गणगौर : अखंड सौभाग्य का पर्व Gangaur - festival of good luck

गणगौर तृतीया पर्व
गणगौर तृतीया पर्व का आयोजन शिव एवं शक्ति स्वरूपा पार्वती की असीम कृपा प्राप्त करने हेतु किया जाता है. यह व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया को किया जाता है. इस वर्ष 11 अप्रैल 2024 को गुरूवार के दिन किया जाएगा.

गणगौरी उत्सव स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. धर्मशास्त्रों में इसे गौरी उत्सव, गौरी तृतीया, ईश्वर गौरी, दोलनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है.
 चैत्रशुक्लतृतीयायां गौरीमीश्वरसंयुताम् |  सम्पूज्य दोलोत्सवं कुर्यात् ||

गणगौरी पूजन विधि | Rituals to Perform Gangauri Puja
सामान्यत: इस पर्व को तीज के दिन मनाया जाता है, इस व्रत को करने के लिए प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व प्रतिदिन की नित्यक्रियाओं से निवृत होने के बाद, साफ-सुन्दर वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद पूजा स्थल में गंगा जल छिडकर शुद्ध करना चाहिए. घर के एक शुद्ध और एकान्त स्थान में पवित्र मिट्टी से 24 अंगूल चौडी और 24 अंगूल लम्बी अर्थात चौकोर वेदी बनाकर, केसर चन्दन तथा कपूर से उस पर चौक पूरा जाता है और बीच में देवी तथा शिव मूर्ति की स्थापना करके उसे फूलों से, फलों से, दूब से और रोली आदि से उसका पूजन किया जाता है. पूजन में मां गौरी के दस रुपों की पूजा की जाती है. मां गौरी के दस रूपों में गौरी, उमा, लतिका, सुभागा, भगमालिनी, मनोकामना, भवानी, कामदा, भोग वर्द्विनी और अम्बिका हैं.

शक्ति के सभी रुपों की पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से पूजा करनी चाहिए. इस व्रत को करने वाली स्त्रियों को दिन में केवल एक बार ही दूध पीकर इस व्रत को करना चाहिए. इस व्रत को करने से उपवासक के घर में संतान, सुख और समृद्धि की वृद्धि होती है. इस व्रत में लकडी की बनी हुई अथवा किसी धातु की बनी हुई शिव-पार्वती की मूर्तियों को स्नान कराने का विधान है. प्रतिमाओं को सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सजाया जाता है. इसके पश्चात उनका श्रद्वा भक्ति से गंध पुष्पादि से पूजन किया जाता है. देवी-देवताओं को झूले में अथवा सिंहासन में झुलाने का भी विधि-विधान है.

गणगौर व्रत महत्व | Significance of Gangauri Fast
एक बार महादेव पार्वती वन में गए चलते-चलते गहरे वन में पहुंच गए तो पार्वती जी ने कहा-भगवान, मुझे प्यास लगी है. महादेव ने कहा, देवी देखो उस तरफ पक्षी उड रहे है. वहां जरूर ही पानी होगा. पार्वती वहां गई. वहां एक नदी बह रही थी. पार्वती ने पानी की अंजली भरी तो दुब का गुच्छा आया, और दूसरी बार अंजली भरी तो टेसू के फूल, तीसरी बार अंजली भरने पर ढोकला नामक फल आया. इस बात से पार्वती जी के मन में कई तरह के विचार उठे पर उनकी समझ में कुछ नहीं आया. महादेव जी ने बताया कि, आज चैत्र माह की तीज है. सारी महिलायें, अपने सुहाग के लिये " गौरी उत्सव" करती हैं. गौरी जौ को चढाए हुए दूब, फूल और अन्य सामग्री नदी में बहकर आ रहे है.

पार्वती जी ने महादेव जी से विनती की, कि हे स्वामी, दो दिन के लिये, आप मेरे माता-पिता का नगर बनवा दें, जिससे सारी स्त्रियां यहीं आकर गणगौरी के व्रत उत्सव को करें, और मैं खुद ही उनको सुहाग बढाने वाला आशिर्वाद दूं महादेव जी ने अपनी शक्ति से ऎसा ही किया. थोडी देर में स्त्रियों का झुण्ड आया तो पार्वती जी को चिन्ता हुई, और महादेव जी के पास जाकर कहने लगी. प्रभु, में तो पहले ही वरदान दे चुकी, अब आप दया करके इन स्त्रियों को अपनी तरफ से सौभाग्य का वरदान दें, पार्वती के कहने से महादेव जी ने उन्हें, सौभाग्य का वरदान दिया.

