कभी राजीव गांधी के भी खास थे सुब्रमण्‍यम स्वामी





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सोनिया ही नहीं, इंदिरा गांधी से भी टकरा चुके हैं सुब्रमण्‍यम स्‍वामी, जानिए कई और खास बातें
सुब्रमण्‍यम स्‍वामी एक जमाने में राजीव गांधी के करीबी दोस्‍त हुआ करते थे। ये वही स्‍वामी हैं, जिन्‍होंने बोफोर्स कांड के वक्‍त खुलकर राजीव गांधी का पक्ष लिया था, लेकिन एक वक्‍त ऐसा भी था जब वह तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी टकरा गए थे।
जनसत्ता ऑनलाइन
नई दिल्‍ली | December 19, 2015
http://www.jansatta.com/national
कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ नेशनल हेराल्‍ड मामले में कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले सुब्रमण्‍यम स्‍वामी एक जमाने में राजीव गांधी के करीबी दोस्‍त हुआ करते थे। ये वही स्‍वामी हैं, जिन्‍होंने बोफोर्स कांड के वक्‍त खुलकर राजीव गांधी का पक्ष लिया था। स्‍वामी ने सदन में खुलकर कहा था कि राजीव गांधी ने पैसा नहीं लिया है। एक इंटरव्यू में उन्‍होंने खुद इस बात को स्‍वीकार किया था कि राजीव गांधी और वह घंटों साथ रहा करते थे। एक जमाना वो भी था, जब स्‍वामी आयरन लेडी इंदिरा गांधी से टकरा गए थे और कोर्ट से जीतकर भी आए थे। सुब्रमण्‍यम स्‍वामी के पिता सीताराम सुब्रमण्यम जाने-माने गणितज्ञ थे। वह एक समय में केंद्रीय सांख्यिकी इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हुआ करते थे। अपने पिता की तरह स्वामी भी गणितज्ञ बनना चाहते थे। उन्होंने हिंदू कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री ली। इसके बाद वह भारतीय सांख्यिकी इंस्टीट्यूट में पढ़ने के लिए कोलकाता चले गए थे। स्वामी के जीवन का विद्रोही गुण पहली बार कोलकाता में जाहिर हुआ। उस वक्त भारतीय सांख्यिकी इंस्टीट्यूट, कोलकाता के डायरेक्टर पीसी महालानोबिस थे, जो स्वामी के पिता के प्रतिद्वंद्वी थे। लिहाजा उन्होंने स्वामी को खराब ग्रेड देना शुरू किया। स्वामी ने 1963 में एक शोध पत्र लिखकर बताया कि महालानोबिस की सांख्यिकी गणना का तरीका मौलिक नहीं है, बल्कि यह पुराने तरीके पर ही आधारित है। सुब्रमण्‍म स्वामी ने सिफ 24 साल की उम्र में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल कर ली थीं और 27 साल की उम्र में वह हार्वर्ड में गणित पढाने लगे थे। 1968 में अमृत्य सेन ने उन्‍हें दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में पढ़ाने का निमंत्रण दिया था। इसके बाद वह दिल्ली आ गए और 1969 में आईआईटी दिल्ली में पढ़ाने लगे। सुब्रमण्‍यम स्‍वामी ने आईआईटी के सेमिनारों में पंचवर्षीय योजनाओं का खुलकर विरोध भी किया। उन्‍होंने विदेशी पूंजी निवेश पर निर्भरता को भी भारत के लिए नुकसान दायक बताया। उनका दावा था कि भारत इसके बिना भी ऊंची विकास दर हासिल कर सकता है। इंदिरा गांधी की नाराजगी के चलते सुब्रमण्‍यम स्वामी को दिसंबर 1972 में आईआईटी दिल्ली की नौकरी गंवानी पड़ी थी। वह इसके खिलाफ अदालत गए और 1991 में अदालत का फैसला स्वामी के पक्ष में आया। वे एक दिन के लिए आईआईटी गए और फिर पद से इस्तीफा दे दिया था। नानाजी देशमुख ने स्वामी को जनसंघ की ओर से राज्यसभा में 1974 में भेजा था। आपातकाल के 19 महीने के दौर में सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी थी। इस दौरान उन्होंने अमेरिका से भारत आकर संसद सत्र में हिस्सा भी ले लिया और वहां से फिर गायब भी हो गए थे। 1977 में जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे थे। 1990 के बाद वे जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। 11 अगस्त, 2013 को उन्होंने अपनी पार्टी का विलय भारतीय जनता पार्टी में कर दिया। सोनिया गांधी को मुश्किल में डालने वाले स्वामी ने 1999 में वाजपेयी सरकार को गिराने की कोशिश की थी। इसके लिए उन्होंने सोनिया और जयललिता की अशोक होटल में मुलाकात भी कराई। हालांकि, ये कोशिश नाकाम हो गई। इसके बाद वह हमेशा गांधी परिवार के खिलाफ ही नजर आए। 
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हेराल्ड मुद्दे पर कभी मोदी से बात नहीं की: स्वामी

