भारत का प्रथम जलियांवाला हत्याकाण्ड : मानगढ़.राजस्थान

 भारत का प्रथम जलियांवाला मानगढ़ हत्याकाण्ड


Saturday 14 Nov] 2009 08:01 PM

Dr. Deepak Acharya :: Spiritual path
With regard to the quest for spirituality, it can be said that there are various spiritual paths which can be followed, and therefore no objective truth or absolute by which to decide which path is better. Because every person is different, the choice can be left to the individual's own sensitivity and understanding

 देश की जनजातियों में राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात में बसने वाली भील एक प्रमुख जनजाति है। इतिहास में सदा-सदा याद किया जाता रहेगा दक्षिण राजस्थान गुजरात व मध्यप्रदेश के भीलों का योगदान। 19 वी शताब्दी के उत्रार्द्ध में एक ऎसा चमत्कारी अवतारी पुरूष जन्मा जिसने जनजातियों में समाज सुधार का प्रचण्ड आंदोलन छेडकर लाखों भीलों को भगत बनाकर सामाजिक जनजाग्रति एवं भक्ति आंदोलन के जरिये आजादी की अलख जगाई। साथ ही भीलों के सामाजिक सुधार के अनेक कार्य किये। पर वस्तुतः यह अंगे्रजी शासन के खिलाफ स्वाधीनता का आंदोलन था। जन साधारण में असाधारण आंदोलन की नींव रखने वाले इन महान व्यक्ति का नाम गोविन्द गुरु था। उनका जन्म डूंगरपुर नगर से 23 मील दूर स्थित बांसीया गांव में 20 दिसम्बर, 1858 को गोवारिया जाति के बंजारा परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम गोविन्द था। बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि व कुछ ऎसे असामान्य लक्षण एवं रूचियां थी जो हरेक को आकर्षित करती थी। उस जमाने में जब स्कूल एवं पाठशालाएं प्रायः नहीं होती थी ऎसे में जंगलों में रहकर भी गोविन्द ने गांव के पुरोहितों से कुछ अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। बंजारा जाति के होते हुए भी उनमें बचपन से ही सात्विक संस्कार थे। बचपन से मांस एवं मदिरा से दूर रहने, नित्य स्नान करने, पूजा-अर्चना कर गले में रूद्राक्ष की माला पहनते थे। इसी प्रकार के जीवन के कारण आस-पास के लोग उन्हें गोविन्द गुरु कहने लगे। कहा जाता है कि सन 1881 में स्वामी दयानन्द सरस्वती कई महिनों तक राजस्थान में रहे और जब वे अजमेर होते हुए उदयपुर पहुँचे तो गोविन्द गुरु ने उनसे भेंट की और कुछ समय तक वे स्वामीजी के सान्निध्य में रहे। उस समय गोविन्द गुरु की अवस्था केवल 23 वर्ष की थी किन्तु उन्हें तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र के अवमूल्यन और अपने भील समाज की कुरीतियों और दुव्र्यसनों का अच्छा ज्ञान था। तत्कालीन परिस्थितियों की अच्छी जानकारी होने के कारण ही वे स्वामी दयानन्द के बारें में जानते थे इसी वजह से उनसे भेंट की और उन्होंने भील समाज को सुधारने और संस्कारित करने के उपायों पर विचार-विमर्श किया। स्वामी दयानंद से अपनी भेंट के कुछ दिन बाद ही गोविन्द गुरु ने डूंगरपुर आकर सुराता गांव में पहला सम्मलेन बुलाया और सम्प सभा की स्थापना की। जिसका उद्देश्य जनजातीय समाज में शिक्षा, एकता, बन्धुत्व और संगठन का प्रचार करना, अंध-विश्वास और कुरीतियों को दूर करना, साथ ही बेगार जैसी अन्यायपूर्ण और घृणित प्रथा का विरोध करना था। सम्प सभा के जरिये काम बढ़ता गया और धीरे-धीरे गोविन्द के लाखों भगतों के गुरु हो गये। दस-बीस बरस में दक्षिण राजस्थान मालवा