मजहब परस्ती से ऊपर हो वतनपरस्ती - साकेन्द्र प्रताप वर्मा
मजहब परस्ती से ऊपर हो वतनपरस्ती
-साकेन्द्र प्रताप वर्मा
तारीख: 28 Sep 2015
देश की छद्म सेकुलर राजनीति ने भारतीय मुस्लिम मानस को देश के लिए उपयोगी न बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सन् 1905 में अंग्रेजी हुकूमत ने हिन्दू और मुसलमान के नाम पर बंगाल का विभाजन किया था, किंतु अंग्रेजों का षड्यंत्र सफल नहीं हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं टूटी। दोनों ने डटकर मुकाबला किया। विभाजन समाप्त हुआ। उसके बाद अंग्रेजों के प्रयास, लोकमान्य तिलक के बजाय गांधी के हाथों में कांग्रेस का नेतृत्व तथा इकबाल द्वारा जिन्ना को उकसाने के षड्यंत्रों ने भारत को विभाजन तक लाकर खड़ा कर दिया। आज भी मुसलमानों को सच समझाने के बजाय वोट बैंक के रूप में एकत्र करने के ही प्रयास अधिकांश राजनेताओं द्वारा किये जा रहे हैं।
इस देश में रहीम, रसखान, मलिक मोहम्मद जायसी, अश्फाक उल्ला खान, बहादुरशाह जफर ने अपने-अपने तरीके से राष्ट्रवाद से मुस्लिम समुदाय को जुड़ने की प्रेरणा दी है। बहादुरशाह जफर के दो बेटों का सिर कलम करके उनके सामने पेश किया गया और अंग्रेजी हुक्मरानों ने कहा कि आत्मसमर्पण करो तथा समझ लो-
दमदमे में दम नहीं है, खैर मांगो जान की!
ए जफर अब सो चुकी शमशीर हिंदुस्थान की!!
तब बहादुरशाह ने दृढ़तापूर्वक अपनी देशभक्ति से भरा उत्तर दिया था-
गाजियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की।
तख्ते लंदन तक चलेगी, तेग हिंदुस्थान की।।
परंतु आज की राजनीति ने इस तेग को लंदन तक चलने के बजाय अपने देश में अपने ही भाइयों के खिलाफ चलने की राह तक क्यों पहुंचा दिया? मजहब बदलने मात्र से पुरखे, बाप-दादे नहीं बदलते फिर सामाजिक परिवेश में अंतर क्यों? इसके लिये केवल कुछ राजनीतिक नेताओं का व्यवहार ही दोषी है, जिसके कारण अलगाववाद पनप रहा है। न जाने समझने में कहां से गलती हो रही है अथवा तो भारत के बहुसंख्यक मुसलमानों का इस देश की माटी के साथ वैसा ही रिश्ता है जैसा हिन्दुओं का। परिस्थितिवश उन्होंने अपनी पूजा पद्धति बदल दी परंतु पूर्वज तो सांझे ही हैं, सांस्कृतिक विरासत भी सांझी ही है इसलिए परंपराएं भी सांझी ही होनी चाहिए थीं। किंतु आजाद भारत में वोट बैंक के नाते समय-समय पर मुस्लिम समाज को बरगलाने की कोशिश की गयी। सत्य तो यह है कि हिन्दू समाज में भी तमाम ऐसे लोग हैं जो देवी-देवताओं को अवतार नहीं मानते। कुछ ऐसे भी हैं जो किसी एक देवता को मानते हैं, शेष को नहीं मानते। परंतु पूर्वज तो सभी के एक ही हैं। यही स्थिति ईसाई या मुस्लिम समाज को माननी चाहिए। पाकिस्तान ने प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनि की पांच हजारवीं जयंती मनायी। यदि पाणिनि उनके पूर्वज हो सकते हैं तो भारत के मुसलमानों के पूर्वज राम, कृष्ण, व्यास, वाल्मीकि क्यों नहीं? बाबर, औरंगजब, अकबर, गजनी, गोरी, शाहजहां आदि विदेशी आक्रांता भारत के मुसलमानों के पूर्वज नहीं हो सकते। ये तो वे आक्रमणकारी हैं जिन्होंने भय, दबाव या लालच देकर आज के मुसलमानों (जो पहले हिन्दू ही थे) का कन्वर्जन किया। इनकी पूजा पद्धति बदली, इनकी परंपराओं को नष्ट किया। इसलिए जरूरत तो यह थी कि यह सत्य आम मुसलमान को बताया जाय। लेकिन इसमें भी बाधक है अशिक्षा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति ए. एम. खुसरो ने कहा था कि मुस्लिम समाज की अनेक समस्याओं का कारण उनकी अशिक्षा है। भारत में नालंदा और तक्षशिला तो पहले से ही ज्ञान का भण्डार थे, किंतु मजहब बदलने के बाद उनके प्रति नफरत के बीज बोये गये।