नई दिल्ली, एजेंसी First Published:19-12-2015
http://www.livehindustan.com
 नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अदालत में घसीटने वाले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने आज कहा कि उनकी इस मामले में कभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात नहीं हुई है।

कांग्रेस के नेताओं का आरोप है कि स्वामी प्रधानमंत्री के मुखौटे हैं और उनकी शह पर वह कांग्रेस नेतृत्व को बदनाम कर रहे हैं।

स्वामी ने इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि उनकी कभी भी इन मामले में मोदी से बात नहीं हुई है। उन्होंने कहा कि अदालत में तथ्यों पर बात होती है और सियासत की बात करना बेमानी है। तथ्यों के आधार पर ही अदालत में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को समन भेजा था।

भाजपा नेता ने कहा उन्होंने अदालत में कांग्रेस के नेताओं को उस कोने में खड़े होना पड़ा जहां आरोपी खड़े होते हैं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की जमानत का विरोध किया लेकिन अदालत ने उनकी अपील नहीं मानी।

नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान मिली थी जेड सुरक्षा: स्वामी
अपनी जेड सुरक्षा में विस्तार किये जाने के मुद्दे पर भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कांग्रेस की आलोचना का जवाब देते हुए आज कहा कि उन्हें यह सुरक्षा पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार के कार्यकाल में मिली थी जिसे बाद में संप्रग सरकार ने हटा लिया था।

नेशनल हेराल्ड मामले में शिकायतकर्ता स्वामी ने कहा कि उन्हें राव के नेतत्व वाली कांग्रेस सरकार ने जेड श्रेणी की सुरक्षा दी थी। उन्होंने कहा कि पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने इसमें कटौती कर दी थी और केवल कुछ राज्यों में ही यह उपलब्ध थी।

स्वामी ने कहा, जब हमारी (भाजपा) सरकार आई तो उन्होंने कहा कि यह अन्याय है और मुझे दोबारा सुरक्षा उपलब्ध करा दी जो मुझे राव के कार्यकाल में मिली थी। उन्होंने कहा, अब मुझे नहीं पता कि क्या वे (कांग्रेस) नरसिम्हा राव को भाजपा का आदमी मानते हैं।

हेराल्ड मामले में आज कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी तथा अन्य के अदालत में पेश होने के बीच स्वामी ने कांग्रेस की निन्दा की और दावा किया कि वह भयभीत है क्योंकि वह मामले को हार रही है और इसीलिए, इसके कार्यकर्ताओं ने जुलूस निकाले और जमावड़ा किया।

उन्होंने कहा, इस तरह जुलूस निकालने और भीड़ के जमावड़े से़ बहुत से इंतजाम भी किये गये। इससे दुनिया को संदेश जाएगा कि हमारे देश में सब बराबर नहीं है और लोकतंत्र अच्छी तरह से स्थापित नहीं है।

स्वामी ने कहा, मैं कांग्रेस को बता दूं, क्योंकि आपका नाम खराब हुआ है़, आप मामले को हार रहे हैं, इसीलिए आप यह सब कर रहे हैं। यदि आप जीत रहे हैं तो मुस्कान लिए अदालत जाएं।