व गुजरात में भील क्षेत्र में काफी बदलाव आया। इस बीच विधाता का लेख कौन जानता है, कहते हंै सन् 1889 संवत् 1956 में महा दुर्भिक्ष अकाल पड़ा। काफी लोग मारे गये बीमारियां फैली लोग असहाय हो गये। इस अकाल को छप्पनियां काल कहते हैं। ऎसे समय में गोविन्द गुरु व भगतों ने काफी सेवा कार्य किया। गोविन्द गुरु ने दूसरा सम्मेलन बांसिया जिसे ‘छाणी मगरी’ कहते हैं। वहां बुलाकर खास-खास भगतों को सम्मानित किया। गोविन्द गुरु के बढ़ते प्रभाव के कारण डूंगरपुर के महारावल को राज्य का खतरा पैदा होने लगा जिस पर गोविन्द गुरु को गिरफ्तार करवाया और लालच देकर मनाने की कोशिश की लेकिन गोविन्द गुरु नहीं माने। उनकी गिरफ्तारी का समूचे वागड़ क्षेत्र में विरोध हुआ। विद्रोह की तैयारी की गुप्तचर रिपोर्ट हुई, कुरिया भगत डूँगरपुर गये। बातचीत की व गुरु को रिहा किया गया। यह वह समय था जइ उनका कार्य क्षेत्र बढ़ता चला गया। मालवा गुजरात में भी गोविन्द गुरु का काम बढ़ चुका था। इस बढ़ते हुए प्रयास और संगठित भीलों की शक्ति को देखकर अंगे्रजी शासन गोविन्द गुरु के पीछे पड़ गया। उन्होंने संतरामपुर रियासत के डॅूंगर गांव में पूजा पारगी के घर बैठक की जिसमें गुरु के विशेष सहयोगी पूंजा पारगी, कुरिया भगत, कलजी, भेमा भगत, जोरजी भगत, लेम्बा भगत, लखजी भगत, नगजी भगत, शामिल थे, यहां पर उन्होंने अपना आसन मानगढ़ पहाड़ी पर लगाने का निश्चय किया। इससे पहले बताते हैं कि कहीवाड़ा और फलवा गांव में गोविन्द गुरु के हाथ से धूंणी स्थापित की गई। इस प्रकार मानगढ़ मुख्य केन्द्र हुआ जहां से क्षेत्र में अलग-अलग स्थानों पर धूणियां स्थापित हुई जिसकी शहादत आज भी मौजूद है। गोविन्द गुरु की सम्प सभा के आर्थिक, सामाजिक आंदोलन के उद्देश्य ये थेः- (1.) शराब मत पीओ और माँस मत खाओ। (2.) चोरी, डाका, लूटमार मत करो। (3.) मेहनत से काम करो, खेती मजदूरी करके अपना व परिवार का जीवन बिताओ। (4.) गांव-गांव में पाठशाला खोलकर बच्चों व बड़ों में ज्ञान का प्रकाश फैलाओ। (5.) भगवान में आस्था रखो, रोज स्नान व हवन करें। नारियल की आहुति दो। अगर पूरी विधि से इतना न कर सको तो भी कम से कम गोबर के कण्डे पर घी की कूछ बूंदें डालकर हवन नियम निभाओ। (6.) अपने बच्चों को संस्कारित करो। गांव -गांव में, घर-घर में कीर्तन-व्याख्यान करो। (7.) अदालतों में मत जाओ और अपने गांव के झगड़ों में गांव की पंचायत के फैसले को सर्वोपरि मानो। (8.) अंगे्रजी की पिट्ठु राजा, जागीरदार या सरकारी अधिकारी को बेगार मत दो। इनमें से किसी का भी अन्याय मत सहो, अन्याय का सामना बहादुरी से करो। (9.) स्वदेशी का उपयोग करो। देश के बाहर की बनी किसी वस्तु का उपयोग मत करो। यद्यपि यह सारी बातें बड़ी निर्दोष थी, किन्तु सामन्तवादी रजवाड़ों को इनसे खतरे की गंध आने लगी। गोविन्द गुरु पाठशालाएं खुलवाते थे और बांसवाडा-डूँगरपुर, उदयपुर, सिरोही, रियासतों के पुलिस और राज्य कर्मचारी स्कूल बंद करवाते थे और बच्चों तथा अध्यापकों को मार-पीट कर भगा देते थे। गोविन्द गुरु की सम्प सभा भील व गरासिया आदि जनजातियों के गांवों में शराब बंदी कराती थी। और रियासती पुलिस उन्हें शराब पीने को मजबूर करती थी। जब रूद्राक्ष की मालाएं पहनने वाले गोविन्द गुरु के अनुयायियों ने बेगार देना बंद कर दिया , तब तो उन पर राजाओं और जागीरदारों के अत्याचार और बढ़ गये। सैकड़ों भीलों को मरवा डाला गया। कोड़े लगवाये