परम पूज्य गोळवलकर "गुरुजी" : संघ के द्वितीय सरसंघचालक
परम पूज्य गोळवलकर "गुरुजी"
- श्री. संजय मुळ्ये, रत्नागिरी (महाराष्ट्र)
http://www.hindujagruti.org/hindi/h/72.html
सारणी
१. गोळवलकर परिवार
२. जन्म एवं प्राथमिक शिक्षा
३. महाविद्यालयीन शिक्षा
४. संघसे संबंध
५. संघकार्यमें प्रत्यक्ष ध्यान देना
६. विवाह न करनेका दृढ निश्चय
७. गुरुमंत्र
८. सरसंघचालक पदपर नियुक्ति
९. निर्भयता
१०. संघपर पहला प्रतिबंध एवं गुरुजीको बंदी बनाया जाना
११. अन्य सेवाकार्य
१२. महानिर्वाण
१. गोळवलकर कुल विशेष
‘गोळवलकर परिवार मूलतः जनपद रत्नागिरी, तहसिल संगमेश्वरके गोळवली नामक गांवका निवासी था । इस गांवके पाध्ये परिवारकी एक शाखा नागपुरमें स्थलांतरित हुई एवं उनका उपनाम गोळवलकर हुआ । गुरुजीके पिताका नाम सदाशिवराव एवं मांका नाम लक्ष्मीबाई था । पिता ज्ञानमार्गी, तो मां भक्तिमार्गी थी । इस दम्पतिने नौ अपत्योंको जन्म दिया ; किंतु उनमेंसे केवल माधव (गुरुजी) ही बचा । वह चौथे क्रमांकका था ।
२. जन्म एवं प्राथमिक शिक्षा
माघ वद्य (शुक्ल) एकादशी, शके १८२७ इस तिथिको (१९ फरवरी १९०६ को ) नागपुरमें माधवका जन्म हुआ । माधवका मराठी जैसा हिंदी तथा अंग्रेजी भाषापर भी प्रभुत्व था । उसने शंकराचार्य, रामानुजाचार्यद्वारा लिखित संस्कृत ग्रंथ पढे थे । अनेक ग्रंथोंको उसने कंठस्थ किया था । । एक बार माधवके अध्यापकने तुलसी रामायणकी श्रेष्ठताका वर्णन किया । यह सुनकर संपूर्ण तुलसी रामायण पढनेका उसने तुरंत निश्चय किया । माधव प्रातःकालसे मध्यरात्रितक रामायण पढता रहा । भोजनके लिए भी उसे बलपूर्वक ऊठाना पडता था । वह रात्रि अत्यंत अल्प समयके लिए सोता था । ५ दिनोंमें ही उसने रामायणका ग्रंथ पढकर पूरा किया । केवल पढा ही नहीं, तो उसमें विद्यमान अनेक दोहे भी उसने मुखोद्गत किए । तदुपरांत वह मांको रामायणकी कथाएं कथन करने लगा । ‘तदुपरांत हनुमानजीने क्या कहा ?’ मांद्वारा ऐसा कोई प्रश्न पूछा जानेपर माधव वह कथाप्रसंग बतानेमें घंटेभरके लिए तल्लीन हो जाता था ।
३. महाविद्यालयीन शिक्षा
माधवराव आंतरविज्ञानकी (इंटरसायन्सकी) परीक्षा उत्तीर्ण हुए । चिकित्सा महाविद्यालयमें प्रवेश लेने हेतु वे लखनऊ गए; परंतु वहां उन्हें प्रवेश नहीं मिला । अंतमें उन्होंने काशीके हिंदु विश्वविद्यालयमें बी.एस्सी.के लिए प्रवेश लिया । वे गंगातटपर जाकर बैठते थे तथा गंगाकी पवित्र धाराकी ओर देखते-देखते ध्यानमग्न हो जाते थे । माधवरावको इन सभी बातोंमें रस निर्माण हुआ था । वे मदनमोहन मालवीयजीके पास जाते थे । कई बार वे श्रीरामकृष्ण आश्रममें जाते थे । भारतीय तत्त्वज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र इत्यादि विषयोंके प्रमाणभूत ग्रंथोंका उन्होंने उस कालावधिमें अध्ययन किया । इ.स. १९२६ में वे बी.एस्सी. उत्तीर्ण हुए । इ.स. १९२८ में प्राणिशास्त्र विषयमें वे प्रथम श्रेणी प्राप्त कर एम्.एस्सी. हुए ।
४. संघसे संबंध
