किसानों की दुर्दशा और कांग्रेस
मोदी सरकार की नई फसल बीमा योजना से कांग्रेस में घबराहट - भाजपा
कोटा, 28 सितम्बर। भाजपा जिला महामंत्री अरविन्द सिसोदिया ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुये कहा “किसान भी जानते हैं कि जनाधार खो चुकी कांग्रेस नौटंकी कर रही है।” उन्होने दावा किया कि “ किसानों की असली चिंता ही भाजपा ने की है, किसान क्रेडिट कार्ड योजना, फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, सहायता नियमों का सरलीकरण भाजपा की ही देन है।” सीसोदिया ने दावा किया “नरेन्द्र मोदी सरकार किसानों के हित के लिये नई फसल बीमा योजना तैयार कर रही है, जिसमें किसानों को न्यूनतम आमदनी की गारंटी देने पर भी विचार हो रहा है। इससे कांग्रेस में घबराहट है और वह छदम किसान हित चिन्तक की नौटंकी कर रही है।”
सिसोदिया ने कहा “केन्द्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने हाल ही में जून में भोपाल में, घोषणा की है कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को देश के गांव, गरीब और किसानों की चिंता है तथा वह किसानों के लिये नई फसल बीमा योजना लाने वाली है। इस योजना में किसानों को न्यूनतम आमदनी की गारंटी भी दी जायेगी।“
भाजपा नेता अरविन्द सिसोदिया ने बताया कि “केन्द्र में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार लगातार 10 साल फसल बीमा योजना पर मूक दर्शक बनीं रही और नरेन्द्र मोदी सरकार ने आते ही फसल बीमा में किसानों को 50 फीसदी फसल की बर्बादी पर ही मुआवजा सीमा को घटाकर 33 फीसदी किया और मुआबजा राशि भी डेढ गुणा कर दी। यह है भाजपा का किसान हित चिन्तक चेहरा।“
अरविन्द सिसोदिया ,
जिला महामंत्री भाजपा कोटा,
9414180151
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भारत में किसान आत्महत्या
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भारत में किसान आत्महत्या १९९० के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या की रपटें दर्ज की गई है। १९९७ से २००६ के बीच १,६६,३०४ किसानों ने आत्महत्या की। भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याअों का मुख्य कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएं की है।
अनुक्रम : -
1 इतिहास
2 आंकड़े
3 कारण
4 संदर्भ
5 बाहरी कड़ियाँ
इतिहास
१९९० ई. में प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार द हिंदू के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी. साईंनाथ ने किसानों द्वारा नियमित आत्महत्याअों की सूचना दी। आरंभ में ये रपटें महाराष्ट्र से आईं। जल्दी ही आंध्रप्रदेश से भी आत्महत्याअों की खबरें आने लगी। शुरुआत में लगा की अधिकांश आत्महत्याएं महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास उत्पादक किसानों ने की है। लेकिन महाराष्ट्र के राज्य अपराध लेखा कार्ययालय से प्राप्त आंकड़ों को देखने से स्पष्ट हो गया कि पूरे महाराष्ट्र में कपास सहित अन्य नकदी फसलों के किसानों की आत्महत्याअों की दर बहुत अधिक रही है। आत्महत्या करने वाले केवल छोटी जोत वाले किसान नहीं थे बल्कि मध्यम और बड़े जोतों वाले किसानों भी थे। राज्य सरकार ने इस समस्या पर विचार करने के लिए कई जाँच समितियाँ बनाईं। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सरकार द्वारा विदर्भ के किसानों पर व्यय करने के लिए ११० अरब रूपए के अनुदान की घोषणा की। बाद के वर्षों में कृषि संकट के कारण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी किसानों ने आत्महत्याएं की। इस दृष्टि से २००९ अब तक का सबसे खराब वर्ष था जब भारत के राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय ने सर्वाधिक १७,३६८ किसानों के आत्महत्या की रपटें दर्ज की। सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई थी। इन ५ राज्यों में १०७६५ यानी ६२% आत्महत्याएं दर्ज हुई।