और सम्प सभायें भंग करने के लिए तरह-तरह की पीड़ाएं दी गई। किन्तु यह सारे अत्याचार गोविन्द गुरु और उनके भगतों को अपने मार्ग से नही डिगा सके। जब यह तरीका निष्फल हुआ तो गोविन्द गुरु पर यह आरोप लगाया जाने लगा कि वह सत्ता के भूखे हैं और रियासतों के राजाओं को हटाकर उनका सिंहासन छिनना चाहते हैं। इसी तरह की शिकायतें राजाओं ने अंगे्रजी रेजीडेन्ट के पास भेजनी शुरू की। अगे्रज सरकार पहले ही कहाँ चाहती थी की देश में कहीं भी कोई जागृति या सुधार हो। अब तो इन चार रियासतों की शिकायत पर और इन्हीं के कन्धे पर बन्दूक रखकर गोविन्द गुरु के क्रान्तिकारी आन्दोलन को दबाने की उसे सुविधा और बहाना मिल गया था। डूँगरपुर बांसवाड़ा व कुशलगढ़ को राजाओं ने अंगे्रज रेजीडेन्ट के पास लिखित शिकायतें भेजी कि लोग संगठित होकर स्वतंत्र भील राज्य की स्थापना करना चाहते हैं और उसके लिए भारी तैयारियां कर रहे हैं। शिकायतों के साथ ही इन रियासतों ने रेजिडेन्ट से भीलों के विद्रोह को दबाने के लिए सैनिक सहायता मांगी। रेजिडेन्ट को इस बेबुनियाद शिकायत को दूर करने के लिए थोड़ा सा आधार मिल गया। हुआ यह कि गुजरात राज्य के संतरामपुर जिले के गठरा नामक गांव में थानेदार बहुत अत्याचारी था और आदिवासियों की बहु-बेटियां उठवा लिया करता था। उसकी करतुतों से क्रुद्ध होकर पूंजा, धीरा भील ने उसकी हत्या कर दी। संतरामपुर का राजा पहले ही भील आंदोलन से चिढ़ा बैठा था। इस घटना से वह घबरा गया और अपने आस-पास की रियासतों बडौदा, देवगढ़ तथा बारिया के राजाओं और अहमदाबाद तथा गोधरा के अंगे्रज कमिश्नरों को तार भेजा कि भील उसके राज्य के विरूद्ध विद्रोह करने वाले हैं। पास में ही मानगढ़ की एक पहाड़ी है इस पहाडी पर सन् 1903 से प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन गोविन्द गुरु के अनुयायी मेले के रूप में इकट्ठे होते थे और विशाल धूंणी में घी और नारियल चढ़ाते थे। गोविन्द गुरु ने भक्तों को आह्वान किया कि इस दुनियां को जितना जल्दी हो, बदल देना चाहिये अब नयी चुनौतियां सामने हैं। पहले तो जागीरदार, सामंत और रजवाडे़ ही लूटते थे। इस लूट में अब अंगे्रज भी शामिल हो गये हैं। इसे समझो, कुरीतियों को त्यागकर रजवाड़ों तथा अंगे्रजों के खिलाफ आवाज करो। सामाजिक सुधार के लिए आगे बढ़ो और संघर्ष को विकसित करो। जीवन का, स्वाभिमान का यही मूल है। नवम्बर 1913 (कहीं-कहीं दिसम्बर 1908 भी वर्णित है) में यह पूर्णिमा आने ही वाली थी और पहाड़ी पर भीलों का जमघट होने वाला था। संतरामपुर के राजा को बहाना मिल गया और उसने यह अफवाह फैलायी कि मेरे राज्य पर हमला करने के लिए डेढ़ लाख भील मानगढ़ पहाड़ी पर एकत्रित होने वाले हैं। इसके लिए सैनिक कार्यवाही की जाये और भीलों के सेनापति गोविन्द गुरु को गिरफ्तार किया जाए। पूर्णिमा का दिन था उधर श्रृद्धालु भील हाथों में नारियल व घी के कटोरे लिये पहाड़ी पर चढ़ते चले आ-जा रहे थे। स्त्रियां, बच्चे, बूढे, युवतियां सभी इस जन समुुद्र में गाते बजाते शामिल थे। पुरुषों के कन्धों पर उनके धनुष-बाण सुशोभित थे। उधर अंगे्रज रेजिडेन्ट के आदेश पर खैरवाड़ा की छावनी के सैनिक नरसंहार के लिए मानगढ़ पहाडी की और कूच कर रहे थे। गोविन्द गुरु पूर्ण भक्तिभाव से अपनी प्रज्वलित धूनी को देख रहे थे। सैनिकों ने पहाड़ी को घेर लिया और बिना कोई सूचना या चेतावनी दिये अपनी बन्दूक के घोडे़ दबा दिये। धूनी में घी और