इसी कालावधिमें नागपुरके रामकृष्ण मठके प्रमुख स्वामी भास्करेश्वरानंदके साथ माधवरावका संपर्क बढने लगा । उस समय उन्होंने विवेकानंदजीके साहित्यका अभ्यास किया । पारिवारिक स्थितिके कारणवश माधवरावने काशीके विश्वविद्यालयमें प्राध्यापककी नौकरी स्वीकार कर ली । पढानेकी कुशलताके कारण वे विद्यार्थियोंमें प्रिय हुए । विद्यार्थी उन्हें बडे सम्मानसे ‘गुरुजी’ कहने लगे ! भय्याजी दाणी तथा काशी हिंदु विश्वविद्यालयके अन्य स्वयंसेवकोंके कारण माधवरावका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघसे संबंध स्थापित हुआ । संघके संस्थापक डॉ. हेडगेवार जब काशीमें आए थे, उस समय उनकी उनसे भेंट हुई । डॉक्टरजीका आचरण एवं बातोंसे माधवराव अत्यंत प्रभावित हुए । वे बीचबीचमें संघशाखामें जाने लगे । डॉ. हेडगेवारने उन्हें नागपुरके संघका विजयादशमी समारोह देखनेके लिए आंमत्रित किया । वे माधवरावको अपने साथ भंडारा ले गए । यात्रामें उन्होंने डॉक्टजीरको संघसे संबंधित विषयमें अनेक प्रश्न पूछे । डॉक्टरजीद्वारा दिए गए उत्तर सुनकर उन्हें अत्यधिक समाधान हुआ ।
नागपुरसे लौटनेके पश्चात काशीकी संघाशाखामें माधवराव विशेष रुपसे ध्यान देने लगे । संघके स्वयंसेवक माधवरावके पास आने लगे । माधवराव भी स्वयंसेवकोंके पास जाने लगे । तात्त्विक चर्चाके साथ प्रत्यक्ष प्रेम एवं बंधुताका व्यवहार आरंभ हुआ । स्वयंसेवकोंकी अडचनें वे आत्मीयतासे दूर करने लगे । कई बार वे स्वयंसेवकोंको लेकर पंडित मदनमोहन मालवीयजीके पास जाते थे । संघका कार्य देखकर मालवीयजीने विद्यापिठ परिसरमें ही संघशाखाके लिए पर्याप्त स्थान देकर वहांपर छोटीसी वास्तुका भी निर्माण किया । अब डॉ. हेडगेवार भी उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे । डॉक्टरजीके मुखसे पहली बार जब उन्होंने सुना, ‘‘गुरुजी, आपको आज शाखामें स्वयंसेवकोंके लिए व्याख्यान देना है ।’’ तब कुछ संकोचवश उन्होंने पूछा, ‘‘डॉक्टरजी यह वैâसी बात आप कर रहे हैं, आप भी मुझे गुरुजी संबोधित कर रहे हैं ?’’ डॉ. हेडगेवारने उत्तर दिया, ‘‘अब आप थोडे ही किसी विशिष्ट कक्षाके विशिष्ट विद्यार्थियोंको पढानेवाले हों ? आप तो सभीके ही गुरुजी हो!’’
५. प्रत्यक्ष संघकार्यमें ध्यान देना
मुंबईके संघशाखाकी स्थिति अत्यंत दयनीय हुई थी । ‘कार्य अल्प एवं ऊधम अधिक कहते हैं’, एैसा वहां हुआ था । यह सुननेके पश्चात गुरुजीने डॉ. हेडगेवारको पूछा कि, ‘‘अभी महाविद्यालयमें छुट्टियां हैं । आप कहेंगे, तो मैं मुंबई जाकर वहांकी शाखाको अच्छा रुप देनेका प्रयास करूंगा ।’’ गुरुजीके मुखसे निकले यह शब्द सुनकर डॉक्टरजी अत्यंत हर्षित हुए । उन्होंने तत्काल गुरुजीको मुंबई भेजा । अत्यधिक परिश्रम कर गुरुजीने मुंबईके कार्यको नई गति प्रदान की । उन्होंने कार्यकर्ताओंके मनमें विद्यमान विकल्पोंको दूर किया । सफलता पाकर गुरुजी नागपुर लौट आए । इ.स. १९३४ के ग्रीष्मकालमें अकोलामें संघशिक्षा वर्ग संपन्न हुआ । डॉक्टरजीद्वारा गुरुजीको इस वर्गका सर्वाधिकारी नियुक्त किया गया । उन्होंने वर्गके छोटे-बडे सभी स्वयंसेवकोंकी ओर अच्छे प्रकारसे ध्यान दिया । रूग्ण स्वयंसेवकोंके निकट बैठकर वे स्वयं उनकी सेवा-शुश्रुषा करते थे ।
६. विवाह न करनेका दृढ निश्चय
इ.स. १९३५ में वे विधिज्ञकी (वकालत) परीक्षा उत्तीर्ण हुए । पिताजीने गुरुजीको इसके पूर्व ही विवाहके संबंधमें पूछा था; परंतु गुरुजीने उन्हें स्पष्ट शब्दोंमें नकार देते हुए कहा था, ‘‘विवाह करनेकी मेरी इच्छा नहीं है । गृहस्थीमें सुखकी प्राप्ति होगी, ऐसा मुझे नहीं लगता ।’’ मांके प्रेमभरे आग्रहको नकार देना कठिन होता है; परंतु गुरुजीने मांको भी बताया, ‘‘मेरे जैसे अनेक लोगोंके कुल नष्ट होकर समाजका थोडा भी कल्याण होगा, तो वर्तमान परिस्थितिमें वह आवश्यक है । अपना वंश नष्ट होगा, इसका मुझे थोडा भी खेद नहीं है ।’’