आंकड़े
राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार भारत भर में २००८ ई. में १६,१९६ किसानों ने आत्महत्याएं की थी। २००९ ई. में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में १,१७२ की वृद्धि हुई। 2009 के दौरान 17368 किसानों द्वारा आत्महत्या की आधिकारिक रपट दर्ज हुई।[4]"राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय" द्वारा प्रस्तुत किये गए आंकड़ों के अनुसार १९९५ से २०११ के बीच १७ वर्ष में ७ लाख, ५० हजार, ८६० किसानों ने आत्महत्या की है। भारत में धनी और विकसित कहे जाने वाले महाराष्ट्र में अब तक आत्महत्याअों का आंकड़ा ५० हजार ८६० तक पहुँच चुका है। २०११ में मराठवाड़ा में ४३५, विदर्भ में २२६ और खानदेश (जलगांव क्षेत्र) में १३३ किसानों ने आत्महत्याएं की है। आंकड़े बताते हैं कि २००४ के पश्चात् स्थिति बद से बदतर होती चली गई। १९९१ और २००१ की जनगणना के आंकड़ों को तुलनात्मक देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किसानों की संख्या कम होती चली जा रही है। २००१ की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में ७० लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया। २०११ के आंकड़े बताते हैं कि पांच राज्यों क्रमश: महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल १५३४ किसान अपने प्राणों का अंत कर चुके हैं।
सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा। देश में हर महीने ७० से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
कारण
किसानों को आत्महत्या की दशा तक पहुँचा देने के मुख्य कारणों में खेती का हानिप्रद होना या किसानों के भरण-पोषण में असमर्थ होना है। कृषि की अनुपयोगिता के मुख्य कारण हैं-
कृषि जोतों का लघुतर होते जाना - १९६०-६१ ई. में भूस्वामित्व की इकाई का औसत आकार २.३ हेक्टेयर था जो २००२-०३ ई. में घटकर १. ०६ हेक्टेयर रह गया।
भारत में उदारीकरण की नीतियों के बाद खेती (खासकर नकदी खेती) का पैटर्न बदल चुका है। सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के कारण “नीची जाति” के किसानों के पास नकदी फसल उगाने लायक तकनीकी जानकारी का अक्सर अभाव होता है और बहुत संभव है कि ऐसे किसानों पर बीटी-कॉटन आधारित कपास या फिर अन्य पूंजी-प्रधान नकदी फसलों की खेती से जुड़ी कर्जदारी का असर बाकियों की तुलना में कहीं ज्यादा होता हो।
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किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में होती जा रही है बढ़ोतरी।
इन दिनों देश में किसानों की आत्महत्या का विषय पुन : चर्चा में है। वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध के मात्र 120 घंटों के बाद ही रोक हटाकर पुन: निर्यात करने की घोषणा क्यों कर दी, इस पर शंका की सुई उनकी तरफ उठना स्वाभाविक था। लोकसभा में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले शिवसेना के सदस्यों ने इस पर भारी क्षोभ व्यक्त किया। महाराष्ट्र देश का एक बड़ा कपास उत्पादक प्रदेश है। कपास उत्पादक किसान आत्महत्या के लिए क्यों मजबूर होते हैं? इसकी जांच-पड़ताल की बातें तो होती हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस निर्णय देश के सामने नहीं आया है। शिवसेना के प्रयासों से इस बार इस ज्वलंत प्रश्न पर डेढ़ घंटे की चर्चा का समय लोकसभा में निश्चित किया गया है। जब इस पर चर्चा होगी तो महाराष्ट्र की तरह देश में अन्य प्रदेशों के किसानों की आत्महत्या का मामला भी अवश्य उठेगा। कृषि राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत आती है, लेकिन इसके आयात-निर्यात और ऋण संबंधी मामलों में केन्द्र सरकार का दखल निश्चित रूप से होता है। जब आत्महत्या का मामला सामने आता है तो यह कानून और व्यवस्था का भी एक अंग है। इसलिए केन्द्र सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती है।