  गणगौर : अखंड सौभाग्य का  पर्व 
 Gangaur - festival of good luck


गणगौर 

Gangaur

गणगौर एक त्योहार है जो चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। 
होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से जो नवविवाहिताएँ प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, मां पार्वती की स्तुति का सिलसिला होली ही शुरू है और अभी करीब दो सप्ताह तक चलता है । वे चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। यह व्रत विवाहिता लड़कियों के लिए पति का अनुराग उत्पन्न कराने वाला और कुमारियों को उत्तम पति देने वाला है। इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है।

 गणगौर पूजन कब और क्यों
नवरात्र के तीसरे दिन यानि कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता (माँ पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति (वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिव जी से शादी हो गयी। तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लम्बी आयु के लिए यह पूजा करती है। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरम्भ की जाती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बगीचे में जाती हैं, दूब व फूल चुन कर लाती है। दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है।
आठवें दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर) के साथ अपनी ससुराल आते हैं। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के बर्तन और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है। उस मिट्टी से ईशर जी, गणगौर माता, मालिन आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ बनाती हैं। जहाँ पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहाँ विसर्जन किया जाता है वह स्थान ससुराल माना जाता है।
 
 राजस्थान का अत्यंत विशिष्ट त्योहार
राजस्थान का तो यह अत्यंत विशिष्ट त्योहार है। इस दिन भगवान शिव ने पार्वती को तथा पार्वती ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है। राजस्थान से लगे ब्रज के सीमावर्ती स्थानों पर भी यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। चैत्र मास की तीज को गणगौर माता को चूरमे का भोग लगाया जाता है। दोपहर बाद गणगौर माता को ससुराल विदा किया जाता है, यानि कि विसर्जित किया जाता है। विसर्जन का स्थान गाँव का कुआँ या तालाब होता है। कुछ स्त्रियाँ जो विवाहित होती हैं वो यदि इस व्रत की पालना करने से निवृति चाहती हैं वो इसका अजूणा करती है (उद्यापन करती हैं) जिसमें सोलह सुहागन स्त्रियों को समस्त सोलह शृंगार की वस्तुएं देकर भोजन करवाती हैं। इस दिन भगवान शिव ने पार्वती जी को तथा पार्वती जी ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। सुहागिनें व्रत धारण से पहले रेणुका (मिट्टी) की गौरी की स्थापना करती है एवं उनका पूजन किया जाता है। इसके पश्चात गौरी जी की कथा कही जाती है। कथा के बाद गौरी जी पर चढ़ाए हुए सिन्दूर से स्त्रियाँ अपनी माँग भरती हैं। इसके पश्चात केवल एक बार भोजन करके व्रत का पारण किया जाता है। गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित है।

उत्सव और अनुष्ठान
गौरी पूजन का यह त्योहार भारत के सभी प्रांतों में थोड़े-बहुत नाम भेद से पूर्ण धूमधाम के साथ मनाया जाता हैं। इस दिन स्त्रियां सुंदर वस्त्र औ आभूषण धारण करती हैं। इस दिन सुहागिनें दोपहर तक व्रत रखती हैं। व्रत धारण करने से पूर्व रेणुका गौरी की स्थापना करती हैं। इसके लिए घर के किसी कमरे में एक पवित्र स्थान पर चौबीस अंगुल चौड़ी और चौबीस अंगुल लम्बी वर्गाकार वेदी बनाकर हल्दी, चंदन, कपूर, केसर आदि से उस पर चौक पूरा जाता है। फिर उस पर बालू से गौरी अर्थात पार्वती बनाकर (स्थापना करके) इस स्थापना पर सुहाग की वस्तुएं- कांच की चूड़ियाँ, महावर, सिन्दूर, रोली, मेंहदी, टीका, बिंदी, कंघा, शीशा, काजल आदि चढ़ाया जाता है।

चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से गौरी का विधिपूर्वक पूजन करके सुहाग की इस सामग्री का अर्पण किया जाता है। फिर भोग लगाने के बाद गौरी जी की कथा कही जाती है। कथा के बाद गौरीजी पर चढ़ाए हुए सिन्दूर से महिलाएं अपनी मांग भरती हैं। गौरीजी का पूजन दोपहर को होता है। इसके पश्चात केवल एक बार भोजन करके व्रत का पारण किया जाता है। गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए निषिद्ध है। गणगौर पर विशेष रूप से मैदा के गुने बनाए जाते हैं। लड़की की शादी के बाद लड़की पहली बार गणगौर अपने मायके में मनाती है और इन गुनों तथा सास के कपड़ो का बायना निकालकर ससुराल में भेजती है। यह विवाह के प्रथम वर्ष में ही होता है, बाद में प्रतिवर्ष गणगौर लड़की अपनी ससुराल में ही मनाती है। ससुराल में भी वह गणगौर का उद्यापन करती है और अपनी सास को बायना, कपड़े तथा सुहाग का सारा सामान देती है। साथ ही सोलह सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराकर प्रत्येक को सम्पूर्ण शृंगार की वस्तुएं और दक्षिण दी जाती है। गणगौर पूजन के समय स्त्रियाँ गौरीजी की कथा भी कहती हैं।
मस्ती का पर्व
होली के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्योहार आरंभ हो जाता है जो पूरे सोलह दिन तक लगातार चलता रहता है। गणगौर के त्योहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया जाता है। यह उत्सव मस्ती का पर्व है। इसमें कन्याएँ और विवाहित स्त्रियाँ मिट्टी के ईशर और गौर बनाती है। और उनको सुन्दर पोशाक पहनाती है और उनका शृंगार करती हैं। स्त्रियाँ और कन्याएँ भी इस दिन गहने और कपड़ों से सजी-धजी रहती हैं। और गणगौर के दिन कुँआरी कन्याएँ एक खेल भी खेलती है जिसमें एक लड़की दूल्हा और दूसरी दूल्हन बनती हैं। जिन्हें वे ईशर और गौर कहते हैं और उनके साथ सखियाँ गीत गाती हुई उन दोनों को लेकर अपने घर से निकलती है और सब मिलकर एक बगीचे पर जाती है वहाँ पीपल के पेड़ के जो इसर और गौर बने होते है वो दोनों फेरे लेते हैं। जब फेरे पूरे हो जाते है तब ये सब नाचती और गाती है। उसके बाद ये घर जाकर उनका पूजन करती हैं, और भोग लगाती हैं और शाम को उन्हें पानी पिलाती हैं। अगले दिन वे उन मिट्टी के इसर और गौर को ले जाकर किसी भी नदी में उनका विसर्जन कर देती हैं।

जोधपुर का मेला
जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है। वस्त्र और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हज़ारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाज़ार गूँज उठता है। राजघरानों में रानियाँ और राजकुमारियाँ प्रतिदिन गवर की पूजा करती हैं। चित्रकार पूजन के स्थान पर दीवार पर ईसर और गवरी के भव्य चित्र अंकित कर देता है। केले के पेड़ के पास ईसर और गवरी चौपड़ खेलते हुए अंकित किए जाते हैं। ईसर के सामने गवरी हाथ जोड़े बैठी रहती हैं। ईसरजी काली दाढ़ी और राजसी पोशाक में तेजस्वी पुरुष के रूप में अंकित किए जाते हैं। मिट्टी की पिंडियों की पूजा कर दीवार पर गवरी के चित्र के नीचे सोलह कुंकुम और काजल की बिंदिया लगाकर हरी दूब से पूजती हैं। साथ ही इच्छा प्राप्ति के गीत गाती हैं। एक बुजुर्ग औरत फिर पाँच कहानी सुनाती है। ये होती हैं शंकर-पार्वती के प्रेम की, दाम्पत्य जीवन की मधुर झलकियों की। गणगौर माता की पूरे राजस्थान में जगह जगह सवारी निकाली जाती है जिसमें ईशरदास जीव गणगौर माता की आदम क़द मू्र्तियाँ होती है। उदयपुर की धींगा, बीकानेर की चांदमल गणगौर प्रसिद्ध हैं। राजस्थानी में कहावत भी है तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर अर्थ है कि सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर चार महीने का विराम आ जाता है।

कथा 

भगवान शंकर तथा पार्वती जी नारद जी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफ़ी विलंब हो गया किंतु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गईं। पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। बाद में उच्च कुल की स्त्रियाँ भांति भांति के पकवान लेकर गौरी जी और शंकर जी की पूजा करने पहुँचीं। उन्हें देखकर भगवान शंकर ने पार्वती जी से कहा, 'तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी?'

