'अंतिम व्यक्ति के उद्धार से निकलता है देश की प्रगति का मार्ग' - परमपूज्य सरसंघचालक श्री भागवतजी
'अंतिम व्यक्ति के उद्धार से निकलता है देश की प्रगति का मार्ग'
- परमपूज्य सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत जी का विशेष साक्षात्कार
एकात्म मानव दर्शन के माध्यम से देश के अंतिम व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का मार्ग दिखाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती को लेकर सारे देश में एक अनूठा उत्साह है। उनके द्वारा प्रतिपादित विचारों के आधार पर खड़ा राजनीतिक संगठन इस समय देश का संचालन सूत्र संभाले है तो उससे देश के मूल्यों और जीवन आदर्शों के आधार पर राष्ट्र का विकास करने की अपेक्षा सहज स्वाभाविक है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती और देश के सम्मुख उपस्थित विभिन्न विषयों के संदर्भ में पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर और आर्गेनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत का विशेष साक्षात्कार लिया। प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश।
विशेष साक्षात्कार- 'अंतिम व्यक्ति के उद्धार से निकलता है देश की प्रगति का मार्ग'
* दीनदयाल जी के राजनीतिक दर्शन और आज की दलीय राजनीति में आपको क्या अन्तर दिखता है? क्या हकीकत वही है जिसका सपना देखा गया था?
दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन के अनुसार राजनीति को जैसा चलना चाहिए वैसी आज तो नहीं चल रही है, ये तो बिल्कुल साफ बात है। राजनीति में केवल दलीय स्वार्थ होना देश और समाज के लिए हितकारी नहीं होता। आज की राजनीति में राज, यह पहला शब्द है, नीति दूसरा शब्द है। इससे जो वातावरण बनता है उसमें राज्य पाना तो आसान हो जाता है लेकिन राज्य पाने के बाद नीति चलाना कठिन हो जाता है। इससे समाज में भी वही वातावरण बनता है। अभी समाज भी जो मूल्यांकन करता है वह जीत-हार के आधार पर ही करता है। जीतने के बाद कैसे रहें, हारने के बाद कैसे रहें, ये विचार नहीं होता। और जीत-हार तो उस समय की जो हवा रहती है, समस्यायें रहती हैं उसको वोटों के गणित के हिसाब से भुनाने पर निर्भर है। इसका कारण राजीनतिक दल या राजनीतिज्ञ या कोई संविधान है ऐसा नहीं है। लोगों की समझदारी भी विकसित नहीं हुई। इसलिए राज्य प्राप्त करने के लिए कोई एक दल नीति का अंगीकार करके चले भी तो स्वार्थ का अंगीकार करके चलने वाले दल आगे होते हैं। लोगों की भावनाओं से खेलकर राज्य प्राप्त करना आसान है। ऐसी अवस्था में पहले राज्य प्राप्त करना फिर बाकी की चिन्ता कैसे करना, इस दौड़ में अगर शामिल होना है तो फिर राज की तरफ झुकना पड़ता है। ये मजबूरी सभी राजनीतिक दलों की दिखाई है।
जिन गरीबों के लिए आप काम करते हैं वे तो पैसा देने वाले लोग नहीं हैं। पैसे देने वाला पूंजीपति है जो बाद में वसूलता भी है। यह सब राजनीतिक दलों को करना पड़ता है।
इस चक्र से कैसे बाहर आना, इसका उपाय होना चाहिए। चुनाव सुधार अगर हुआ तो ये सारी बातें नहीं चलेंगी। इस दुष्चक्र से बाहर आने के उपाय राजनीतिक दलों के हाथ में नहीं हैं। इस स्थिति को बदलना समाज के हाथ में है। मतदाता अगर समझदारी से मतदान करे, जाति या संप्रदाय के छोटे स्वाथार्ें से ऊपर उठकर देशहित में मतदान करे, तो फिर राजनीतिक दलों में उसके पीछे चलने का वातावरण बन सकता है।
* देश दीनदयाल जी की जन्मशती मनाने जा रहा है। एकात्म मानव दर्शन के विचार का पचासवां वर्ष है। आज के समय में क्या इसकी प्रासंगिकता या संदर्भ बदले हैं?