सिर्फ चिंता : "नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो" द्वारा प्रस्तुत किये गए आंकड़ों के अनुसार 1995 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की है। महाराष्ट्र के किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की। भारत में धनी और विकसित कहे जाने वाले महाराष्ट्र में अब तक आत्महत्या का आंकड़ा 50 हजार 860 तक पहुंच चुका है। 2011 में मराठवाड़ा में 435, विदर्भ में 226 और खानदेश (जलगांव क्षेत्र) में 133 किसानों ने आत्महत्याएं की है। महाराष्ट्र के पश्चात् कर्नाटक, आंध्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का नम्बर आता है। आंकड़े बताते हैं कि 2004 के पश्चात् स्थिति बद से बदतर होती चली गई। 1991 और 2001 की जनगणना के आंकड़ों को तुलनात्मक देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किसानों की संख्या कम होती चली जा रही है। 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया। 2011 के आंकड़े बताते हैं कि उपरोक्त पांच राज्यों में कुल 1534 किसान अपने प्राणों का अंत कर चुके हैं। प्रत्येक किसान समय पर अपना कर्ज खत्म करने का प्रयास करता है, किंतु फसलों की बर्बादी से वह ऐसा नहीं कर पाता है। इस चिंता में वह भीतर से टूट जाता है और अंतत: आत्महत्या का मार्ग चुन लेता है। कृषक बंधु अब खेती को घाटे का धंधा मानते हैं। इसलिए उनकी आने वाली पीढ़ी अपने मां-बाप की तरह कर्ज में न तो मरना चाहती है और न ही आत्महत्या करना चाहती है।
सूखे और बाढ़ का प्रकोप : किसान के सिर पर सूखे और बाढ़ का प्रकोप तो तलवार बन कर लटकता ही रहता है, लेकिन इसके साथ-साथ कभी फसल अच्छी हो गई तो पैदावार का सही मूल्य दिलाने में सरकार उत्साहित नहीं होती। खराब और घटिया प्रकार का बीज उसका दुर्भाग्य बन जाता है। लागत की तुलना में जब आय ठीक नहीं होती है तो वह सरकारी कर्ज चुकाने में असफल रहता है। किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने इस बात का दावा किया था कि वर्ष 2010 में 365 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी एक दिन में एक, इनमें से मात्र 65 ने कर्ज के कारण आत्महत्या की थी। लेकिन राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो इस दावे की पूरी तरह से पोल खोल देता है। अब सवाल यह है कि जब सरकार लागत के अनुसार कपास की कीमत नहीं देती है तो फिर उसके निर्यात पर प्रतिबंध क्यों लगाती है? इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। पिछले दिनों यह घटना घटी। 120 घंटे तक सरकार ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए रखा। लेकिन न जाने क्या बात है कि हड़बड़ी में लगाए गए इस प्रतिबंध को सरकार ने कुछ शर्तों के साथ रद्द कर दिया। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का तो कहना है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है। लेकिन आनंद शर्मा ने इसका लूला-लंगड़ा बचाव किया। किन मिल मालिकों एवं धन्ना सेठों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने यह निर्णय लिया ये तो वे ही जानें। लेकिन जो समाचार मिल रहे हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने कुछ शक्तिशाली लोगों के लिए यह निर्णय लिया। उसके समाचार सारे देश में पहुंचे और सरकार आलोचना का शिकार बने इससे पहले ही अपने पाप को छिपाने का भरपूर प्रयास किया। निर्यात पर प्रतिबंध लगते ही भाव घटे जिसमें दलालों और पूंजीपतियों की चांदी हो गई। पिछले वर्ष भी ऐसा ही नाटक खेला गया था, जिसमें गुजरात के ही किसानों को 14 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था। इस बार कितना हुआ इसके आंकड़े अब तक उपलब्ध नहीं हुए हैं।
