हाड़ी राणी : बून्दी की हाड़ा राजकुमारी “सलह कंवर”








 









बूंदी- (कृष्ण कान्त राठौर )
हिन्दी के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह दिनकर की वें पंक्तियाँ राजस्थान की धरा को अमरत्व प्रदान करती हैं, जिनमें कहा था कि ‘‘मैं इस धरा पर कदम रखता हूँ तो मेरे पैर एकाएक ठहर जाते हैं, हृदय सहम जाता हैं, कहीं मेरे पैरों के नीचे किसी वीर की समाधी या बीरांगणा का थान न हो। राजस्थान की इस वीर प्रसूता धरती पर जहाँ बप्पा रावल, महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौड, गौरा बादल, हम्मीर का शौर्य पला बढ़ा, तो अपने स्वाभिमान और सतीत्व की रक्षा के लिए यहाँ की वीरांगनाऐं सहर्ष जौहर की ज्वाला मे कूद पड़ी। चाहे वह महारानी पद्मिनी हो या हाड़ीरानी कर्मावती या फिर रणथंभौर में जल जौहर करने वाली रानी रंगादेवी हो। राजस्थान की इस धरती पर एक नहीं अनेक जौहर हुए हैं, जो वीरांगनाओं के बलिदान को याद दिलाता हैं। इन्हीं वीरांगनाओं की श्रृंखला मे एक नाम ओर हैं, जो अपने अप्रतिम बलिदान से न केवल भारत मे अपितु सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में राजस्थान की धरती के साथ अपनी जन्मस्थली ‘बून्दी’ और कर्मस्थली ‘सलूम्बर’ का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित कर गई। बून्दी की धरती को अपने बलिदान से गौरवान्वित करने वाली रानी कर्मावती, जिसने सैंकड़ों वीर छत्राणियों के साथ जौहर किया, तो 17वीं शताब्दी मे जन्मी हाड़ा राजकुमारी “सलह कंवर” ने अपने कर्तव्य को निभाने के लिए युद्ध मे जाते हुए अपने पति को अपना सिर काट कर निशानी के रूप मे भिजवा दिया।

इतिहासकार दुर्गाप्रसाद माथुर के खंड काव्य ‘मुण्ड मणि’ के अनुसार बून्दी के सामन्त संग्राम सिंह की पुत्री सलह कंवर का जन्म माध बुदी पंचम तिथि को हुआ था। हाड़ाओं की यशोगाथाओं के बीच पली बढ़ी हाडा राजकुमारी का विवाह सलूम्बर के रावत रतन सिंह के साथ बून्दी नगर में बड़ी धूमधाम से हुआ था। विवाह पश्चात् नवविवाहित युगल सलूम्बर के महलों की ओर अग्रसर थें, उसी दौरान रूपनगर की राजकुमारी चारूमती ने औरंगजेब का विवाह प्रस्ताव ठुकरा कर मेवाड़ के महाराणा राज सिंह को पत्र भेजकर वरण कर लिया। जिसे पाकर महाराणा राज सिंह ने ससैन्य रूपगनर के लिए प्रस्थान किया और मार्ग में औंरंगजेब को रोकने के लिए सलूम्बर के रावत रतन सिंह को किशनगढ़ के आगे सैना सहित जाने का आदेश शार्दूल सिंह से भिजवाया।

अरमान सुहाग-रात रा ले, छत्राणी महलां में आई
ठमकै सूं ठुमक-ठुमक छम-छम चढ़गी महलां में सरमाई
पोढ़ण री अमर लियां आसां,प्यासा नैणा में लियां हेत
चुण्डावत गठजोड़ो खोल्यो, तन-मन री सुध-बुध अमित मेट
पण बाज रही थी सहनाई ,महलां में गुंज्यो शंखनाद
अधरां पर अधर झुक्या रह गया , सरदार भूल गयो आलिंगन
राजपूती मुख पीलो पड्ग्यो, बोल्यो , रण में नही जवुलां
राणी ! थारी पलकां सहला , हूँ गीत हेत रा गाऊंला
आ बात उचित है कीं हद तक , ब्या“ में भी चैन न ले पाऊ ?
मेवाड़ भलां क्यों न दास, हूं रण में लड़ण नही ञाऊ
बोली छात्रणी, “नाथ ! आज थे मती पधारो रण माहीं
तलवार बधांधो , हूं जासूं , थे चुडो पैर रैवो घर माहीं।।

