बछ बारस, पुत्रों की दीघार्यु हेतु विशेष पर्व Bachh Baras

मुख्य रूप से बछ बारस के दिन पुत्रवती स्त्रियाँ व्रत रखती है और गाय और बछड़ें की पूजा करती हैं। बछ बारस से एक दिन पहले रात्रि को बछबारस के लिये मूंग, मोठ, चने एवं बाजरा भिगो कर रख दिया जाता है। फिर प्रातः काल स्नानादि के बाद पूजा से पहले उसे कढ़ाई में छोंक कर पका लिया जाता हैं।

                                         
बछ बारस, पुत्रों की दीघार्यु हेतु विशेष पर्व 
क्या होता है बायना, कैसे करते हैं उद्यापन?

मातायें तथा महिलाएं करती हैं बछबारस व्रत
भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को बछबारस या गोवत्स द्वादशी या वत्स द्वादशी कहा जाता है।  इस दिन पुत्रवती स्त्रियां व्रत रखती हैं और अपने पुत्रों के सुख और दीर्घायु की कामना करती हैं। इस दिन पुत्रों की पसंद के व्यंजन बनाए जाते हैं और उन्हें उपहार भी दिए जाते हैं। कहीं- कहीं माताएं पु़त्रों की नजर भी उतारती हैं। इस दिन स्त्रियां मूंग, मोठ और बाजरा अंकुरित कर गाय के बछड़े को खिलाती हैं। व्रती स्त्रियों को भी आहार में यही अन्न लेना होता है। इस दिन गाय का दूध सर्वथा वर्जित माना जाता है, केवल भैंस का दूध ही उपयोग में लिया जाता है।

बछबारस पर्व
बछबारस पर्व को मनाने के पीछे मान्यता है कि इस दिन श्रीकृष्ण पहली बार गाय चराने घर से बाहर निकले थे। यह माता यशोदा और पुत्र कृष्ण के बीच प्रेम के जीवंत उदाहरण का प्रतीक पर्व है। जैसा कि सभी जानते हैं, श्री कृष्ण माता यशोदा की आंख के तारे थे। माता यशोदा अपने प्यारे पुत्र को देखे बिना पल भर भी ना रह पाती थीं। पुत्र कृष्ण भी माता पर पूर्णभक्ति रखते थे और खेलने के बीच थोड़ी- थोड़ी देर में उनके पास एक चक्कर लगाना, उनसे दुलार पाना और प्यार जताना नहीं भूलते थे। ऐसे ही मां- बेटे के दिन प्रेम से कट रहे थे।

श्री कृष्ण ने भी गाय चराने जाने की हठ पकड़ ली
इस बीच श्री कृष्ण बड़े हो गए और उनके सारे मित्र ग्वाले गाय चराने जंगल में जाने लगे। अपने मित्रों को देख श्री कृष्ण ने भी गाय चराने जाने की हठ पकड़ ली। माता यशोदा इस सत्य से परिचित थीं कि आयु के अनुरूप पुत्र को घर से बाहर भेजना ही होगा। अपने पुत्र को इतनी देर बाहर भेजने के नाम से भी वे चिंतित थीं। ढेर टालमटोल के बाद आखिरकार भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को श्री कृष्ण का जंगल में गाय चराने जाना निश्चित किया गया।
                                            
माता यशोदा ने लाख जतन किए
पुत्र की चिंता में, उसे हर कष्ट से बचाने के लिए माता यशोदा ने लाख जतन किए। उनका लाडला इतनी देर घर से बाहर रहने वाला था इसलिए माता ने अपने पुत्र के पसंद के सारे व्यंजन बनाए। श्री कृष्ण मात्र माता यशोदा के लाड़ले ही ना थे। सारा गोकुल उन पर जान छिड़कता था। इसीलिए श्री कृष्ण के प्रथम वन गमन पर गोकुल गांव की प्रत्येक माता ने कृष्ण के प्रति दुलार प्रकट करने के लिए उनके पसंद के व्यंजन बनाए। श्री कृष्ण के साथ वन जाने वाली गायों और बछड़ों के लिए भी मूंग, मोठ और बाजरा अंकुरित किया गया।
गायों और बछड़ों का भी श्रंगार हुआ...