पार्वत जी ने उत्तर दिया, 'प्राणनाथ, आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहागरस दूँगी। यह सुहागरस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यशालिनी हो जाएगी।'

जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वती जी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दिया, जिस जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। अखंड सौभाग्य के लिए प्राचीनकाल से ही स्त्रियाँ इस व्रत को करती आ रही हैं।

इसके बाद भगवान शिव की आज्ञा से पार्वती जी ने नदी तट पर स्नान किया और बालू के महादेव बनाकर उनका पूजन करने लगीं। पूजन के बाद बालू के ही पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया। इसके बाद प्रदक्षिणा करके, नदी तट की मिट्टी के माथे पर टीका लगाकर, बालू के दो कणों का प्रसाद पाया और शिव जी के पास वापस लौट आईं।

इस सब पूजन आदि में पार्वती जी को नदी किनारे बहुत देर हो गई थी। अत: महादेव जी ने उनसे देरी से आने का कारण पूछा। इस पर पार्वती जी ने कहा- 'वहाँ मेरे भाई-भावज आदि मायके वाले मिल गए थे, उन्हीं से बातें करने में देरी हो गई।'

परन्तु भगवान तो आख़िर भगवान थे। वे शायद कुछ और ही लीला रचना चाहते थे। अत: उन्होंने पूछा- 'तुमने पूजन करके किस चीज़ का भोग लगाया और क्या प्रसाद पाया?'

पार्वती जी ने उत्तर दिया- 'मेरी भावज ने मुझे दूध-भात खिलाया। उसे ही खाकर मैं सीधी यहाँ चली आ रही हूँ।' यह सुनकर शिव जी भी दूध-भात खाने के लालच में नदी-तट की ओर चल पड़े। पार्वती जी दुविधा में पड़ गईं। उन्होंने सोचा कि अब सारी पोल खुल जाएगी। अत: उन्होंने मौन-भाव से शिव जी का ध्यान करके प्रार्थना की, 'हे प्रभु! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ तो आप ही इस समय मेरी लाज रखिए।'

इस प्रकार प्रार्थना करते हुए पार्वती जी भी शंकर जी के पीछे-पीछे चलने लगीं। अभी वे कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें नदी के तट पर एक सुंदर माया महल दिखाई दिया। जब वे उस महल के भीतर पहुँचे तो वहाँ देखते हैं कि शिव जी के साले और सलहज आदि सपरिवार मौजूद हैं। उन्होंने शंकर-पार्वती का बड़े प्रेम से स्वागत किया।

वे दो दिन तक वहाँ रहे और उनकी खूब मेहमानदारी होती रही। तीसरे दिन जब पार्वती जी ने शंकर जी से चलने के लिए कहा तो वे तैयार न हुए। वे अभी और रूकना चाहते थे। पार्वती जी रूठकर अकेली ही चल दीं। तब मजबूर होकर शंकर जी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारद जी भी साथ में चल दिए। तीनों चलते-चलते बहुत दूर निकल गए। सायंकाल होने के कारण भगवान भास्कर अपने धाम को पधार रहे थे। तब शिव जी अचानक पार्वती से बोले- 'मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ।'
पार्वती जी बोलीं -'ठीक है, मैं ले आती हूँ।' किंतु शिव जी ने उन्हें जाने की आज्ञा नहीं दी। इस कार्य के लिए उन्होंने ब्रह्मा पुत्र नारद जी को वहाँ भेज दिया। नारद जी ने वहाँ जाकर देखा तो उन्हें महल का नामोनिशान तक न दिखा। वहाँ तो दूर-दूर तक घोर जंगल ही जंगल था।

इस अंधकारपूर्ण डरावने वातावरण को देख नारद जी बहुत ही आश्चर्यचकित हुए। नारद जी वहाँ भटकने लगे और सोचने लगे कि कहीं वह किसी ग़लत स्थान पर तो नहीं आ गए? सहसा बिजली चमकी और नारद जी को माला एक पेड़ पर टंगी हुई दिखाई दी। नारद जी ने माला उतार ली और उसे लेकर भयतुर अवस्था में शीघ्र ही शिव जी के पास आए और शिव जी को अपनी विपत्ति का विवरण कह सुनाया।

इस प्रसंग को सुनकर शिव जी ने हंसते हुए कहा- 'हे मुनि! आपने जो कुछ दृश्य देखा वह पार्वती की अनोखी माया है। वे अपने पार्थिव पूजन की बात को आपसे गुप्त रखना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने झूठ बोला था। फिर उस को सत्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपने पतिव्रत धर्म की शक्ति से माया महल की रचना की। अत: सचाई को उभारने के लिए ही मैंने भी माला लाने के लिए तुम्हें दुबारा उस स्थान पर भेजा था।'

इस पर पार्वतीजी बोलीं- 'मैं किस योग्य हूँ।'

तब नारद जी ने सिर झुकाकर कहा- 'माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत धर्म का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम का स्मरण करने मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है?