यहाँ कवि मेघराज मुकुल ने कविता में वर्णन करते हुऐ लिखा हैं कि  वैवाहिक पलों मे जब हरेक के मन में शहनाई के सुर गुंजायमान हो रहे थे, उन्हीं क्षणों में युद्ध के शंखनाद के साथ रावत रतन सिंह का मित्र शार्दूल सिंह महाराणा का संदेशा ले आया। पत्र पढ़ कर रतन सिंह अपनी पत्नी के प्रेम मे रत युद्ध मे जाने से इनकार कर देता हैं, ऐसे मे हाड़ा कुमारी स्वयं युद्ध मे जाने की बात कह कर रावत रतन सिंह को तैयार कर युद्ध के लिए सोने की से तलवार सौंप रक्त तिलक करती हैं। हर्षित हो व्याकुल से हाड़ा राजकुमारी महल के झरोखें से युद्ध में जाते अपने पति को देखती हैं।

मुण्ड मणि में दुर्गा प्रसाद माथुर ने लिखा हैं कि….
“उर में सपन, सरस थरफ, पकड़ रह्यो अचल।
झांक्यो जद, झरोखें राव, अन्तःपुर न दीखी रानी।
रण सूँ यों हताश हुयो, जोबन गयो, मचल मचल।
सेवक भेज्यो,  तुरत फिर, लेवण सूँ सैंनाणी।“
युद्ध में जाते समय रावत रतन सिंह अंतिम बार महलों की देखता  हैं और सेवक को भेज कर रानी से निशानी लाने को कहता हैं। रानी पत्नी प्रेम में बंधे रावत की विवशता जान कर्तव्य बोध करवाने के लिए अपना शीश काट कर अंतिम निशानी देती हैं। वर्णन करते हुए दुर्गा प्रसाद माथुर लिखते हैं कि…
“पीउ-संदेश, मिल्यो जद वधु, तन मन में उठी।
गयो क्षत्रिय, रगत उफण, बिफर गई, हाड़ी राणी।
खड़ग काढ़, रणचण्डी बण, बार बार, लल्कार उठी।
बोली चर सूँ, लेज़ा, काट शीश, दी सैनाणी।“

रावत रतन सिंह निशानी में रानी का शीश पाकर आहत हो उठा और निशब्द हो कवि मेघराज मुकुल के शब्दों में यूँ कह उठा…

“तूँ भली सैनाणी दी है राणी! है धन्य धन्य तू क्षत्राणी
हूं भूल चुक्यो हो रण पथ ने, तू भलो पाठ दीन्यो राणी “

यह कह आवेशित रावत हाड़ी राणी के शीश की माला पहन औरंगजेब को परास्त करने के लिए सेना सहित प्रस्थान कर गया, चारूमती से विवाह की ठान कर 2 लाख सेना सहित जा रहे औरंगजेब को रास्ते में रोकने में सफल रहा, परन्तु तीन दिन चले युद्ध में चैत्र पूर्णिमा के दिन रावत रतन सिंह बलिदान हो गया ।इस नव विवाहित युगल के बलिदान के समाचार सुन महाराणा राजसिंह नत मस्तक हो, दुर्गा प्रसाद माथुर के शब्दों में  बोल पड़ा कि….

“अरि-दल उतार, असि घाट, हरख्यों, जय लख, चुड़ावत।
खेत रह्यो, कट,मुगल-दल, सुण, हुयो, गद् गद्, राणों।
आत्म-बलि, नवल-वधु लख, बोल्यो बिलख, विदुर्-रावत।
धन्य हुई, हाड़ी राणी, दे, तू खूनी – निजरानों।

