'तब कहां थे अभिव्यक्ति के पैरोकार' : तरुण विजय


'तब कहां थे अभिव्यक्ति के पैरोकार'

तारीख: 14 Mar 2016  अतिथि लेखक - तरुण विजय
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कोई आजादी संपूर्ण नहीं होती, परंतु इस संपूर्णता का अनुभव सबसे अधिक उसी भूमि पर हो सकता है जहां हिंदू बहुसंख्यक हो। यह इस देश में ही संभव है कि आप मूर्ति पूजक हैं या मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं, आस्तिक हैं, नास्तिक हैं या स्वयं को ही भगवान घोषित करते हों तब  भी.. कोई आपत्ति नहीं करेगा। न ही आपको काफिर घोषित कर दंडित करेगा। लेकिन कोई भी स्वतंत्रता अमर्यादित, निस्सीम और संविधान-निरपेक्ष नहीं हो सकती। आज संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोगकर मुक्त विचारों के हिंसक प्रतिरोधी गुट उसी संविधान और लोकतंत्र पर हमला कर रहे हैं।
जिस देश ने पृथ्वी पर सहिष्णुता और भिन्न मत के प्रति आदर के कीर्तिमान स्थापित किए उस माटी के पुत्रों को वे लोग सहिष्णुता का ककहरा समझा रहे हैं जिनके हाथ असहिष्णु, बर्बर व्यवहार के इतिहास में रंगे हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों को धन्यवाद देना चाहिये जिसने जेएनयू के देश विरोधी वगार्ें को भी जय हिंद बोलना और तिरंगा लहराना सिखा दिया और सिद्ध कर दिया कि भारत में केवल तिरंगे के लिए जीने-मरने वालों की विजय हो सकती है, न कि तिरंगा जलाने वालों की। दुर्भाग्यवश आज सहिष्णुता और विभिन्न मतों के प्रति आदर को उन विचारधाराओं से खतरा है जिन्होंने दुनिया भर में दूसरों के विचारों का दमन किया। चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति के कारण चार करोड़ से अधिक लोगों का समूल नाश हुआ। कंबोडिया के कम्युनिस्ट शासक पोल पॉट की क्रूरता का शिकार एक-तिहाई जनता बनी। और इन सबसे कहीं पहले, कम्युनिस्ट रूस में गुलाग और साइबेरिया के शिविरोंं में उन लोगों की सामूहिक हत्याएं हुईं जो बोल्शोविक क्रांतिकारियों से भिन्न विचार रखते थे। भारत में ही केरल के मुख्यमंत्री ईएमएस नम्बूदरीपाद ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि उन्होंने संविधान की शपथ तो ली है, परंतु वे उसे अंदर से तोड़ने का काम करेंगे। ('एंथरो महानुभावुलु' द ऑटोबायोग्राफी ऑफ सी़पी़ नायर, पूर्व मुख्य सचिव, केरल)।
संविधान को तोड़ने की घोषणा करने वाले वही लोग आज अपनी कमियां छुपाने के लिए 'सहिष्णुता' और 'अभिव्यक्ति की आजादी' का शोर मचा रहे हैं, जिसके तहत वे कभी इसी संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी देने वाली न्यायपालिका से नाखुशी जताते थे।
जेएनयू की दीवारों पर वाम संगठनों ने ऐसे पोस्टर चिपकाए जिसमें याकूब मेमन को फांसी सुनाने वाले सवार्ेच्च न्यायालय के जज को 'मनुवादी' घोषित किया गया। इनकी नजर में 900 भारतीयों की जानें लेने वाला याकूब 'निदार्ेष'और देर रात तक सुनवाई कर प्रमाणों के आधार पर सजा सुनाने वाला जज पक्षपातपूर्ण था।
दरअसल, यह विरासत उनकी है जो अपनी राष्ट्र-विरोधी हरकतें छुपाने के लिए अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार बन बैठे हैं। इन तत्वों की अभिव्यक्ति तब खामोश हो जाती है, जब दिल्ली में 3,000 से अधिक सिखों का नरसंहार होता है, जब लाखों कश्मीरी हिंदुओं को घर-बार छोड़कर घाटी से भागने को विवश कर दिया जाता है, जब नंदीग्राम हत्याकांड होता है! लेकिन जब पता लगता है कि इशरत जहां लश्कर आतंकी थी तो वे आतंकी के बचाव में मुखर हो उठते हैं। जो सियाचिन में (-)चालीस डिग्री तापमान में सरहद के रखवाले जवान के प्रति सम्मान नहीं रखते, जो किसानों की भलाई के लिए सर्वाधिक लाभकारी योजनाएं बनाने वाले प्रधानमंत्री के विरुद्ध घटिया वाक्य प्रहार करते हैं, क्या अब उनसे सीखना होगा कि देश को कैसे सहिष्णु-लोकतांत्रिक बनाया जाए? 
वास्तव में जिन तत्वों ने पिछले बारह वर्ष लगातार एक विचारधारा और उसके श्रेष्ठ शासक के विरुद्ध तर्कहीन आरोपण किया, वे उसी नायक को अभूतपूर्व बहुमत के साथ विजयी होते देख सहन नहीं कर पाये। अब ऐसे लोग झूठे मुद्दे गढ़कर मीडिया के एक वर्ग के कंधों पर चढ़कर जनादेश पर आघात करना अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान रहे हैं। भारत के गरीब, किसान, मजदूरों को इन्हीं वामपंथी गुटों के कारण अथाह अंधकार का युग झेलना पड़ा। ये वह निर्दयी और संवेदनहीन लोग हैं जिन्हें कन्हैया की माताजी का उल्लेख कर आंसू बहाने का तो ख्याल आता है लेकिन झारखंड की बहादुर बेटी संजीता कुमारी की मां का ध्यान नहीं आता जिन्होंने अपनी बीस साल की होनहार बेटी को माओवादियों की क्रूरता का शिकार होते देखा क्योंकि संजीता ने शिक्षा को बर्बर माओवादियों की राह से बेहतर माना था। क्या अभिव्यक्ति की आजादी वालों, जेएनयू के लाल सलाम वालों को संजीता का दु:ख, दु:ख नहीं लगता? इसलिए कि संजीता को मारने वाले जेएनयू के वामपंथियों के सहोदर, वैचारिक भाई हैं?
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)

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