बाबासाहेब अम्बेडकरजी की अंतर्दृष्टि के अनुरूप हैं परमपूज्य सरसंघचालक जी के विचार
बाबासाहेब अम्बेडकरजी की अंतर्दृष्टि के अनुरूप हैं परमपूज्य सरसंघचालक जी के विचार
प्रवीण गुगनानी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डॉ. मोहनरावजी भागवत के आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार की आवश्यकता व्यक्त करने से वैचारिक तूफ़ान खड़ा हो गया है। संघ प्रमुख ने आरक्षण के औचित्य पर प्रश्न कतई नहीं किया है, यह स्पष्ट है। मीडिया ने जानबूझकर उनसे बीते वर्षों में समय-समय पर सार्वजनिक तौर पर उलझाने वाले आरक्षण आधारित प्रश्न सदैव किए हैं। बीते वर्षों में संघ प्रमुख ने आरक्षण पर जिस प्रकार के वक्तव्य दिए हैं उनसे संघ का आरक्षण के प्रति तार्किक समर्थन भी प्रकट होता रहा है। हमारा समाज और नव उपजे संचार माध्यम, यदि नवाचारों व प्रयोगधर्मिता पर बवाल खड़ा करने के स्थान पर आत्मपरीक्षण व आत्मसमीक्षा का अभ्यस्त होता तो आज परिस्थितियां कुछ और होतीं।
संविधान शिल्पी बोधिसत्व बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारतीय समाज की इस प्रयोगधर्मिता पर विश्वास करके ही आरक्षण का तर्क तथा समय सम्मत ढांचा खड़ा किया था। हाल के अपने साक्षात्कार में सरसंघचालक जी ने आगे कहा कि आरक्षण का राजनीतिक उपयोग हो रहा है और अब समय आ गया है कि एक अराजनीतिक समिति का गठन किया जाए जो यह परिक्षण करे कि किसे और कितने समय के आरक्षण की आवश्यकता है। आरक्षण नीति पर पुनर्विचार मात्र का विचार व्यक्त करने से समाज में इतना वितंडा हो तथा इतना भय निर्मित किया जाए ऐसा हमारा भारतीय समाज कभी नहीं रहा! हमारा समाज तो सदा से प्रयोगधर्मी व नवाचारों के विकास वाला समाज रहा है। सरसंघचालक मोहन भागवतजी के व्यक्त विचारों का यदि किसी प्रयोगशाला में परीक्षण हो सकता है तो वह केवल बाबासाहेब की वैचारिक प्रयोगशाला ही हो सकती है। आज के समय में संघ प्रमुख द्वारा व्यक्त विचार वस्तुतः बाबासाहेब की अंतर्दृष्टि तथा उनके मानस में चल रहे भविष्य बोध का प्रकटीकरण मात्र ही है।
भारत की चरों दिशाओं में जन्मे और आदरपूर्वक स्वीकार किए गए समाज विज्ञानी इस बात का ज्वलंत प्रतिनिधित्व करते हैं; इनमें ज्योतिबा फुले, बोधिसत्व बाबासाहेब, छत्रपति साहू जी महाराज, सावित्रीबाई फुले, श्रीनिवास पेरियार, अयोथिदास पंडितर, नारायण स्वामी आदि प्रमुख हैं। इस राष्ट्र का मुख्य हिन्दू समाज मूलतः उन्नयनोमुखी, बहिर्मुखी, प्रयोगधर्मी व समय-समय पर नव-विशिष्ट विचारों का जन्मदाता समाज रहा है। तनिक कल्पना कीजिए कि जब इन उपरोक्त लिखित महान संतों ने अपने समय में अपने विचारों को समाज के सम्मुख रखा होगा तो उन्हें कितना साहस व शक्ति लगी होगी? स्पष्टतः स्वीकार किया जाना चाहिए कि इन महान संतों व प्रयोगधर्मियों की बातों को सुनने, समझने व परीक्षण करने की प्रवृत्ति सदैव हमारे समाज में उपस्थित रही है।