स्त्री सामर्थ्य और स्त्री सशक्तिकरण की बात करने वालों के लिए ऐसा अप्रतिम उदाहरण केवल राजस्थान की मिट्टी पर ही मिल सकता हैं, जहाँ अपने पति को कर्तव्य बोध करवाने के लिए एक नवविवाहिता पत्नी स्वयं अपना शीश काट कर भेंट कर देती हैं, यह सोच कर कि कहीं युद्ध में जा रहा उसका पति प्रेम मोह में बंध कर युद्ध में अपने पराक्रम का कौशल न दिखा पाए या युद्ध से पीठ न दिखा जाए। ऐसा उदाहरण सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में कहीं प्रतीत नहीं होता। हाड़ा राज कुमारी “सलह कंवर” अपनी पूर्ववर्ती बून्दी की हाड़ा राजकुमारियों चाहें चित्तौडगढ़ के जौहरकुंड में सैंकड़ों वीरांगनाओं के साथ जौहर की ज्वाला का रमण करने वाली रानी कर्मावती हो या वह हाड़ी रानी कर्मावती हो जिसनें अपने पति जोधपुर के नरेश जसवन्त सिंह के लिए दुर्ग के दरवाजें न खोलने का आदेश दिया हों, उन सबसें एक कदम आगे निकल कर अपना शीश ही समर्पित कर दिया। ऐसी हाड़ा राजकुमारी सलह कंवर पूरे विश्व के इतिहास में हाड़ी रानी के नाम से विख्यात हो गई और आधी दुनियां का प्रतिनिधित्व करने वाले महिलाओं के लिए त्याग और समर्पण एक नया इतिहास रच गई। महाकवि सूर्य मल्ल मिश्रण की वह पंक्तियाँ सहज ही वीरांगनाओं के शौर्य कों इंगित कर जाती हैं, जिनमें यहाँ की वीर प्रसुताऐं अपने संतान को पालने में ही वीरता का पाठ पढ़ाती हैं कि-

“इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराए
पूत सीखवे पालणै मरण बड़ा ही माय।”

दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति है, जो  अपना शीश काट कर बून्दी और हाडाओं का नाम सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित करवाने वाली हाडा कुमारी अपनी ही जन्मस्थली "बून्दी" मे एक अदद स्मृति स्थल के लिए सरकारी रहमोकरम का इंतजार कर रही हैं, वहीं 35 किमी दूर कोटा के श्रीनाथपुरम में इसी हाडा कुमारी की विशाल प्रतिमा स्थापित हैं।

