डाक्टर्स डे : भारत में चिकित्सा शास्त्र का प्रारंभ..
आरोग्य के देव भगवान धनवन्तरी
(भगवान विष्णुजी के अवतार)
जिनकी पूजा धेनरस के दिन दिपावली पर होती है।
भारत में सबसे बडा धन निरोगी काया को माना गया है।
भारतीय शल्य चिकित्सा के सबसे बडा उदाहरण अग्रपूज्य गणेश जी है। जिनका मस्तक भगवान विष्णुजी ने कट जानें के बाद पुनः स्थापित किया था । दूसरा बडा जिक्र संजीवनी बूटी के रूप में रामायण में है।
भारत में चिकित्सा एवं विज्ञान के संदर्भ में जो पुरातन अविष्कार हैं आज उनकी संझिप्त चर्चा प्रासंगिक है।
- अरविन्द सिसौदिया, कोटा 9414180151
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आरोग्य के देव भगवान धनवन्तरी
मंत्र
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतरये
अमृतकलशहस्ताय सर्वभयविनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्रीमहाविष्णुस्वरूपाय
श्रीधन्वंतरीस्वरूपाय श्रीश्रीश्री औषधचक्राय नारायणाय नमः॥
अस्त्र शंख, चक्र,
अमृत-कलश और औषधि
सवारी कमल
आरोग्य के देव भगवान धनवन्तरी.....
हिन्दू धर्म में एक देवता हैं। वे महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इन्हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है। इन्हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे। सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।
अनुक्रम
1
2 महिमा
3 मंत्र
3.1 धन्वंतरी स्तोत्रम्
आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।
विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।।[8]
इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है। वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रूप मे हुआ। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे।
वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया। धन्वंतरि की परम्परा इस प्रकार है -
काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।
यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है।
विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-
काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।
महिमा
वैदिक काल में मजोहत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है -
सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।।
मंत्र[संपादित करें]
तक्षकेश्वर मंदिर में धन्वन्तरी की मूर्ति
भगवाण धन्वंतरी की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है:
ॐ धन्वंतरये नमः॥
इसके अलावा उनका एक और मंत्र भी है:
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतरये
अमृतकलशहस्ताय सर्वभयविनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूपाय
श्रीधन्वंतरीस्वरूपाय श्रीश्रीश्री औषधचक्राय नारायणाय नमः॥
ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय सर्व आमय
विनाशनाय त्रिलोकनाथाय श्रीमहाविष्णुवे नम: ||
अर्थात
परम भगवान् को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरी को नमन है।
धन्वंतरी स्तोत्रम्
प्रचलि धन्वंतरी स्तोत्र इस प्रकार से है।
ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम्॥
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम्।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम् ||
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आयुर्वेदशास्त्र
आयुर्वेद शास्त्र का विकास उत्तरवैदिक काल में हुआ। इस विषय पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई। भारतीय परम्परा के अनुसार आयुर्वेद की रचना सबसे पहले ब्रह्मा ने की। ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने अश्विनी कुमारों को और फिर अश्विनी कुमारों ने इस विद्या को इन्द्र को प्रदान किया। इन्द्र के द्वारा ही यह विद्या सम्पूर्ण लोक में विस्तारित हुई। इसे चार उपवेदों में से एक माना गया है।
कुछ विद्वानों के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है तो कुछ का मानना है कि यह ‘अथर्ववेद’ का उपवेद है। आयुर्वेद की मुख्य तीन परम्पराएं हैं- भारद्वाज, धनवन्तरि और काश्यप। आयुर्वेद विज्ञान के आठ अंग हैं- शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविधा, कौमारमृत्य, अगदतन्त्रा, रसायन और वाजीकरण। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, काश्यप संहिता इसके प्रमुख ग्रंथ हैं जिन पर बाद में अनेक विद्वानों द्वारा व्याख्याएं लिखी गईं।
आयुर्वेद के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ चरकसंहिता के बारे में ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से यह ग्रन्थ आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य अग्निवेश ने लिखा था। चरक ऋषि ने इस ग्रन्थ को संस्कृत में रूपांतरित किया। इस कारण इसका नाम चरक संहिता पड़ गया। बताया जाता है कि पतंजलि ही चरक थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल ईं. पू. पांचवी शताब्दी माना जाता है।
रसायनशास्त्र
रसायनशास्त्र का प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में रसायनशास्त्र के ‘रस’ का अर्थ होता था-पारद। पारद को भगवान शिव का वीर्य माना गया है। रसायनशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन किया जाता था। वैदिक काल तक अनेक खनिजों की खोज हो चुकी थी तथा उनका व्यावहारिक प्रयोग भी होने लगा था। परंतु इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम नागार्जुन नामक बौद्ध विद्वान ने किया। उनका काल लगभग 280-320 ई. था। उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग से तांबा इत्यादि धातुओं को सोने में बदला जा सकता था।
रसायनशास्त्र के कुछ प्रसिद्ध ग्रंथों में एक है रसरत्नाकर। इसके रचयिता नागार्जुन थे। इसके कुल आठ अध्याय थे परंतु चार ही हमें प्राप्त होते हैं। इसमें मुख्यत: धातुओं के शोधन, मारण, शुद्ध पारद प्राप्ति तथा भस्म बनाने की विधियों का वर्णन मिलता है।
प्रसिद्ध रसायनशास्त्री श्री गोविन्द भगवतपाद जो शंकराचार्य के गुरु थे, द्वारा रचित ‘रसहृदयतन्त्र’ ग्रंथ भी काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा रसेन्द्रचूड़ामणि, रसप्रकासुधाकर रसार्णव, रससार आदि ग्रन्थ भी रसायनशास्त्र के ग्रन्थों में ही गिने जाते हैं।
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भारत में चिकित्सा शास्त्र का प्रारंभ
जुलाई 16, 2020
चिकित्सा शास्त्र में प्राचीन भारतीयों की उपलब्धियां अधिक महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। भारत में चिकित्सा अथवा औषधिशास्त्र का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है, और यह वैदिक काल तक जाता है। ऋग्वेद में अश्विन को देवताओं का कुशल वैद्य कहा गया है, जो अपने औषधों से रोगों को दूर करने में निपुण थे। वे बीमार पङे लोगों को रोग मुक्त करते थे। अथर्ववेद में आयुर्वेद के सिद्धांत तथा व्यवहार संबंधी बातें मिलती हैं। रोग, उनके प्रतिकार तथा औषध संबंधी अनेक उपयोगी तथा वैज्ञानिक तथ्यों का विवरण इसमें दिया गया है। विविध प्रकार के ज्वरों, यक्ष्मा, अपचित (गण्डमाला), अतिसार, जलोदर जैसे रोगों के प्रकार एवं उनकी चिकित्सा का विधान प्रस्तुत किया गया है। प्रतीकार संबंधी वर्तमान शल्य क्रियाओं का भी यत्र-तत्र निर्देश मिलता है। उल्लेखनीय है, कि इसी पद्धति पर आधुनिक होमियोपैथी चिकित्सा आधारित है, जिसका मूल सिद्धांत सम से सम की चिकित्सा है। इसी को लैटिन भाषा में सिमिलिया सिमिलिबस क्यूरेन्टर कहा जाता है। प्राचीन भारतीयों ने इस सिद्धांत को अपनाया था। महाभारत में विवरण मिलता है, कि एक बार भीम को दुर्योधन ने विष खिलाकर गहरे जल में फेंक दिया तथा वह अचेतनावस्था में नाग लोक जा पहुँचा। वहां सांपों के काटने से उसके शरीर से विष का प्रभाव दूर हो गया तथा वह तत्काल स्वस्थ हो गया।