यदि हमारा भारतीय हिन्दू समाज सदा से चैतन्य, जागृत व संवेदनशील व अर्पण भाव का धनी न रहा होता तो ये संत समाज में कभी भी आदरपूर्ण स्वीकार नहीं किए गए होते। यद्यपि इनकी स्वीकार्यता के पीछे सदैव संघर्ष रहा है तथापि स्वीकार्य हो जाना हमारे तत्कालीन व वर्तमान समाज के परिपक्व, परिवर्तन व प्रयोगधर्मी रहने का अकाट्य प्रमाण है। वस्तुतः इस देश में कांग्रेस और वामपंथियों ने स्वतंत्रता पूर्व और प्रारम्भिक स्वातंत्र्योत्तर दौर में बाबासाहेब के सामाजिक न्याय की अवधारणा को वर्ग संघर्ष का नाम देने का जो साशय प्रयास किया वह दुष्प्रयास बाद के दशकों में देश की नसों में विष की भांति प्रवाहित हुआ। इस विष ने ही बाद के वर्षों में आरक्षण जैसे पुण्य शब्द को एक ततैया शब्द बना डाला।
महाड़ आन्दोलन जैसे संघर्षों के उन दिनों में जब महात्मा गांधी देश में सर्वाधिक स्वीकार्य थे और बाबासाहेब से उनके मतभेद सार्वजनिक थे। तब डॉ.भीमराव आंबेडकर देश में हिंदुत्व और जातिवाद के नाम पर पनपी सामाजिक विषमता और सामाजिक असुरक्षा के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढाते हुए स्पष्टता से कह रहे थे कि उनका सामाजिक न्याय से आशय सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समानता और सामाजिक स्वतंत्रता से है। और सामाजिक सुरक्षा से आशय प्राण, परिजन, आजीविका और संपत्ति की सुरक्षा से है और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के निष्कंटक प्रवाह से है। बाबासाहेब की बड़ी ही स्पष्ट भाषा और अभिव्यक्ति के बाद भी संकीर्ण राजनीतिक मानसिकता के चलते कांग्रेस के कई नेताओं ने उनकी भूमिका को संदिग्ध बनाने और इतर दलित समाज में उनकी स्वीकार्यता कम करनें के लिए बदनाम किया।
महाड़ आन्दोलन जैसे संघर्षों के उन दिनों में जब महात्मा गांधी देश में सर्वाधिक स्वीकार्य थे और बाबासाहेब से उनके मतभेद सार्वजनिक थे। तब डॉ.भीमराव आंबेडकर देश में हिंदुत्व और जातिवाद के नाम पर पनपी सामाजिक विषमता और सामाजिक असुरक्षा के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढाते हुए स्पष्टता से कह रहे थे कि उनका सामाजिक न्याय से आशय सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समानता और सामाजिक स्वतंत्रता से है। और सामाजिक सुरक्षा से आशय प्राण, परिजन, आजीविका और संपत्ति की सुरक्षा से है और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के निष्कंटक प्रवाह से है। बाबासाहेब की बड़ी ही स्पष्ट भाषा और अभिव्यक्ति के बाद भी संकीर्ण राजनीतिक मानसिकता के चलते कांग्रेस के कई नेताओं ने उनकी भूमिका को संदिग्ध बनाने और इतर दलित समाज में उनकी स्वीकार्यता कम करनें के लिए बदनाम किया।
बाबासाहेब के विरुद्ध कांग्रेस का यह जन्मजात पूर्वाग्रह व बाद के वर्षों का सत्तामोह भारत में जातिगत समीकरणों को इस कदर उलझा गया कि भारतीय समाज की राजनीतिक प्रयोगधर्मिता व आत्मपरीक्षण की प्रवृत्ति ही समाप्त होती चली गई। स्मरण रहे कि एक समय में हम हमारे इस प्रगतिशील व प्रयोगधर्मी आचरण से ही हम एक ओर सोने की चिड़िया बनें तो दूसरी ओर विश्वगुरु भी कहलाए! इसके आगे चले तो हमारे राष्ट्र-समाज ने यह भी देखा कि जब हम नवविचार, नवआचार, नवचरित्र से तनिक दूरी बना कर परिवर्तनों को नकारने लगे तब हम न तो सोने की चिड़िया रहे और न ही विश्वगुरु! अपितु हम तो पिछले कुछ दशकों में आत्मग्लानि, आत्मसंकोच तथा आत्मविश्वास विहीन समाज के रूप में भी दिखे थे! निस्संदेह यह कहना होगा कि इस स्थिति की जवाबदारी केवल परिवर्तन हीनता से भरे हुए एक दौर पर ही आती है। साथ ही यह भी कहना होगा कि विश्व के साथ अपने संवाद-संचार का मिलान गलत दृष्टियों से करने का व पश्चिमोंन्मुखी समाज निर्माण का जो निकृष्ट कार्य पिछले दशकों के कांग्रेस काल में हुआ; वह भी इन परिस्थियों हेतु मुख्यतः जवाबदेह है।
