12 जून, 1975 : जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा
Salute to Indian Judiciary..

यह हैं, इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा। आज इनको भी याद करने का दिन है। हालांकि आज ना इनका जन्म दिन है और ना पुण्यतिथि, लेकिन 1975 में आज ही के दिन इन्होंने एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने स्वतंत्र भारत की दशा और दिशा ही बदल दी।

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के उक्त फैसले से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी चुनाव जीतने के लिए भ्रष्ट आचरण की दोषी पाईं गईं। नतीजतन कुर्सी पर बने रहने के लिए इंदिरा जी ने पहले देश में इमरजेंसी लगाकर पूरे देश को जेलखाने में तब्दील किया और फिर संविधान में मनमाफिक संशोधन करके कुर्सी पर बिना विरोध बने रहने का उपक्रम कर डाला।

बिना भय और पक्षपात के फैसले देने की इलाहाबाद हाईकोर्ट की उच्च न्यायिक परंपरा को जीवंत रखने वाले जस्टिस सिन्हा को इसीलिए आज के दिन याद करना जरूरी है। सादर नमन।


जीवन परिचय

जगमोहन लाल सिन्हा की शिक्षा शासकीय हाई स्कूल अलीगढ़, बरेली कॉलेज बरेली, मेरठ कालेज मेरठ में हुई। उन्होने कानून में स्नातक की शिक्षा ली और १९४३ से १९५५ तक बरेली में अधिवक्ता (प्लीडर) की तरह काम किया। उसके पश्चात ३ जून १९५७ तक बरेली में जिला सरकार के सलाहकार (आपराधिक) के रूप में कार्य किया। उसके बाद सिविल एवं सेसन जज के रूप में कार्य किया। फिर अतिरिक्त जिला जज के रूप में, जिला एवं सेसन जज के रूप में। उत्तर प्रदेश के कानून विभाग ने १९७० में उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय का न्यायधीश नियुक्त किया (३ जनवररी, १९७० से)। अगस्त १९७२ को वे स्थायी न्यायधीश नियुक्त हुए। 


12 जून, 1975 की सुबह इंदिरा गांधी के वरिष्ठ निजी सचिव एनके सेशन एक सफ़दरजंग रोड पर प्रधानमंत्री निवास के अपने छोटे से दफ़्तर में टेलिप्रिंटर से आने वाली हर ख़बर पर नज़र रखे हुए थे. उनको इंतज़ार था इलाहाबाद से आने वाली एक बड़ी ख़बर का और वो काफ़ी नर्वस थे.
ठीक 9 बजकर 55 मिनट पर जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के कमरा नंबर 24 में प्रवेश किया. जैसे ही दुबले पतले 55 वर्षीय, जस्टिस सिन्हा ने अपना आसन ग्रहण किया, उनके पेशकार ने घोषणा की, "भाइयों और बहनों, राजनारायण की याचिका पर जब जज साहब फ़ैसला सुनाएं तो कोई ताली नहीं बजाएगा."
जस्टिस सिन्हा के सामने उनका 255 पन्नों का दस्तावेज़ रखा हुआ था, जिस पर उनका फ़ैसला लिखा हुआ था.
जस्टिस सिन्हा ने कहा, "मैं इस केस से जुड़े हुए सभी मुद्दों पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ, उन्हें पढ़ूंगा." वो कुछ पलों के लिए ठिठके और फिर बोले, "याचिका स्वीकृत की जाती है."
अदालत में मौजूद भीड़ को सहसा विश्वास नहीं हुआ कि वो क्या सुन रही है. कुछ सेकंड बाद पूरी अदालत में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी. सभी रिपोर्टर्स अपने संपादकों से संपर्क करने बाहर दौड़े.
वहाँ से 600 किलोमीटर दूर दिल्ली में जब एनके सेशन ने ये फ़्लैश टेलिप्रिंटर पर पढ़ा तो उनका मुंह पीला पड़ गया.
सबसे पहले राजीव गांधी ने सुनाई अपनी मां को यह ख़बर
उसमें लिखा था, "मिसेज़ गाँधी अनसीटेड." उन्होंने टेलिप्रिंटर मशीन से पन्ना फाड़ा और उस कमरे की ओर दौड़े जहाँ इंदिरा गाँधी बैठी हुई थीं.