दूरदर्शिता की कमी : पिछली बार जब यह घटना घटी थी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि जब हमने प्रतिबंध लगाया उस समय चीन ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने कपास का भारी जत्था बेचने के लिए निकाला उससे चीन को भारी आय हुई। भारत सरकार में तनिक भी दूरदर्शिता होती तो इसका लाभ भारतीय किसान को मिलता। इस प्रकार का लाभ पहुंचाकर क्या भारत सरकार ने चीन के हौसले बुलंद नहीं किये? सरकार की इस अपरिपक्वता के रहते कोई किस प्रकार विश्वास कर सकता है कि हम चीन से आगे निकलेंगे और एक दिन महाशक्ति के पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। भारत में हर समय चीन की बात होती है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा चीन से है। चीन दुनिया में सबसे अधिक कपास पैदा करता है। विश्व में जितने हेक्टेयर पर कपास पैदा की जाती है उनमें हर चार में एक हेक्टेयर भारत के हिस्से में आता है। भारत में कुल 90 लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती है। चीनी किसान का कपास पैदा कर के वारा-न्यारा हो जाता है, लेकिन भारतीय किसान के भाग्य में तो कपास के नाम पर आत्महत्या ही लिखी हुई है। 13 राज्यों के 40 लाख से अधिक किसान कपास की खेती करते हैं। 2009 में भारत के कुल निर्यात में 38 प्रतिशत कपास था, जिससे देश को 80 करोड़ रु. की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई थी। इसकी खेती के लिए मात्र कृषि मंत्रालय ही उत्तरदायी नहीं है, बल्कि वस्त्र और वाणिज्य मंत्रालया भी उत्तरदायी हैं। कॉटन कारपोरेशन आफ इंडिया की स्थापना 1970 में की गई, जो किसानों से कपास की खरीदी करती है। बेचारा किसान खुले बाजार में इसे नहीं बेच सकता है। इसलिए सरकार ही उसकी भाग्य विधाता बनकर उसका मूल्य तय करती है।
पशुपालन का सत्यानाश : भारत सरकार को क्या यह पता नहीं है कि सदियों से कृषि के साथ-साथ किसान कोई न कोई अन्य सहायक व्यवसाय भी करता रहा है। इसमें पशुपालन और मुर्गीपालन प्रमुख रूप से रहे हैं। भारत के असंख्य कुटीर उद्योग खेती पर ही निर्भर रहे हैं। लेकिन बड़े उद्योग लगाकर सरकार ने उन सबको किसान से छीन लिया है। दूध की डेरियां स्थापित करके पशुपालन का सत्यानाश कर दिया है। इसमें जो गाय और बैल का महत्व था उसे भुला दिया गया। महाराष्ट्र में पुणे के निकट तलेगांव के चंद्रकांत पाटिल का कहना है कि भारत में लगभग आठ करोड़ बैल हैं। एक बैल आधा हॉर्स पावर बिजली का काम कर सकता है। पाटिल ने खेती और रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन में बैल का उपयोग करके एक क्रांति पैदा की है। भारत सरकार बिजली तो दे नहीं सकती लेकिन इन बैलों से चार करोड़ होर्स पावर बिजली बचाने पर भी विचार नहीं कर सकती।