-------------------

मैं एक ऐसी रानी का जिक्र कर रहा हूँ, जिसने युद्ध में जाते अपने पति को निशानी मांगने पर अपना सिर काट कर भिजवा दिया था | यह रानी बूंदी के हाडा शासक की बेटी थी और उदयपुर(मेवाड़) के सलुम्बर ठिकाने के रावत चुण्डावत की रानी थी | जिनकी शादी का गठ्जोडा खुलने से पहले ही उसके पति रावत चुण्डावत को मेवाड़ के महाराणा राज सिंह (1653-81) का औरंगजेब के खिलाफ मेवाड़ की रक्षार्थ युद्ध का फरमान मिला |
मेवाड़ रियासत में सलूंबर का ठीकाना प्रथम श्रेणी चुडावत सामंतों का रहा है। यह ठिकाना मांझल रात में ब्‍याहकर आई उस हाड़ा रानी के लिए याद किया जाता है जिसने छिन्‍नमस्‍ता होने से गुरेज नहीं किया। बरात लौटी और सुबह ही पति चुंडावत सरदार के पास युद्ध का बुलावा आ गया। वह प्रिया से मिलन का ख्‍वाब संजोये हुए था।
रानी ने यह भांप लिया। उसने कर्तव्‍य को शीर्ष प्राथमिकता देते हुए पति को रण में जाने को कह दिया। जंग जीतने घोड़े के पांव महल के बाहर पड़े... मगर रास्‍ते में ही चुंडावत सरदार ने अपने सेवक को बुलाया और कहा कि मालूम नहीं जीयें कि मरें, जाओ और हाड़ा रानी से कोई निशानी लेकर आओ।
सेवक के निशानी मांगने पर रानी ने यह सोच कर कि कहीं उसके पति पत्नीमोह में युद्ध से विमुख न हो जाए या वीरता नही प्रदर्शित कर पाए इसी आशंका के चलते इस वीर रानी ने अपना शीश काट कर ही निशानी के तौर पर भेज दिया ताकि उसका पति अब उसका मोह त्याग निर्भय होकर अपनी मातृभूमि के लिए युद्ध कर सके |
सेवक ने बतौर निशानी सरदार को नव परिणिता का सिर सौंपाऔर रावत चुण्डावत ने अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया | औरन्जेब की सेना खदेड़ी गयी | रावत ने गुटने पर बैठ कर अपना शीश कटा, क्योंकि उसे जीने की तम्मना नहीं रही | वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृभूमि के लिए शहीद हो गया |
इस घटना पर कवि “माधवजी दरक” की एक रचना जिसे यहाँ नृत्य नाटिका के रूप में पल्लवी रायसुराणा प्रस्तुत करने जा रही हें, स्वरबद्ध किया हे सिद्धार्थ कश्यप ने | गीत को स्वर दिया हे, राजा हसन और जानकी पारेख मेहता ने |
हाडी राणी गीत के बोल
इतिहास प्रसिद्ध त्याग का यह अदभुत गीत हे | जिसका नाम हे ‘हाडी राणी’ |
सलुम्बर के राव चुंडा जब युद्ध में जाते हें तब उन्हें पत्नी की स्मृति आती हे और एक सेवक को राणी के पास भेजते हें, निशानी लेने हेतु | वीरांगना हाडी राणी आपने कर्तव्य पहचानते हुए .... अपना शीस काट कर सेवक को देती हे | वो सेवक निशानी लेकर जब चुंडा के पास पहुँचता हे, तो वह देख कर अचम्भित हो जाता हे | इस गीत के लेखक हैं कवि माधव दरक |
सुनिए मर्म-स्पर्शीय गीत-गाथा .... हाडी राणी ....!
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी,
शीस काट कर भेजा जिसने, वह तो हाडी राणी थी |
जन-जावर की शीतल छांया, उन उजियाली रातों में,
पर पता नहीं लग पता कुछ भी, प्रेम भरी उन बातों में |
रण वासों में बैठे रहना, ये ही ह्रदय को भाता था,
बार बार कलियों पर भंवरा, आ आ कर मंडराता था |
विर्हंता को सह सकने की, विर्हंता को सह सकने की, क्षमता बला जनि थी |
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी |  |
प्रातः की स्वर्णिम बेला में, शेहनाई की मीठी तान,
पर मंदिर में घंटो की ध्वनिया, खोल रही थी सब के कान |
की आना जाना दरबानों का, छडीदार ओ भला दीवान,
सभी शुब्ध हो सोच रहे थे, क्या हो किसका भला निदान |
की राज-काज की परवाह किसको, राज-काज की परवाह किसको, दिखती राणी राणी थी |
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी |  |
दुश्मन ने की घोर गरजना, रण का आया परवाना,
कि चुण्डावत तो प्रेमलीन हे, किसको जाकर के कहना |
किस वीरी यह सोच रहे थे, चन्द्र सिंग चुंडा का हाल,
रण भूमि में राव ना जाये, फिर क्या होगा रण का हाल |
क्षत्रिय कुल की मर्यादा पर काली लीप पुतानी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी |  |
राणी ने जब हाल सुना तो, घोर गरजना कर बोली,
पीठ दिखाना रण भूमि में, कायरता हाडी बोली |
की रणवासे में बैठे रहना, रण भूमि मैं जाति हूँ,
क्षत्र धर्म की रक्षा करने, मैं लड़ने को जाति हूँ |
पति से बढ़कर मात्री भूमि हे, माँ की आन निभानी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी |  |
सिंग नाद कर उछल पड़ा, बोला रण में जाऊंगा,
प्रिये मुझे क्या कहती हो, मैं रण भूमि में जाऊंगा |