सुबह यशोदा ने श्री कृष्ण को हर तरह से सुंदर सजाया और काला टीका लगाया। उन्होंने पूरे दिन खाने के लिए ढेर सारे व्यंजन श्री कृष्ण के साथ बांधे। उनके साथ ही ब्रज की सारी माताओं ने श्री कृष्ण के लिए व्यंजनों का ढेर लगा दिया। गायों और बछड़ों का भी श्रंगार हुआ और पूजा के बाद उन्हें अंकुरित अनाज खिलाया गया। इस तरह मां की ममता से ओत- प्रोत श्री कृष्ण का पहला गोवत्साचरण संपूर्ण हुआ। श्री कृष्ण के वापस आने तक गांव की किसी महिला ने उनकी चिंता में भोजन नहीं किया। गायों के लिए अंकुरित किए हुए अन्न पर ही उनका दिन कट गया। इस तरह बछबारस का व्रत अस्तित्व में आ गया।
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व्रत की सामान्य विधि 
भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को बछ बारस है। इस दिन गौमाता की बछड़े सहित पूजा की जाती है। माताएं अपने पुत्रों को तिलक लगा कर के लड्डू का प्रसाद देती है यानि आज के दिन पुत्रवान महिलायें अपने पुत्र की मंगल कामना के लिए व्रत रखती हैं और पूजा करती हैं। इस दिन गौ दूध - दही एवं गेंहू से बने हुए पकवान और चाकू से कटी हुई सब्जी नहीं खाई जाती है। अनेकों स्थानों पर प्रथा है कि इस दिन उद्यापन भी किया जाता है। बहुत से लोग ये सवाल करते हैं कि उद्यापन क्या होता है ? 

ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि पूजन के लिए या व्रत त्यौहार के लिए दान स्वरूप निकाली जाने वाली सामग्री को बायना कहते हैं। बछ बारस या और भी बहुत से पर्वों पर बयाना निकाला जाता है और मंदिर के पंडित, सास, ननद या किसी जरूरतमंद को ये बयाना दान स्वरूप दे दिया जाता है। बछ बारस के बयाने के लिए एक कटोरी मोंठ, बाजरा रखकर उसके ऊपर रुपया पैसा रख देते हैं। इनको रोली और चावल से छींटा देवें। दोनों हाथ जोड़कर कटोरी को पल्ले से ढककर चार बार कटोरी के ऊपर हाथ फेर लें। फिर स्वयं के तिलक निकालें। यह बायना सास को पांव छुकर देवें। बछ-बारस के दिन बेटे की मां ठंडी रोटी खाती है। इस दिन भैंस का दूध, बेसन, मोंठ आदि खा सकते हैं। इस दिन गाय के दूध से बनी कोई भी सामग्री एवं गेहूं और चावल नहीं खाया जाता है।

जिस साल लड़का हो या जिस साल लड़के की शादी हो उस साल बछबारस का उद्यापन किया जाता है। सारी पूजा हर वर्ष की तरह करे। सिर्फ थाली में सवा सेर भीगे मोठ बाजरा की तरह कुद्दी करें। दो-दो मुट्ठी मोई का (बाजरे की आटे में घी, चीनी मिलाकर पानी में गूँथ लें) और दो-दो टुकड़े खीरे के तेरह कुड़ी पर रखें। इसके ऊपर एक तीयल (दो साड़ियां और ब्लाउज पीस ) और रुपया रखकर हाथ फेरकर सास को छूकर दें। इस तरह बछबारस का उद्यापन पूरा होता है। सवाल ये उठता रहा है कि उद्यापन क्या होता है। किसी भी त्यौहार के लगातार व्रत रखने वाली महिलाएं उद्यापन करती हैं। कहा जाता है कि विवाहिताओं को उद्यापन करना जरूरी होता है। उद्यापन में कई 5, 7 या 11 सुहागनों को पूजा में शामिल कर उन्हें भोजन भी कराया जाता है।




बछ बारस की पौराणिक कहानी
बछ बारस को लेकर कई पौराणिक कहानियां प्रचलित हैं, किन्तु अधिकतम जिस कहानी को व्रत वाले दिन सुना जाता है वह इस प्रकार से है :- 

पौराणिक कथानुसार बहुत समय पहले सुवर्णपुर नामक नगर पर देवदानी नाम का एक राजा राज किया करता था। उसकी दो रानियाँ थी। एक का नाम था सीता’ और दूसरी का गीता। देवदानी एक न्यायप्रिय और धर्मपरायण राजा था।

राजा के पास एक बहुत बड़ी गौशाला थी उसमें बहुत सी गायें और भैंसे थी। रानी सीता को एक भैंस अति प्रिय थी और वो उसका बहुत खयाल रखती थी। वही दूसरी ओर रानी गीता को एक गाय और उसका बछड़ा बहुत ही ज्यादा प्रिय था। वो उस गाय को अपनी सखी मानती थी और उसके बछड़े को अपनी संतान के समान स्नेह करती थी।