महाराष्ट्र में जब शिवसेना-भाजपा की सरकार थी, उस समय राज्य योजना आयोग में नियुक्त वरिष्ठ प्राध्यापक सरोजराव ठुमरे ने एक रपट पेश की थी जिसमें महाराष्ट्र के 20 जिलों का अध्ययन कर उन्होंने यह सुझाव दिया था कि जिस जिले में जिस चीज का उत्पादन होता है उसके आधार पर वहां लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना की जा सकती है। सूरत के नौसारी कृषि विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक ने केले के तने और पत्ते के रेशों से उच्चकोटि का कागज बनाने की खोज की है। केले की खेती करने वाले कुछ देशों में इस कागज के नोट छापे जाते हैं। इससे दोहरा लाभ है। एक तो यह अपने देश की उपज से बनने के कारण सस्ता होता है और दूसरा उसकी नकल नहीं की जा सकती है। भारत सरकार किसानों को "आर्थिक पैकेज" का नाटक बंद करके वहां की स्थानीय खेती पर आधारित वस्तुओं का उत्पादन करने का मन बना ले तो किसानों की मौत का यह तांडव बंद हो सकता है।
मुजफ्फर हुसैन
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Monday, October 29, 2012
भारत में कृषि की दुर्दशा के कारण
विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के बाद भारत के किसानों की दशा और अधिक दयनीय हुई है। मुट्ठी भर किसानों एवं व्यापारियों के हितों के आगे बहुसंख्यक गरीब और छोटे किसानों के हितों की बलि दे दी गई। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि देश भर में हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यदि सरकार ने रास्ते नहीं तलाशे तो आने वाले दिनों में इनकी संख्या लाखों में पहुंच सकती है।
इससे पहले कभी भी भारत के किसानों की इतनी दुर्दशा नहीं हुई थी। भारत के किसान स्वयं खुशहाल थे एवं अन्नदाता के रूप में पूरे देश का पालन- पोषण करने में सक्षम थे लेकिन सरकार के गलत निर्णयों एवं चंद पैसों के लालच में भारत के सनातनी और ऋषि कृषि परम्परा को बाजारू कृषि बना दिया गया। दरअसल भारतीय कृषि की इस दारुण कथा की लम्बी दास्तान है।
विकासशील देशों के साथ भारत के किसानों की दुर्दशा की कहानी उन दिनों शुरू हुई जब भारत ने 1995 में विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते पर अपने हस्ताक्षर किए। यहां उल्लेख करना आवश्यक होगा कि जब तत्कालीन सरकार ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए उस समय कृषि से जुड़े संबंध पक्षों को विश्वास में नहीं लिया गया। उरुग्वे दौर की वार्ता के क्रम में जब कृषि समझौता दस्तावेज बनने की प्रक्रिया में था विकसित देश इसका विरोध करते थे।
बाद में अचानक उन्होंने इसे स्वीकार किया और विकासशील देशों को भी इस सहमति के लिए बाध्य किया। 1994 के अप्रैल में मराकेश समझौता के अंग के रूप कृषि समझौता भी स्वीकृत हुआ और 1 जनवरी 1995 से सभी देशों के लिए यह समझौता बाध्यकारी हो गया।
यहां यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि आखिर डब्ल्यूटीओ के अन्तर्गत कृषि समझौते में आखिर कौन-कौन सी बातें हैं जो आज देश के लिए परेशानी का कारण बन गई हैं
कृषि समझौते के अनुसार सभी सदस्य देशों को तीन प्रमुख मुद्दों पर अपने-अपने देशों में अमल करना था। वे मुद्दे इस प्रकार हैं-
1 . बाजार पहुंच
2. घरेलू सहायता
3. निर्यात अर्थ सहायता (सब्सिडी)
ये तीनों ऐसे मुद्दे हैं जिस पर दोहा में यह तय हुआ था कि विकसित देश तय समय सीमा के भीतर अपने बाजारों को गरीब देशों के किसानों के उत्पादों के लिए खोलेंगे। अमीर देश इनके उत्पादों पर लगने वाले सभी गैर व्यापार अवरोधों को समाप्त करेंगे। सभी देश इस बात पर भी सहमत हुए थे कि मात्रात्मक प्रतिबंध भी उठा लिया जाएगा। इन सबके बदले केवल प्रशुल्क की व्यवस्था रहेगी। जिसे समय-समय पर बातचीत के द्वारा सर्वमान्य स्तर पर ले आया जाएगा।
विकासशील देशों को इस बात की छूट मिली थी कि अपना बाजार बचाने के लिए वे गैर शुल्क अवरोध भी लगा सकते हैं। भारत ने समय से पूर्व ही सभी मात्रात्मक प्रतिबंध उठा लिए। परिणाम यह हुआ कि भारत में संवेदनशील वस्तुओं का आयात कई गुना बढ़ गया और उस क्षेत्र के उत्पादक की रोजी-रोटी समाप्त हो गयी। इसी प्रकार विकसित देशों से उनके यहां जारी घरेलू सहायता एवं निर्यात सहायता को कम करने का समझौता दोहा में हुआ था। तय समय सीमा के बाद भी ये देश निर्यात एवं घरेलू सहायता कम करने के बजाए बढ़ाते ही रहे।