इंदिरा गाँधी के जीवनीकार प्रणय गुप्ते अपनी किताब 'मदर इंडिया' में लिखते हैं, "सेशन जब वहाँ पहुंचे तो राजीव गांधी, इंदिरा के कमरे के बाहर खड़े थे. उन्होंने यूएनआई पर आया वो फ़्लैश राजीव को पकड़ा दिया. राजीव गांधी पहले शख़्स थे जिन्होंने ये ख़बर सबसे पहले इंदिरा गाँधी को सुनाई."

सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग में इंदिरा दोषी पाई गईं

जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को दो मुद्दों पर चुनाव में अनुचित साधन अपनाने का दोषी पाया. पहला तो ये कि इंदिरा गांधी के सचिवालय में काम करने वाले यशपाल कपूर को उनका चुनाव एजेंट बनाया गया जबकि वो अभी भी सरकारी अफ़सर थे.
उन्होंने 7 जनवरी से इंदिरा गांधी के लिए चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया जबकि 13 जनवरी को उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दिया जिसे अंतत: 25 जनवरी को स्वीकार किया गया.
जस्टिस सिन्हा ने एक और आरोप में इंदिरा गांधी को दोषी पाया, वो था अपनी चुनाव सभाओं के मंच बनवाने में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की मदद लेना. इन अधिकारियों ने कथित रूप से उन सभाओं के लिए सरकारी ख़र्चे पर लाउड स्पीकरों और शामियानों की व्यवस्था कराई.

हांलाकि बाद में लंदन के 'द टाइम्स' अख़बार ने टिप्पणी की, "ये फ़ैसला उसी तरह का था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफ़िक नियम के उल्लंघन करने के लिए उनके पद से बर्ख़ास्त कर दिया जाए."

जस्टिस सिन्हा ने सबको किया हैरान

उस मुक़दमें में राज नारायण के वकील रहे शाँति भूषण अपनी आत्मकथा 'कोर्टिंग डेस्टिनी' में लिखते हैं, "जब मैंने बहस शुरू की तो मुझे लगा कि जज इस मुक़दमें को कोई ख़ास महत्व नहीं दे रहे हैं. लेकिन तीसरे दिन के बाद से मैंने नोट किया कि उन पर मेरी दलीलों का असर होने लगा है और वो नोट्स लेने लगे हैं."
अपना फ़ैसला सुनाने से पहले उन्होंने अपने निजी सचिव मन्ना लाल से कहा, "मैं नहीं चाहता कि आप ये फ़ैसला सुनाने से पहले किसी को इसकी भनक भी लगने दे, यहाँ तक कि अपनी पत्नी को भी नहीं. ये एक बड़ी ज़िम्मेदारी है. क्या आप इसे उठाने के लिए तैयार हैं?"
निजी सचिव ने जस्टिस सिन्हा को भरोसा दिलवाया कि वो इस बारे में आश्वस्त रहें.

'इंदिरा गांधी ने जस्टिस सिन्हा पर बनवाया था दबाव'

इस मुक़दमे में राजनारायण के वकील शाँति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण अपनी किताब 'द केस दैट शुक इंडिया' में लिखते हैं, "सिन्हा अपना फ़ैसला सुकून के माहौल में लिखना चाहते थे. लेकिन जैसे ही अदालत बंद हुई, उनके यहाँ इलाहाबाद के एक कांग्रेस संसद सदस्य रोज़ रोज़ आने लगे.''
उन्होंने लिखा है, ''इस पर सिन्हा बहुत नाराज़ हुए और उन्हें उनसे कहना पड़ा कि वो उनके यहाँ न आएं. लेकिन जब वो इस पर भी नहीं माने तो सिन्हा ने अपने पड़ोसी जस्टिस पारिख से कहा कि वो उन साहब को समझाएं कि वो उन्हें परेशान न करें.''

जस्टिस सिन्हा अपने घर से ग़ायब हो गए

प्रशांत भूषण ने लिखा है, ''जब इसका भी कोई असर नहीं हुआ तो सिन्हा अपने ही घर में 'गायब' हो गए और कई दिनों तक अपने घर के बरामदे तक में नहीं देखे गए. उनके यहाँ आने वाले हर शख़्स से कहा गया कि वो उज्जैन गए हुए हैं जहाँ उनके भाई रहा करते थे.''
उन्होंने लिखा है, ''इस बीच उन्होंने एक फ़ोन कॉल तक नहीं रिसीव किया.. इस तरह 28 मई से 7 जून, 1975 तक कोई, यहाँ तक कि उनके नज़दीकी दोस्त तक उनसे नहीं मिल सके."
यही नहीं जस्टिस सिन्हा के फ़ैसले को प्रभावित करने की एक कोशिश और हुई थी.