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POLITICS

TERMINAL CRISIS 

With the BJP setting its face against giving in to the demands made by coalition partner Jayalalitha and the AIADMK leader deciding to look for new political partners, the Government at the Centre faces the toughest test in its year-long career.
SUKUMAR MURALIDHARAN
in New Delhi
Just a fortnight into its second year, the Atal Behari Vajpayee Government was witnessing the script of its demise being authored from three different directions. In Chennai, All-India Anna Dravida Munnetra Kazhagam leader Jayalalitha was preparing to take her bloc of 19 in the Lok Sabha out of the ruling coalition. Although willing to grant the Prime Minister a reasonable length of time in which to concede her demands, she was fairly categorical that the gravity of her warning this time around was of a different order compared to previous instances.
At several points of time in the past the reluctant partners have gone to the verge of parting ways, only to retreat in an air of feigned mutual goodwill. But things are clearly different this time around. A meeting of the Union Cabinet on April 5 saw the entire AIADMK contingent staying away. At his customary media briefing following the Cabinet meeting, Union Minister Pramod Mahajan refused to be drawn out on the issue. It is for the AIADMK members to decide whether any useful purpose would be served by their continuance in the Cabinet, he said.
Meeting concurrently in Panaji, the Bharatiya Janata Party National Executive set its face against making the slightest concession to its truculent ally from Chennai. Parliamentary Affairs Minister Rangarajan Kumaramangalam was particularly obdurate. After having precipitated the confrontation through a sharp jibe against Jayalalitha, he insisted that he saw no cause for contrition. The ultimatum that the AIADMK chief should either conform or quit was made in his personal capacity and hence called for no apology.
It is of course an inherent curiosity of the situation that Kumaramangalam thought little of putting the future of the ruling coalition at stake in the cause of expressing his personal opinion. But then, the BJP-led coalition at the Centre has been nothing if not a curious amalgam where personal proclivities acquire a disproportionate political moment.
As the principal belligerents in Goa and Chennai were preparing for their climactic engagement, a supporting cast in Delhi was being primed for the drama that will inevitably ensue. The BJP made known its intention to seek a vote of confidence in the Lok Sabha as an effort to counter Jayalalitha's threat of withdrawal of support. But Subramanian Swamy, a one-time bitter opponent who transformed himself into a loyal strategist and factotum of the AIADMK boss, was already launched on his strategy of preemption. A no-confidence motion would be introduced as soon as the Lok Sabha resumed its Budget session on April 15, said Subramanian Swamy. Speaking with the fervour of a man recently restored to political relevance, the Janata Party leader affirmed that the AIADMK's withdrawal from the BJP-led coalition would lead not merely to the collapse of the Vajpayee Government, but also the constitution of an alternative formation which would be far more stable and efficient.
For the BJP-led coalition, the reckless and ill-considered dismissal of an armed forces commander in December seemed to be inexorably leading to the outcome that the more perceptive observers had predicted right then. Having ventured out early to do battle against a man he chose to portray as a mutinous Admiral, Defence Minister George Fernandes was forced to retreat for fear of suffering mortal injury from the sense of outrage he had stirred up. He then chose to initiate a sustained campaign of attrition through the media, again emerging distinctly the loser.
The moment of reckoning came when Parliament met for its Budget session. The initial recourse was to the strategy of evasion. The Government would not concede the demand for a parliamentary discussion on the matter of Admiral Vishnu Bhagwat, said Fernandes, because of the sensitive national security issues involved.