एकात्म मानव दर्शन की प्रासंगिकता बदलेगी नहीं क्योंकि जिन मूल तत्वों पर वह आधारित है वे शाश्वत हैं। सदा सर्वदा व्यक्ति के जीवन को केन्द्रित करने वाले तत्वों की प्रासंगिकता कभी नहीं बदलेगी। संदर्भ बदलते हैं, तद्नुसार उनको उसे व्याख्यायित करना पड़ता है। समाज की शक्ति उसके सबसे दुर्बल घटक की शक्ति जितनी ही होती है। कमजोर व्यक्ति समर्थ हो इसकी चिंता सबको करनी है। ये कभी नहीं बदलेगा।
* 50 वर्ष पहले जब दीनदयाल जी ने एकात्म मानवदर्शन का विचार दिया था तब समाजवाद शब्द का बोलबाला था। आज वैश्वीकरण का बोलबाला है। तो संदर्भ कितने बदले हैं और पुनर्व्याख्या कहां तक हुई है?
इन बातों का संदर्भ एक नहीं है। लेकिन मूल बात है विचारों के पीछे की प्रामाणिकता। समाजवाद की प्रामाणिकता, जों रूस में समाजवादी शासक आने के बाद कम होती गई, ऐसे ही पूंजीवाद की बात है। वे लोग शोषण करते हैं जिन्हें अपनी सुविधा की बात लेकर चलना है। जैसा बोलते हैं, वैसा करने वाले उदाहरण कम हैं।
आज रूस में समाजवाद और अमरीका में पूंजीवाद किन्हीं आदशार्ें पर चलता दिखाई नहीं दे रहा। दोनों में ही स्वार्थ मुख्य बात है। आज के संदर्भ में मुझे तो कोई विचारधाराओं की लड़ाई नहीं दिखती। अपने तत्वों पर प्रामाणिकता से चलने वाले लोग और उन तत्वों का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने वाले, ये दो प्रकार के लोग हैं। यही दो पक्ष दुनिया में आज प्रबल हैं और सर्वत्र प्रभावी हैं। अपने यहां और सारी दुनिया में ऐसा ही है।
* राष्ट्रनीति के एक अंग के रूप में राजनीति पंडित जी के दर्शन का मूल थी। अब देश में एक राजनीतिक परिवर्तन हुआ है। क्या आपको लगता है कि तुष्टीकरण और समाज विभाजन की राजनीति खत्म होगी, नया दौर शुरू होगा?
यह तो करना ही पड़ेगा। नहीं तो नहीं होगा। केवल तुष्टीकरण करेंगे तो वे चल सकेंगे कि नहीं, इसका पता नहीं। समाज का प्रबोधन हो, समाज में स्वार्थ एवं भेदों के ऊपर उठकर देश के लिए जीने-मरने वाला भाव फैलाना आवश्यक है। समाज में इस दृष्टि से समझदारी बने और राजनीतिज्ञ भी इस कार्य में सहायक हों।
* एकात्म मानव दर्शन के क्रियान्वयन की दृष्टि से कौन से नीतिगत प्रयास हो सकते हैं?