सुप्रीम कोर्ट भेजने का दिया गया लालाच

शाँतिभूषण लिखते हैं, "न्यायमूर्ति सिन्हा गोल्फ़ खेलने के शौकीन थे. एक बार गोल्फ़ खेलते हुए उन्होंने मुझे एक क़िस्सा बताया था. जब ये याचिका सुनी जा रही थी तो जस्टिस डीएस माथुर इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हुआ करते थे.''
उन्होंने लिखा है, ''वो मेरे घर पहले कभी नहीं आए थे. लेकिन जब इस केस की बहस अपने चरम पर थी, तो एक दिन वो मेरे यहाँ अपनी पत्नी समेत आ पहुंचे. जस्टिस माथुर इंदिरा गाँधी के उस समय के निजी डॉक्टर केपी माथुर के निकट संबंधी थे.''

शांतिभूषण की किताब के मुताबिक, ''उन्होंने मुझे स्रोत न पूछे जाने की शर्त पर बताया कि उन्हें पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए मेरे नाम पर विचार हो रहा है. जैसे ही ये फ़ैसला आएगा, आपको सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा. मैंने उनसे कुछ भी नहीं कहा."

जस्टिस माथुर से लिया गया इस्तीफा

दिलचस्प बात ये थी कि जनता पार्टी सरकार के सत्ता में आने पर इन्हीं जस्टिस माथुर को चरण सिंह ने एक महत्वपूर्ण जाँच आयोग का अध्यक्ष बना दिया.
शाँति भूषण लिखते हैं कि जब वो विदेश यात्रा से वापस आए तो उन्होंने चरण सिंह को वो बात बताई जो उन्हें 1976 में गोल्फ़ खेलते हुए जस्टिस सिन्हा ने बताई थी.
शाँति भूषण लिखते हैं, "मैंने जस्टिस सिन्हा को पत्र लिख कर पूछा कि क्या वो जस्टिस माथुर के बारे उस बात की पुष्टि कर सकते हैं जो उन्होंने कुछ साल पहले उन्हें बताई थी. जस्टिस सिन्हा ने तुरंत उस पत्र का जवाब देते हुए कहा कि ये सारी बातें सही हैं. चरण सिंह ने वो पत्र जस्टिस माथुर को उनकी टिप्पणी के लिए आगे बढ़ा दिया. माथुर ने तुरंत जाँच आयोग से इस्तीफ़ा दे दिया."

जस्टिस सिन्हा पर फ़ैसला टालने का था दबाव

7 जून तक जस्टिस सिन्हा ने फ़ैसला डिक्टेट करा दिया था. तभी उनके पास चीफ़ जस्टिस माथुर का देहरादून से फ़ोन आया. चूंकि ये फ़ोन चीफ़ जस्टिस का था, इसलिए उन्हें ये फ़ोन लेना पड़ा.
माथुर ने उनसे कहा कि गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव पीपी नैयर ने उनसे मिल कर अनुरोध किया है कि फ़ैसले को जुलाई तक स्थगित कर दिया जाए.
प्रशाँत भूषण लिखते हैं, "यह अनुरोध सुनते ही जस्टिस सिन्हा नाराज़ हो गए. वो तुरंत हाई कोर्ट गए और रजिस्ट्रार को आदेश दिया कि वो दोनों पक्षों को सूचित कर दें कि फ़ैसला 12 जून को सुनाया जाएगा."

जस्टिस सिन्हा पर लगा दी गई थी सीआईडी

कुलदीप नैयर अपनी किताब 'द जजमेंट' में लिखते हैं कि सरकार के लिए फ़ैसला इतना महत्वपूर्ण था कि उसने सीआईडी के एक दल को इस बात की ज़िम्मेदारी दी थी कि किसी भी तरह ये पता लगाया जाए कि जस्टिस सिन्हा क्या फ़ैसला देने वाले हैं?''
उन्होंने लिखा है, ''वो लोग 11 जून की देर रात सिन्हा के निजी सचिव मन्ना लाल के घर भी गए. लेकिन मन्ना लाल ने उन्हें एक भी बात नहीं बताई. सच्चाई ये थी कि जस्टिस सिन्हा ने अंतिम क्षणों में अपने फ़ैसले के महत्वपूर्ण अंशों को जोड़ा था.