रानी गीता और उस गाय में एक दूसरे के प्रति इतना प्यार देखकर रानी सीता और उसकी भैंस उनसे ईर्ष्या करती थी। रानी सीता स्वयं को रानी गीता से श्रेष्ठ मानती थी और उसकी भैंस भी स्वयं को गायों से श्रेष्ठ मानती थी। परंतु गायों को पूजा जाता देखकर उसको बहुत ईर्ष्या होती थी। ईर्ष्यावश एक दिन उस भैंस ने रानी सीता को रानी गीता और उसकी गाय के विषय में भड़काना शुरू कर दिया। भैंस ने कहा इस गाय और बछड़े को सब बहुत प्यार करते हैं। राजा देवदानी भी इस गाय और बछड़े में अधिक रूचि लेते हैं। इस तरह से तो एक दिन तुम और मैं अकेले ही रह जायेंगे। सभी उस गाय-बछड़े और रानी गीता को ही सम्मान देंगे। उसकी बाते सुनकर रानी सीता को क्रोध आगया और असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होकर उसने मौका पाते ही उस गाय के बछड़े को काटकर गेहूँ के ढ़ेर के नीचे दबा दिया।

अपने बछड़े को ना पाकर वो गाय दुखी होकर आंसु बहाने लगी। उसको दुखी देखकर रानी गीता भी व्यथित हो उठी। रानी ने सेवकों को उस गाय के बछड़े को खोजने के लिये कहा परंतु उसका कोई पता नही चल सका। ऐसे ही कुछ ही दिन बीत गयें।
एक दिन राजा जब भोजन करने बैठा तो राजा को भोजन में से बहुत बुरी दुर्गंध आने लगी। उसे सभी तरफ रक्त और मांस ही मांस दिखाई देने लगा। यह देखकर वो भोजन से उठ गया। जैसे ही वो भोजन से उठकर बाहर की तरफ गया तभी बाहर रक्त और मांस के टुकड़ों की बारिश होने लगी। यह सब देखकर राजा बहुत परेशान हो उठा। उसे कुछ भी समझ नही आ रहा था कि ऐसा क्यूँ हो रहा हैं? तब वो अपने गुरू के पास गया।

उसके गुरू बहुत ही ज्ञानी और सिद्ध पुरूष थे। उन्होने अपने तपोबल से यह जान लिया की रानी सीता ने भैंस के भड़काने और असुरक्षा भाव के कारण गाय के बछड़े को मारकर गेहूँ के ढ़ेर के नीचे दबा दिया है!। उन्होने राजा देवदानी को कहा, हे राजन! तुम्हारी रानी ने एक भैंस की बातों में आकर गाय के बछ्ड़े की निर्मम हत्या करके गेहूँ के ढ़ेर के नीचे दबा दिया है। यह सब उसी का परिणाम हैं। जल्द ही बछ बारस (ठंबी ठंतें) आने वाली है उस दिन तुम अपनी रानियों के साथ गाय-बछड़े की पूजा करना। और उस भैंस को नगर से निकाल देना।

राजा ने आकर सारी बात अपनी रानियों से कही, राजा की बात सुनकर रानी सीता को अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने प्रायश्चित करने का निश्चय किया। राजा ने उस भैंस को नगर से बाहर छुड़वा दिया। बछ बारस के दिन पूरे विधि विधान से राजा और रानियों ने गाय और बछड़े का पूजन किया। उस दिन उन्होने कोई भी कटी हुई वस्तु का उपयोग नही किया और ना ही गाय के दूध से बनी किसी वस्तु का उपभोग किया। रानी सीता ने पूजन करके अपनी गलती की क्षमा याचनी करी।

बछबारस की पूजा के प्रभाव से वो गाय का बछड़ा फिर से जीवित हो गया। और उस रानी का पाप भी नष्ट हो गया। बछबारस के दिन गाय और बछड़े के पूजन का विशेष महत्व हैं। ऐसा करने से संतानवती स्त्रियों की संतान दीर्धायु होती हैं। उनके प्राणों पर कोई संकट नही आता।
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- एक अन्य कहानी भी इस प्रकार से है :-

बछ बारस की कहानी – प्रथम
प्राचीन समय की बात है, एक गाँव में एक सास और बहू रहा करती थी। सास बहुत ही धार्मिक थी। नित्य प्रतिदिन मंदिर जाना, पूजा पाठ करना, गौ सेवा करना, यह उसकी दिनचर्या का महत्वपूर्ण काम था। उसकी बहू भी बहुत आज्ञाकारी थी। जो भी उसकी सास कहती वो बिना प्रश्न किये उस कार्य को सम्पादित कर देती थी। उनके पास एक गाय और बछड़ा था। उस गाय का नाम था गेहूँला और उसके बछड़े का नाम था जौला। दोनों सास बहू उस गाय और बछड़े से बहुत प्यार करती थी और खूब मन लगाकर उनकी सेवा भी करती थी। वो गाय भी बहुत ही समझदार थी, प्रतिदिन चरने के लिये छोड़ने पर शाम को स्वयं ही घर पर आ जाती थी।