हम किसी भी दर्शन या विचारधारा पर जब विचार करते हैं तो केवल भारत के लिए नहीं पूरी सृष्टि के हिसाब से विचार करते हैं। ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा था विश्व स्वधर्म की स्थापना हो। डा़ हेडगेवार ने कांग्रेस अधिवेशन में भारत के लिए स्वतंत्रता और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त कराने संबंधी प्रस्ताव दिया था जो कांग्रेस को स्वीकार नहीं हुआ। भारतवर्ष के सामान्य लोगों के सामने भी अपने देश का लक्ष्य ठीक होना चाहिए। एकात्म मानव दर्शन भारतवर्ष के पुरुषार्थ को प्रकट करने वाला विचार है। ये केवल भारत की ही नहीं, विश्व की सभी छोटी-बड़ी समस्याओं का उत्तर दे सकता है। विश्व में जो भी व्यवस्था आई वह दमनकारी और भक्षण करने वाली थी। दीनदयाल जी ने एकात्म मानव दर्शन के माध्यम से धर्म संकल्पना पर आधरित एक मौलिक योगदान संपूर्ण विश्व को दिया है। विदेशी विचारधाराओं के आधार पर आज तक जो तंत्र बने वही अपने देश में भी चलता है। 'फैशन ऑफ द डे' जैसा चल रहा है। उसकी अच्छी बातें लेकर उसमें अपनी मिट्टी के 'इन्पुट्स' देकर हम भारत का कौन सा नया मॉडल खड़ा कर सकते हैं, ये तंत्र चलाने वालों को सोचना पड़ेगा। थोड़ा-बहुत वर्तमान तंत्र में ये आ रहा है। ये दिशा उन्होंने पकड़ी है तो बहुत अच्छा है। समर्थ भारत की अवधारणा वाला यह दर्शन विश्व के लिए कल्याणकारी, मंगलकारी है। ये बात आज भी प्रासंगिक है। इसे मूर्तरूप देने के लिए नीतिगत प्रयोग करने पड़ेंगे।
* देश कृषि प्रधान है लेकिन किसान सबसे ज्यादा व्यथित है। क्या पंडित जी के दर्शन के आलोक में आज के किसान की व्यथा के कारण एवं हल ढूंढे जा सकते हैं?
अपने देश के सारे जीवन मूल्य एवं समृद्ध संस्कृति जो बनी, उसका कारण है हमारा कृषि कार्य करना व वनों से जुड़ाव। इसी के साथ जीवन जीते-जीते हमारा विकास हुआ। हमने प्रकृति को भी अपने जैसा ही समझा। हम सारे विश्व में एक घटक के रूप में रहे। आज भी भारतवर्ष कृषि प्रधान देश ही है। भारत के हित, उसकी संस्कृति का वैभव और उसकी उन्नति के प्रेरक और जीवटता के मूल में कृषक एवं वनवासी समाज ही है। अब नीतिगत सुधारों को भी इसी दिशा में चलना पड़ेगा। केवल एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उद्योगों को हमने अपनी परम्परा के अनुसार संचालित करना है। यानी आज से 200 साल पहले जब अंग्रेजी शासन हावी रहा उस समय हमारी कृषि और उद्योग पर ग्रहण लग गया। अंग्रेजों के आने से पूर्व उद्योग जगत में भी हम पहले स्थान पर थे और हजारों वर्ष की परंपरा में उद्योग और कृषि का समन्वय करके हम चले। अभी ये जो प्रवृत्ति है किसानों का हित करने में ही किसानों का हित है, उद्योगों का हित करने में ही उद्योगों का हित है, ये एकांगी विचार पश्चिम की देन है। हमने तो ये विचार किया कि ये सब समन्वित रूप से ठीक चलने चाहिए। इसके लिए कृषकों का हित और उद्योगों का हित समान रूप से देखा जाए। हम उद्योग प्रधान या कृषि प्रधान जैसा कोई एक विशेषण नहीं लेना चाहते। हमें उद्योग भी चाहिए और कृषि भी चाहिए। गरीब से गरीब किसान भी गरीब न रहे। खेतीहर मजदूर भी आत्महत्य् ाा के लिए विवश न हो। ऐसी ही नीति और कानून होने चाहिए। परन्तु उसके साथ-साथ आज की दुनिया में उद्योग और तकनीकी के क्षेत्र में भी देश को आगे बढ़ाना पड़ेगा। औद्योगिकीकरण के बाद दीनदयाल जी ने कहा कि औद्योगिकीकरण जितना आवश्यक हो उतना होना चाहिए। बिना जंगल काटे और बिना खेती की उपजाऊ जमीन