आधुनिककाल में कोई भी राष्ट्र तभी उन्नति कर सकता है जब उसके सभी नागरिक अपना योगदान दें। दुर्भाग्य से आज समान नागरिक बनने के बजाय विशेष वर्ग बनने की होड़ लगी है। आज मुस्लिम समाज तीन वर्गों में बंटा है। पहला मुल्ला, मौलवी और उलेमा, दूसरा कट्टरपंथी, तीसरा अमन पसंद आम आदमी। तीसरे वर्ग पर पहले का प्रभाव है तथा दूसरे का दबाव है। डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि हिन्दू इस देश में शक्तिशाली हो, यही मुस्लिमों के हित में है, क्योंकि हिन्दू धर्म सब मत-पंथों का आदर करने का आदेश देता है। मुसलमानों की मजहबी पहचान तो अलग है किन्तु उनकी राष्ट्रीय पहचान और हिन्दुओं की राष्ट्रीय पहचान एक होनी चाहिए, इसी में दोनों का लाभ है।
इंडोनेशिया मुस्लिम बहुसंख्या वाला देश है। आकाश में उड़ने वाली उनकी हवाई सेवा का नाम है 'गरुड़ एयरवेज'। उनके यहां रामलीला और महाभारत का मंचन होता है, पात्र सभी मुसलमान रहते हैं। उनके चौराहों पर राम, कृष्ण, हनुमान की प्रतिमाएं हैं। उनकी मुद्रा पर गणेशजी का चित्र छपा है। उनके राष्ट्रपति रह चुके हैं सुकर्ण, जिनकी पत्नी थीं रत्ना देवी। दोनों ही मुसलमान थे। बाद में उनकी पुत्री मेघवती सुकर्णपुत्री राष्ट्रपति बनीं। जब इंडोनेशिया के मुसलमान से यह प्रश्न होता है कि आप के रीति-रिवाज, पूर्वज तो हिन्दुओं जैसे हैं। तो उनका उत्तर होता है कि हमने उपासना पद्धति बदली है पूर्वज नहीं। कुछ दिन पहले चित्रकूट में इंडोनेशिया के रामलीला खेलने वालों का 269 सदस्यीय एक दल आया। सभी मुसलमान थे, किन्तु रामलीला में अभिनय देखने लायक था।
भारतवर्ष एक विशाल देश है जिसमें विविध भाषा, जाति और मजहब या पंथ के लोग रहते हैं। यह ऋषि, मुनियों और फकीरों का देश है। यहां देवताओं का वास है। यहां की माटी ने उन सभी मजहबों को आदर दिया है जो विश्व में कहीं भी उपजे हैं। भारत ने हमेशा 'धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो- प्राणियों में सद्भावना हो-विश्व का कल्याण हो- सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया- सर्व पंथ समभाव- एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति' आदि का संदेश दिया है। इस भूमि ने पूरे विश्व में शांति, प्यार, अहिंसा व भाईचारे का संदेश भी दिया है। आज वही भूमि भयानक आतंकवाद, घुसपैठ, अलगाववाद, जनसंख्या की बाढ़, भ्रष्टाचार, आंतरिक कलह आदि की चपेट में है। दुनिया के देशों में हमारी पहचान जाति या मजहब से नहीं होती बल्कि वतन से होती है, इसीलिए राष्ट्रीयता का आधार मजहब के बजाय वतन होता है। जब-जब- हमारी आंखों के सामने वतन से ऊपर मजहब हो जाता है, तब-तब हिंसा और टकराव जन्म लेता है। जैसे-जैसे हमारी वतन परस्ती मजहब से ऊपर बढ़ती जाती है वैसे-वैसे प्यार, मोहब्बत और अमन का पैगाम समूचे मुल्क में जाता है। जरूरत इस बात की है कि तथाकथित सेकुलर राजनेता भारत के मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए उनको गुमराह करने के स्थान पर वतनपरस्ती का संदेश दें। इसमें ही पूरे देश का भला होगा।
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