हे माता! गोपनीय पूजन अधिक शक्तिशाली तथा आर्थक होता है। जहाँ तक इनके पतिव्रत प्रभाव से उत्पन्न घटना को छिपाने का सवाल है। वह भी उचित ही जान पड़ती है क्योंकि पूजा छिपाकर ही करनी चाहिए। आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है।

मेरा यह आशीर्वचन है- 'जो स्त्रियाँ इस तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगल कामना करेंगी उन्हें महादेव जी की कृपा से दीर्घायु पति का संसर्ग मिलेगा तथा उसकी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होगी। फिर आज के दिन आपकी भक्तिभाव से पूजा-आराधना करने वाली स्त्रियों को अटल सौभाग्य प्राप्त होगा ही।'

यह कहकर नारद जी तो प्रणाम करके देवलोक चले गए और शिव जी-पार्वती जी कैलाश की ओर चल पड़े। चूंकि पार्वती जी ने इस व्रत को छिपाकर किया था, उसी परम्परा के अनुसार आज भी स्त्रियाँ इस व्रत को पुरुषों से छिपाकर करती हैं। यही कारण है कि अखण्ड सौभाग्य के लिए प्राचीन काल से ही स्त्रियाँ इस व्रत को करती आ रही हैं।


-----------------------

राजस्थान का गणगौर पर्व

गणगौर उत्सव में देशी-विदेशी पर्यटकों की रुचि
- गोपेन्द्र नाथ भट्ट

अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं समृद्ध इतिहास की वजह से राजस्थान की रेत के कण-कण में पर्यटकों की रुचि स्पष्ट दिखती है। भारत ही नहीं, विश्व के पर्यटन मानचित्र पर महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले राजस्थान में आयोजित होने वाले मेले एवं उत्सव इसे और विशिष्ट रूप प्रदान करते हैं। अब जब कि हवाओं पर वसंत का मौसम राज कर रहा है तब राजस्थान में इस ऋतु पर और रंगोत्सव होली का रंग लगातार छाया हुआ है।

वसंत के आगमन की खुशी में उदयपुर में मेवाड़ उत्सव तथा जयपुर में देवी पार्वती को समर्पित गणगौर उत्सव की धूम अभी से व्याप्त है। आप इस दृश्य की कल्पना करें ! होली के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्योहार आरंभ हो चुका है जो पूरे 18 दिनों तक लगातार चलता रहेगा। बड़े सवेरे ही गाती-बजाती स्त्रियां होली की राख अपने घर ले गईं। मिट्टी गलाकर उससे सोलह पिंडियां बनाईं, दीवार पर सोलह बिंदियां कुंकुम की, सोलह बिंदिया मेहंदी की और सोलह बिंदिया काजल की प्रतिदिन लगा रही हैं - कुंकुम, मेहंदी और काजल तीनों ही श्रृंगार की वस्तुएं हैं, सुहाग का प्रतीक ! शंकर को पूजती कुंआरी कन्याएं प्रार्थना कर रही हैं मनचाहा वर प्राप्ति की। खूबसूरत मौसम उनकी कामना को अपना मौन समर्थन देता जान पड़ रहा है।

जयपुर में गणगौर महिलाओं का उत्सव नाम से भी प्रसिद्ध है। कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर की कामना करती हैं तो विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। अलग-अलग समूहों में महिलाओं द्वारा लोकगीत गाते हुए फूल तोड़ने तथा कुओं से पानी भरने का दृश्य लोगों की निगाहें ठहरा रहा है तो कहीं मोड़ रहा है। लोक संगीत की धुनें पारंपरिक लोक नृत्य पर हावी हो रही हैं।

मां पार्वती की स्तुति का सिलसिला होली ही शुरू है और अभी करीब दो सप्ताह और चलेगा। अंतिम दिन भगवान शिव की प्रतिमा के साथ सुसज्जित हाथियों, घोड़ों का जुलूस और गणगौर की सवारी आकर्षण का केंद्र बन रही हैं। राजस्थान पर्यटन विभाग के सौजन्य से हर वर्ष मनाए जाने वाले इस गणगौर उत्सव में अनेक देशी-विदेशी पर्यटक पहुंच रहे हैं।

