tulsidas Ji Ke Dohe)
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान ।
तुलसी दया न छोड़िये जब तक घट में प्राण ।।
इस दोहे में तुलसीदास जी धर्म और अभिमान के बीच क्या अंतर है वह बता रहे हैं. अर्थात व्यक्ति में दया की भावना होने के कारण ही धर्म की उटपती होती है और जो व्यक्ति अभिमान का सहारा लेता है वह केवल पाप को जन्म देता है. इसलिए मनुष्य जब तक जीवित रहता है उसे कभी भी दया की भावना को त्यागना नहीं चाहिए.
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक ।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसे एक ।।
तुलसीदास जी बताते हैं कि व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों में नहीं घबराना चाहिए. उसे ऐसी मुश्किल हालात में बुद्धिमानी से काम करना चाहिए. इस बीच अपने विवेक को न त्यागे. वह इसलिए क्योंकि इस मुश्किल समय में साहस और अच्छे कर्म से व्यक्ति सफलता प्राप्त कर लेता है. भगवान पर विश्वास रखें.
- राधाकृष्ण मंदिर रोड, डडवाडा,कोटा जं २
2.रामचरित मानस - हनुमान चालीसा के रचियता : गोस्वामी तुलसीदास
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गोस्वामी तुलसीदास
श्री रामचरित मानस के रचयित गोस्वामी तुलसीदास का परिचय
Goswami Tulsidas
श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था। पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था। तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास रखा गया। गोस्वामी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका विवाह सं. १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से हुआ। वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे। पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग की परिणति वैराग्य में हुई।एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे। पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा -
हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।
गोस्वामी तुलसीदास के लिखे दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली। इसके अतिरिक्त रामसतसई, संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा, रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं।
१२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी, शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया।
संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
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