बुद्धकाल में औषधि शास्त्र का व्यापक अध्ययन होता था। जातक ग्रंथों से पता चलता है, कि प्रसिद्ध विश्वविद्यालय तक्षशिला में वैद्यक के ख्याति प्राप्त विद्वान थे, जहां दूर-दूर से विद्यार्थी आयुर्वेद का अध्ययन करने के लिये आते थे। इन्हीं में जीवक का नाम मिलता है। वह मगध नरेश बिम्बिसार के पुत्र अभय द्वारा तक्षशिला पहुंचाया गया। वहां सात वर्षों तक निवास कर उसने विविध औषधियों का अध्ययन किया तथा वैद्यक का प्रसिद्ध विद्वान बन गया। उसका शुल्क 1600 काषार्पण था। बिम्बिसार ने उसे अपना राजवैद्य बनाया तथा उसने बिम्बिसार, प्रद्योत तथा महात्मा बुद्ध तक की चिकित्सा कर उन्हें रोगमुक्त किया था। अर्थशास्त्र से पता चलता है, कि मौर्यकाल में चिकित्सा शास्त्र विकसित था। साधारण वैद्यों, चीङ-फाङ करने वाले भिजषों एवं चीङ-फाङ में प्रयुक्त होने वाले यंत्रों, परिचारिकाओं, महिला चिकित्सकों आदि का उल्लेख मिलता है। शव-परीक्षा भी किया जाता था। शवों को विकृत होने से बचाने के लिये तेल में डूबोकर रखा जाता था। अकाल मृत्यु के विभिन्न मामलों जैसे फांसी, विषपान आदि की जांच कुशल चिकित्सक करते थे।
आयुर्वेद में मुनि आत्रेय का वही स्थान है, जो यूनानी चिकित्सा में हिपोक्रेटीस का है। यूनानी संहिता में वर्णित है, कि रोगों के कई वर्ग हैं – साध्य रोग, असाध्य रोग, तंत्र-मंत्र द्वारा साध्य रोग, तथा वह रोग जिनके उपचार की संभावना काफी क्षीण है। ज्वर, अतिसार, पेचिश, क्षय, रक्तचाप आदि के उपचार की विशेष चर्चा की गयी है। इस ग्रंथ में जल चिकित्सा का भी वर्णन है।
चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति ईसा पूर्व प्रथम शती से ही हुई, जबकि चरक तथा सुश्रुत जैसे सुप्रसिद्ध आचार्यों ने आयुर्वेद विषयक अपने ज्ञान से संपूर्ण विश्व को आलोकित किया। चरक को कार्यचिकित्सा का प्रणेता कहा जा सकता है। वे कुषाण नरेश कनिष्क प्रथम के राजवैद्य थे। उनकी कृति चरक संहिता काय चिकित्सा का प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रंथ है और महर्षि आत्रेय के उपदेशों पर आधारित है। अलबरूनी ने इसे औषधि शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ बताया है। चरक संहिता में 120 अध्याय है। इसमें आठ खंड हैं, जिन्हें स्थान कहा गया है – सूत्र, निदान, विमान, शरीर, इन्द्रिय, चिकित्सा, कल्प तथा सिद्धि। इसमें शरीर रचना, गर्भ स्थिति, शिशु का जन्म तथा विकास, कुष्ठ, मिरगी, ज्वर जैसे प्रमुख आठ रोग, मन के रोगों की चिकित्सा, भेदोपभेद आहार, पेथ्यापथ्य, रुचिकर स्वास्थवर्धक भोज्यों, औषधीय वनस्पतियों आदि का वर्णन किया गया है। प्राचीन वनस्पति एवं रसायन के अध्ययन का भी यह एक उपयोगी ग्रंथ है। इसमें चिकित्सकों के पालनार्थ जो व्यवसायिक नियम दिये गये हैं, वे हिप्पोक्रेटस के नियमों का स्मरण कराते हैं तथा प्रत्येक समय तथा स्थान के चिकित्सक के लिये अनुकरणीय हैं। इनमें एक वैद्य को दिये गये निर्देश जो वह अपने शिष्यों को प्रशिक्षण समाप्ति के समय देता था उल्लेखनीय है –
यदि तुम अपने कार्य में सफलता, धुन, सम्मान तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें प्रतिदिन प्रातः उठने पर और सोने से पहले से पहले सभी प्राणियों विशेषकर गो एवं ब्राह्मणों के कल्याण के लिये प्रार्थना करनी चाहिये।तुम्हें सच्चे ह्रदय से रोगी के स्वास्थ्य के लिये प्रयास करना चाहिये। अपने स्वयं के जीवन के मूल्य पर भी तुम अपने रोगी के साथ धोखा न करो, मद्यपान मत करो, पाप न करो, तुम्हारे मित्र बुरे न हों, तुम मृदुभाषी एवं विचारवान बनो तथा सदैव अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये प्रयत्नशील रहो।यदि तुम्हें किसी रोगी के घर जाना पङे तो तुम्हें अपने वचन, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों को उसकी चिकित्सा के अलावा अन्यत्र कही नहीं लगना चाहिये, रोगी के घर की बातों की चर्चा बाहर नहीं करनी चाहिये और न ही रोही की दशा के विषय में उस व्यक्ति को बताना चाहिये जिससे रोगी को कोई हानि पहुंच सके।
चरक संहिता का न केवल भारतीय अपितु संपूर्ण विश्व चिकित्सा के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका अनुवाद की विदेशी भाषाओं में हो चुका है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र का तो यह विश्वकोश ही है। इसके द्वारा निर्देशित सिद्धांतों के आधार पर ही कालांतर में आयुर्विज्ञान का विकास हुआ।
भारत में चिकित्सा शास्र
चरक के कुछ समय बाद सुश्रुत का आविर्भाव हुआ। यदि चरक कार्य चिकित्सा के प्रणेता थे, तो सुश्रुत शल्य चिकित्सा के। उनके ग्रंथ सुश्रुत संहिता में उपदेष्टा धन्वंतरि हैं और संपूर्ण संहिता सुश्रुत को सम्बोधित करके कही गयी है। इसमें विविध प्रकार की शल्य एवं छेदन क्रियाओं का अतिसूक्ष्म विवरण दिया गया है। मोतियाबिन्द, पथरी जैसे कई रोगों का शल्योपचार बताया गया है। शविविच्छेदन का भी वर्णन है। सुश्रुत ने शल्य क्रिया में प्रयुक्त होने वाले लगभग 121 उपकरणों के नाम गिनाये हैं, जो अच्छे लोहे के बने होते थे। वे चिकित्सा तथा शल्य विज्ञान में दीक्षित होने वाले छात्रों का विवरण भी प्रस्तुत किया गया है। वे सूइयों तथा पट्टी बांधने की विविध विधियों का भी उल्लेख करते हैं।
चरक के समान सुश्रुत की ख्याति भी विश्वव्यापी थी। गुप्तकाल में भी चरक तथा सुश्रुत के सिद्धांतों को मान्यता मिलती रही तथा उन्हें अत्यन्त सम्मान के साथ देखा जाता था। उनके ग्रंथों को व्यवस्थित करके छठीं शताब्दी के लेखक बाणभट्ट प्रथम ने एक संग्रह प्रस्तुत किया। मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं की चिकिस्ता पर भी ग्रंथ लिखे गये। इसका एक अच्छा उदाहरण पालकाप्य कृत हस्त्यायुर्वेद है। इस विस्तृत ग्रंथ के 160 अध्यायों में हाथियों के प्रमुख रोगों, उनकी पहचान एवं चिकित्सा का वर्णन किया गया है. अनेक शल्य क्रियाओं का भी उल्लेख है।
भारतीय चिकित्सा पद्धति तीन रसों – कफ, वात तथा पित्त के सिद्धांत पर आधारित थी। इनके संतुलित रहने पर ही मनुष्य स्वस्थ रहता था। तीनों रस जीवनी शक्ति माने जाते थे। आहार-विहार के संतुलन पर भी विशेष बल दिया जाता था। स्वच्छ वायु तथा प्रकाश के महत्त्व को भी भली भाँति समझा गया था। प्राचीन भारतीयों का औषधकोश अत्यन्त विस्तृत था और इसमें पशु, वनस्पतियों तथा खनिज उत्पादन सभी सम्मिलित थे। अनेक एशियाई जङी-बूटियां यूरोप में पहुँचने के पहले से ही यहाँ ज्ञात थी। इनमें विशेष उल्लेखनीय छौलमुग्र वृक्ष का तेल है। जिसे कुष्ठ रोग की औषधि माना जाता था। आज भी इस रोग की चिकित्सा का यही आधार है।
