चीन : जो जवाहर लाल नेहरू का सगा नहीं हुआ
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By अरविन्द सिसौदिया 9414180151
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चीन : जो जवाहर लाल नेहरू का सगा नहीं हुआ
1954 से जून 2020: सिर्फ गलवान ही नहीं,
इन 14 मौकों पर चीन ने सीमा पर दिखाई चालबाजी
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चीन भूल रहा भारत का एहसान, पढ़ें-पंडित नेहरू और UNSC की स्थायी सदस्यता के सवालों का सच
पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) की 56वीं पुण्यतिथि (Death Anniversary) पर चीन की हरकतें उसकी एहसानफरामोशी की याद ताजा करवा देती हैं. नेहरू की वजह से चीन की अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी. हालांकि UNSC की सदस्यता के सवाल से जुड़े तथ्यों पर ऐतिहासिक विवाद है.
चीन के वुहान शहर से शुरू कोरोनावायरस (Coronavirus) ने पूरी दुनिया में तबाही मचाई हुई है. साथ ही लद्दाख में अपनी हरकतों से वह भारत को आंखें दिखाने से भी बाज नहीं आ रहा है. आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की 56वीं पुण्यतिथि पर चीन की हरकतें उसकी एहसानफरामोशी की याद भी ताजा करवा देती हैं. पंडित नेहरू वह हस्ती हैं जिसकी वजह से चीन की अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी और मजबूत हुई.
देश का एक बड़ा वर्ग चीन की हर गुस्ताखियों पर पंडित नेहरू को याद करता है. वह मानता और दोहराता रहता है कि जवाहर लाल नेहरू ने अगर खुद पीछे हटकर चीन को तरजीह नहीं दी होती तो भारत आज सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होता. तब उसका एक अलग रसूख तो होता ही, चीन की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो हमें आंख दिखा सके. हालांकि इस तथ्य पर ऐतिहासिक विवाद है.
चीन ने उठाया पंडित नेहरू की भलमनसाहत का फायदा
चीन हमेशा से शरारती देश रहा है और पंडित नेहरू की भलमनसाहत का उसने बेजा फायदा उठाया, लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की उसकी स्थायी सदस्यता और नेहरू की भूमिका के बारे में हमें और ज्यादा फैक्ट्स जानना चाहिए. नेहरू अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकार थे. पड़ोसी मुल्कों के लिए मददगार की भूमिका में रहते थे. द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से कुछ समय पहले वे चीन के दौरे पर भी गए. दोबारा अक्टूबर 1953 में चीन के निमंत्रण पर भी चीन गए, लेकिन UNSC की स्थायी सदस्यता के समय उनकी रणनीति कुछ और थी.
संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य भारत
भारत संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य रहा है. जनवरी 1942 में बने पहले संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र (चार्टर) पर हस्ताक्षर करने वाले 26 देशों में भारत का नाम दर्ज है . 25 अप्रैल 1945 को सैन फ्रांसिस्को में शुरू हुए और दो महीनों तक चले 50 देशों के संयुक्त राष्ट्र स्थापना सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि भाग ले रहे थे. 30 अक्टूबर 1945 को भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस सम्मेलन में पारित अंतिम घोषणापत्र की विधिवत औपचारिक पुष्टि की थी. इस के तुरंत बाद स्वतंत्र भारत को भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिये जाने की चर्चा हुई थी.
तत्कालीन चीन का हाल
च्यांग काई शेक की कुओमितांग पार्टी और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच चल रहे गृहयुद्ध से चीन उस समय काफी बुरी हालत में था. कम्युनिस्टों से नफरत करने वाले अमेरिका के साथ ही ब्रिटेन और फ्रांस वगैरह देश चीन को सुरक्षा परिषद में नहीं चाहते थे. चीन के नाम की सीट 1945 में च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी चीन सरकार को दी गई. वहीं, चीन के गृहयुद्ध में कम्युनिस्ट जीत गए. एक अक्टूबर 1949 को चीन में कम्यूनिस्ट सरकार बनी. अपने समर्थकों के साथ च्यांग काई शेक को भाग कर ताइवान द्वीप पर शरण लेनी पड़ी. वहां उन्होंने लग सरकार बनायी. तब से ताइवान कम्युनिस्ट चीन का विरोधी है. विरोधी चीनियों का ही एक अलग देश है.
तब के भारत की परिस्थिति
15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार को भी देश विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी. नेहरू पहले विदेशमंत्री भी थे. कम्यूनिस्ट रूस और चीन को लेकर उनके अपने विचार थे. उनका मानना था, ‘लोगों को अपने विचारों के सहारे आगे बढ़ना चाहिए न कि दूसरों के.’ इसी वजह से उन्होंने चीन में माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट सरकार को राजनयिक मान्यता देने में देरी नहीं की. उनको पूरा विश्वास था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ बनकर रहेंगे.
