कुतुब मीनार: एक भटकता इतिहास


कुतुब मीनार-प्रेम युगल

कुतुब मीनार-प्रेम युगल


कुतुब मीनार--शिव पार्वती

कुतुब मीनार--शिव पार्वती


कुतुब मीनार--गाय ओर बछडा
कुतुब मीनार--गाय ओर बछडा


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पृथ्वी राज चौहान महाभारत काल की बंसा वली में आखरी हिंदू राजा था। मोहम्‍मद गोरी ने छल से उसे सन् 1192 ई में उसे हराया। उसे से पहले वहीं मोहम्‍मद गोरी 16 बार हारा। उसे अंधा कर के अपनी राजधानी ले गया। जहां उसके भाट चंद्रबरदाई ने एक तरकीब से अंधे पृथ्‍वी राज के हाथों मोहम्‍मद गोरी को उसे शब्‍द भेदी बाण से मरवा दिया। कहते है दो का जन्‍म और मरण दिन एक ही था। क्‍योंकि उसने खुद पृथ्‍वी राज को मार कर खुद को भी मार डाला।

क्‍या हो गया था इस बीच भारतीय शासन काल में जिसे मोहम्‍मद गज़नवी की हिम्‍मत नहीं हुई की दिल्‍ली की तरफ मुंह कर सके। उसे मोहम्‍मद गोरी जैसी अदना से शासक ने हरा दिया। इस की तह में कोई राज तो होगा। पहला तो छल था। दूसरा उस समय के जो 52 गढ़ थे वो सभी राजा आपस में भंयकर युद्धों में लिप्‍त थे। इनमें भी मोह बे के चार भाई आल्हा, उदूल, धॉदू और एक चचेरा भाई मल खान ने शादी जैसी परम्‍परा को मान अपमान का करण बना कर युद्ध करते रहे। आज भी बुंदेल खँड़ में बरसात के दो महीनों में वहाँ पर आल्‍हा गाई जाती है, उन दिनों हत्‍या और खून की वारदातें दोगुनी हो जाती है। बड़ी अजीब बात है। पृथ्‍वी राज चौहान की आखरी लड़ाई मोहम्‍मद गोरी से पहले इन्‍हीं आल्‍हा उदल से हुई थी। आल्‍हा का लड़का इंदल पृथ्‍वी राज चौहान की लड़की से शादी करने के लिए आ गए। उन का एक भाई तो पहले से ही धा दु तो पृथ्‍वी राज चौहान के यहां नौकर था वो अपने भाई यों से नाराज हो कर आ गया। युद्ध में बरात के साथ दुल्हा भी मारा गया। और पृथ्‍वी राज चौहान की लड़की बेला वहाँ पर सती हुई। उस समय दिल्‍ली को पथोरा गढ़ के नाम से जानते थे। इन्‍हीं अंदरूनी लडाई यों ने हिंदू राजाओं को कम जोर कर दिया। शादी के लिए इतनी हिंसा….आज भी आप जो बरात देखते है। वो क्‍या है एक फौज है और दुल्हा घोड़े पर बैठ कर तलवार ले कर चलता है। बड़ी अजीब सी रित-रिवाज है। नहीं ये वहीं लड़ाई की परम्‍परा को दोहरा रहे है। आज भी राजस्‍थान, हरियाणा,पंजाब, मध्‍य प्रदेश, और यू पी के बहुत से हिस्‍सों में आप बारात में जब जाकर देखेंगे की जब शादी के फेरे हो रहे होते है। वहां के लोक गीतों में लड़कियां औरतें दुल्हे को कोसती है।

महाभारत के 4000हजार साल तक जो हिन्दू साम्राज्य रहा कमाल है। उसे ने दिल्‍ली में कोई महल परकोटा शिकार गाह, आदी कुछ नहीं बनवाए। आज जीतने भी ऐतिहासिक स्मारक दिल्‍ली में देखेंगे वो सब मुगल कालिन या गुलाम बंस के बनवाए हुए है। और सभी में मजार कब्रगाह की मात्रा अधिक है। इतिहास के साथ न्‍याय नहीं हुआ हमारे देश में क्‍योंकि हमारे देश के राजनेता लम्पट है स्‍वार्थी है। बोट के लिए इस सब का इस्‍तेमाल करते है। बाबरी मस्जिद या राम लल्‍ला जैसे स्मारकों को ऐतिहासिक सच्‍चाई से उन्‍हें कोई लेना देना नहीं उन्‍हें तो बस राज सिंगा हसन पर आसिन होना हे। फिर चाहे वहां कितनी ही लाशें गिरे उन्‍हें इस सब से कुछ लेना देना नहीं है।