झीलों की नगरी उदयपुर में पिछौला झील में सजी नौकाओं का जुलूस सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बन रहा है। उदयपुर में गणगौर नाव प्रसिद्ध है। पारंपरिक परिधानों में महिलाएं शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए पिछौला झील के गणगौर घाट पर देवी पार्वती की मूर्तियों की पूजा-अर्चना करती हैं।

इस तीन दिवसीय सालाना मेवाड़ उत्सव में देशी-विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में पहुंते हैं। समारोह के अंतिम दिन उदयपुर से 30 किलोमीटर दूर ग्रामीण अंचल में गणगौर का बड़ा मेला भी लगता है। बता दूं कि इस वर्ष उदयपुर में मेवाड़ उत्सव 25 से 27 मार्च और जयपुर में गणगौर उत्सव 25 से 26 मार्च तक आयोजित किया जा रहा है।

राजस्थान के अन्य स्थानों में भी गणगौर उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। गणगौर त्योहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया जाता है। स्त्रियां गहने-कपड़ों से सजी-धजी रहती हैं। उनकी आपसी चुहलबाजी सरस-सुंदर हैं। साथ ही शिक्षाप्रद छोटी-छोटी कहानियां, चुटकुले नाचना और गाना तो इस त्योहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है।
परदेश गए हुए इस त्यौहार पर घर लौट आते है, जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात वे जरूर आएंगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत ही तो हैं।

ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं -
गोरडयां गणगौरयां त्यौहार आ गयो
पूज रही गणगौर
सुणण्यां सुगण मना सुहाग साथै
सोला दिन गणगौर
हरी-हरी दूबा हाथां में पूज रही गणगौर
फूल पांखडयां दूब-पाठा माली ल्यादैतौड़
यै तो पाठा नै चिटकाती बीरा बेल बंधावै ओर गोरडयां..!

चैत्र कृष्ण तीज को गणगौर की प्रतिमा एक चौकी पर रख दी जाती है। यह प्रतिमा लकड़ी की बनी होती है, उसे जेवर और वस्त्रा पहनाए जाते हैं। उस प्रतिमा की सवारी या शोभायात्रा निकाली जाती है। नाथद्वारा में सात दिन तक लगातार सवारी निकलती है। सवारी में भाग लेने वाले व्यक्तियों की पोशाक भी उस रंग की होती है जिस रंग की गणगौर की पोशाक होती है। सात दिन तक उलग-अलग रंग की पोशाक पहनी जाती हैं। आम जनता के वस्त्र गणगौर के अवसर पर निःशुल्क रंगें जाते हैं।

जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है। कन्याएं कलश सिर पर रखकर घर से निकलती हैं। किसी मनोहर स्थान पर उन कलशों को रखकर इर्द-गिर्द घूमर लेती हैं। वस्त्रा और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हजारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाजार गूंज उठता है।

राजघरानों में रानियां और राजकुमारियां प्रतिदिन गवर की पूजा करती थी। पूजन के स्थान पर दीवार पर ईसर और गवरी के भव्य चित्र अंकित कर दिए जाते हैं। ईसर के सामने गवरी हाथ जोड़े बैठी रहती है। ईसरजी काली दाढ़ी और राजसी पोशाक में तेजस्वी पुरुष के रूप में अंकित किए जाते हैं। मिट्टी की पिंडियों की पूजा कर दीवार पर गवरी के चित्र के नीचे सोली कुंकुम और काजल की बिंदिया लगाकर हरी दूब से पूजती हैं। साथ ही इच्छा प्राप्ति के गीत गाती हैं।

एक बुजुर्ग औरत फिर पांच कहानी सुनाती हैं। ये होती है शंकर-पार्वती के प्रेम की, दांपत्य जीवन की मधुर झलकियों की कथाए। शंकर और पार्वती को आदर्श दंपति माना गया है। दोनों के बीच के अटूट प्रेम के संबंध में एक कथा भी है जो गणगौर के अवसर पर सुनी जाती है। 
 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इन्हे भी पढे़....

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

अटलजी का सपना साकार करते मोदीजी, भजनलालजी और मोहन यादव जी

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

Veer Bal Diwas वीर बाल दिवस और बलिदानी सप्ताह

तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहे।

सफलता के लिए प्रयासों की निरंतरता आवश्यक - अरविन्द सिसोदिया

जन गण मन : राजस्थान का जिक्र तक नहीं

स्वामी विवेकानंद और राष्ट्रवाद Swami Vivekananda and Nationalism

जागो तो एक बार, हिंदु जागो तो !

11 days are simply missing from the month:Interesting History of September 1752