हमारे समाज के समय की धुरी पर चलने के एक बड़े उदाहरण के रूप में देखें तो उसके एक प्रतिनिधि तौर पर कोल्हापूर के छत्रपति साहूजी महाराज का समय दिखता है जब उन्होंने 1902 दक्षिणी विंध्य के प्रेसीडेंसी रियासतों में पिछड़े वर्गों हेतु आरक्षण का प्रारम्भ किया था। बड़ी ही व्यापक सोच का यह आदेश भारत में प्रथम आरक्षण केन्द्रित अधिसूचना के रूप में जाना जाता है। 1932 के ‘पूना समझौता’ की परिस्थितियों में से कांग्रेस नेतृत्व के कुछ दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों को घटा दिया जाए तो इसे भी हम हमारें सामाजिक नवाचार का एक विशिष्ट उदाहरण कह सकते हैं। स्वतंत्रता पश्चात मध्य का एक दौर रहा जब हमारी राजसत्ता जातिगत असंतोष तथा उनमें विभिन्न स्तर पर आती विसंगतियों को समझ पाने में असफल रही। अपने समाज को समय के साथ चैतन्य तथा जागृत करने के स्थान पर उसे बैसाखियों का आदती व लती बना देने की आत्मघाती व तुष्टिकारक नीतियों का ही परिणाम रहा कि भारत को 1990 का मंडल कमंडल जैसा भयावह दावानल झेलना पड़ा। उस समय वोट केन्द्रित भारतीय सत्ताधीशों का हो न हो किन्तु भारतीय समाज ऐसा अवश्य था कि इस अनियंत्रित मंडल उलझन के बाद हमारे समाज ने जातिगत संवेदनाओं को पहचाना भी और उस अनुरूप स्वयं को ढाला भी।
बाबासाहेब आंबेडकर ने जिस जातिगत विसंगति और असमानता के शब्द को स्वतंत्र भारत के समक्ष रखा था उस शब्द में भारतीय जनमानस ने संवेदनशीलता के साथ प्राण स्थापना की। बंधुत्व तथा समता आधारित भारतीय समाज ने जातिगत असमानताओं के अंधे कुए में से स्वप्रेरणा से स्वयं को बाहर निकाला। मध्य में एक विचार जाति मुक्त भारत का भी चला जो संभवतः समय पूर्व जन्मा विचार था और जिसके कारण अनावश्यक टकराव उत्पन्न हुए थे। इन टकरावों में हिन्दू समाज ने समय-समय पर जातिगत संदर्भों में अपने चरित्र में अपने आपद धर्म का तथा प्रायश्चित भाव का मुखर तथा विनम्र प्रदर्शन भी किया है। अपने संघर्ष मार्ग में बोधिसत्व बाबासाहेब ने अपने जिस लेखन संसार के माध्यम से अपनी व्यथा, वेदना संत्रास व आशाओं को व्यक्त किया उसमें “द एनिहिलेशन आफ कास्ट” में भी उन्होंने जो विचार व्यक्त किए वे भारतीय समाज की मूल भावना व आत्मा के साथ समय आधारित परिवर्तनों के विचार थे। भारत में जातिगत परिस्थितियां केवल परिवर्तन शील नहीं रहेगी अपितु विकासशील भी रहेगी यह बाबासाहेब को विश्वास था किन्तु नेहरु के दौर में जन्मी राजनीतिक धुंध ने व बाद के दशकों में कांग्रेस के सत्ता मोह ने बाबासाहेब के इस अंतर्तत्व को कभी समझा ही नहीं। यदि समय के साथ साथ बाबासाहेब के विचारों पर नए नए प्रयोग, परीक्षण व उन पर शोध होते रहता तो हमारे देश को आरक्षण के नाम पर इतना भययुक्त वातावरण कभी न मिलता।
इस प्रकार की समाज उपयोगी विषय की लेख के लिए वहुत वहुत साधुवाद
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