भारत में परोपकारी शासकों एवं धार्मिक संस्थाओं के संरक्षण में चिकिस्ता शास्त्र की यथेष्ठ प्रगति हुई। अशोक जैसा शासक इस बात पर गर्व करता है, कि उसने अपने राज्य में मानव तथा पशु जाति, दोनों की चिकित्सा की अलग-अलग व्यवस्था करवाया था। चीनी यात्री फाह्यान लिखता है, कि यहां धार्मिक संस्थाओं द्वारा औषधालय स्थापित किये गये थे, जहां मुफ्त दवायें वितरित की जाती थी। भारतीय चिकित्सक विविध रोगों के विशेषज्ञ थे। यद्यपि शवों के संपर्क पर निषेध के कारण शरीर विज्ञान एवं जीव विज्ञान के क्षेत्र में यथेष्ठ प्रगति नहीं हो सकी तथापि भारतीयों ने एक प्रयोगाश्रित शल्य शास्त्र का विकास कर लिया था। प्रसवोत्तर शल्य क्रिया विदित थी, अस्थि संधान में निपुणता प्राप्त कर ली गयी थी तथा चिकित्सक नष्ट, युद्धक्षत अथवा दंड स्वरूप विकृत किये गये नाक, कान एवं होठों को पुनः जोङकर ठीक कर सकते थे। इस दृष्टि से भारतीय शल्य विज्ञान यूरोपीय शल्य विज्ञान से अठारहवीं शती तक आगे रहा तथा तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के चिकित्सकों ने भी भारतीयों से इस विद्या को सीखने में गर्व का अनुभव किया।
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प्राचीन भारत में विज्ञान का विकास ( इसकी गिरावट के साथ )
द्वारा साझा लेख :
निम्नलिखित बिंदु पाँच महत्वपूर्ण विज्ञानों को उजागर करते हैं जिन्होंने प्राचीन भारत में प्रगति की। विज्ञान हैं: 1. खगोल विज्ञान 2. गणित 3. चिकित्सा विज्ञान 4. रसायन विज्ञान 5. भौतिकी।
विज्ञान # 1. खगोल विज्ञान:
चूंकि वैदिक धर्म को वर्ष के विभिन्न मौसमों में विभिन्न बलिदानों के प्रदर्शन की आवश्यकता होती है, इसलिए इन बलिदानों के प्रारंभ और समाप्ति के लिए उचित समय की खोज के लिए खगोल विज्ञान के ज्ञान की खेती की जानी थी।
कभी-कभी बलि तब शुरू की जाती थी जब सूर्य सर्दियों के संक्रांति तक पहुंच जाता था और तब तक जारी रहता था जब तक वह उसी स्थिति में वापस नहीं आ जाता। इन बलिदानों को संवत्सर या वार्षिक बलिदान के रूप में जाना जाता था। यहां तक कि अब मौसम शुरू होता है और संक्रांति और विषुवों की स्थिति के साथ समाप्त होता है।
विज्ञापन:
वैदिक कैलेंडर को पांच ऋतुओं में विभाजित किया गया था, वसंत (वसंत), ग्रिस्मा (ग्रीष्म), वर्षा (वर्षा ऋतु) सारद (शरद ऋतु) और हेमंत-सिसिरा (सर्दी)। कभी-कभी हेमंत और सिसिरा की अलग-अलग गणना की जाती थी। हमें सातवें सीज़न के संदर्भ भी मिलते हैं जिसे "एकल जन्म" के रूप में वर्णित किया गया है।
यह संभवतया एक अंतर्वैयक्तिक माह था। लोग पाँच ग्रहों और सत्ताईस नक्षत्रों के बारे में भी जानते थे और ग्रहण की अवधि, अवधि और समाप्ति के समय की गणना कर सकते थे।
यद्यपि अथर्ववेद में ग्रहण को पौराणिक शब्दों में समझाया गया है, ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि यह चंद्रमा द्वारा सूर्य के अपमान का परिणाम था। पहले काल के सबसे महत्वपूर्ण खगोलविद वृद्धा गर्ग थे जो पांडवों, यजुशा ज्योतिष के लेखक, और परसारा के समकालीन थे।
वृद्धा गर्गा का नाम महाभारत में दो बार दिया गया है। ऐसा कहा जाता है कि वह सरस्वती नदी के एक स्थान पर रहते थे और उन्होंने समय और गति, ग्रहों और तारों का ज्ञान प्राप्त किया। ऋषि उनसे इस नए विज्ञान को सीखने के लिए विभिन्न स्थानों से आए थे।
लग्ध को नक्षत्र अश्लेषा और शीत संक्रांति के मध्य से नक्षत्र धनिष्ठा के मध्य से गुजरने के लिए ग्रीष्म संक्रांति का श्रेय दिया जाता है। ' पराशर और गार्गा जैसे अन्य खगोलविदों ने भी खगोल विज्ञान के विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान दिया और पहले के विद्वानों की परंपराओं को आगे बढ़ाया।
इन विद्वानों के अलावा, हम कुछ अन्य खगोलविदों जैसे कि ऋषिपुत्र, कपिलाचार्य, कश्यप, देवला आदि के बारे में भी सीखते हैं, लेकिन हम उस सटीक समय के बारे में निश्चित नहीं हैं जब वे फलते-फूलते हैं और हिंदू खगोल विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने जो योगदान दिया है।
प्राचीन समय का सबसे उत्कृष्ट खगोलशास्त्री आर्यभट्ट था। उन्हें खगोल विज्ञान के विज्ञान में मौलिकता और बहुमूल्य योगदान के लिए जाना जाता है। उनका जन्म 476 ईस्वी में हुआ था। उन्होंने आर्यभट्टीयम लिखा था, जिसमें उन्होंने पृथ्वी की द्योतक क्रांति के सिद्धांत को अपनी धुरी पर रखा था। उन्होंने सूर्य और चंद्रमा की गति का भी उल्लेख किया है।
आर्यभट्ट ने कहा: "तारों की तिजोरी तय की जाती है: यह पृथ्वी है जो अपनी धुरी पर घूम रही है, ऐसा लगता है कि ग्रहों और तारों की वृद्धि और स्थापना का कारण है"।
इसी तरह का दृश्य चंदोग्य उपनिषद में भी व्यक्त किया गया है जो कहता है:
“सूरज कभी अस्त या उगता नहीं है। जब लोग सोचते हैं कि सूरज ढल रहा है, तो वह दिन के अंत तक पहुंचने के बाद ही बदल जाता है, और रात को नीचे और दिन को दूसरी तरफ जो होता है, बनाता है। जब लोगों को लगता है कि वह सुबह उठता है तो वह केवल रात के अंत तक पहुंचने के बाद खुद को ढाल लेता है और दूसरी तरफ जो दिन होता है उसके नीचे दिन और रात बनाता है। वास्तव में वह कभी भी सेट नहीं होता है। ”
आर्यभट्ट और उनके शिष्यों जैसे लतादेव और भास्कर प्रथम के बहुमूल्य योगदान देने के बाद भी खगोल विज्ञान का विकास जारी रहा। लतादेव ने अपने योगदानों के कारण सर्व-सिद्धान्त-गुरु के रूप में ख्याति अर्जित की। भास्कर प्रथम ने लघुभास्करीया और महा-भास्करिया जैसे खगोल विज्ञान के महत्वपूर्ण कार्य भी लिखे।
प्राचीन समय के एक अन्य खगोलशास्त्री वराहमिहिर थे, जिनके बारे में माना जाता है कि उनकी मृत्यु 587 ईस्वी में हुई थी वराहमिहिर एक बहुमुखी प्रतिभा वाले व्यक्ति थे, जिन्होंने प्राकृतिक विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया। खगोल विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने कई रचनाएँ लिखीं, लेकिन उनमें से सबसे महत्वपूर्ण पंच सिद्धान्त है।
इस काम में वराहमिहिर ने पनलिसा और रोनका वशिष्ठ की शिक्षाओं को मिला दिया। उन्होंने आर्यभट्ट अर्धरात्रिका प्रणाली से खगोलीय स्थिरांक उधार लेकर पुरानी सूर्य सिद्धान्त को अद्यतन किया।
वराहमिहिर के पास एक कैथोलिक दृष्टिकोण था जो उनकी राय में परिलक्षित होता है कि यूनानी को खगोल विज्ञान के अपने ज्ञान के लिए श्रद्धा होनी चाहिए, भले ही सामाजिक रूप से वे बहिष्कृत (म्लेच्छ) हों। वराहमिहिर की कृतियों का अल्बर्टी ने अरबी में अनुवाद किया था।
एक अन्य महत्वपूर्ण हिंदू खगोलशास्त्री ब्रह्मगुप्त थे, जिनका जन्म 598 ईस्वी में हुआ था और वे उज्जैन में प्रसिद्ध वेधशाला में अपनी जाँच करते थे। यह ध्यान दिया जा सकता है कि वराहमिहिर ने भी उसी वेधशाला पर काम किया था। ब्रह्मगुप्त के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में ब्रह्म-स्तुता-सिद्धान्त और खान-दक्खिदका शामिल हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इन खगोलविदों के प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राचीन भारत में हिंदू खगोल विज्ञान ने सराहनीय प्रगति की। इन विद्वानों का महत्व न केवल उनके निष्कर्ष की मौलिकता में है, बल्कि उनके द्वारा अपनाई गई वैज्ञानिक विधियों में भी निहित है।