सिन्हा के निजी सचिव पर भी बनाया गया दबाव

वो लिखते हैं, "बहलाने फुसलाने के बाद भी जब मन्ना लाल कुछ बताने के लिए तैयार नहीं हुए तो सीआईडी वालों ने उन्हें धमकाया, 'हम लोग आधे घंटे में फिर वापस आएंगे. हमें फ़ैसला बता दो, नहीं तो तुम्हें पता है कि तुम्हारे लिए अच्छा क्या है.'
मन्ना लाल ने तुरंत अपने बीबी बच्चों को अपने रिश्तेदारों के यहाँ भेजा और जस्टिस सिन्हा के घर में जा कर शरण ले ली. उस रात तो मन्ना लाल बच गए, लेकिन जब अगली सुबह वो तैयार होने के लिए अपने घर पहुंचे, तो सीआईडी की कारों का एक काफ़िला उनके घर के सामने रुका."

प्रशाँत भूषण लिखते हैं, "उन्होंने फिर मन्ना लाल से फ़ैसले के बारे में पूछा और यहाँ तक कहा कि इंदिरा गांधी खुद हॉटलाइन पर हैं. आप उन्हें ख़ुद फ़ैसले की जानकारी दे सकते हैं. मन्ना लाल ने कहा कि उन्हें देर हो रही है. वो फिर जस्टिस सिन्हा के घर पहुंच गए.''
प्रशांत भूषण ने लिखा है, ''मन्ना लाल की परेशानी यहीं ख़त्म नहीं हुई. फ़ैसला आने के बहुत दिनों बात तक सीआईडी वाले उनसे पूछते रहे कि जून में जस्टिस सिन्हा से मिलने कौन-कौन आया करता था? वो ये भी जानना चाहते थे कि जस्टिस सिन्हा की जीवनशैली में हाल में कोई बदलाव हुआ है या नहीं."

जस्टिस सिन्हा की तुलना वाटरगेट कांड के जज जॉन सिरिका से

प्रशाँत भूषण की किताब 'द केस दैट शुक इंडिया' की भूमिका लिखते हुए तत्कालीन उप राष्ट्रपति मोहम्मद हिदायतउल्लाह ने जस्टिस सिन्हा की तुलना वाटरगेट कांड के जज जस्टिस जॉन सिरिका से की थी.
उनके फ़ैसले की वजह से ही राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. इस मुक़दमे की सुनवाई के दौरान ये पहला मौक़ा था जब भारत के किसी प्रधानमंत्री को गवाही के लिए हाई कोर्ट में बुलवाया गया था.

कोर्ट में इंदिरा गांधी के आने पर खड़ा नहीं होने का आदेश

शाँति भूषण लिखते हैं, "इंदिरा गाँधी को अदालत कक्ष में बुलाने से पहले उन्होंने भरी अदालत में ऐलान किया कि अदालत की ये परंपरा है कि लोग तभी खड़े हों जब जज अदालत के अंदर घुसे. इसलिए जब कोई गवाह अदालत में घुसे तो वहाँ मौजूद कोई शख़्स खड़ा न हो.''
जब इंदिरा गांधी अदालत में घुसीं तो कोई भी उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ, सिवाए उनके वकील एससी खरे के. वो भी सिर्फ़ आधे ही खड़े हुए. जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के लिए कटघरे में एक कुर्सी का इंतज़ाम करवाया, ताकि वो उस पर बैठ कर अपनी गवाही दे सकें."
जब 1977 मे जनता पार्टी की सरकार बनी तो शाँति भूषण भारत के क़ानून मंत्री बने.

जस्टिस सिन्हा ने नहीं लिया फेवर

शाँति भूषण लिखते हैं, "मैं जस्टिस सिन्हा का तबादला हिमाचल प्रदेश करना चाहता था ताकि वहाँ जब कोई पद ख़ाली हो तो वो वहाँ के मुख्य न्यायाधीश बन सकें. जब उन तक ये पेशकश पहुंचाई गई तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया. वो बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति नहीं थे और इस बात से ही संतुष्ट थे कि उन्हें सिर्फ़ एक ईमानदार और काबिल शख़्स के रूप में याद किया जाए."

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