नारियल चढ़ाने के लिए उठे अचानक निर्जीव होकर गिर गये। इससे पहले कि भक्त समझ सके कि क्या हुआ, सैकड़ों निर्जीव देह भूमि पर बिछ गये। प्रतिरोध का तो सवाल ही नही था। भील लड़ने नहीं, हवन में आहुति डालने आये थे किन्तु यहां तो कितनों को जीवन की ही आहुति देनी पड़ी। इस नरसंहार का कोई सही-सही रिकार्ड नहीं मिलता। लेकिन लाखों की भीड़ पर चारो ओर से कई घण्टे तक गोलीबारी होती रहे तो मरने वालों की संख्या हजारों में ही होगी। अनुमान है कि इस राक्षसी नरसंहार में 15 हजार भील मारे गये। गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर अहमदाबाद की सेन्ट्रल जेल में ढाई मास तक तो बिना सुनवाई के ही रखा गया। और बाद में थानेदार की हत्या के आरोप में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। प्रीवीकाउन्सिल में अपील करने पर फांसी की सजा 10 वर्ष के कारावास में बदल दी गई। गोविन्द गुरु की पत्नी को भी कुछ दिनों के लिए जेल में रखा गया। प्रथम महायुद्ध को जीतने की खुशी में अंग्रेज सरकार ने कुछ कैदियों को माफी दी। इसी सिलसिले में गोविन्द गुरु भी समय से कुछ पूर्व जेल से छूट गये। किन्तु उनके डूँगरपुर, कुशलगढ़ और बांसवाड़ा प्रवेश पर रोक लगा दी गई। अपना अंतिम समय गोविन्द गुरु ने गुजरात के कम्बोई नामक गांव में खेती-बाड़ी करके व सेवा कार्य करके बिताया। आखिर एक न एक दिन तो जाना ही था। भीलों में स्वाधीनता आंदोलन की अलख जगाने वाले महान क्रान्तिकारी सामाजिक धर्मिक आन्दोलन के प्रणेता गोविन्द गुरु का 20 अक्टूम्बर 1931 को कम्बोई (लिमड़ी के पास) में स्वर्गवास हो गया। कम्बोई में उनकी समाधि बनी हुई है जहाँ प्रतिवर्ष आखातीज व भादवी ग्यारस को मेला लगता है। जिसमें पाठ पूजन होता है। गोविन्द गुरु के दो पुत्र थे - हरू (हरिगिर) व अमरू (अमरगिर)। उनके चार पौत्र आज भी हैं हरिगिर के मानसिंह व गणपत व अमरगिर के रामगिरजी व मोतीगिरजी। जलियांवाला बांग में 400 लोग मारे गये थे और 800 घायल हुए थे। इस भीषण काण्ड से सारे राष्ट्र का दिल दहल गया था, किन्तु मानगढ़ पहाडी पर 15 हजार भीलों के नरमेध को आज भी हम जानते तक नहीं। इतिहास में इनका कहीं नाम निशान तक नहीं। उपेक्षा या अज्ञान, कारण कुछ भी रहा हो इस भूल का परिमार्जन यही है कि हम अपने देश के 10 करोड़ भील बन्धुओं के इतिहास को अपना इतिहास मानें, उनके महापुरुषों को अपना और उनकी कुर्बानी को अपनी कुर्बानी मानें। नरसंहार घटना के पश्चात् मानगढ़ पहाड़ी क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया गया। गुजरात व राजस्थान के मध्य सीमा रेखा को लेकर विवाद भी हुआ। सन् 1952 से गोविन्द गुरु के शिष्य जोरजी भगत ने यज्ञ कर पुनः धूंणी प्रज्वलित की। वर्तमान में इस स्थल पर हनुमान, वाल्मिक भगवान निष्कलंक, राधाकृष्ण, बाबा रामदेव, राम, लक्ष्मण, सीता एवं गोविन्द गुरु की मूर्तियां स्थापित है। गोविन्द गुरु द्वारा स्थापित धूंणी है जहां प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को हजारों देश भक्त श्रृद्धा से नतमस्तक होते हैं घी, नारियल आदि हवन में डालते हैं। महंत नाथूरामजी इस स्थान की देख-रेख करते हैं। गुजरात तथा राजस्थान सरकार द्वारा दो सामुदायिक भवन बनाये गये हैं। राजस्थान सरकार द्वारा आनन्दपुरी से यहां तक पहुंचने के लिए 14 किलोमीटर तक डामर सड़क बनायी गयी है। आज मानगढ़ इस राष्ट्र की ऎतिहासिक धरोहर है तथा गोविन्द गुरु