लिए हमें उद्योग लगाने पर विचार करना चाहिए। हमारे सारे लोगों का भरण-पोषण होने के साथ ही दुनिया को भी हम कुछ अन्न दे सकें इसके लिए किसान हित में कृषि के लिए कितनी जमीन आवश्यक है इसका आकलन करना चाहिए। जंगल कितने चाहिए ताकि पर्यावरण इत्यादि सब ठीक रहे और शेष जमीन में उद्योगों को हम कैसे आगे बढ़ा सकते हैं, इसका हिसाब लगाना होगा। इस दृष्टि से माननीय सुदर्शन जी ने झारखंड में एक प्रयोग करवाया था। जनजातीय समाज के लोगों को बुलाकर एक परंपरागत छोटी भट्टी से लोहा निर्माण की तकनीक को उन्होंने प्रदर्शित कराया। इसका आधार लेकर भारत को तकनीक के क्षेत्र में भी अपनी नई राह खोजनी होगी, नए प्रयोग करने पड़ेंगे। अमरीका-यूरोप की परिस्थिति एवं व्यवस्था अलग है। अत: वहां अलग प्रकार की प्रणाली होगी। समूची दुनिया में उनकी प्रणाली के अनुसार बदलाव करना अच्छा नहीं है। बाहर का जो अच्छा है उसे हम स्वीकार करें परंतु मुख्य रूप से हम अपने अनुसार ही तंत्र एवं नीति का निर्माण करें। मैं समझता हूं कि भारतवर्ष अपने यहां जो तकनीक, विद्या और परम्परा है, उसका समन्वय करके सबको सुखी रखने वाली व्यवस्था दे सकता हैे।
* लोकतंत्र दबाव समूहों से मजबूत होता है, ऐसा राजनीति शास्त्र में विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक पढ़ाया जाता है। दीनदयाल जी का दर्शन एक-दूसरे की आवश्यकता समझते हुए आगे बढ़ने की बात करता है। 'वन रैंक वन पेंशन ' या भूमि अधिग्रहण के लिए आन्दोलन करने वाले किसान या आरक्षण की एक हवा उठाने का प्रयास, एकात्म मानव दर्शन के संदर्भ में इनको आप कैसे देखते हैं?
मुझे लगता नहीं कि एकात्म मानव दर्शन ने दबाव समूहों को नकार दिया है। दबाव समूह क्यों बनते हैं? प्रजातंत्र में कुछ आकांक्षाएं होती हैं, लेकिन दबाव समूहों के माध्यम से दूसरों को दुखी करके इन्हें पूरा नहीं किया जाना चाहिए। सब सुखी हों, ऐसा समग्र भाव होना चाहिए। लेकिन देश के हित में हमारा हित है, ये समझकर चलना समझदारी है। शासन को इतना संवेदनशील होना चाहिए कि आन्दोलन किए बिना समस्याएं ध्यान में लेकर उनके हल के प्रयास करें। एकात्म मानव दर्शन के प्रकाश में सरकार अलग है, यह सोच बदलने की जरूरत है। आपको पंखे की हवा चाहिए और मुझे नहीं चाहिए। हो सकता है हम दोनों तय करें कि, अच्छा पंखा 4 पर मत चलाओ, 1 पर चलाओ। इसके आधार पर बात आगे बढ़ती है। आगे बढ़ने का रास्ता संघर्ष नहीं, समन्वय है। इसलिए पूरे समाज के हित में हमारा हित है, ये दृष्टि शासनकर्ताओं और समाजवेत्ताओं, दोनों की आनी चाहिए। उचित संतुलन दोनों ओर से होना चाहिए। वास्तव में तो ये दो पक्ष हैं ही नहीं, एक ही समाज है, सत्ता से एक अंतिम फटेहाल व्यक्ति तक, ये समाज एक इकाई है। और किसी एक वर्ग के द्वारा किसी एक के हित को लगातार दबाते रहना, यह समूचे हित के खिलाफ है। ये ध्यान में रखकर इस दृष्टि से कार्य होना चाहिए।
* एक विसंगति दिखती है। आपके कहने में आया कि समाज उतना समझदार नहीं है परन्तु जब सबसे कमजोर कड़ी पर ही एक आदर्श व्यवस्था खड़ी करने की जिम्मेदारी आ जाती है तो आपको नहीं लगता कि ये व्यवस्था व्यावहारिक कम है आदर्शवादी ज्यादा है? इसे जमीन पर उतारना सरल नहीं है? जो व्यक्ति अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है, अभी इतना समझदार नहीं हुआ कि अपने हित से आगे कुछ बड़ा सोच पाए, ऐसे में वही उस जिम्मेदारी का केन्द्र बन जाए। इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं?