खगोल विज्ञान के इन विद्वानों द्वारा किए गए कुछ महत्वपूर्ण योगदानों में सत्ताइस नक्षत्रों के साथ चंद्र राशि के बारे में सुझाव थे, अपनी धुरी पर पृथ्वी के पूर्ण रोटेशन के बारे में खोज, सौर और चंद्र ग्रहण के वैज्ञानिक कारण, परिकल्पना ग्रहों की चाल के लिए ऐपिस, विषुवों की वार्षिक पूर्वता के बारे में सिद्धांत, सूर्य और चंद्रमा के सापेक्ष आकार पृथ्वी की तुलना में और चंद्र की अवधि और चंद्र की गणना में प्रवेश करने वाले चंद्र स्थिरांक का निर्धारण।
यह ध्यान दिया जा सकता है कि राशि चक्र के नाम, कुंडलियों की ढलाई और अन्य तकनीकी शब्दों का उपयोग वराहमिहिर जैसे खगोलविदों द्वारा किया गया है, यह दर्शाता है कि भारतीय यूनानी खगोल विज्ञान से परिचित थे।
हालाँकि, हिंदू खगोल विज्ञान पर यूनानी प्रभाव का ठीक-ठीक निर्धारण करना मुश्किल है क्योंकि हिंदू खगोलविदों ने आमतौर पर कामोद्दीपक में लिखा है और उन निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए अपनाए गए तरीकों को इंगित किए बिना केवल अपने निष्कर्षों को कहा है: यह बहुत संभव है कि भारतीय संभव हो कुछ यूनानी विचारों को आत्मसात किया, उन पर सुधार किया और उन्हें अपने तरीके से प्रस्तुत किया।
विज्ञान # 2. गणित:
प्राचीन काल में गणित ने भी काफी प्रगति की। वास्तव में गणित का विज्ञान अन्य सभी विज्ञानों की तुलना में श्रेष्ठ माना जाता था। गणित के विज्ञान के महत्व पर जोर देते हुए (गनिष्ठ शास्त्र) चंडोग्य उपनिषद कहते हैं: "जैसे मोर के सिर पर शिखाएँ होती हैं, वैसे ही साँपों के हुड पर रत्न होते हैं, इसलिए वेदों के नाम से जाने जाने वाले विज्ञानों में सबसे ऊपर गीता है।"
उस समय गणिता में खगोल विज्ञान, अंकगणित और बीजगणित शामिल थे। इसमें ज्यामिति शामिल नहीं थी जो विज्ञान के एक अलग समूह से संबंधित थी जिसे कल्पा के रूप में जाना जाता है।
जैसे कि खगोल विज्ञान के मामले में, विभिन्न प्रकार के बलिदानों के प्रदर्शन के लिए गणिता का ज्ञान आवश्यक माना जाता था। प्रत्येक बलिदान को निर्धारित आकार और आकार की एक वेदी पर बनाया जाना था, और यहां तक कि वेदी के रूप और आकार में थोड़ी सी भी अनियमितता बलिदान के प्रभाव को कम कर सकती थी।
इसलिए सही आकार और आकार की वेदियों को तैयार करने के लिए सबसे बड़ी देखभाल की गई थी। इस प्रकार हम पाते हैं कि धार्मिक आवश्यकता के परिणामस्वरूप गणित और ज्यामिति बढ़ी। लेकिन समय के साथ उन्होंने अपने मूल प्रदर्शन को पीछे छोड़ दिया और खुद के लिए खेती की जाने लगी।
वैदिक काल में गणित का हमारा ज्ञान बहुत सीमित है। उस अवधि से संबंधित विषय पर लगभग सभी कार्य समाप्त हो चुके हैं। वैदिक काल में गणित की प्रगति के बारे में जो भी थोड़ी-बहुत जानकारी हमें मिली वह साहित्यिक कार्यों जैसे माध्यमिक स्रोतों से ली गई है। सबसे महान गणितज्ञ, जिनके कार्य हमारे सामने आ चुके हैं, आर्यभट्ट थे।
उनका काम आर्यभट्टीयम, खगोल विज्ञान पर एक महान काम होने के अलावा, अंकगणित पर एक ग्रंथ भी था। इस काम में उन्होंने उन समस्याओं पर चर्चा की जिन्हें अब अंकगणितीय और ज्यामितीय प्रगति और द्विघात समीकरण के रूप में जाना जाता है। वे पहले गणितज्ञ भी थे जिन्होंने निरंतर भिन्न भिन्न तरीकों से रैखिक अनिश्चित समीकरण के सामान्य समाधान का प्रयास किया।
एक अन्य प्रसिद्ध खगोलशास्त्री ब्रह्मगुप्त ने भी गणित में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने कारक और पूर्णांक, प्रगति, तीन का नियम, साधारण ब्याज और विमान के आंकड़ों के निर्माण के बारे में लिखा। उन्होंने बीजगणित में नकारात्मक संख्याओं के लिए नियम भी बनाए और द्विघात और अनिश्चित समीकरणों में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
प्राचीन भारत द्वारा निर्मित एक अन्य महत्वपूर्ण गणितज्ञ महावीर या महावीर आचार्य थे। वह नौवीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रकूट वंश के अमोघवर्ष के दरबार में रहते थे। उनके काम, गानिता शास्त्र ने श्रद्धा, श्रृंखला, मूलांक और समीकरणों से जुड़ी कई समस्याएं सम्मिलित कीं। भास्कर ’, प्राचीन भारत के दौरान निर्मित अंतिम गणितज्ञ थे।
वह 12 वीं शताब्दी में उज्जैन में रहते थे। भास्कर ने खगोल विज्ञान में भी विशेषज्ञता हासिल की, हालांकि उन्होंने अंकगणित, मेन्सुरेशन और बीजगणित पर भी काम किया। उन्हें डिफरेंशियल कैलकुलस के सिद्धांतों की खोज में न्यूटन के सिद्धांतों और खगोलीय समस्याओं के लिए इसके अनुप्रयोग का श्रेय दिया जाता है।
उन्होंने गणितीय रूप से यह भी साबित किया कि अनंत हालांकि, विभाजित अनंत है। भास्कर का सबसे प्रसिद्ध काम लीलावती का था जिसे मुगल शासन के दौरान फारसी में अनुवादित किया गया था।
संख्यात्मक प्रणाली गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों का एक और महत्वपूर्ण योगदान था। वेदों की गवाही पर हम कह सकते हैं कि हिंदुओं ने वैदिक काल की तरह ही शब्दावली की शब्दावली विकसित की थी और बड़ी संख्या के साथ किसी भी संख्या को चौदह अंकों तक व्यक्त कर सकते थे।
जैसा कि संख्यात्मक प्रतीकात्मकता के संबंध में प्राचीन साहित्य हमें पूर्ण अंधकार में छोड़ देता है। इसमें कोई संदेह नहीं है, हम विभिन्न साहित्यिक कार्यों से अंक अभिव्यक्ति के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन हम वैदिक हिंदुओं के अंक और प्रणाली के बारे में निश्चित रूप से कहने के लिए कोई निश्चित प्रमाण नहीं दे रहे हैं।
हालाँकि, कुछ विद्वानों ने तर्क दिया है कि वैदिक काल में भी लोगों ने संख्यात्मक संकेत विकसित किए थे क्योंकि ऋग्वेद कुछ गायों को अष्टकर्णी (कान पर आठ निशान वाले) के रूप में संदर्भित करता है। इसी प्रकार, यजुर वेद में अष्टप्रदीपनीयम नामक कुछ सोने के वजन का उल्लेख है। कभी-कभी लोगों ने उन शब्दों का उपयोग करके संख्याओं को व्यक्त करने की कोशिश की जिनमें कुछ निश्चित संख्याएं उनसे जुड़ी थीं।
उदाहरण के लिए शून्य शब्द द्वारा व्यक्त किया गया था, सुन्या, अम्बरा, अनंता, आदि, एक आदि, सोमा, भूमि, इत्यादि द्वारा तीन, लोका, गुना, काला रत्न (जैन), इत्यादि। ये वर्णसंकर लेखकों की मदद करते थे। छंद में अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए।
प्राचीन भारत में लोगों का एक और उत्कृष्ट योगदान संख्या के आधार के रूप में दस के साथ स्थान मूल्य की अवधारणा का विकास था। बड़ी संख्या छोटी संख्या के बाईं ओर लिखी गई थी। पतंजलि के योग सूत्र पर व्यास-भाष्य इस प्रणाली को संदर्भित करता है जब यह कहता है: "एक ही झटके को इकाई के स्थान पर एक और दस को दस के स्थान पर और सौ को सौ में स्थान कहा जाता है"।
शंकराचार्य इस बात को भी संदर्भित करते हैं जब वे कहते हैं: हालांकि स्ट्रोक समान है, फिर भी जगह के परिवर्तन से यह मूल्यों को एक, दस, सौ, हजार, आदि प्राप्त करता है। ला प्लेस, नेपोलियन के समय का एक शानदार गणितीय खगोलशास्त्री बहुत है। इस खोज की सराहना की।