पूज्यनीय है, केवल इस क्षेत्र के भील समुदाय के ही नहीं इस राष्ट्र के जन-जन के लिए पूजनीय हैं। जिन्हें यहां का आदिवासी भील समुदाय गुरु के रूप में मानता है। मानगढ़ हत्याकाण्ड की इतिहास में समुचित स्थान नहीं मिला। इस क्रम में हिन्दी कवि विजयदेवनारायण साही की यह पंक्तियां खरी उतरती हैः- तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे, क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरूद्ध दे दिया है। छुटी हुई जगह दिखे जहां-जहां, या दबी हुई चीख का अहसास हो, समझना हम वहीं मौजूद थे। आज भी यहां का आदिवासी भील समुदाय पूर्णरूप से विकसित नही हो पाया और सामाजिक और भक्ति आन्दोलन का काम जारी है। लगभग एक शताब्दी बितने के बाद भी इस अंचल के हर गांव हर ढाणी में भगत आन्दोलन अब भी क्षमता और जरूरत से काम कर रहा है। हमारे वागड़ अंचल, मध्य प्रदेश व गुजरात के सीमावर्ती जिलों में बहुसंख्यक समाज आज भी गरीबी, शोषण, अभाव व बीमारियों के मकड़जाल में फंसा हुआ है। गोविन्द गुरु ने जो सपना देखा था वो आज भी अधूरा है। गोविन्द गुरु लोगो को निडर, निर्भीक, स्वावलम्बी और आत्मविश्वासी बनाना चाहते थे और इस हेतु समाज को संगठित करना चाहते थे। सम्प सभा व भगत आन्दोलन दोनों ही इसी के दूसरे नाम कहे जा सकते हैं। आज हजारों जनजातीय लोगों के जीवन में बदलाव लाने के लिए सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता है। इसके लिए गोविन्द गुरु राष्ट्रीय स्तर पर बेहत्तर आदर्श पथ दृष्टा साबित हो सकते हैं।
© Deepa
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Shriji Info Service ij 4/10/2011
गोविन्द गुरु की संप सभा और श्राजस्थान का जलियांवाला बागश् मानगढ़ नरसंहार-
राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, दक्षिणी मेवाड़, सिरोही तथा गुजरात व मालवा के मध्य पर्वतीय अंचलों की आबादी प्रमुखतया भीलों और मीणा आदिवासियों की है। इन आदिवासियों में चेतना जागृत करने एवं उन्हें संगठित करने का बीड़ा डूंगरपुर से 23 मील दूर बांसिया गाँव में जन्मे बणजारा जाति के गुरु गोविंद ने उठाया था। गोविन्द गुरु ने आदिवासियों को संगठित करने के लिए संप-सभा की स्थापना की।
संप का अर्थ है एकजुटता, प्रेम और भाईचारा। संप सभा का मुख्य उद्देश्य समाज सुधार था। उनकी शिक्षाएं थी - रोजाना स्नानादि करो, यज्ञ एवं हवन करो, शराब मत पीओ, मांस मत खाओ, चोरी लूटपाट मत करो, खेती मजदूरी से परिवार पालो, बच्चों को पढ़ाओ, इसके लिए स्कूल खोलो, पंचायतों में फैसला करो, अदालतों के चक्कर मत काटो, राजा, जागीरदार या सरकारी अफसरों को बेगार मत दो, इनका अन्याय मत सहो, अन्याय का मुकाबला करो, स्वदेशी का उपयोग करो आदि।
शनैः शनैः यह संपसभा तत्कालीन राजपूताना के पूरे दक्षिणी भाग में फैल गई। यहाँ की रियासतों के राजा, सामंत व जागीरदार में इससे भयभीत हो गए। वे समझने लगे कि राजाओं को हटाने के लिए यह संगठन बनाया गया है। जबकि यह आंदोलन समाज सुधार का था। गुरु गोविंद ने आदिवासियों को एकजुट करने के लिए सन् 1903 की मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा से गुजरात एवं मेवाड़ की सीमा पर स्थित मानगढ़ पहाड़ी पर धूणी में होम { यज्ञ व हवन } करना प्रारंभ किया जो प्रतिवर्ष आयोजित किया जाने लगा।