एक बार सास ने घर पर जौ की बालियाँ लाकर रखी। परंतु वो बहू को उनके विषय में बताना भूल गई। सास हर दिन की भांति प्रात:काल उठकर अपने नित्य कर्मों से निवृत्त होकर मंदिर जाने के लिये तैयार हुई और गाय को चरने के लिये छोड़ दिया। मंदिर जाते जाते उसने अपनी बहू को आवाज लगाकर कहा- बहू मैं मंदिर जा रही हूँ। जब तक मैं वापस लौट कर आँऊ तब तक तू जौ लाकर, काटकर उबालने के लिये रख देना। बहू को घर पर रखें जौ के विषय में कुछ भी पता नही था। उसको अपनी सास की बात सुनकर ऐसा लगा कि उसकी सास ने उसे जौला यानी गाय के बछड़े को काटकर उबालने के लिये कहा हैं।


यह सुनकर वो सोच में पड़ गई, कि आज सासू माँ ने कैसी बात कह दी? अगर मैं उनकी बात मानती हूँ, तो मुझे इस निरिह बछड़े की हत्या करनी पड़ेगी। जिससे मुझे गौहत्या का पाप लगेगा। लेकिन अगर उनकी बात नही मानती हूँ और उनके कहे अनुसार नही करती हूँ तो उनकी अवज्ञा होगी। वो भी मेरे लिये पाप के समान ही हैं।

वो इसी धर्मसंकट में उलझ गई थी। बैठी – बैठी यही सोचे जा रही थी क्या करें? और क्या न करें? अंत में उसने अपनी सास की आज्ञा का पालन करना ही अपना धर्म जाना और गाय के बछड़े जौला को काटकर बर्तन में उबालने के लिये रख दिया। परंतु उस बछड़े की हत्या करके उसके मन को बिल्कुल भी चैन नही मिल रहा था और वो उसका दुख मान कर बस रोये जा रही थी।
जब उसकी सास वापस आयी तो उसकी आँखें घर का दृश्य देखकर आश्चर्य से फटी रह गई। घर में खून ही खून फैल रहा था। जहाँ-तहाँ खून के धब्बे देखकर उसने अपनी बहू को आवाज लगाई। उसकी बहू रोती हुई उसके सामने आगई। तब सास ने उससे पूछा कि यह घर में खून कहाँ से आया? तब बहू ने सास को उसकी आज्ञा याद करायी और कहा कि यह रक्त जौला का है। मैंने आपके कहे अनुसार उसको काटकर उबालने के लिये रख दिया हैं।

बहू की बात सुनकर सास ने उसे कहा मैंने तुम्हे घर में रखें जौ काटकर उबालने के लिये कहा थी ना कि गाय के बछड़े जौला को काटकर उबालने के लिये कहा था। यह सुनकर बहू अपनी सुधबुध खो बैठी। उसकी सास का भी दुख के मारे बुरा हाल हो गया। तब सास ने हिम्मत करके अपनी बहू को सम्भाला और उसे अपने साथ अपने ईष्ट देव के मंदिर लेकर गई। वहाँ पहुँच कर दोनो सास-बहू हाथ जोड़कर उनके आगे खड़ी हो गई।

उनके सामने बारम्बार माथा टेककर, नाक रगड़कर बहू की उस गलती के लिये क्षमा माँगने लगी। सास ने कहा- हे प्रभु! मैंने सदा ही आपका ध्यान और पूजन सच्ची श्रद्धा एवं भक्ति के साथ किया हैं। हमेशा धर्म का पालन किया। मेरी आपसे विनती है कि यदि मेरी बहू ने यह सब जानबूझकर किया है, तो इसे सजा दो और अगर इससे यह भूल वश हुआ है, तो इसे क्षमा करों और उस बछड़े को पुन: जीवित कर दो। दोनो सास बहू मंदिर में भूखी-प्यासी ईश्वर का ध्यान करती रही।

जब शाम होने लगी तब उन्हे लगा कि अब गाय चरकर वापस आने वाली होगी और अपने बछड़े को जीवित ना पाकर उसका क्या हाल होगा? यही सोचकर वो मंदिर से घर के लिये रवाना हो गई। घर पहुँच कर उन्होने देखा की गाय भी आ चुकी है। सास-बहू आगे के बारे में सोचकर भयभीत हो रही थी, तभी जैसे ही गाय रम्भाते हुये घर की तरह बढ़ी उसका बछड़ा घर के अंदर से दौड़ता हुआ अपनी माँ के पास आ गया।

यह देखकर सास बहू दोनो विस्मित हो गई और बार-बार ईश्वर का धन्यवाद देने लगी। तब उन्होने घर आकर उस गाय और बछड़े की खूबा सेवा करी। तबसे स्त्रियाँ अपनी संतान की रक्षा और लम्बी आयु के लिये बछ बारस का व्रत एवं पूजा-अर्चना करती हैं।

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