भगवान राम

श्रीराम के पाँच गुण  नीति-कुशल व न्यायप्रिय श्रीराम

भगवान राम विषम परिस्थितियों में भी नीति सम्मत रहे। उन्होंने वेदों और मर्यादा का पालन करते हुए सुखी राज्य की स्थापना की। स्वयं की भावना व सुखों से समझौता कर न्याय और सत्य का साथ दिया। फिर चाहे राज्य त्यागने, बाली का वध करने, रावण का संहार करने या सीता को वन भेजने की बात ही क्यों न हो। 


सहनशील व धैर्यवान 

सहनशीलता व धैर्य भगवान राम का एक और गुण है। कैकेयी की आज्ञा से वन में 14 वर्ष बिताना, समुद्र पर सेतु बनाने के लिए तपस्या करना, सीता को त्यागने के बाद राजा होते हुए भी संन्यासी की भांति जीवन बिताना उनकी सहनशीलता की पराकाष्ठा है। 


दयालु व बेहतर स्वामी 

भगवान राम ने दया कर सभी को अपनी छत्रछाया में लिया। उनकी सेना में पशु, मानव व दानव सभी थे और उन्होंने सभी को आगे बढ़ने का मौका दिया। सुग्रीव को राज्य, हनुमान, जाम्बवंत व नल-नील को भी उन्होंने समय-समय पर नेतृत्व करने का अधिकार दिया। 


दोस्त 

केवट हो या सुग्रीव, निषादराज या विभीषण। हर जाति, हर वर्ग के मित्रों के साथ भगवान राम ने दिल से करीबी रिश्ता निभाया। दोस्तों के लिए भी उन्होंने स्वयं कई संकट झेले।


बेहतर प्रबंधक 

भगवान राम न केवल कुशल प्रबंधक थे, बल्कि सभी को साथ लेकर चलने वाले थे। वे सभी को विकास का अवसर देते थे व उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करते थे। उनके इसी गुण की वजह से लंका जाने के लिए उन्होंने व उनकी सेना ने पत्थरों का सेतु बना लिया था। 


भाई 

भगवान राम के तीन भाई लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न सौतेली माँ के पुत्र थे, लेकिन उन्होंने सभी भाइयों के प्रति सगे भाई से बढ़कर त्याग और समर्पण का भाव रखा और स्नेह दिया। यही वजह थी कि भगवान राम के वनवास के समय लक्ष्मण उनके साथ वन गए और राम की अनुपस्थिति में राजपाट मिलने के बावजूद भरत ने भगवान राम के मूल्यों को ध्यान में रखकर सिंहासन पर रामजी की चरण पादुका रख जनता को न्याय दिलाया। 
भरत के लिए आदर्श भाई, हनुमान के लिए स्वामी, प्रजा के लिए नीति-कुशल व न्यायप्रिय राजा, सुग्रीव व केवट के परम मित्र और सेना को साथ लेकर चलने वाले व्यक्तित्व के रूप में भगवान राम को पहचाना जाता है। उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से पूजा जाता है। सही भी है, किसी के गुण व कर्म ही उसकी पहचान बनाते हैं।


श्रीराम की गुरु भक्ति  राम नवमी विशेष


मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने शिक्षागुरु विश्वामित्र के पास बहुत संयम, विनय और विवेक से रहते थे। गुरु की सेवा में सदैव तत्पर रहते थे। उनकी सेवा के विषय में भक्त कवि तुलसीदास ने लिखा है- 
मुनिवर सयन कीन्हीं तब जाई। 
लागे चरन चापन दोऊ भाई॥ 
जिनके चरन सरोरुह लागी। 
करत विविध जप जोग विरागी॥ 
बार बार मुनि आज्ञा दीन्हीं। 
रघुवर जाय सयन तब कीन्हीं॥ 
गुरु ते पहले जगपति जागे राम सुजान। 


सीता-स्वयंवर में जब सब राजा धनुष उठाने का एक-एक करके प्रयत्न कर रहे थे तब श्रीराम संयम से बैठे ही रहे। जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा हुई तभी वे खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके धनुष उठाया।


सुनि गुरु बचन चरन सिर नावा। हर्ष विषादु न कछु उर आवा।
गुरुहिं प्रनाम मन हि मन किन्हा। अति लाघव उठाइ धनु लिन्हा॥


श्री सद्गुरुदेव के आदर और सत्कार में श्रीराम कितने विवेकी और सचेत थे, इसका उदाहरण जब उनको राज्योचित शिक्षण देने के लिए उनके गुरु वशिष्ठजी महाराज महल में आते हैं तब देखने को मिलता है। सद्गुरु के आगमन का समाचार मिलते ही सीताजी सहित श्रीराम दरवाजे पर आकर सम्मान करते हैं- 


गुरु आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार जाय पद नावउ माथा॥
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भांति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले राम कमल कर जोरी॥
इसके उपरांत भक्तिभावपूर्वक कहते हैं- 'नाथ! आप भले पधारे। आपके आगमन से घर पवित्र हुआ। परन्तु होना तो यह चाहिए था कि आप समाचार भेज देते तो यह दास स्वयं सेवा में उपस्थित हो जाता।' इस प्रकार ऐसी विनम्र भक्ति से श्रीराम अपने गुरुदेव को संतुष्ट रखते हैं।

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