7 दिसम्बर 1908 को हजारों भील, मीणा आदि आदिवासी रंगबिरंगी पोशाकों में मानगढ़ पहाड़ी पर हवन करने लगे। इससे डूंगरपुर, बांसवाड़ा और कुशलगढ़ के राजा चिंतित हो उठे। उन्होंने अहमदाबाद में अंग्रेज कमिश्नर ए. जी. जी. को सूचना दे कर बताया कि आदिवासी इनका खजाना लूट कर यहां भील राज्य स्थापित करना चाहते हैं। बंदूकों के साथ फौजी पलटन मानगढ़ पहाड़ी पर आ पहुँची तथा
पहाड़ी को चारों और से घेर लिया एवं अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। पहाड़ी पर एक के बाद एक लाशें गिरने लगी। करीब 1500 आदिवासी मारे गए। अंग्रेजो ने गोविंद गुरु गिरफ्तार कर लिया। यह भीषण नरसंहार इतिहास में दूसरा जलियावाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना जाता है।
प्रस्तुतकर्ता
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गोविन्द गुरु की संप सभा और श्राजस्थान का जलियांवाला बाग मानगढ़
नरसंहार-
राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, दक्षिणी मेवाड़, सिरोही तथा गुजरात व मालवा के मध्य पर्वतीय अंचलों की आबादी प्रमुखतया भीलों और मीणा आदिवासियों की है। इन आदिवासियों में चेतना जागृत करने एवं उन्हें संगठित करने का बीड़ा डूंगरपुर से 23 मील दूर बांसिया गाँव में जन्मे बणजारा जाति के गुरु गोविंद ने उठाया था। गोविन्द गुरु ने आदिवासियों को संगठित करने के लिए संप-सभा की स्थापना की।
संप का अर्थ है एकजुटता, प्रेम और भाईचारा। संप सभा का मुख्य उद्देश्य समाज सुधार था। उनकी शिक्षाएं थी - रोजाना स्नानादि करो, यज्ञ एवं हवन करो, शराब मत पीओ, मांस मत खाओ, चोरी लूटपाट मत करो, खेती मजदूरी से परिवार पालो, बच्चों को पढ़ाओ, इसके लिए स्कूल खोलो, पंचायतों में फैसला करो, अदालतों के चक्कर मत काटो, राजा, जागीरदार या सरकारी अफसरों को बेगार मत दो, इनका अन्याय मत सहो, अन्याय का मुकाबला करो, स्वदेशी का उपयोग करो आदि।
शनैः शनैः यह संपसभा तत्कालीन राजपूताना के पूरे दक्षिणी भाग में फैल गई। यहाँ की रियासतों के राजा, सामंत व जागीरदार में इससे भयभीत हो गए। वे समझने लगे कि राजाओं को हटाने के लिए यह संगठन बनाया गया है। जबकि यह आंदोलन समाज सुधार का था। गुरु गोविंद ने आदिवासियों को एकजुट करने के लिए सन् 1903 की मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा से गुजरात एवं मेवाड़ की सीमा पर स्थित मानगढ़ पहाड़ी पर धूणी में होम { यज्ञ व हवन } करना प्रारंभ किया जो प्रतिवर्ष आयोजित किया जाने लगा।
7 दिसम्बर 1908 को हजारों भील, मीणा आदि आदिवासी रंगबिरंगी पोशाकों में मानगढ़ पहाड़ी पर हवन करने लगे। इससे डूंगरपुर, बांसवाड़ा और कुशलगढ़ के राजा चिंतित हो उठे। उन्होंने अहमदाबाद में अंग्रेज कमिश्नर ए. जी. जी. को सूचना दे कर बताया कि आदिवासी इनका खजाना लूट कर यहां भील राज्य स्थापित करना चाहते हैं। बंदूकों के साथ फौजी पलटन मानगढ़ पहाड़ी पर आ पहुँची तथा
पहाड़ी को चारों और से घेर लिया एवं अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। पहाड़ी पर एक के बाद एक लाशें गिरने लगी। करीब 1500 आदिवासी मारे गए। अंग्रेजो ने गोविंद गुरु गिरफ्तार कर लिया। यह भीषण नरसंहार इतिहास में दूसरा जलियावाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना जाता है।
प्रस्तुतकर्ता
 Shriji Info Service 4/10/2011
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प्रेषक
सुनील पण्डया
गौवर्द्धन नाथ मन्दिर के सामने,
मु.पो. धम्बोला, जिला-डूंगरपुर ( राजस्थान )