इसका दुष्परिणाम भारत जैसे गरीब देशों को उठाना पड़ा। हांगकांग मंत्रिस्तरीय सम्मेलन आते-आते विकसित देशों ने अब अपनी सब्सिडी हटाने के एवज में विकासशील देशों के ऊपर मनमानी शर्तें शुरू कर दी हैं।
डब्ल्यूटीओ में कृषि पर बातचीत की शुरुआत वर्ष 2000 से शुरू हुई। दोहा में 2001 के नवम्बर में कृषि वार्ता हेतु एक मार्गदर्शक रूपरेखा तय की गई। दोहा में ही कृषि वार्ता हेतु एक निश्चित समय सीमा 1 जनवरी 2005 तय की गई। जब तक कृषि पर होनेवाली बातचीत समाप्त हो जानी चाहिए थी। इससे पूर्व सभी देशों ने अपनी कृषि नीति-व्यापार से जुड़े दस्तावेज बनाए और एक दूसरे को सौंपी। इस आधार पर एक विस्तृत प्रारूप बनाया गया।
लेकिन सभी देशों के बीच असहमति के बाद वर्ष 2003 में यह वार्ता असफल हुई। इसका कारण था विकसित देशों द्वारा कृषि से अनेक मुद्दों को जोड़ना। लेन-देन के इस फेर में विकासशील देशों ने दोहा जैसी एकजुटता दिखायी और अपने हितों की रक्षा की। जबसे कृषि का मुद्दा विश्व व्यापार संगठन में प्रमुखता से उभरा है, इसकी मंत्रिस्तरीय वार्ताएं एक-एक कर असफल होने लगी हैं। बावजूद इसके भारत की सभी सरकारें इस संस्था एवं इसको चलाने वाले पश्चिमी देशों के सामने हमेशा नतमस्तक होती आई हैं। उनकी दब्बू एवं रीढ़विहीन गति विधियों से भारतीय संप्रभुता एवं सम्मान की पगड़ी तो नीचे हुई ही भारतीय किसानों की दुर्दशा भी बढ़ती गई।
वैसे तो आर्थिक उदारीकरण के दुष्परिणाम भारत के सभी क्षेत्रों में दिखाई देते हैं लेकिन कृषि पर इसका दुष्प्रभाव गंभीर है। कृषि की दयनीय दशा होने के कारण ही गरीबी निवारण अभियान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहा। ज्ञातव्य हो कि भारत में 70 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी कृषि से ही अपना भरण-पोषण करती है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के दबाव में भारत सरकार द्वारा समय-समय पर ऐसे निर्णय लिये गये जिनके कारण भारत की खाद्य सुरक्षा, किसानों का हित एवं राष्ट्र की सम्प्रभुता खतरे में पड़ गयी है।
किसानों में बढ़ती आत्महत्या:
उदारीकरण के एक दशक से अधिक बीत जाने के बाद देश में किसानों की आत्महत्या बड़े पैमाने पर होने लगी है। किसानों ने लोभ में आकर अधिक पैसे कमाने के चक्कर में परम्परागत खेती को छोड़कर नकदी खेती करनी शुरू कर दी। सरकार द्वारा निर्यात केन्द्रित खेती को बढ़ावा देने के कारण किसानों का लोभ दुगुना हुआ। बाजार में निरवंश बीज और महंगे उत्पादक समान से कृषि लागत कई गुना बढ़ गयी।
फसल होने के बाद बाजार में समर्थन मूल्यों का अभाव एवं घर में सामाजिक सुरक्षा के अभाव में जी रहे किसानों के ऊपर बैंक वालों ने कृषि ऋण वापसी के लिए जब शिकंजा कसना शुरू किया तो बेचारे गरीब किसानों को आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा मार्ग दिखाई नहीं दिया। आत्महत्या आज भी जारी है। आर्थिक विशेषज्ञ प्रधानमंत्री क्या जानें किसानों के दु:ख दर्द को। निर्लज्जता की सीमा राजनेताओं ने किस हद तक लांघ ली है, इसकी मिसाल संसद में बहस के दौरान कृषि मंत्री शरद पवार के बयान से झलकती है, जिसमें उन्होंने कहा कि यूपीए सरकार के समय एनडीए सरकार की तुलना में कम किसानों ने आत्महत्या की है।
खेती छोड़ने को मजबूर:
