भावी वर के लिए, गणगौर पूजा ....


म्हाने पूजन द्यो गणगौर
परंपराएं हमें स्पंदित करती हैं हमारे वजूद को पुख्ता करती हैं... राजस्थान केवल रेखाओं में बंटा जमीन का टुकड़ा भर नहीं है, बल्कि हमारी अमीर विरासत का हिस्सा है। यहां परपंराएं अब भी सांसें लेती हैं। ऎसी ही एक रवायत आज के दिन की भी है। आज गणगौर है। शिव-पार्वती की जोडे से पूजा का दिन। मनचाहा पति पाने के लिए व्रत रखने का दिन। राजस्थानी परपंराओं को कलमबद्ध करने वाली पद्मश्री लक्ष्मीकुमारी चूंडावत की कलम से सवारी गणगौर की...
पुरूष वर्ग तो धूलेरी के दिन मस्त हुआ गली-गली में नाचता फिरता है और स्त्रीवर्ग समाज के आगे तो यह धूलेरी नए-नए त्योहारों की श्ृंखला लिए आती है। बड़े सवेरे ही होली की राख को गाती-जाती çस्त्रयां अपने घर लाती हैं। मिट्टी मिलाकर उससे सोलह पिंडियां बनाती हैं, शंकर-पार्वती बनाकर उनकी पूजा करना प्रारम्भ कर देती हैं। सोलह दिन तक बराबर इनकी पूजा की जाती है। कुंआरी कन्याएं इनकी नियमित रूप से पूजा करती हैं। इस पूजा के पीछे यह भावना रहती है कि शंकर उन्हें अपना मनचाहा वर देंगे। जिस प्रकार पार्वती को उसकी इच्छानुसार वर मिला वैसा ही उन्हें प्राप्त होगा। किसी स्त्री का पति अच्छा होता है तो çस्त्रयां आपस में कहती हैं तू ने ईसर जी को चित्तमन से पूजा है तो तुझे ऎसा पति मिला। पूजा करते समय कन्याएं गीत गा-गाकर ईसर गौरी से मनाचाहा वर देने की प्रार्थना करती हैं।

मैड़ी बैठ्यो मद पीवे लीली के रौ असवार
खांगी बांधे पागड़ी ए चाले राठौड़ी चाल
कड़ मोड़े घोड़े चढे ए चाल निरखतो जाए 
ओ चर देई माता गोरल ए म्हें थां ने पूजन आय

कन्याएं दस-दस बीस-बीस इकट्ठी हो पूजा के लिए फूल और दूब लेने गाती हुई जंगल में, बाग में जाती हैं। फूल लेकर लौटती हैं तो बीकानेर प्रदेश का प्रभात गेरो जी फूल गुलाब रौ की ध्वनि से गूंज उठता है। जोधपुर राज्य में लोटिया लेने जाती हैं। कन्याएं फूल लाने जाती हैं अपने को खूब सजाकर। सिर पर कलात्मक पीतल के पात्र रखती हैं। एक ऊपर एक करके सात पात्र चूड़ा उतार ढंग से सिर पर रखती हैं। ऊपर वाले पात्र में फूलों को कलापूर्ण ढंग से सजा देती हैं। कन्याओं का झुंंड धीरे-धीरे गजगति से लोटिए लिए गाता हुआ आता है। बड़ा आल्हादपूर्ण एंव सुंदर दृश्य होता है।
जोधपुर के लोटिए बड़े प्रसिद्ध होते हैं। गणगौर पर तो जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है वह वर्णनातीत है। वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नाना प्रकार के कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, सहस्त्रों की संख्या में गाती हुई çस्त्रयों के कंठ स्वर से जोधपुर का गिरदीकोट मुखरित हो उठता है।
मेवाड़ और हाड़ौती में इस ऋतु में अफीम के खेतों में फूलों की बहार रहती है। अफीम के फूलों की कोमलता और रंग सुप्रसिद्ध हैं। कौनसा ऎसा रंग है जो आफू के फूलों में नहीं होता। आफू के खेतों के आगे बाग फीके नजर आते हैं।
कन्याएं पूजा के लिए फूल लेने जाती हैं। नि:संदेह आफू के खेत उन्हें अपनी ओर आने को आकर्षित करते हैं। कन्याएं पूजा के लिए फूल लाने को, उसके गहने बनाकर पहनने को उतावली हो जातीं। लड़कियों की टोलियों की टोलियां फूल बीनने को निकल पड़ती, तो माताएं उन्हें समझातीं।