In the desperation of the moment, Fernandes was clearly prepared to economise on the truth and run perilously close to inviting charges of misleading Parliament. But every effort to dodge the norms of parliamentary accountability only seemed to accelerate the pace of events. By persistently rebuffing the minimal demand for a debate on the Bhagwat issue, the Vajpayee Government only succeeded in eliciting a maximal set of demands from within its own ranks.
Jayalalitha began with the observation that a Joint Parliamentary Committee inquiry into the Bhagwat affair seemed both appropriate and necessary. She then proceeded to put two other options before the Government, either of which would seemingly have satisfied her - that Bhagwat be reinstated in command of the Navy or that Fernandes be moved out of the Defence Ministry and given a less sensitive portfolio.
Further stonewalling by the Government led in quick time to the compounding of these demands. Jayalalitha's minimal requirement today is that all three conditions be met - the constitution of a JPC, the dismissal of Fernandes and the reinstatement of Bhagwat. There is no escape hatch visible, since the consequence of accepting any one of these demands would be to invite a withering assault on the Vajpayee Government from another flank.
Apologists for the Government are trying to cast the current crisis in a continuum with Jayalalitha's established record of whimsical behaviour. This has failed to carry any conviction. Reasonable opinion seems overwhelmingly in favour of Jayalalitha on the Bhagwat issue. Indeed, the indications are that the Government quite deliberately raised the pitch of confrontation in its latest skirmish with Jayalalitha, precisely because it could not conceive of submitting to any form of inquiry on the circumstances leading up to the dismissal of Admiral Bhagwat.
Unmindful of his status as the man whose conduct in office was under scrutiny, Fernandes was designated as the official spokesman for the ruling coalition's Coordination Committee meeting of March 27. As was to be expected, he sought to put a gloss of unanimity over the committee's deliberations. This was another instance in a consistent record of misrepresenting facts, since the Coordination Committee was by no means unanimous on the Bhagwat question. Jayalalitha had endorsed the demand for a further inquiry, and was overruled by the rest of the committee, but clearly affirmed that she did not share the opinion of the majority.
ANU PUSHKARNA
At the ruling coalition's Coordination Committee meeting held in New Delhi on March 27, (from left) Defence Minister George Fernandes, Punjab Chief Minister Prakash Singh Badal, AIADMK leader Jayalalitha, Prime Minister A.B. Vajpayee, Home Minister L.K. Advani and Biju Janata Dal leader Naveen Patnaik.
THERE was obviously an unseen hand controlling the orchestrated reactions of outrage at Jayalalitha's subsequent public utterances. Rangarajan Kumaramangalam came up with his justly famous "conform or quit" ultimatum. Digvijay Singh of the Samata Party deprecated the AIADMK's persistent breaches of coalition decorum. More provocatively, Trinamul Congress leader Mamata Banerjee called into question Jayalalitha's entire record in politics, pointedly drawing attention to the multiplicity of corruption cases against her.
The reaction from the AIADMK headquarters was swift. The BJP leadership only needed to drop the slightest hint and the party's representative would be at the gates of Rashtrapati Bhavan to inform the President that the Vajpayee Government no longer enjoyed its confidence. There was no solace to be gained from the belief that no alternative coalition could be worked out within the prevailing calculus of the Lok Sabha. The AIADMK seems altogether more positive about an alliance with the Congress today, or as its formal response to the Kumaramangalam ultimatum puts it - the traditional ally which was cleansed of its undesirable elements in 1996 offers more constructive options in political cooperation today than the BJP.
RAJEEV BHATT

