भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की 5 कविताएं


अटल बिहारी वाजपेयी की 5 कविताएं


नई दिल्ली. साल 2014 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। राष्ट्रपति के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से जैसे ही यह सूचना साझा की गई, उनके प्रशंसकों में खुशी की लहर दौड़ गई। आज उनका 91 वां जन्मदिन मनाया जा रहा है।

अटल भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के उदारवादी चेहरा रहे और एक लोकप्रिय जननेता के तौर पर पहचाने गए। लेकिन उनकी एक छवि उनके साहित्यिक पक्ष से भी जुड़ी है। अटल बिहारी वाजपेयी एक माने हुए कवि भी हैं। उन्होंने अपने जीवन काल में कई कविताएं लिखीं और समय-दर-समय उन्हें संसद और दूसरे मंचों से पढ़ा भी। उनका कविता संग्रह 'मेरी इक्वावन कविताएं' उनके समर्थकों में खासा लोकप्रिय है। इस मौके पर पेश हैं, उनकी चुनिंदा कविताएं.....

1. क़दम मिला कर चलना होगा

बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

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ठन गई! मौत से ठन गई!  
जूझने का मेरा इरादा न था, 
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,  
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।  
मौत की उमर क्या है? 
दो पल भी नहीं, ज़िन्दगी सिलसिला, 
आज कल की नहीं।  
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, 
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, 
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।  
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, 
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।  
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।  
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।  
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, 
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।  
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।  
पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। 
मौत से ठन गई।
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ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।बँट गये शहीद, 
गीत कट गए,कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई। 
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंदसतलुज सहम उठी, 
व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई 
दूध में दरार पड़ गई। 
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,ख़ुदकुशी का रास्ता, 
तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
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भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, 
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, 
कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, 
सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, 
अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, 
यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये

मरेंगे तो इसके लिये।

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, 
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, 
कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, 
सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, 
अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, 
यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।


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