बाई ऎ आफू रा फूल थोड़ा ही चूंटजो
जुवानां ने देख मती मुलकजो
बूढ़ा ने देख मती हंसज्यो
बाई, तुम आफू के फूल बहुत ज्यादा मत तोड़ना, जवानों को देख उनकी ओर मुस्कुराना मत। बूढ़ों को देख हंसना मत।
इन दिनों गुलाब के फूल खिलते हैं। पलाश पुष्पों से वनराजि रंगीन हो उठती है। सेवंती और चंपा के फूल अपनी सुगंधि बिखेरते हैं, कडुआ नीम भी अपनी कडुवी मंजरियों की मीठी सुंगधि से वायु को शीतल एवं सुगंधित कर देता है। कन्याएं फूल तोड़ती हैं, खेलती हैं, पानी से लबालब भरे सरोवरों में, उनके किनारे पर बने छज्जे वाले गोखड़ों के प्रतिबिंब को पानी में देखती हैं।
इस सौंदर्य सुषमा में अपने आपको भूलकर वे गा उठती हैं। क्या सुंदर भौगोलिक वर्णन है:

ऊंचा राणाजी थांरा गोखड़ा रे लाल
नी पीछोला री पाल व्हाला जी
अठीने उदियाणों उठी ने जोधाणों
बीच में देसूरी नाल
व्हालो लागे राणाजी रो देसड़ो रे लाल
ऎसे सुंदर, पर्वतों की गोदी में खेलते, पानी पर तैरते, अपने जन्म स्थान को छोड़ ससुराल चले जाने की कल्पना अनजाने में ही उनके मनोभावों को संगीत में ढाल कंठ स्वर में निकल पड़ती है।
कींकर जावूं रे परदेस व्हाला जी
म्हाने आछो लागे राणाजी रो देसड़ो रे लाल

दियाड़ी पूजा 

गौर पूजा के बाद दसामाता और दियाड़ीजी की पूजा की जाती है। ये पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हुए भित्ति चित्र में अंकित किए जाते हैं। यह चित्र भी गौर के चित्र की भांति भव्य और बड़े आकार में होता है। दसामाता की दस दिन पूजा होती है। दशमी के दिन पीपल की डाली लगा पूजा कर सूत के दस धागों का डोरा गले में पहनती हैं। हल्दी में रंग कर डोरे को दस गांठे लगा दी जाती हैं। विवाहिताएं दशमी के दिन व्रत रखती हैं। दसा माता की पूजा केवल विवाहिताएं ही करती हैं तथा पूजा के साथ सवेरे पूजा कर सत्रहवें दिन अर्थात दूज को संध्या समय पूजा की जाती है। इसे "दांतण हेला" कहते हैं। बबूल का दंतून लेकर गौरी को दांतुन कराते हैं। ईसर जी की बारात गौरी के ब्याह के लिए चढ़ती है।
"केसरियो उम्हायो हे लाल बनी रा देस में" गाती हुई çस्त्रयां ही बारात चढ़ाने का दस्तूर करती हैं। पूजा के लिए बेसन को गूंधकर पूरी चतुराई लगा राज परिवार की महिलाएं जेवर बनाती हैं। सिर से पैर तक सभी आभूषण बनाए जाते हैं। बेसन के जेवर सोने से लगते हैं। उनमें मोतियों, नवरत्नों का जड़ाव भी इसी प्रकार की सामग्री से सजाकर अलंकृत करती हैं। चावल भिगोकर पीस लिया जाता है। उसे गूंधकर छोटी बड़ी साइज के मोती, लालें, रत्न कण, आदि बना लेती हैं। उनको जड़ाव की तरह बेसन के आभूषणों में जड़ती हैं। मिट्टी के दीयों में चित्रकार के यहां से रंग, तूलिकाएं मंगा लेती हैं। चावल से बनाए गए रत्नों के मोती, माणक, पन्ना, हरा,सल के रंगों जैसा रंग देती हैं। ईसर जी के पहनने के आभूषणों के साथ उनके लिए भांग घोटने की रत्न जडित कुंडी और घोटा भी बनाया जाता है। पूजा के बाद ये आभूष्ाण दूब-फूल लाने वाली मालिन को दे दिए जाते हैं।


 

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