वह कहता है: “यह भारत है जिसने हमें दस प्रतीकों के माध्यम से सभी संख्याओं को व्यक्त करने का सरल तरीका दिया है, प्रत्येक प्रतीक को स्थिति का मूल्य, साथ ही एक पूर्ण मूल्य प्राप्त होता है; एक गहरा और महत्वपूर्ण विचार जो अब हमारे लिए इतना सरल प्रतीत होता है कि हम इसकी वास्तविक योग्यता को नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन इसकी बहुत ही सरलता, जिस महान मामले को सभी संगणनाओं के लिए उधार दिया है, वह हमारे अंकगणित को उपयोगी आविष्कारों की पहली श्रेणी में रखता है; और हम इस उपलब्धि की भव्यता की सराहना करेंगे जब हमें याद होगा कि यह पुरातनता के सबसे महान व्यक्तियों में से दो आर्किमिडीज और एपोलोनियस की प्रतिभा से बच गया था।
एक महान आधुनिक गणितज्ञ डैनजिंग ने इस खोज को अत्यधिक महत्व माना है।
उनका कहना है कि “लगभग पाँच हज़ार वर्षों की लंबी अवधि के दौरान मनुष्य एक अचूक संख्या का उपयोग कर रहा था, ताकि प्रगति को अच्छी तरह से असंभव बना दिया जा सके और कम से कम गणना की जा सके, ताकि किसी विशेषज्ञ की सेवाओं के लिए भी प्रारंभिक गणना की जा सके। जब इस प्रकाश को अज्ञात हिंदू की उपलब्धि के रूप में देखा जाता है, जिसने हमारे युग की पहली शताब्दियों में स्थिति के सिद्धांत की खोज की थी, एक विश्व घटना के अनुपात को मानता है ”।
'शून्य ’की अवधारणा प्राचीन भारत के लोगों द्वारा गणित के विज्ञान में एक और क्रांतिकारी योगदान था। इस खोज के बिना कोई स्थान मूल्य संभव नहीं होता और भारतीय गणितीय प्रणाली अन्य प्राचीन प्रणालियों में सुधार नहीं कर सकती थी।
भारत के प्राचीन गणितज्ञों द्वारा बताए गए शून्य के संचालन के नियमों को इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है: “इसके अतिरिक्त सिफर जोड़ के बराबर योग बनाता है; जब सिफर घटाया जाता है (एक संख्या से) तो संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता है। शून्य पर गुणन और अन्य परिचालनों में परिणाम शून्य होता है। ”
Halsted के अनुसार: “शून्य चिह्न के निर्माण के महत्व को कभी अतिरंजित नहीं किया जा सकता है। यह एक स्थानीय बस्ती और एक नाम, एक चित्र, एक प्रतीक, एक चित्र, एक प्रतीक, लेकिन सहायक शक्ति नहीं है, दोनों को हवा देने के लिए हिंदू जाति की विशेषता है, जहां यह घूमता है। यह निर्वाण को डायनामोस में संयोग करने जैसा है। बुद्धि और शक्ति के सामान्य चलते-चलते कोई भी गणितीय रचना अधिक शक्तिशाली नहीं रही। "
दुनिया के लगभग सभी सभ्य देशों में वर्तमान समय में उपयोग किए जाने वाले दशमलव स्थान मूल्य अंकन प्राचीन भारत का एक और महत्वपूर्ण योगदान था। इस प्रणाली में शून्य और 1 से 9 तक संख्यात्मक प्रतीकों का उपयोग किया गया था।
भारतीय दिमाग अमूर्त अटकलों में बहुत आनंद लेता था और बीजगणित के विज्ञान के लिए विशेष रूप से जन्मजात था। इस क्षेत्र में भारतीयों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान बिल्कुल नकारात्मक मात्रा की अवधारणा था, पहली और दूसरी डिग्री की अनिश्चित समस्याओं के समाधान के लिए सामान्य तरीके और क्रमपरिवर्तन और संयोजन के लिए नियम।
भास्कर जैसे कुछ विद्वानों ने खगोलीय और ज्यामितीय समस्याओं के लिए बीजगणित भी लागू किया।
त्रिकोणमिति में भारतीयों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्राचीन काल में भारतीयों द्वारा किए गए कुछ सिद्धांत और खोज क्षेत्र में काफी रोचक और प्रत्याशित आधुनिक घटनाक्रम हैं। विशेष रूप से उल्लेख पापों की तालिका और गोलाकार त्रिकोणमिति के प्रमुख सिद्धांतों की तैयारी से किया जा सकता है।
प्राचीन भारतीयों ने न केवल गणित की विभिन्न शाखाओं में बहुमूल्य योगदान दिया बल्कि अन्य देशों के गणित पर भी जबरदस्त प्रभाव डाला। उदाहरण के लिए, चीनियों ने बौद्ध से दशमलव अंकन को अपनाया।
उन्होंने ऊपर से नीचे तक आंकड़े लिखने की पुरानी प्रथा के स्थान पर दायें से बाएं तक संख्या लिखने की भारतीय पद्धति को अपनाया। 8 वीं शताब्दी ईस्वी में भारतीय गणित अरब देशों में भी फैल गया और भारतीय अंकों को उनके द्वारा अपनाया गया।
वास्तव में, अरब देशों के पास खलीफ-अल-मंसूर के समय तक संख्या के लिए कोई आंकड़ा नहीं था और उन्होंने पहली बार भारतीयों से इसे सीखा। ' खलीफ़-अल-मंसूर के शासनकाल में कई हिंदू वैज्ञानिकों ने उनके दरबार का दौरा किया और गणित और खगोल विज्ञान की कई पुस्तकों का अरबी में अनुवाद किया। अपने अंकों के लिए हिंदुओं के लिए अरबों की ऋणग्रस्तता इस तथ्य से स्पष्ट है कि आज भी अरब संख्या के लिए हिंडाह शब्द का उपयोग करते हैं जिसका अर्थ है कि उन्होंने इसे हिंद या भारत से लिया था।
यह मुस्लिम दुनिया के माध्यम से भारतीय गणित का ज्ञान मध्य एशिया और स्पेन में फैल गया। यूरोपीय देशों ने शायद स्पेन के मूरिश विश्वविद्यालयों से भारतीय गणित सीखा।
इस क्षेत्र के लिए पश्चिमी दुनिया की ऋणीता पर बल देते हुए प्रो। एएल बाशम कहते हैं:
“अधिकांश महान खोजों और आविष्कारों में, जिनमें यूरोप इतना गौरवान्वित है, गणित की एक विकसित प्रणाली के बिना असंभव था और अगर यूरोप को रोमन अंकों की बेवजह प्रणाली ने हिला दिया होता तो यह असंभव होता। अज्ञात व्यक्ति जिसने नई प्रणाली तैयार की, वह भारत के सबसे महत्वपूर्ण पुत्र बुद्ध के बाद दुनिया के दृष्टिकोण से था। उनकी उपलब्धि, हालांकि आसानी से दी गई थी, पहले आदेश के विश्लेषणात्मक दिमाग का काम था, और वह अब तक मिले सम्मान की तुलना में बहुत अधिक सम्मान के हकदार हैं।
विज्ञान # 3. चिकित्सा विज्ञान:
प्राचीन भारत के दौरान चिकित्सा विज्ञान ने भी बहुत प्रगति की। हम ऋग्वेद में क्यूरेटिव आर्ट के बारे में सबसे पहला संदर्भ पाते हैं जो विभिन्न जड़ी-बूटियों और पौधों को देवत्व प्रदान करता है। अथर्ववेद में भी औषधीय गुणों से संपन्न कुछ जड़ी-बूटियों और धातुओं को दिव्य गुण दिए गए थे और उनकी पूजा की जाती थी।
हालाँकि, हम वैदिक साहित्य से सीखते हैं कि वैदिक काल में चिकित्सा व्यवसाय कम या ज्यादा वंशानुगत हो गया था, हालाँकि इस पेशे के लोगों की स्थिति तुलनात्मक रूप से काफी हीन थी।
चिकित्सा विज्ञान को पहले व्यवस्थित किया गया था और चरक और सुश्रुत द्वारा तर्कसंगत आधार पर प्रदान किया गया था। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान पर दो मानक पुस्तकें लिखीं। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता क्रमशः। इन पुस्तकों को अथर्ववेद के लगभग एक हजार साल बाद लिखा गया था। ऐसा माना जाता है कि चरक ने सुश्रुत की तुलना में पहले लिखा था। आम तौर पर चरक की पुस्तक को पूर्व-बौद्ध युग को सौंपा गया है।
यह रोगों के निदान, रोग का निदान और वर्गीकरण से संबंधित है। इस काम में उन्होंने हास्य विकृति भी विकसित की। इस काम पर टिप्पणी करते हुए सर पीसी रे कहते हैं: “चरक को पढ़ने पर अक्सर ऐसा लगता है मानो यह हिमालय क्षेत्रों में आयोजित चिकित्सा विशेषज्ञों के एक अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस के विचार-विमर्श को मूर्त रूप देता है। इस तरह की कांग्रेस की कार्यवाही के रिकॉर्ड की प्रकृति को कम या ज्यादा करने का काम करता है।
सुश्रुत संहिता चरक की तुलना में अधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक कार्य था। यह अधिक आधुनिक मूल का माना जाता है और माना जाता है कि यह प्रसिद्ध बौद्ध वैज्ञानिकों और दार्शनिक नागार्जुन द्वारा फिर से लिखा गया है।
जबकि चरक संहिता की विषय वस्तु मुख्य रूप से चिकित्सा है, सुश्रुत शल्य चिकित्सा से संबंधित है। भारतीय चिकित्सकों ने हास्य पैथोलॉजी को बहुत महत्व दिया। भारतीय सिद्धांत के अनुसार हास्य के तीन प्रकार हैं। ययू (वायु), पित्त (पित्त) और कपा (कफ)।