७. गुरुमंत्र
इ.स. १९३६ में अक्तूबरके तीसरे सप्ताहमें, दिवालीके सात-आठ दिन पूर्व अकस्मात गुरुजी किसीको भी बताए बिना कोलकातासे १२० मील दूर सारगाछीके स्वामी अखंडानंदजीके आश्रममें गए । स्वामी अखंडानंदजीने श्रीगुरुजीको दीक्षा दी, गुरुमंत्र दिया एवं समाजमें जाकर कार्य करने हेतु आशीर्वाद दिया । तत्पश्चात गुरुजी नागपुर लौटे ।
८. सरसंघचालकपदपर नियुक्ति
इ.स. १९३८ में नागपुरके संघशिक्षा वर्गमें गुरुजीने सर्वाधिकारीके रूपमें उत्तम सेवा की । शारीरिक कार्यक्रम, भोजन व्यवस्था, रुग्णालय, स्वच्छता आदि सभी बातोंकी ओर वे निकटसे ध्यान देते थे । रात्रि भोजन मंडपमें जाकर वहांका अग्नि बुझाया गया है अथवा नहीं, यह भी वे देखते थे । इ.स. १९३९ में उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघका अखिल भारतीय सरकार्यवाह घोषित किया गया । उस समय डॉक्टरजीने संघके कुछ प्रमुख सदस्योंकी एक बैठक ली, जो १० दिनोंतक चली । इस बैठकमें संघकी घटना, आज्ञा, प्रार्थना, प्रतिज्ञा इत्यादिके विषयमें अनेक मूलभूत निर्णय लिए गए । वर्तमानमें प्रचलित संघकी संस्कृत प्रार्थनाका मूल मराठी ढांचा इसी बैठकमें गुरुजीद्वारा लिखा गया । तदुपरांत डॉक्टरजीने गुरुजीको संघकी शाखाका आरंभ करने हेतु कोलकाता भेजा ।
अब गुरुजी डॉक्टरजीके साथ भ्रमण करने लगे । अधिकतर समय डॉक्टरजी उन्हें ही कुछ कहनेके लिए बताते थे एवं वे क्या कह रहे हैं, कैसे कह रहे हैं, यह बात ध्यान देकर सुनते थे । आगे डॉक्टरजीके आयोजनके अनुसार सरकार्यवाहके दायित्वमें गुरुजीने देशके अनेक प्रमुख नगरोंको भेंट दी । इ.स. १९४० में पुनः उन्हें नागपुरके संघशिक्षा वर्गका सर्वाधिकारी नियुक्त किया गया । इस वर्गके समापनको डॉ. हेडगेवारद्वारा किया गया व्याख्यान अंतिम व्याख्यान रहा । इसी कालावधिमें अपने उत्तराधिकारीके स्थानपर गुरुजीको नियुक्त की जानेकी बात डॉक्टरजीने सभीको बताई । २१.६.१९४० को डॉ. हेडगेवारके देहत्यागके पश्चात गुरुजी सरसंघचालक हुए ।
९. निर्भयता
सरसंघचालक बननेके पश्चात गुरुजीका भ्रमण आरंभ हुआ, वह लगातार ३३ वर्षोंतक चलता रहा । पैदल, बैलगाडी, घोडागाडी, साइकिल, मोटर, रेल, विमान ऐसे सभी प्रकारके वाहनोंद्वारा उन्होंने लक्षावधि मीलोंका भ्रमण किया । प्रत्येक प्रांतमें वर्षमें न्यूनतम दो बार वे भेंट देते थे । दूसरा महायुद्ध आरंभ हुआ, उस समय बंगालमें गुरुजीकी भ्रमणयात्रा निश्चित हुई थी । जपानी आक्रमणके कारण बंगालकी जनता भयभीत हुई थी । कार्यकर्ताओंने गुरुजीको यात्रा निरस्त करनेके विषयमें सूचित किया । गुरुजीने तुरंत संबंधितोंको तारसंदेश (टेलीग्राम) भेजा एवं पूर्वायोजनके अनुसार ही होगा, ऐसा सूचित किया । सर्व यात्रा बिना किसी बाधाके संपन्न हुई । गुरुजीने कार्यकर्ताओंको बताया कि, ‘‘जब अन्य लोग भयभीत हो गए हो , तब हमें दृढतापूर्वक खडा रहना चाहिए । संघ चाहता है कि सर्व ओर निर्भयता निर्माण हो । यदि हम ही भयभीत होंगे, तो असहाय लोग किसकी ओर देखेंगे ?’’