Congress(I) president Sonia Gandhi flanked by Janata Party president Subramanian Swamy and Jayalalitha at the tea party in New Delhi on March 29.


Finally it is the chemistry between two women politicians - Jayalalitha and Congress(I) president Sonia Gandhi - that seems to be driving the new phase of political engagement. Their meeting at a tea party hosted by Subramanian Swamy in New Delhi was brief. Little of substantive political import could have been discussed, though Jayalalitha chose in rather poor taste to describe the event as a "political earthquake", trivialising the tragedy that had affected a vast swathe of northern India just the previous day. But for all the sense of anticipation that had been generated in the preceding days, the actual meeting between the two leaders seemed rather inconsequential.
A degree of coordination, though, is apparent in the manner in which the two leaders have chosen to focus their attack on a point of extreme vulnerability for the BJP-led Government. Yet it remains to be seen how far they will be able to work out mutually acceptable rules of engagement, beyond their common endeavour to hold Fernandes accountable for the Bhagwat affair. Jayalalitha has repeatedly shown over the past year that without a bailiwick in Chennai to keep her occupied, she can be a persistent threat to the political dispensation at the Centre. If they want to work out a viable arrangement among themselves, the Congress(I) would have, if anything, to be even more attentive to her multiple insecurities than the BJP has been.
Political modesty has seldom been an attribute that could be applied to Jayalalitha. Since she arrested what seemed an irreversible plunge into electoral oblivion to emerge as the most important prop of the BJP-led Government at the Centre, the whimsical and imperious chief of the AIADMK has been the focus of much speculative psychological analysis. It seemed for long that deep political insecurities were her only motivation. She had ample reason to worry. Her five years at the helm in Tamil Nadu had ended in the most ignominious rout ever of an incumbent Chief Minister. And the successor Government led by bitter rival M. Karunanidhi had set in motion legal proceedings in a clutch of corruption cases, in the evident belief that summary conviction was the only way to quell any possible challenge she may pose in future.
The dismissal of the elected State Government in Tamil Nadu is obviously the outcome that Jayalalitha has sought, though the curbing of its lawful authority to punish gross financial malfeasance would have been a satisfactory stop-gap arrangement. In having coerced the BJP-led Government at the Centre to trample upon judicial proprieties and its own sense of morality, Jayalalitha seemed, not long ago, to have achieved her main purpose. But just when the law officers of the Central Government were putting their efforts into rationalising the disbanding of the special courts that the Karunanidhi Government had constituted exclusively for cases relating to her, Jayalalitha has chosen to open another front in her battle with the Vajpayee Government.
K. PICHUMANI
Defence Minister George Fernandes. Jayalalitha's demand for shifting him from the Defence Ministry is at the heart of the latest confrontation between the BJP and the AIADMK leader.
TO those who believe that politics is all about rational calculation and the careful evaluation of all possibilities, this must seem a rather wild and impulsive pattern of behaviour. But an innate sense of shrewdness is evident in the manner that Jayalalitha has mounted pressure on the BJP and its other allies over their most obvious administrative misdemeanours. First it was the transfer last September of the upright and energetic Director of the Enforcement Directorate, M.K. Bezboruah - a decision the BJP had to rescind under the pressure of judicial stricture, but not before suffering a stinging rebuke from its ally in Tamil Nadu. Now it is the dismissal of a Chief of the Naval Staff for reasons still unclear, but known to be unsavoury in the extreme.
M. MOORTHY
Parliamentary Affairs Minister P.R. Kumaramangalam. His sharp jibe against Jayalalitha precipitated the differences between the BJP and the AIADMK leader.
Further movement would depend upon the inclinations of the Congress(I), in particular upon its willingness to enter into a coalitional arrangement that would be replete with the potential for threats and blackmail. The Left parties would be key players in the emerging scenario, but they are yet unwilling to discuss any specific commitments. Before doing so, they would need to sort out several dilemmas related to their participation in the revival of the Third Force. The Rashtriya Loktantrik Morcha (or the alliance of the two Yadav chieftains of Uttar Pradesh and Bihar) is likely to have fewer compunctions, though in the long term, the Congress(I) strategy for reinventing itself designates their traditional constituencies as the prime focus of attention.
Whatever contours the new alignments take, there is no denying that they will be as laden with the potential for conflict as anything seen till now. This is part of the reason the Congress(I) has been noticeably reticent about forcing the pace of events. Between dealing with the cumbersome arithmetic of the 12th Lok Sabha and starting life anew after a fresh round of elections, the Congress(I) clearly prefers the latter. For this and a variety of other reasons, it would seem a safe bet that India could witness another round of elections before the end of the year and the turn of the century. And yet, it may be not quite so safe a guess that the new century will bring a new paradigm of politics or the prospect of greater stability.
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कभी राजीव गांधी के करीबी रहे सुब्रमण्यम स्वामी के अब तक के सफर की कहानी...
Reported by NDTVKhabar.com team , Last Updated: शनिवार दिसम्बर 19, 2015