विद्वानों का मानना है कि वायु, पित्त और कपा का सिद्धांत ग्रीक और रोमन चिकित्सकों के पुराने हास्य सिद्धांत के समान नहीं है, हालांकि उन्होंने आयुर्वेद से विचार उधार लिया था, संभवतः सिद्धांत के सही अर्थ को समझने में विफल रहे।
लेकिन आम धारणा यह है कि हम्पालोकलॉजी का सिद्धांत भारतीयों को हिप्पोक्रेटिक द्वारा विस्तृत रूप से जानने से बहुत पहले ही ज्ञात था। हमें इस बात को साबित करने के लिए ऋग्वेद और प्रारंभिक बौद्ध साहित्य में संदर्भ मिलता है। हालांकि, कुछ विद्वानों का मानना है कि बहुत कुछ यूनानी और हिंदू सिद्धांत और चिकित्सा पद्धति के बीच समानता से बना था।
सादृश्य वास्तविक की तुलना में अधिक सतही है और एक करीबी परीक्षा को सहन नहीं करता है। हिंदू प्रणाली तीन हास्यों पर आधारित है, अर्थात्, हवा, पित्त और कफ, जबकि ग्रीक की स्थापना चार हास्य, अर्थात् रक्त, पित्त, जल और कफ - एक कार्डिनल बिंदु पर होती है। अंतर।"
सर्जरी की कला प्राचीन भारत के लोगों के लिए भी जानी जाती थी और काफी उन्नत थी। हम प्रमुख ऑपरेशनों के विभिन्न संदर्भों में आते हैं, जैसे कि एंबुलेशन, लैपरोटॉमी (आंतों की रुकावट या अन्य परेशानी के लिए पेट खोलना), लिथोटॉमी (पत्थर की निकासी) और खोपड़ी के ट्रॉफिनिंग को प्राचीन सर्जनों के लिए जाना जाता था।
हमें ऋग्वेद में सर्जिकल ऑपरेशन का पहला संदर्भ मिलता है जिसमें कहा गया है कि जब विस्पला नामक एक युवा युवती ने संघर्ष में अपना पैर खो दिया था, तो दिव्य डॉक्टरों ने उन्हें एशविंस प्रदान किया था। सुश्रुत और वाग्भट्ट ने उस काल के सर्जिकल उपकरणों का उत्कृष्ट वर्णन किया है जो हमारी प्रशंसा को बढ़ाते हैं।
ग्रीक और रोमन सर्जिकल उपकरण हिंदू उपकरणों के केवल प्रतिकृतियां थे। विभिन्न सर्जिकल उपकरणों में शामिल आरी, लैंसेट, सुई, चाकू, कैंची, हुक, पिनर्स, जांच, निपर्स, संदंश, चिमटे, सीरिंज, लोडस्टोन आदि शामिल हैं।
चिकित्सकों और सर्जनों की शिक्षा के लिए मानव शरीर के विच्छेदन की आवश्यकता का एहसास भारतीयों को भी था। लगभग दो हज़ार साल पहले सुश्रुत का लेखन असंदिग्ध शब्दों में दर्ज है:
"इसलिए जो कोई भी सलाई (सर्जरी) का एक स्पष्ट विचार प्राप्त करना चाहता है, उसे उचित तरीके से एक लाश तैयार करनी चाहिए और शरीर के हर हिस्से को सावधानीपूर्वक विच्छेदन करके देखना चाहिए ताकि उसे निश्चित और संदेह रहित ज्ञान हो सके"। यह ध्यान दिया जा सकता है कि यूरोप में मध्य युग तक मानव विषय के विच्छेदन का विरोध किया गया था।
भारत में बौद्ध काल के दौरान शल्य चिकित्सा के साथ-साथ चिकित्सा ने बहुत प्रगति की क्योंकि बौद्ध धर्म ने कष्टों के निवारण पर जोर दिया। पुरुषों के साथ-साथ जानवरों के लिए कई अस्पताल खोले गए। आमतौर पर ये अस्पताल मठों में स्थित थे। चट्टानों, स्तंभों आदि पर उत्कीर्ण शिलालेखों में विभिन्न रोगों के उपचार के नुस्खे भी थे।
इसी तरह भारतीयों को 17 वीं शताब्दी में सर विलियम हार्वे द्वारा खोजे जाने से पहले रक्त के परिसंचरण के बारे में पता था।
यह चरक संहिता, सूत्र से उत्पन्न होता है जो कहता है:
“उस महान केंद्र (हृदय) से रक्त को शरीर के सभी हिस्सों में ले जाने वाले वाहिकाओं का तत्व निकलता है जो सभी जानवरों के जीवन का पोषण करता है और जिसके बिना जीवन विलुप्त होगा। यह वह तत्व है जो गर्भाशय में भ्रूण को पोषण देने के लिए जाता है और जो उसके शरीर में प्रवाहित होकर माँ के हृदय में लौट आता है। "
फार्माकोलॉजी और फार्मेसी के क्षेत्र में, दवाओं और खाद्य पदार्थों के गुणों की जांच पांच इंद्रियों द्वारा की गई थी और मानव प्रणाली पर दिखाई देने वाली व्यक्तिपरक और उद्देश्यपूर्ण घटनाओं द्वारा। यह आग्रह किया गया था कि निदान पूछताछ द्वारा पूरक पांच इंद्रियों द्वारा किया जाना चाहिए। सांसों-आवाजों की प्रत्यक्ष आसक्ति या सुनने की विधि उन्हें ज्ञात थी।
इसी तरह सुश्रुत संहिता में हमें ऐसे संदर्भ मिलते हैं जो बताते हैं कि लोगों को बैक्टीरिया की उत्पत्ति और कुछ रोगों की संक्रामक प्रकृति के बारे में पता था, जैसे कि विस्फोटक बुखार, कुष्ठ, चेचक, तपेदिक आदि। लेकिन शायद हिंदू चिकित्सा की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। धातु तैयारी की शुरुआत, विशेष रूप से पारा और लोहे की।
महान बौद्ध वैज्ञानिक नागार्जुन जो 8 वीं या 9 वीं शताब्दी ईस्वी में फले-फूले थे, उन्होंने सबसे पहले पारा तैयारी कज्जली (पारा की काली सल्फाइड) का उपयोग किया था। ह्वेन त्सांग जो 629 ई। से भारत में रहे, उन्होंने भी चिकित्सा विज्ञान में नागार्जुन के ज्ञान की बहुत प्रशंसा की है।
वे कहते हैं: “नागार्जुन बोधिसत्व को यौगिक चिकित्सा की कला में अच्छी तरह से अभ्यास कराया गया था; तैयारी (गोली या केक) लेकर उन्होंने कई सैकड़ों वर्षों तक जीवन के वर्षों का पोषण किया, ताकि न तो मन खराब हो और न ही क्षय।
प्राचीन भारतीय चिकित्सा पेशे को बहुत ही महान पेशा मानते थे। पीड़ित मानवता को राहत देना एक नेक काम माना गया। चरक कहते हैं: “न तो धन के लिए और न ही किसी सांसारिक वस्तुओं के लिए अपने रोगियों का इलाज करना चाहिए। इसमें चिकित्सक सभी वोकेशन को एक्सेल करते हैं। जो लोग एक माल के रूप में उपचार बेचते हैं, वे केवल धूल की तलाश में सोने के असली खजाने की उपेक्षा करते हैं ”।
चरक ने आयुर्वेद का नैतिक संहिता तैयार किया था जो प्रदान करता है: “आपको सभी प्राणियों की खुशी की तलाश करनी चाहिए। हर दिन, खड़े या बैठे, आपको अपने पूरे दिल से बीमारों को चंगा करने की कोशिश करनी चाहिए। आपको अपने आप को बनाए रखने के लिए अपने रोगियों से बहुत अधिक मांग नहीं करनी चाहिए, आपको किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी को भी विचार में नहीं छूना चाहिए, न ही दूसरों के धन के बाद हेंकर। आपको पोशाक में शांत होना चाहिए, और संयमी होना चाहिए, आपको कोई पाप नहीं करना चाहिए और न ही इसका पालनकर्ता होना चाहिए और आपको ऐसे शब्द बोलने चाहिए जो सौम्य, स्वच्छ और धार्मिक हों, ”और इसी तरह।
वह आगे कहता है: "यदि आप अपनी मृत्यु के बाद अपने अभ्यास, धन और प्रसिद्धि, और स्वर्ग में सफलता चाहते हैं, तो आपको सभी प्राणियों, विशेषकर गायों और ब्राह्मणों के कल्याण के लिए उठने और जाने के लिए हर दिन प्रार्थना करनी चाहिए, और आपको अवश्य बीमारों के स्वास्थ्य के लिए अपनी आत्मा के साथ प्रयास करें। आपको अपने मरीज़ों के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहिए, यहाँ तक कि अपनी जान की कीमत पर भी ... आपको नशे में नहीं होना चाहिए, न ही बुराई करनी चाहिए, न ही बुराई करना चाहिए। आपको वाणी में प्रसन्नता होनी चाहिए ... और विचारशील, अपने ज्ञान को बेहतर बनाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहें। ''
“जब आप किसी मरीज के घर जाते हैं तो आपको अपने शब्दों, मन, बुद्धि और इंद्रियों को अपने रोगी और उसके इलाज के लिए निर्देशित करना चाहिए। । । बीमार व्यक्ति के घर में होने वाली घटनाओं को बाहर से बताया जाना चाहिए, न ही रोगी की स्थिति किसी को बताई जानी चाहिए, जो उस ज्ञान से मरीज को या किसी अन्य को नुकसान पहुंचाए। "