रग रग में हे खून खलकता, केसरिया बाना लादो,
रण चंडी को लाकर मेरी, भला मेरी कमर में लटका दो |
वीरों का त्योंहार मरण हे, वीरों का त्योंहार मरण हे, रजपूती यह वाणी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी |  |
चढ़ घोड़े पर चला वीर वो, मन में था उत्साह लिए,
पर बैठ झरोके देख रही थी, प्रियतम को विश्वास दिए |
की हथलेवे की मेहंदी भी तो, नहीं सूखने पाई थी,
नयी नवेली दुल्हन वो तो, कल ही व्याह कर आयी थी |
पुर्खावों की बात न जाये, उसको याद जुबानी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी | 6 |
रण मत माथा बढ़ा जा रहा, राणी की स्मृति आयी,
की अपने सेवक से बोला, अन्तःपुर जाओ भाई |
जाकर राणी से तुम कहना, रानियों मेरी राणी,
चुण्डावत हे निरल युध में, मंगवाई हे सेनानी |
ले सेनानी आना जल्दी, जम के तंवर तो भानी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी |  |
सेवक पहुंचा अन्तःपुर में, बोला जाकर महारानी,
और चुण्डावतजी ने मंगवाई, भला आप से सेनानी |
की करो शीघ्रता दो सेनानी, रण भूमि में जाना हे,
राव प्रेम में पागल उनको, सेनानी संभलना हे |
सेवक की सुन कर के वाणी, राणी तो मर्दानी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी |  |
राणी के उदगार ह्रदय की, निकली मुख से थी जी वाणी,
एक निशानी तुम्हे सौंपती हे, अंतिम ये सेनानी |
की जाकर प्रिय से कहना सेवक, राणी ने भेजा उपहार,
देख देख कर लड़ते रहना, करो भला इसको स्वीकार |
रण चंडी से शीस काट कर, भेजी अमर निशानी थी,
शीस काट कर भेजा जिसने, वह तो हाडी राणी थी |  |
गौर कीजिये ... प्रकृति की क्या स्तिथि थी ?
उड़ते पंची मूक हो गए, इन्द्रासन भी डोल गया,
और डोल गयी आ धरती सारी, गोल गगन भी डोल गया |
की लगा देखने सूरज छिप कर, प्रथम किरण शशि मुख पर डाल,
बला सुमन बरसाने आयी, अरे देवता वहां तत्काल |
की खड़ी लक्ष्मी दुर्गा मनो, खड़ी लक्ष्मी दुर्गा मनो, दिखती हाडी राणी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी | १० |
रक्त रंग सा वसन डांक कर, और सजा कर थाली में,
पवन वेग सा उड़ा जा रहा, चंदा की उजियाली में |
की मग में लुक कर मुख को देखा, देखा कालक बुद्ध सम्मान,
सजल नेत्रों से झलक रहा था, अदभुत चुण्डावत का त्याग |
लज्जित होकर शीस थमाया, वक्षथल भवानी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी | ११ |
लेकर सेनानी को, सेवक रण भूमि में जब आया,
की लाया सेवक सेनानी, मन में जोश उभर आया |
माला बना मुंड की उसने, आपने गले सजाई थी,
राणी की अंतिम सेनानी, जब चुंडा ने पाई थी |
पत्नी के उस अमिट प्रेम की, रण में ज्योति जलाई थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी | १२ |
... उसका माथा कैसा था..?
नागिन से थे केश शीस पर, चन्द्र मुखी थी वह बाला,
और हिरनी सी आँखों में, जिसने स्नेह सीख का जहर डाला |
की अधरों की लाली पर मनो, भंवर गुन-गुन डोल रहे,
जहाँ अनेकों तारे गिन कर, लब की फाटक खोल रहे |
रण भूमि की थी रंग शोभा, चुंडा की संगिनी थी,
राव सलुम्बर के चुंडा ने मांगी एक निशानी थी | १३ |
अरे राणी तेरी अमर कीर्ति, धन्य-धन्य तेरा बलिदान,
तेरा त्याग अनूठा राणी, तू धरती का हे अभिमान |
याद करेंगे तुझे ह्रदय से, गायेंगे तेरे गुणगान,
नारी का गौरव चमकेगा, सुन कर हाडी राणी नाम |
देश जाति को रण युद्ध में, माँ धन्य धन्य तेरा बलिदान,
शीस काट कर भेजा जिसने, वह तो हाडी राणी नाम,
वह तो हाडी राणी नाम....|
~ कवि माधव दरक

टिप्पणियाँ

  1. अब मैं क्या टिप्पणी डालू यह पूरा का पूरा पढ़ने के बाद में मेरे शब्दकोश में कोई ऐसा शब्द नहीं बचा है जिससे मैं इनकी तारीफ कर सकूं ऐसे में इनके बारे में यही कहूंगा कि धन्य है धन्य है धन्य आपकी अमर कलम

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हे भी पढे़....

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

Veer Bal Diwas वीर बाल दिवस और बलिदानी सप्ताह

अटलजी का सपना साकार करते मोदीजी, भजनलालजी और मोहन यादव जी

तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहे।

जन गण मन : राजस्थान का जिक्र तक नहीं

सफलता के लिए प्रयासों की निरंतरता आवश्यक - अरविन्द सिसोदिया

इंडी गठबन्धन तीन टुकड़ों में बंटेगा - अरविन्द सिसोदिया

छत्रपति शिवाजी : सिसोदिया राजपूत वंश

स्वामी विवेकानंद और राष्ट्रवाद Swami Vivekananda and Nationalism