मोबा. – ९००१६९६८६७
Emain id :: sunildhambola@yahoo.com

जनजातीय पावन क्रांति के प्रतिक- गोविन्द गुरू

 राजस्थान के ठीक दक्षिण में स्थित बांसवाडा रियासत के सुदूर दक्षिण पश्चिम में आनंदपुरी( भूखिया) पंचायत समिति मुख्यालय से १४ किलोमीटर पर अरावली की पर्वतमालाओ के बीच गुजरात व राजस्थान की सीमा पर मानगढ पठार स्थित है। यह मानगढ धाम के नाम से प्रसिद्ध है एवं इतिहास में यह राजस्थान के जालियांवाला कांड के नाम से भी जाना जाता है। मानगढ धाम दबी हुयी चीख के अहसास की अनुभूत का तीर्थ है। गोवीन्द गुरू इसके प्रमुख नायक है, जो कि डूंगरपुर जिले के धम्बोला-सागवाडा रोड पर बासियां गाव में २० दिसम्बर १८५८ को गोवारिया जाति के बंजारा परिवार में जन्म हुआ था। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के एवं उदारचरित्र के गोविन्द की शिक्षा गांव के पुजारी के घर हुई। धार्मिक भावना, देशभक्ति व संस्कारों के कारण गोविन्द को साधु-संत की सेवा एवं सत्संग में आनन्द आने लगा। अपने जीवन के युवा काल में वे स्वामी दयानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आकर उनके विचारों व सिद्धांतों से ज्यादा प्रभावित हुए व समाजसेवा में जुड गयें।

गोविन्द गुरू ने २२ वर्श की उम्र में सुराता पाल में भील जाति का एक सम्मेलन कर ‘सम्प सभा’ नामक संगठन खडा किया, जिसका उद्देश्य सुसंस्कारित, शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वतन्त्रता प्रेमी समाज का निर्माण करना था। १८९९ के दुर्भिक्ष के समय गोविन्द ने लोगों की सहायता कीं । सहकार का सन्देश दिया और शासन से लगान माफ करने के लिये जोरदार आवाज उठायी। एक तरफ सामंती शासन की बेगारी प्रथा से और अग्रेंजी शासन की गुलामी से उत्पीडित समाज में निर्भिकता व आत्मगौरव जगाने की दृश्टि से उन्होनें १९०२ में सम्प सभा का दूसरा सम्मेलन बांसियां गांव में बुलाया और वहां प्रमुख भक्तों को शिक्षा-दीक्षा देकर सम्मानित किया। इसी सभा में ११ सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया। इन सिद्धांतों को हर प्रत्येक नागरिक को अपनाने पर जोर दिया गया। एवं इसी सिद्धांतों से जनजातिय जीवन में नई क्रांति का सुत्रपात हुआ।
सम्प सभा के सिद्धांतों एवं लोक गीतों में स्वतन्त्रता, स्वदेशी और स्वावलम्बन के गांधीवादी विचार थें तो भाक्ति व जीवन की पवित्रता तथा सामाजिक सद्भाव आर्य समाज के सन्देश थे। जब-जब भी समाज सुधार व सामाजिक संगठन की भनक सामंती शासकों को होती थी, तब दमन चक्र प्रारंभ हो जाता था। डूंगरपुर के तत्कालिन राजा ने अपने शासन पर मंडराता खतरें को देखकर आनन-फानन मेंगोविन्द गुरू को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन रियासत में इसका असर शुरू हो गया ,जनजातिय असंतोश व आक्रोश चरम पर पहुंच गया व विद्रोह की तैयारी होने लगी। गुप्तचरों से शासन को पता चला तो कुरिया भगत को डूंगरपुर बुलाया गया तथा बातचित कर गोविन्द गुरू को रिहा किया गया। इसके बाद भी सम्प सभा का क्रांति धर्म नही रूका ओर यह और अधिक फेल गया। गुजरात के पंचमहाल, संतरामपुर, मालवा में झाबुआ व वागड में मानगढ सम्प सभा के प्रमुख कार्यक्षेत्र बने और धुणियां स्थापित हुई। अब सम्प सभा के बढते प्रभाव को देखकर अंग्रेज सरकार भी हतप्रभ रह गयी और वह भी इनके विरूद्ध हो गयी।