ये स्थिति बनती है, लेकिन तब तक एक राह भी है, जो आप देख रहे हैं। पर्याय होता तो समस्या खड़ी न होती, शाासन को अपनी नीतियां प्रभावी बनानी चाहिए। ये दोनों पर्याय का समूह हैं। समाज को सही दिशा में हमें ले चलना है। उस नजरिये से ये आज की स्थिति में उतर सकता है कि नहीं ये करके देखना पड़ेगा। क्या हम इसको कर सकते हैं? मेरा मानना है कि अब तक जितने राजनीतिक दल हैं उनमें 'हां हम ये कर सकते हैं' की दृढ़ता कम दिखायी दी है। ऐसा अभीष्ट अभी तक पूर्ण नहीं हुआ है, लेकिन हमको पूर्ण करना है। ये सत्ता की भी समझ में आए और समाज की भी समझ में आए तो सब ठीक हो जाएगा। विषम परिस्थिति में भी चलना पड़ता है कभी-कभी। फिर स्थितियां अनुकूल हो सकती हैं। घोष वादन सतत् चलना चाहिए लेकिन कभी ऐसी परिस्थिति आती है कि घोष बजता ही नहीं, लेकिन लोग बिना घोष वादन के भी संचलन में अपने-अपने कदम ठीक रखें, यह आवश्यक है। समाज में आज जो प्रयास चल रहे हैं उनमें कुछ आशा दिखती है और इस प्रकार सुशासन चल सकता है। सत्ता और समाज के आपसी सहयोग से देश बना है, इसके संघर्ष से नहीं बना है। एकात्म मानव दर्शन बिल्कुल व्यावहारिक बात है। इसे धरती पर उतारने के लिए हमको और कुछ करना पड़ेगा। जब तक हम प्रयोग द्वारा वह दिखा नहीं पाते तब तक हम इसकी व्यावहारिकता को सिद्ध नहीं कर सकते।
* केन्द्र एवं राज्यों के बीच खींचतान लगातार चलती रहती है। एकात्म मानव दर्शन के परिप्रेक्ष्य में यदि कहा जाए तो क्या किसी राज्य के लिए राजनीति से प्रेरित विशेष पैकेज होना चाहिए या राष्ट्र हित से प्रेरित होना चाहिए? और इस खींचतान का हल क्या है?