अखबार मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी को कोर्ट ले जाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी हमेशा से अलग-अलग कारणों से चर्चित रहे हैं। स्वामी को गणित और आर्थिक मामलों के साथ-साथ कानून का भी जानकार माना जाता है। वे कभी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के करीबी हुआ करते थे, तो समय-समय पर भाजपा के भी खास रहे हैं। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी ने हमेशा उनसे दूरी रखने की कोशिश की, फिर भी भाजपा के कुछ बड़े नेताओं का उनसे जुड़ाव रहा। हम आपको स्वामी के अब तक के सफर के बारे में बताने जा रहे हैं :  
गणितज्ञ बनने का था सपना: सुब्रमण्यम स्वामी का सपना अपने पिता की तरह गणितज्ञ बनने का था। गौरतलब है कि उनके पिता सीताराम सुब्रमण्यम प्रसिद्ध गणितज्ञ थे। सुब्रमण्यम स्वामी ने हिंदू कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री ली। इसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए भारतीय सांख्यिकी इंस्टीट्यूट कोलकाता चले गए। (यह भी पढ़ें- सुब्रमण्‍यम स्‍वामी को बंगला और जेड सुरक्षा हमें फंसाने का ईनाम है : कांग्रेस)
सांख्यिकी में शोध: स्वामी ने सांख्यिकी पर शोध भी किया है। उन्होंने 1963 में एक शोध पत्र लिखा। इसमें उन्होंने बताया कि महालानोबिस की सांख्यिकी गणना का तरीका मौलिक नहीं है, बल्कि यह पुराने तरीके पर ही आधारित है।
ऐसे आए दिल्ली: सुब्रमण्यम स्वामी ने महज 24 साल की उम्र में ही हॉवर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल कर ली थी। इसके बाद 27 साल में उन्होंने हॉर्वर्ड में ही गणित की टींचिंग शुरू कर दी थी। बाद में अमर्त्य सेन ने 1968 में स्वामी को दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया और स्वामी दिल्ली आ गए। साल 1969 में वे आईआईटी दिल्ली से जुड़े। (यह भी पढ़ें- सोनिया-राहुल गांधी को न होगी जेल, न लेनी पड़ेगी बेल)
एक दिन के लिए वापस गए, फिर इस्तीफा दिया: स्वामी के अलग-अलग सेमीनारों में दिए गए आर्थिक सुधार संबंधी विपरीत बयानों से इंदिरा गांधी नाराज हो गईं। बाद में उन्हें दिसंबर, 1972 में आईआईटी दिल्ली की नौकरी से बाहर कर दिया गया। लगभग यहीं से स्वामी की अदालती लड़ाई का दौर शुरू हुआ। उन्होंने इस फैसले के खिलाफ कोर्ट में अपील की। इतना ही नहीं साल 1991 में इसका फैसला भी उनके पक्ष में आया। स्वामी ने एक दिन के लिए आईआईटी ज्वाइन किया और फिर इस्तीफा दे दिया।
1974 में पहुंचे राज्यसभा: एक तरह से स्वामी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1974 में हुई, जब नानाजी देशमुख ने जनसंघ की ओर से उनको राज्यसभा में भेजा।
जनता पार्टी की स्थापना: सुब्रमण्यम स्वामी 1977 में जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। साल 1990 के बाद जनता पार्टी के अध्यक्ष भी रहे।
राजीव से नजदीकी: स्वामी एक समय राजीव गांधी के करीबी थे। उन्होंने बोफोर्स कांड के दौरान राजीव गांधी का समर्थन किया था। यहां तक कि उन्होंने सदन में सार्वजनिक तौर पर कहा था कि राजीव ने कोई पैसा नहीं लिया है।
वाणिज्य एवं कानून मंत्री: स्वामी को प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार में वाणिज्य एवं कानून मंत्री बनाया गया था। नरसिम्हा राव सरकार के समय भी विपक्ष में होने के बावजूद उनको कैबिनेट रैंक का दर्जा मिला हुआ था।
भाजपा से नरम-गरम रहा रिश्ता: सुब्रमण्यम स्वामी ने 1999 में भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को खतरे में डाल दिया था। दरअसल इस गठबंधन सरकार की अहम सहयोगी जयललिता ने स्वामी को वित्त मंत्री बनाने की जिद पकड़ ली थी। स्वामी ने भी सरकार गिराने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने जयललिता और सोनिया गांधी को करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके लिए स्वामी ने मार्च, 1999 में चाय-पार्टी आयोजित की, जिसमें उन्होंने सोनिया और जयललिता को आमंत्रित किया, जिससे दोनों करीब आ गईं। हालांकि वे सरकार गिराने की कोशिश में सफल नहीं हो पाए। लालकृष्ण आडवाणी हमेशा से स्वामी को पार्टी में वापस चाहते थे, हालांकि वाजपेयी के रहते वे भाजपा में पैर नहीं जमा पाए, लेकिन 11 अगस्त, 2013 को अपनी पार्टी का विलय भारतीय जनता पार्टी में कर दिया। बाद में 2014 के चुनावों से ठीक पहले पीएम नरेंद्र मोदी ने स्वामी को वापस बीजेपी में शामिल करा लिया।
नेशनल हेराल्ड से पहले भी सोनिया गांधी के लिए स्वामी मुसीबतें खड़ी कर चुके हैं। उन्होंने उन पर पुरातत्व की चीजों की तस्करी का मामला दर्ज कराया था। इसके साथ ही वे उनकी शैक्षणिक योग्यता को भी चुनौती दे चुके हैं।
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