संतरामपुर रियासत के डूंगरपुर गांव में भगत पूजा पारगी के घर पर बैठक हुई , जिसमें प्रमुख भगतों ने निर्णय लिया कि अत्यधिक दूर्गम मानगढ पर सम्प सभा की प्रमुख धुणी लगायी जाएं ,जहां सत्तासिनों की पहुंच भी न हो सके।
इसके उपरान्त इस मानगढ पठार पर सम्प सभा की धूणी स्थापित कर गोविन्द गुरू अपने शिष्यों व भक्तों के साथ हवन पूजन किया करते थे। इसके उपरांत १९०३ में सम्प सभा नें निर्णय लिया कि प्रतिवर्श माघ माह की पूणिमा के दिन गुजरात, मालवा व वागड के भील बंधु सम्प सभा में मेला रमाएगं व हवन-पुजन, भजन-कीर्तन व गोविन्द गुरू के सन्देश उपदेश में भाग लेंगे।
इन गतिविधियों की भनक झाबुआ, झालोद व वागड के सामंती शासकों तथा अंग्रेजी सरकार का सिंहासन डोलने लगा जिसके कारण उन्होने गोविन्द गुरू पर राजद्रोह का आरोप लगाकर गिरफ्तार करने का कुचक्र चलाया, लेकिन जनजातिय संगठन की भक्ति के आगे वे लाचार व बेबस हो गये।
प्रतिवर्श की भांति १९०८ में माघ मास को पूर्णिमा पर सम्प सभा का विशाल मेंला लगा था, दूर-दूर से गाते बजाते भीलों का हुजुम शामिल होने लगा। लगभग १५०० भीलों का सम्मेलन हुआ। संतरामपुर के शासक ने अवसर का लाभ उठाने की सोची व अफवाह फेला दी कि गोविन्द गुरू भील सेना के साथ आक्रमण की तैयारी कर रहा है। अंग्रेजी सरकार के राजनीतिक अधिकारियों के आदेश पर खेरवाडा छावनी की फौज के साथ डूंगरपुर, बांसवाडा , मालवा व पंचमहाल के सिपाहियों ने मानगढ को चारो तरफ से घेर लिया और भक्तों पर हमला बोल दिया । यज्ञ, हवन, पूजन, कीर्तन में अर्न्तलिन हजारों भक्तों को कुछ भी पता नहीं चला और चारों ओर से गोलियां की बौछार होन लगी, लाशो के ढेर लगने लगे और लहु की सरिता बहने लगीं। लगभग हजार से ज्यादा भक्त मारे गये व गोविन्द गुरू व उनकी पत्नी को पकड लिया गया व उनको यातना देते हुए अहमदाबाद के सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया। गोविन्द गुरू को राजद्रोह के आरोप में फांसी की सजा सुनायी गयी। बाद में मगर प्रीवी कौंसिल में अपिल करने पर उनकी फांसी की सजा माफ कर दस वर्श की कारावास सजा दे दी गयी।
घटनाक्रम परिवर्तित होत गये प्रथम महायुद्ध में विजयी की ख़ुशी में अंग्रेज सरकार ने अनेक कैदियों को सजा माफ कर जेल से मुक्त कर दिया। उनमें गोविन्द गुरू भी थे। गोविन्द गुरू की सिर्फ सजा ही माफ हुयी थी मगर राजपुताने में जाने की पाबंदी लगा दी थी। यह क्रांतिपुत्र अपने जीवन के उतरार्घ में गुजरात के कम्बोइ मे गुजर-बसर करने लगे थे एवं वहीं पर २० अक्टुम्बर १९३१ को इनका महाप्रयाण हो गया।
सीमावर्तीय पहाडियों पर राजस्थान व गुजरात के शासको द्वारा सामुदायिक विकास कार्यो के निर्माण काल में जमीन की खुदायी के समय प्राप्त ढेरो कारतूस व हथगोले मिसाल की शहादत का साक्ष्य पूरा करते है वहां के अग्निकुण्ड, मन्दिर व प्रतिवर्श आयोजित होने वाले मेले में आते-जाते जनसमुह के कंठ से गूंजते लोक गीत जनजातिय लोकक्रांति के इस मानगढ धाम व गोविन्द गुरू की अमर गाथा को गाते रहेंगें। मगर अफसोस राजस्थान इतिहास के प्रख्यात इतिहासकार गौरीशंकर हीरानंद ओझा व कर्नल जेम्स टॉड ने भी इसका उल्लेख नहीं किया।

शहिदों की चिताओं पर हर बरस लगेंगें मेले,

वतन पर मिटने वालों का बाकि बस यहिं निशां होगा।

प्रेषक
सुनील पण्डया
गौवर्द्धन नाथ मन्दिर के सामने,
मु.पो. धम्बोला, जिला-डूंगरपुर ( राजस्थान )
मोबा. – ९००१६९६८६७
Emain id :: sunildhambola@yahoo.com
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