१०. संघपर पहला प्रतिबंध एवं गुरुजीको बंदी बनाया जाना
३०.१.१९४८ को गांधीजीकी हत्या हुई । गांधीजीकी हत्यासे संघ अथवा गुरुजीका कोई भी संबंध नहीं था; किंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं कांग्रेसके नेताओंने संघपर मनचाहे आरोप करना आरंभ किया । इर्ष्या, मत्सर एवं द्वेषका कुहराम मच गया । गांधीका नाम लेकर राजनेता झूङ्गी बातें बनाने लगे । आकाशवाणी, समाचारपत्रिकाओंके माध्यमसे विषवमन होने लगा । गांवगांवमें स्वयंसेवकोंको मारपीट हुई । किसीको जलाया गया, तो किसीके घर जलाए गए । आरक्षकोंने (पुलिसने) गुरुजीको बंदी बनाया । ४.२.१९४८ को सरकारद्वारा संघकार्य को अवैधानिक घोषित किया गया । विविध प्रकारके अभियोग लगाकर पूरे देशके सहस्त्रों स्वयंसेवकोंको बंदी बनाया गया । गुरुजीपर गांधीकी हत्याका षडयंत्र करना, मारपीट करना, सरकार पदच्युत करनेका प्रयास करना, ऐसे अभियोग लगाए गए । कुछ ही दिनोंमें अपनी मूर्खता ज्ञात होते ही सभी अभियोग निरस्त कर गुरुजीको केवल स्थानबद्ध किया गया । कारागृहमें उन्होंने संघकार्यके चिंतनके साथ योगासन, ध्यानधारणा, जपजाप्य इत्यादि बातें अधिक मात्रामें आरंभ की । ६.८.१९४८ को उन्हें मुक्त किया गया एवं पुनः १२.११.१९४८ को बंदी बनाया गया । संघने पूरे देशमें सत्याग्रहका आदेश दिया । छोटे-बडे नगरोंमें संघके अधिकारियोंने सत्याग्रहकी घोषणा की | अंतमें लिखित संविधानके पश्चात संघपर लाया गया प्रतिबंध हटाया गया ।
११. अन्य सेवाकार्य
गुरुजीके आदेशानुसार डॉ. शामाप्रसाद मुखर्जी राजनैतिक क्षेत्रमें कार्य करने लगे । ‘भारतीय जनसंघ’के नामसे राजनैतिक दलकी स्थापना की गई । अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिंदु परिषद, वनवासी कल्याण, महारोगी सेवा, राष्ट्रीय शिशु शिक्षा इत्यादि अनेक संस्थाएं गुरुजीकी प्रेरणामें सेवा करने लगी । डॉ. हेडगेवारके समाधि स्थानपर स्मृतिमंदिरका निर्माण, कन्याकुमारीका विवेकानंद शिलास्मारक, साथ ही सैंकडों शिक्षासंस्थान गुरुजीकी प्रेरणासे खडे हुएं ।
१२. महानिर्वाण
इ.स. १९६९ से गुरुजीका स्वास्थ बिगडने लगा, तब भी उनकी भ्रमणयात्रा अव्याहतरूपसे चल ही रही थी । वे हंसते हुए कहते थे, ‘रेलका डिब्बा ही मेरा घर है ।’ १८.५.१९७० को उनकी अस्वस्थताका कारण निश्चित हुआ, कर्करोग ! ज्येष्ठ शुद्ध पंचमी, ५.६.१९७३ को पार्थिव देहका त्याग कर गुरुजी सच्चिदानंद स्वरूपमें विलीन हुए । प.पू. गुरुजीके चरणोंमें हमारे लक्ष लक्ष प्रणाम!’
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