खेती अब किसानों के लिए आजीविका चलाने लायक रोजगार नहीं रह गई। कृषि लागत बढ़ गई है। देशी बीज पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा है। सरकार द्वारा किसी प्रकार की सब्सिडी या अन्य सुविधाएं विश्व व्यापार संगठन के दबाव के तहत या तो बंद कर दी गई है या कम की जा रही हैं। हताश-निराश किसान खेती को छोड़कर जीविका के अन्य साधनों की तलाश में हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकीय सर्वेक्षण का मानना है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने का मन बना चुके हैं। एक कृषि प्रधान देश के लिए इससे बढ़कर और दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि उसके यहां किसानों को उसका सम्मान नहीं मिल रहा।
व्यापार के नाम पर बेईमानी:
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय किया गया यह दावा कि मुक्त व्यापार से गरीब देशों के किसानों को लाभ मिलेगा, गलत साबित हुआ है। विकासशील और गरीब देशों के लगभग 30 करोड़ किसानों की आजीविका खतरे में पड़ी है। दबाव में गरीब देशों को आयात हेतु अपना बाजार खोलना पड़ा है। सस्ती आयातित वस्तुओं से बाजार में स्थानीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धा कमजोर पड़ गई है। विकासशील देशों के बाजार ऐसे सस्ते कृषि उत्पादों से पटे पड़े हैं।
विकसित देश अपने यहां उत्पादन लागत को कम नहीं कर पाते लेकिन अपने व्यापारी एवं निर्यातकों को इतनी अधिक मात्रा में आर्थिक सहायता उपलब्ध कराते हैं जिनके कारण उनके कृषि मूल्य विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हो जाते हैं।
दूसरी तरफ जब विकासशील देशों के उत्पाद विदेशों में जाते हैं तो उनको नये-नये व्यापार अवरोध बनाकर वहां बिकने से रोका जाता है। व्यापार के नाम पर इस तरह की बेईमानी विकसित देशों द्वारा बड़े पैमाने पर अपनाई जा रही है। भारत जैसे विकासशील देशों के मंत्री इन विकसित देशों के सामने दास भाव से खड़े होते हैं। वे व्यापार के नाम पर होने वाली इन गलत हरकतों से देश के किसानों की रक्षा करने के लिए वे अवाज भी नहीं उठा पाते।
खाद्यान्न असुरक्षा:
डब्ल्यूटीओ के दबाव में सरकार द्वारा उदारीकरण के जो निर्णय लिये गये उससे कृषि सुधार पर ज्यादा बल दिया गया। परिणाम यह हुआ कि देश की वर्तमान एवं भविष्य के कुछ वर्षों के लिए प्रमुख खाद्यान्नों की उपलब्धता, जिसे खाद्य सुरक्षा भी कहा जाता है, पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। विशेषज्ञ एवं नौकरशाह और राजनेता मिलकर लोगों को यह बताकर भ्रमित करते हैं कि आयात के द्वारा देश की खाद्य सुरक्षा को पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन ऐसा उदाहरणों से स्पष्ट नहीं है।
गरीब अफ्रीकी देशों में खाद्यान्न के अभाव के कारण लाखों लोग भूख से मर रहे हैं फिर भी उन्हें कोई खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करा रहा। यदि कोई देश तैयार भी होता है तो उसकी शर्तें इतनी महंगी होती हैं कि उन पर अमल करना संभव नहीं होता। अभी तक माना जाता है कि हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर देश हो गया है।
लेकिन वर्तमान सरकार द्वारा जिस प्रकार गेहूं की बड़ी मात्रा में आयात का निर्णय लिया गया है, उससे पता चलता है कि हमारी खाद्य सुरक्षा का दावा खोखला है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि विकसित देशों का भारत के ऊपर इतना दबाव है कि हम अपने किसानों के हितों को ताक पर रखकर उनके दबाव में गेहूं का आयात कर रहे हैं। भारत जैसे देशों में गेहूं, चावल, दालें खाद्य सुरक्षा के प्रारम्भिक चक्र हैं। इसमें एक चक्र तो टूट गया है। आर्थिक दस्तावेज बताते हैं कि चावल और दलहन में भी हमारी स्थिति कमजोर है। इस प्रकार हमारी खाद्य सुरक्षा फिर खतरे में आ गई है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बोलबाला:
विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से पश्चिमी देशों की विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कृषि उत्पादों को अपना निशाना बना रही हैं। ये कम्पनियां इतनी बड़ी हैं कि भारत जैसे कई देशों के बजट के कुल खर्चे से अधिक का इनका कारोबार होता है। इनके मुकाबले देश के छोटे उद्योग या व्यापारी या दुकानदार टिक ही नहीं सकते।
पहले तो ये कम्पनियां सस्ती दरों पर अपना माल बेचकर बाजार में प्रवेश करती हैं। बाद में छोटी-छोटी कम्पनियों को खरीद कर बाजार में अपना एकाधिकार बना लेती हैं। फिर इनके हाथ में होता है बाजार, मूल्य, उपभोक्ता एवं वहां की स्थानीय निकाय और सरकार। ये कम्पनियां सभी को खरीदने की क्षमता रखती हैं। इस देश में उदारीकरण के बाद ऐसी कई कम्पनियां आई हैं, जिन्होंने बाजार में अपना वर्चस्व स्थापित किया। उन्होंने बीज पर कब्जा किया।
इसके बाद तकनीकी पर कब्जा किया और यहीं के उत्पाद को खरीदकर उसे दुगुने-तिगुने दाम पर बेचकर भरपूर मुनाफा कमाया। अभी इन कम्पनियों ने भारत सरकार के ऊपर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के लिए दबाव बनाया हुआ है। खुदरा व्यापार में कृषि उत्पाद की बहुत सारी वस्तुएं आ गयी हैं। ये कम्पनियां इस माध्यम से भी देश के करोड़ों लोगों को रोजगार देने वाले क्षेत्र पर कब्जा करने का षडयंत्र रच चुकी है। दुर्भाग्य से देश के राजनेता हकीकत को नजरअंदाज कर उन कम्पनियों को देश में बुलाने के लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं।
पेटेंट और बौद्धिक सम्पदा:
विश्व व्यापार संगठन के सबसे विवादास्पद नियमों में बौद्धिक संपदा का कानून है जिसके दबाव में भारत को 1970 के पेटेंट कानून में विकसित देशों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधन करने पड़े हैं। ज्ञातव्य हो कि भारत का 1970 का पेटेंट कानून देश की भौगोलिक सीमा के अधीन उपलब्ध सभी प्राकृतिक संसाधनों एवं आविष्कारों की रक्षा करने में सक्षम था।
चूंकि यह कानून विदेशी कम्पनियों को यहां के बाजार का लाभ उठाने से रोकता था। इसलिए उनके दबाव में इसमें परिवर्तन किया गया। अब परिवर्तित पेटेंट कानून के तहत भारत के सामने दिन प्रतिदिन अनेक चुनौतियां आ रही हैं। पेटेंट प्राप्त बीज, अनाज, फल, दूध, दवा एवं अन्य समानों के मूल्य आसमान को छू रहे हैं। आम आदमी इसे खरीद पाने में अक्षम है।
इतना ही नहीं विदेशी कम्पनियां इस मामले में भी बेईमानी करने से बाज नहीं आतीं। भारतीय बासमती चावल, करेला, नीम जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थो का उन्होंने बेईमानी से अपने यहां पेटेंट करा लिया था। भारत के लोगों को इसके खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी, तब जाकर इसे मुक्त कराया जा सका।
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता प्राप्त करने के बाद भारत के किसानों, गरीबों एवं व्यापारियों की स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर हुई है। वे अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई में पिछड़ रहे हैं। उनके प्रति सरकार का सौतेला व्यवहार उनकी दशा को और भी दयनीय बना रहा है।
दूसरी तरफ विदेशों में ऐसे-ऐसे कानून वहां के किसानों की रक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं, जिनके विरुद्ध आवाज बुलन्द करना समय की आवश्यकता होते हुए भी सरकारी कमजोरी के कारण सम्भव नहीं हो पा रहा है। हालात यदि ऐसे ही रहे तो किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की घटना आगे चलकर सामूहिक आत्महत्या का स्वरूप ग्रहण कर लेगी।
साभार विद्यानंद आचार्य
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