इस लिए पुराने इतिहास पर शोध करने वाले भी राजनैतिक प्रभाव या पूर्व धारणा को ले कर ही चलते है। पूर्व धारण आपको या आग्रह हमें सच्‍चाई तक कभी नहीं ले जा सकता। कम से कम बुद्धिजीवी वर्ग को तो एक ऐसी पीढी तैयार करनी होगी जो सत्‍य को आत्‍म सात कर सके। और उसे ढूंढ सके।

स्मारकों की बात हो रही थी। अब लाल किले को ही ले लीजिए उस के ठीक सामने जैन मंदिर है। कोई और शाहजहाँ जिसे ने लाल किला बनवाया उस ने जमा मस्जिद को एक कोने में बनवा दिया और इतनी दरियाँ दिली कि जैन मंदिर को इतना सम्‍मान की गेट से निकलते ही पहले उस के दर्शन हो। बात बड़ी बेबुझीसी पहेली लगती है…….

इसी तरह कहते है कुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया था। कोन था कुतुबुद्दीन ऐबक मात्र एक दास था। मोहम्मद गोरी को बड़ा दरियाँ दिली दिखाई एक दास ने कुतुब की मीनार बना दी और उसके उसका शासन काल कितना था। ।1193-1206 ई और उस के पास जो ‘’अलाई मीनार’’ है, जो 1290-1320 यानि खिल जी वंश के बेहतरीन युग में बनने लगी और उसे खील जी कुतुब की मीनार से दो गुणा बड़ा बनाना चाहते थे। 30 साल के शासन काल में पहली ही मंजिल का ढांचा तैयार हो सका। क्‍या कारण है एक मीनार जो उन्‍हें के पूर्व उतराधिकारी ने बनाई उसी को कम करने के लिए उस से दो गुण बड़ा बनाया जा रहा है। कुछ इतिहास कार कहते है कुतुबुद्दीन ऐबक ने तीन मंजिल बनवाई,बाद की दो मंजिल इल्‍तुतमिश ने और बाद में सन् 1368 ई में फिरोज शाह तूगलक ने पांचवी मंजिल बनवाई यानि कुल मिला कर 175 वर्ष लगे कुतुबुद्दीन के ख्‍वाब को पूरा होने में वो भी तीन वंश ने मिल कर ये काम किया। कुछ इतिहासकार तो यहाँ तक कहते है कि इस का नाम बगदाद के कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम से इस मीनार का नाम रखा गया है। कुतुब मीनार जिस लाल पत्‍थर से बनी है और जिस से आयतें लिखी है उन के रंग में भी भेद है। जो सपाट लाल पत्‍थर लगा है। वो एक दम लाली लिए है। और जिस से आयतें लिखी गई है वो बदरंग लाल है। और उन आयतें को उस के उपर लगया गया है जिससे वो मीनार बहार की तरफ उभरी है। अगर एक साथ लगया गया होता उसके संग मिला कर लगाया जाता। और आप बिना किसी विचार ओर धारण के केवल कुतुब को देखे तो वो आयतें उस की खूबसूरती को बदरंग कर रही है। चिकना धरातल मन को शांत और गहरे उतरनें लग जाता हे। मीनार ध्‍यान के लिए बनी थी। अलग-अलग चक्र पर पहुंचे साधक अलग-अलग मंजिल पर बैठ कर ध्‍यान करते होगें। क्‍योंकि जिन लोग न ध्‍यान करने के लिए कुतुब मीनार को बनवाया होगा वह इस रहस्‍य को जरूर जानते होगें। वो ये भी जरूर जानते थे पृथ्‍वी के गुरुत्वाकर्षण हमारी उर्जा को अपनी और खींचता है। इसी लिए उचे पहाड़ों पर जा कर लोग मंदिर बनाते है। आप जितना गुरूत्व केन्द्र से उपर जाओगे पृथ्‍वी को खिचाव कम होने लग जात है। कुतुब की लाट अध्‍यात्‍म की चरम अवस्‍था पर पहुँचे साधकों की आने वाली पीढी को महानतम देन है। जिसे इतिहास के गलियारों ले भूल भुलैया बना कर रख दिया। महान राज भोज ने ही तंत्र की साधना में लीन उन एक लाख साधकों को मरवा दिया था वो महान राजा भी जब ध्‍यान के रहस्‍यों से इतना अंजान था जिससे एक विज्ञान जो खोजा गया था पृथ्‍वी से लगभग खत्‍म हो गया। एक मंद बुद्धि राज भोज जिसे इतिहास इतने सम्मान और आदर से देखता हे। उज्जयिनी की उस पवित्र नगरी को अपनी पाशविकता के अति पर ले गया। जो इतिहास की सब से कुरूप तम घटनाओं में एक मानता हूं।