प्राचीन भारत के लोग पशु चिकित्सा का भी अभ्यास करते थे। अहिंसा के सिद्धांत से प्रोत्साहित होकर जानवरों के रहने की व्यवस्था की गई और बीमार और वृद्ध जानवरों की उचित देखभाल की गई। ऐसे डॉक्टर थे जो घोड़ों और हाथियों जैसे जानवरों की बीमारी के विशेषज्ञ थे और उन्हें अदालत में बहुत सम्मानजनक स्थान दिया गया था।
उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि भारतीय चिकित्सा विज्ञान प्रणाली काफी उन्नत थी और इसने पश्चिम और पूर्व के समकालीन देशों अर्थात् अरब, मिस्र, रोम, ग्रीस और चीन पर काफी प्रभाव डाला। अब यह सभी हाथों में स्वीकार किया जाता है कि इन देशों ने अपने अधिकांश चिकित्सा ज्ञान कौशल और प्रेरणा भारत से प्राप्त की।
यूनानियों और रोमियों ने विशेष रूप से भारतीय प्रणाली के साथ-साथ भारतीय नामों और व्यंजनों को अपनाया। हरद-अल-रशीद, बगदाद के खलीफा ने 8 वीं शताब्दी ईस्वी के करीब से मेडिसिन और फार्माकोलॉजी का अध्ययन करने के लिए विद्वानों को भारत भेजा।
कुछ हिंदू चिकित्सकों को भी बगदाद आमंत्रित किया गया था और अस्पतालों के अधीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। उनसे यह भी अनुरोध किया गया कि वे अरबी भाषा में मेडिसिन, फार्माकोलॉजी और टॉक्सिकोलॉजी के महत्वपूर्ण संस्कृत कार्यों का अनुवाद करें।
इसी प्रकार कुछ चीनी आगंतुकों ने भी भारतीय चिकित्सा प्रणाली का अध्ययन किया। प्रसिद्ध चीनी यात्री, I-tsing, जिन्होंने 7 वीं शताब्दी की अंतिम तिमाही के दौरान भारत का दौरा किया, ने भी भारतीय चिकित्सा प्रणाली का अध्ययन किया। अगले कुछ वर्षों के दौरान भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने के लिए मुस्लिम विद्वान भारत आते रहे।
विज्ञान # 4. रसायन विज्ञान:
भारत में रसायन विज्ञान मुख्य रूप से चिकित्सा के लिए हाथ की नौकरानी के रूप में विकसित हुआ। विषय को रसायण के रूप में जाना जाता था जो व्यावहारिक रूप से कीमिया के बराबर है। प्राचीन भारत के महानतम केमिस्टों में से पाणिनि, और महान बौद्ध भिक्षु नागार्जुन के प्रसिद्ध टीकाकार पतंजलि से बने हो सकते हैं।
पहले एक प्रतिनिधि के रूप में कीमियागर था। ऐसा लगता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के दौरान उनका उत्कर्ष हुआ था और इसे लोहा-शास्त्र (लोहे का विज्ञान) पर अधिकार माना जाता था। नागार्जुन अल-रसायन विज्ञान की एक और महत्वपूर्ण प्रतिनिधि थे।
वह आठवीं और नौवीं शताब्दी ईस्वी के बीच सोमनाथ के पास रहते थे और इस विषय पर संपूर्ण साहित्य के साथ एक पुस्तक की रचना की थी। इस कार्य को दुर्लभ महत्व माना जाता है। चिकित्सा में पारा तैयारी कज्जली का उपयोग करने वाले नागार्जुन पहले थे।
उन्हें आसवन और कैल्सीनेशन की प्रक्रिया की खोज का श्रेय भी दिया जाता है। चीनी यात्री प्रसिद्ध ह्वेन त्सांग ने यह दर्ज किया है कि नागार्जुन ने औषधि बनाने की कला में विशेषज्ञता हासिल की थी और एक तैयारी का आविष्कार करके उन्होंने जीवन के वर्षों को लम्बा खींचा;
प्राचीन भारत के लोगों को आसवन, स्टीमिंग और फिक्सेशन की प्रक्रियाओं की खोजों और आविष्कारों का श्रेय दिया गया है। हालांकि 16 वीं शताब्दी ईस्वी तक खनिज एसिड भारतीयों को ज्ञात नहीं थे, लेकिन उन्होंने सभी धातुओं को मारने के लिए vid नामक मिश्रण का उपयोग किया। रासयाना के क्षेत्र में भारतीयों द्वारा की गई प्रगति को प्रसिद्ध यात्री अलबरूनी ने बहुत सराहा है।
उन्होंने रिकॉर्ड किया “उनके पास कीमिया के समान एक विज्ञान है जो उनके लिए काफी अजीब है। वे इसे रसायण कहते हैं। इसका मतलब एक ऐसी कला है जो कुछ विशेष कार्यों, दवाओं और यौगिकों और दवाओं तक सीमित है, जिनमें से अधिकांश पौधों से ली गई हैं। इसके सिद्धांतों ने उन लोगों के स्वास्थ्य को बहाल किया जो आशा से परे बीमार हैं और युवाओं को बुढ़ापे में लुप्त होने के लिए वापस दे दिया। "
प्राचीन भारत के लोगों को प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले अयस्कों से धातुओं और उनके अर्क का अच्छा ज्ञान था। वैदिक काल में सोने और चांदी के आभूषणों का उपयोग किया जाता था। प्राचीन भारत के सैनिकों ने नर और धात्विक हेलमेटों के डिब्बों का इस्तेमाल किया।
यजुर्वेद लोहा, सीसा और टिन का भी उल्लेख करता है। छान्दोग्य उपनिषद भी स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि हिंदुओं को मिश्र धातुओं के निर्माण के बारे में काफी अच्छी जानकारी थी। इसे कहते हैं "जैसा कि एक सोने के माध्यम से लावाणा (बोरेक्स) चांदी के माध्यम से सोने को बांधता है, टिन के माध्यम से चांदी के नेतृत्व के माध्यम से टिन, और सीसा के माध्यम से लोहे को।"
यह सभी हाथों में स्वीकार किया जाता है कि प्राचीन भारत में लोगों ने धातु विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की। उन्होंने कांस्य और अन्य धातुओं की सुंदर मूर्तियाँ तैयार कीं। पुरी में लोहे के विशाल गर्डर्स, सोमनाथ के प्रसिद्ध द्वार और नरवर में लोहे की बड़ी तोपें धातु विज्ञान में भारतीयों के उल्लेखनीय कौशल की गवाही देती हैं।
भारतीय विशेष रूप से स्टील के तड़के में कुशल थे। Saracens, जो दमिश्क ब्लेड के निर्माण के लिए प्रसिद्ध थे, उन्होंने अरबों के माध्यम से भारतीयों से कला सीखी। भारतीय तलवार की लोकप्रियता फ़ारसी अभिव्यक्ति, जवाबी हिंद (भारतीय उत्तर) से स्पष्ट है जिसने भारतीय स्टील से बनी तलवार से कटौती की।
लेकिन शायद भारतीयों के धातुकर्म कौशल का सबसे उत्कृष्ट चमत्कार दिल्ली में लोहे का विशाल स्तंभ था जो 24 फीट ऊंचा है और इसका वजन 6-1 / 2 टन है।
1500 साल से अधिक पुराना यह स्तंभ आज भी महान प्रशंसा का स्रोत है। फर्ग्यूसन के अनुसार: "चौदह शताब्दियों के लिए हवा और बारिश के संपर्क में आने के बाद यह लगभग चौंका देने वाला है कि यह बिना जंग वाला है, और राजधानी और शिलालेख उतने ही स्पष्ट और उतने ही शार्प हैं जितने चौदह शताब्दियों पहले थे।"
उन्होंने आगे टिप्पणी की: "यह उस समय के हिंदुओं को खोजने में सक्षम मामलों की एक अनसुलझी स्थिति के लिए हमारी आंखों को खोलता है, जो यूरोप में बहुत देर तक जाली होने की तुलना में लंबे समय तक जाली बनाने में सक्षम है, और अब भी नहीं।"
रासायनिक प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी भारतीयों ने बहुत प्रगति की। वे तेजी से रंग तैयार करने की कला के बारे में जानते हैं। वे इंडिगो से इंडिगो टिन की निकासी, ब्लीचिंग, साबुन बनाने के साथ-साथ गन पाउडर के बारे में भी जानते थे। रसायन विज्ञान के क्षेत्र में इन उपलब्धियों के मद्देनजर भारतीयों को औद्योगिक क्षेत्र में प्रभावी स्थिति हासिल करने में मदद मिली।
विज्ञान # 5. भौतिकी:
हालाँकि हिंदुओं ने भौतिकी विज्ञान का व्यवस्थित अध्ययन नहीं किया, लेकिन वे विभिन्न वैज्ञानिक अवधारणाओं और धातु और ऊर्जा के बारे में ध्वनि परिकल्पना के बारे में जानते थे। यह ध्यान दिया जा सकता है कि उस समय भौतिकी को धर्म और धर्मशास्त्र के साथ निकटता से जोड़ा गया था और इसलिए विभिन्न धर्मों के अनुयायी भौतिकी के नियमों के बारे में भिन्न थे।
यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत के लोगों ने कम से कम बुद्ध के समय में ब्रह्मांड का चार तत्वों अर्थात पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल में विश्लेषण किया। रूढ़िवादी हिंदुओं और जैनों ने इसमें एक और तत्व अकासा (ईथर) जोड़ा। इन पांच तत्वों में से प्रत्येक गंध, भावना के लिए वायु, महसूस के लिए हवा, दृष्टि के लिए आग, स्वाद के लिए पानी और ध्वनि के लिए ईथर का एक माध्यम था।
प्राचीन समय के दौरान दर्शन के अधिकांश स्कूल परमाणु सिद्धांत में विश्वास करते थे। प्रो। एएल बाशम के अनुसार, "भारतीय परमाणुवाद निश्चित रूप से ग्रीक प्रभाव से स्वतंत्र था, क्योंकि परमाणु सिद्धांत को बुद्ध के पुराने समकालीन पाकुड़ कात्यायन ने पढ़ाया था, और इसलिए यह डेमोक्रिटस की तुलना में पहले था।"
यह ध्यान दिया जा सकता है कि दर्शन के विभिन्न स्कूलों ने स्वतंत्र परमाणु सिद्धांत विकसित किए। इन सिद्धांतों में सबसे महत्वपूर्ण कपिला की लेखिका, सांख्य दर्शन और कणाद, वैशेषिक दर्शन के संस्थापक थे।
कनाड़ा ने तर्क दिया कि कोई छोटी से छोटी चीज होनी चाहिए जिसका आगे विश्लेषण न किया जा सके। इस धारणा के बिना एक अंतहीन प्रतिगमन होगा और "सरसों और पहाड़ के बीच", "गनत और एक हाथी" के बीच परिमाण का कोई अंतर नहीं होगा।
इन संयुक्त राष्ट्रों की रचना और अदृश्य कणों में कोई परिमाण नहीं था जिन्हें परमाणु के रूप में वर्णित किया गया था। यह माना जाता था कि प्रत्येक परमाणु में कोई विशिष्ट गुण नहीं थे बल्कि केवल क्षमताएँ थीं। ये क्षमताएँ तभी चलन में आईं जब परमाणु दूसरों के साथ संयुक्त हो।
यह माना जाता था कि जब परमाणुओं को पदार्थ बनाने के लिए संयोजित किया जाता है तो वे विभिन्न तत्वों के होते हैं और इस मामले ने किसी विशेष तत्व की प्रबलता से अपनी संपत्ति का अधिग्रहण किया।
इस प्रकार मोम जैसी धातु पिघल कर जल सकती है क्योंकि इसमें पानी और आग के तत्व होते हैं। 1 शताब्दी ईस्वी में रहने वाले उमास्वाति ने वकालत की कि केवल विपरीत गुणों के परमाणु संयोजन कर सकते हैं और परमाणुओं को आकर्षित या प्रतिकारक किया जाता है क्योंकि वे विषम या समरूप थे।
प्राचीन काल के परमाणु सिद्धांतों पर टिप्पणी करते हुए प्रो। एएल बाशम कहते हैं, "भारतीय परमाणु सिद्धांत निश्चित रूप से प्रयोगों के आधार पर नहीं बल्कि अंतर्ज्ञान और तर्क पर आधारित थे। लेकिन प्राचीन भारतीयों के परमाणु सिद्धांत दुनिया की भौतिक संरचना के शानदार कल्पनाशील स्पष्टीकरण हैं। हालांकि, यह शायद केवल संयोग है कि वे आधुनिक भौतिकी के सिद्धांतों के साथ सहमत हैं, फिर भी वे प्रारंभिक भारतीय विचारकों की बुद्धि और कल्पना के श्रेय के लिए बहुत अधिक हैं। "
प्राचीन काल में भारतीयों को पता था कि पदार्थों में गुरुत्वाकर्षण, सामंजस्य, अभेद्यता, चिपचिपापन, तरलता, सरंध्रता आदि गुण होते हैं। वे गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बारे में जानते थे। उन्होंने केशिका गति के माध्यम से तरल के मर्मज्ञ प्रसार को समझाया।
वेग की गणना के सटीक तरीके भी उन्हें ज्ञात थे। परिणामस्वरूप वे बड़ी सटीकता के साथ संगीतमय स्वर के सापेक्ष पिच को माप सकते थे। उन्होंने यह भी प्रत्याशित किया कि कंपन के पाइथागोरसिन नियम bf फैला हुआ तार, अर्थात।, कंपन की संख्या स्ट्रिंग की लंबाई के विपरीत भिन्न होती है।
प्राचीन भारत में लोग मानते थे कि ऊर्जा अविनाशी है और इस प्रकार उन्होंने ऊर्जा के संरक्षण के कानून का अनुमान लगाया। वे गर्मी और प्रकाश को एक ही पदार्थ के विभिन्न रूपों के रूप में देखते थे।
वे प्रकाश किरणों के अपवर्तन और रासायनिक प्रभावों के सिद्धांत, पारभासी, अस्पष्टता और छाया के कारणों को जानते थे। प्राचीन वैज्ञानिक में से एक ने वाष्पीकरण में उत्पीड़न और दुर्लभता की घटना का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण भी सुझाया था।
प्राचीन भारत के लोगों ने भी चुंबकीय खींच के सिद्धांत की खोज की थी, जिसके अनुसार चुंबक में लोहे को आकर्षित करने की शक्ति थी। इसे देखते हुए, भोज जैसे लेखकों ने सुझाव दिया कि चुंबकीय चट्टानों द्वारा चुंबकीय क्षेत्र में खींचे जाने के जोखिम से बचने के लिए जहाजों के निर्माण में लोहे का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
भारतीयों ने यूरोप में खोजे जाने से बहुत पहले ही मैरीनर कम्पास की खोज कर ली थी। इस यंत्र को मत्स्ययंत्र के नाम से जाना जाता था। इसमें एक लोहे की मछली शामिल थी जो तेल के एक बर्तन में तैरती थी और उत्तर की ओर इशारा करती थी।
विज्ञान की गिरावट:
हालाँकि पहले के समय में विभिन्न विज्ञानों का विकास जारी रहा, लेकिन उन्होंने 12 वीं शताब्दी ईस्वी के बाद गिरावट शुरू कर दी, इस अवधि के बाद भारतीय बुद्धि मूल के बजाय अधिक प्रभावशाली बनने की ओर अग्रसर हुई। विज्ञान में यह बौद्धिक ठहराव कई कारकों के कारण था।
पहले स्थान पर, यह गिरावट भारतीय विद्वानों के लिए मानसिक बदलाव में बदलाव के कारण थी जिसमें विनम्रता और विचार की स्वतंत्रता का अभाव था जिसका आनंद पहले के विद्वानों ने उठाया था।
इस बिंदु पर अल्बेरुनी ने ठीक ही जोर दिया है जब वे कहते हैं, "वे घृणित, मूर्ख, वैरी, स्थिर और आत्म-अभिमानी हैं। उनकी मान्यताओं के अनुसार, पृथ्वी पर कोई भी देश नहीं है, लेकिन उनकी, पुरुषों की कोई और जाति नहीं है, लेकिन उनके अलावा कोई भी प्राणी नहीं है, जो कि किसी भी प्रकार के सलामी का ज्ञान रखते हों। उनकी घबराहट ऐसी है कि अगर आप उन्हें खुरासान या फारस के किसी विज्ञान या विद्वान के बारे में बताते हैं तो वे सोचते हैं कि आप अज्ञानी और झूठे हैं। यदि वे यात्रा करते और अन्य देशों के साथ घुल-मिल जाते, तो वे जल्द ही अपना विचार बदल लेते, क्योंकि उनके पूर्वज इतने संकीर्ण विचारों वाले नहीं थे। ”
दूसरे, ब्राह्मणवाद के पुनरुत्थान ने कुछ हद तक चिकित्सा जैसे विज्ञान की उपेक्षा में भी योगदान दिया। नव-ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म की सभी चीजों को उखाड़ फेंकने के लिए अपने जोश में, व्यावहारिक विज्ञान, चिकित्सा और सर्जरी की उपेक्षा की जो बौद्धों के साथ बहुत लोकप्रिय थी। परिणामस्वरूप 1200 ईस्वी सन् से 1900 ई। की अवधि के बीच चिकित्सा और शल्य चिकित्सा में बहुत गिरावट आई
तीसरा, मुसलमानों के भारत आने के साथ जांच और वैज्ञानिक प्रगति की मुक्त भावना को झटका लगा। इस्लाम ने आध्यात्मिक नेताओं की अंध आज्ञाकारिता पर बहुत जोर दिया और स्वतंत्र सोच को प्रोत्साहित नहीं किया गया।
इसके अलावा, मुस्लिमों ने विभिन्न बौद्ध मठों पर हमला किया जैसे कि उदतापुरा और विक्रमशिला (जो कि चिकित्सा विज्ञान के महान केंद्र थे) पर हमला किया और बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। बड़ी संख्या में ये भिक्षु नेपाल, दक्षिण भारत और बर्मा जैसे अन्य भागों में भी भाग गए।
परिणामस्वरूप विज्ञान की प्रगति की बहुत जाँच हुई। अनिश्चित परिस्थितियों और सुरक्षा की भावना की कमी के कारण लोग विज्ञान की खोज में खुद को समर्पित नहीं कर सके।
यह सर्वविदित है कि विज्ञान केवल शांतिपूर्ण और समृद्ध परिस्थितियों में ही फल-फूल सकता है। लेकिन विदेशी आक्रमण, शोषण, राजनीतिक संघर्ष, वंशवादी युद्ध आदि ने देश को राजनीतिक रूप से और साथ ही वैज्ञानिक ज्ञान की खोज के लिए आर्थिक रूप से अनुपयुक्त बना दिया।
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