इसका तो एक ही हल है-सद्भाव। केन्द्र भी देश के लिए सत्ता चलाता है। राज्य भी देश के लिए सत्ता चलाता है। राज्य नामक इकाई देश में एकात्म है। यह अलग इकाई नहीं है। स्वायत्त नहीं है। हाथ कहे कि मैं स्वायत्त हूं, पैर कहे मैं स्वायत्त हूं, दिमाग कहे मैं स्वायत्त हूं। पूरा शरीर उसका है तो राष्ट्र-पुरुष के रूप में हम एक पूर्ण इकाई हैं। ये भाव अगर हैं तब सब ठीक है। और इसलिए पैकेज देते समय ये हमेशा ध्यान में होना चाहिए कि अपने शरीर के सब अंग राजनीति से प्रेरित नहीं हैं। लेकिन सब लोग उसका राजनीति के लिए उपयोग करते हैं और उस स्पर्धा में अगर हम हैं तो हमको क्या करना है। ये तो चलने वालों को तय करना पड़ता है। उन्हीं को ये तय करना पड़ता है कि इस स्पर्धा में भी आगे जाएं। यह बाद में राजनीति का ही साधन बन जाए, ऐसा हमको नहीं करना है। लेकिन हम ऐसा सोचने वाले लोग स्पर्धा में पिछड़ जाएंगे, उपयोग करने वाले लोग ही हावी हो जाएंगे और ये साधन बन जाएगा, उसे भी टालना है। इसे युक्तिसंगत तरीके से देखना और करना पड़ेगा।
आपने कहा कि प्रामाणिकता ही कसौटी होती है। कोई ऐसी नीति जिसमें आपको लगता हो कि ये ठीक है और पूरी प्रामाणिकता से लागू की गई, ऐसी नीतियों से एकात्म मानव दर्शन साकार हो सकता है। क्या ऐसी कोई एक नीति आपको दिखाई देती है जो लागू की गई है या नहीं भी की गई है? आपकी क्या कल्पना है?
जैसे अपने संविधान में सामाजिक पिछड़े वर्ग पर आधारित आरक्षण नीति की बात है तो उसको राजनीति के बजाय जैसा संविधानकारों के मन में था, वैसा उसको चलाते तो आज ये सारे प्रश्न नहीं खड़े होते। संविधान में जब से यह प्रावधान आ गया तब से उसका राजनीति के रूप में उपयोग किया गया है। हमारा कहना है कि एक समिति बना दो। जो राजनीति के प्रतिनिधियों को भी साथ ले, लेकिन चले उन लोगों की जो सेवाभावी हों तथा जिनके मन में सारे देश के हित का विचार हो। उनको तय करने दें कि कितने लोगों के लिए आरक्षण आवश्यक है। कितने दिन तक उसकी आवश्यकता पड़ेगी। इन सब बातों को लागू करने का पूरा अधिकार उस समिति के हाथ में हो। ध्यान में रखना होगा कि ये सारी बातें प्रामाणिकता से लागू हों।
* एकात्म मानव दर्शन में शिक्षा और शिक्षा नीति, दोनों को काम से और संस्कार से भी जोड़ा गया है। आज के संदर्भ में यदि शिक्षा नीति को ठीक करना है तो आप क्या सुझाव देंगे?
पहले तो हमें प्रचलित सोच को ही एक नया रूप देना पड़ेगा, इसे बदलना पड़ेगा। दुनिया में जितने शिक्षा केन्द्र हैं सबको मालूम है कि शिक्षा एक तरफ पेट भरने की कला सिखाती है तो दूसरी तरफ एक अच्छा मनुष्य बनाती है। उस दृष्टि से अपने देश के मूल्यों के आधार पर देश की शिक्षा हो, ऐसा अपने यहां कभी सोचा ही नहीं गया। एक बार इस विषय पर विचार कर शिक्षा नीति की दशा और दिशा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा नीति में बहुत कुछ बदलना है। शिक्षा नीति का प्रारंभ शिक्षक से होना चाहिए। योग्य शिक्षक चाहिए। योग्य शिक्षक चाहिए तो शिक्षकों को भी वह प्रेरणा देनी पड़ेगी। शिक्षा पर सत्ता में बैठे लोगों का हस्तक्षेप कम हो। शिक्षा सत्य पर आधारित हो। सत्य पर आधारित शिक्षा नागरिकों में आत्मविश्वास भरने वाली होती है। शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली संजीवनी है। और एक बात मैं कहता हूं कि शिक्षा केवल विद्यालय में नहीं होनी चाहिए, घर में, समाज के वातावरण में होनी चाहिए। दीनदयाल जी बार-बार समाज केन्द्रित शिक्षा की बात करते थे। हमें प्रामाणिकता से उस दिशा में सोचना और कदम बढ़ाना चाहिए। *
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