कुतुब मीनार की आज पाँच मंज़िले है उन की ऊँचाई 72.5 मीटर है,और सीढ़ियां 379 है। कुतुब मीनार की सात मंज़िले थी। यानि उस की उँचाई पूरी 100 मीटर, मानव शरीर के अनुपान के रे सो की तरह उसकी मंज़िलों का विभाजन किया गया था। मानव शरीर को सात चक्रों में विभाजित किया गया है। उसी अनुपात को यानि मानव ढांचे को सामने रख कर उस की सात मंज़िले बनवाई गई थी। पहले तीन चक्र अध्‍यात्‍मिक जगत के कम और संसारी जगत के अधिक होते है। इस लिए मानव उन्‍हीं में जीता है और लगभग उन्‍हीं में बार-बार मर जाता है। मूलाधार, स्वादिष्ठता, मणिपूर ये तीन चक्र इसके बाद अनाहत, विशुद्ध दो अध्यात्म का रहस्‍य और आंदन है। फिर आज्ञा चक्र ओर सहस्त्र सार अति है। इस लिए सात हिन्दूओ की बड़ी बेबुझीसी रहस्‍य मय पहली है। सात रंग है। सात सुर है। प्रत्‍येक सुर एक-एक चक्र की धवनि को इंगित करता है। जैसे सा…मूलाधार रे….स्वादिष्ठता….इसी तरह रंग भी सा के लिए काला……रे के लिए कबूतरी……। हिन्दू शादी जैसे अनुष्‍ठान के समय वर बधू के फेरे भी सात ही लगवाते है।

कुतुब मीनार एक अध्‍यात्‍मिक केंद्र था। जिसे बुद्धो ने इसे विकसित किया था। इस का लोह स्तंभ भी गुप्त काल से भी प्रचीन है। इस शिलालेख भी मिले है। शायद चंद्र गुप्‍त के काल से भी प्राचीन। आज भी वहाँ भग्नावशेष अवस्‍था में कला के बेजोड़ नमूनों के अवशेष देखे जा सकते है। जो कला की दृष्टि में अजन्‍ता कोणार्क और खजुराहो से कम नहीं आँकें जा सकते उन स्तम्भों में उन आकृतियों के चेहरे को बडी बेदर्दी से तोड़ा दिए गये है। खूब सुरत खंबों में घंटियों की नक्‍काशी जो किसी मुसलिम को कभी नहीं भाती एक चित्र में गाय अपने बछड़े को दुध पीला रही है। शिव पर्वती, नटराज, भगवान बुद्ध और अनेक खजुराहो की ही तरह भगना वेश अवस्‍था में। आँजता या खजुराहो की मूर्तियां तो मिटटी से ढक दी गई थी वहां किसी मुस्‍लिम शासक की पहुच नहीं हुई अाजंता के तो उस स्‍थान को दर्शनीय बना दिया जहां से एक अंग्रेज आफिसर ने पहली बार खड़े होकर उन गुफाओं को देखा था। आज नहीं कल हमें उन्‍हें फिर से जनता के लिए बंद करना पड़ेगा। वो कोई देखने की वस्‍तु नहीं है वह तो पीने के केन्‍द्र है। वहां तो ध्‍यान के सागर हिलोरे मारते है। जो उस में तैरना जानते है वहीं उस का आनंद उठा सकते है। बाकी लोगों के कौतूहल की वस्तु भर है। यहाँवहाँ अपना नाम लिख कर थोड़ा शोर मचा कर वापस आ जाएँगे। सच ये स्‍थान देखने के काम के लिए नहीं बनाए गये थे।

कुल मिला कर कुतुब मीनार कोई किला या महल या कोई दिखावे की वस्‍तु नहीं थी। वो तो अध्‍यात्‍म के रहस्‍यों को जानने के लिए एक केन्‍द्र था। जहां पर हजारों साधक ध्‍यान करते थे। क्योंकि पास ही ढ़िल्‍लिका (दिल्‍ली) प्रचीन तोमर वंश और चौहान की राजधानी थी। उसे आज भी लाल कोटा के नाम से जानते थे।

ये सब विषय शोध कार्य करने वालों के अपने रहस्‍यों को छू पाए बैठे। लेकिन हम एक धारण को पहले ही मान लेते है। शोध के लिए कोई धारण आग्रह नहीं होना चाहिए एक कोरी किताब जिसे उन्‍होंने इतिहास को उकेरना है। उसकी बीते कल को जीवित करना है। देखो हम कब इस सब में कामयाब होते है……

मनसा आनंद मानस

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