कैसे बदली राजनयिक फिजा
नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय (NMML) में संरक्षित नेहरू के नाम लिखी उनकी बहन और अमेरिका में तत्कालीन भारतीय एंबेसडर विजयलक्ष्मी पंडित के 24 अगस्त, 1950 को लिखे पत्र में UNSC मसले पर चीन और ताइवान को लेकर अमेरिका की राजनयिक फिजा के बारे में बताया गया था. 30 अगस्त 1950 को जवाहरलाल नेहरू ने इसका जवाब लिखते हुए भी चीन को लेकर अपनी दरियादिली दिखाई थी. प्रधानमंत्री नेहरू का अनौपचारिक उत्तर था, ‘भारत कई कारणों से सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के सुयोग्य है. किंतु हम इसे चीन की क़ीमत पर नहीं चाहते.’ हालांकि वह छले गए.
भारत को आजादी के साथ मिले बेरहम पड़ोसी मुल्क
सोवियत संघ में उस समय तानाशाह स्टालिन का शासन था. चीन में माओ त्से तुंग की तानाशाही भी कुछ कम बेरहम नहीं थी. दोनों देश भारत के पड़ोसी हैं. आबादी के लिहाज से भारत उस समय भी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश था. तब बहुदलीय लोकतंत्र के रास्ते पर चलने की शुरुआत कर रहा था. तिब्बत पर चीनी आक्रमण के समय भी उन्होंने भलमनसाहत नहीं छोड़ा और उन्हें चीन के सुधरने का यकीन था.
दूसरी बार भी मिला अनौपचारिक प्रस्ताव
1955 में तत्कालीन सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने भी अमेरिका की ही तरह ही नेहरू का मन टटोलने की कोशिश की. तब भी उन्होंने पड़ोसी चीन से बिगाड़ की आशंकाओं के चलते सिद्धांतों की बात की. नेहरू ने दुनिया के सामने दलील रखी थी कि चीन एक ताकतवर देश है, जो अजीबोगरीब मानसिकता से गुजर रहा है. 27 सितंबर, 1955 को संसद सदस्य डॉ. जेएन पारेख के सवाल के जवाब में पंडित नेहरू सदन में कहते हैं, ‘इस तरह का कोई प्रस्ताव, औपचारिक या अनौपचारिक नहीं है. कुछ अस्पष्ट संदर्भ इसके बारे में प्रेस में दिखाई दिए हैं जिनका वास्तव में कोई आधार नहीं है.
एशिया को मजबूत करने की प्राथमिकता
ईस्ट-एशियन स्टडीज के अकादमिक जानकारों का मानना है कि उस समय का दौर अलग था. तब एक मजबूत एशिया बनाने की बात की जा रही थी. जिसमें भारत-चीन की साझेदारी मजबूत एशिया की दिशा में अहम थी. तब किसी ने नहीं जाना था कि आगे चल कर भारत-चीन के रिश्ते खराब होंगे. इसलिए इस घटना को एक संदर्भ से बाहर निकालकर नहीं देखना चाहिए.
नेहरू ने बनाया था गुटनिरपेक्ष संगठन
1960 में दिल्ली में उन्होंने पांच साल पुरानी माओ की उनसे हुई बातचीत का हवाला देते हुए कहा था कि यदि उनके देश में कुछ लाख लोग मर जाएंगे, तो उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा. आजादी के तुरंत बाद नेहरू किसी देश से दुश्मनी नहीं करना चाहते थे. ऐसे में कुछ देशों के समूह ने मिलकर 1961 में गुटनिरपेक्ष संगठन बनाया जिसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी कहा जाता है. आज कुल 120 देश गुटनिरपेक्ष संगठन के सदस्य हैं. साथ ही 17 पर्यवेक्षक देश इसका हिस्सा हैं. यह यूनाइटेड नेशन के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी संस्था है.
जानकार मानते हैं सही था नेहरू का निर्णय
भारत में जो गिने-चुने लोग संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के बारे में अमेरिका और सोवियत संघ के इन दोनों सुझावों को जानते हैं, वे उस समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू की प्रतिक्रिया को सही ठहराते हैं. इससे अलग चीन ने नेहरू के सामने ही तिब्बत को हथिया कर भीषण दमनचक्र चलाया. चीन में भी ‘लंबी छलांग’ और ‘सांस्कृतिक क्रांति’ जैसे सिरफिरे अभियान छेड़ कर अपने ही करोड़ों देशवासियों की गैर जरूरी नरसंहार को अंजाम दिया. 1962 में तो उसने भारत पर ही हमला कर दिया.
कई इतिहासकार मानते हैं कि चीन से मिले एक एहसान फरामोशी और धोखे का आघात पंडित नेहरू को सालने लगा. डेढ़ साल के भीतर ही नेहरू के निधन की वजह हार्ट अटैक के पीछे कई लोग इस धोखे की भी अपुष्ट तौर पर चर्चा करते हैं.
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