संघ साधना में गुरु का महत्व - पृथ्वी सिंह"चित्तौड़"



संघ साधना में गुरु का महत्व
-पृथ्वी सिंह"चित्तौड़" 

(श्री गुरु पूर्णिमा 12 july 2014 पर विशेष,स्वयंसेवक बंधुओं से निवेदन है इसका पूरा अध्ययन करें)
प्रतिवर्ष इसकी प्राशंगिकता है।

रामराज्य अर्थात इस भारत भूमि के परम वैभव की साधना में लीन कर्मयोगियों के लिये साधना अनुरूप मार्गदर्शन की समय समय पर आवश्यकता पडती हैं ।इस अनिवार्य आवश्यकता को ध्यान में रख कर प.पू.डा.हेडगेवारजी (संघ rss संस्थापक)ने परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरु रूप में हम सभी के समक्ष रखा । संघ कार्य में गुरु के महत्व पर आज कुछ विचार करें । ॐ
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है –
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार
नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु
की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण,
गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं
सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु
और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास
जी रामचरितमानस में लिखते हैं –
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण
कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है,
वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे
किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप,
यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है
कि इनकी विधि क्या है? अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म
भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल
नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए
सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन
जाते हैं। अत: संघ कार्य हमें अहंकार शून्य बनाता है ।भौतिकवाद में भी गुरू
की आवश्यकता होती है।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल
अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए
तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष
प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है।
ऐसी गुरु की महिमा है।
तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।
मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम
सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है
जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है।
चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान
लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू
ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण
की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य
को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर
देना चाहिए। इसी संदर्भ में सद गुरु कबीरदास जी ने उल्लेख किया गया है कि
यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,
शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।
हमारा गुरु हमसे राष्ट्र यज्ञ में समय की आहुति चाहते है ।
गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर
उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में
और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू
किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु
के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य
का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार
के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक
कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं
किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु
चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से
जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह
कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है।
ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव
गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु
का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को यही संदेश
दिया था –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)
अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु
की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे।
शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ
जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त
है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से
ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके
समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।संघ स्थान पर विद्यमान प.पवित्र भगवा ध्वज उसी नारायण का मूर्ति मान स्वरूप है ।
उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें
समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु
पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन
मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन
की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु
को ही गुरु बनाना चाहिए। और ये सभी भगवत गुण हमारे श्री गुरु परम पवित्र भगवद ध्वज में प्रत्यक्ष है ।
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"संगठन विज्ञान "
केवल ध्येय और विचार ही उदात्त होने से काम नहीं चलता संगठन के सामने दृष्टि भी उदार होनी आवश्यक है।
बड़े लक्ष्य लेकर चलने से ही बड़े कार्य सम्भव होते है। यदि संग्ठन अपने
सम्मुख लक्ष्य ही छोटा रख ले तो फिर
उसका दायरा भी सीमित हो जायेगा। शक्तिपूजा हमें
उदात्तता की ही प्रेरणा देती है। 1897 में जब
भारत की स्वतंत्रता का भी को चिन्ह नहीं दिखाई
दे रहा था तब स्वामी विवेकानन्द ने भारत के सम्मूख विश्वविजय का ध्येय
रखा। 12 संन्यासी भाइयों से प्रारम्भ कर रामकृष्ण मठ को विश्व को हिन्दू
संस्कृति व वेदान्त के संदेश का कार्य दिया। डा हेड़गेवार जी ने जब 1925
की विजयादशमी को कुछ मुठ्ठीभर बालकों के साथ
संघ की स्थापना कि थी तभी उनके सम्मूख पूरे हिन्दू समाज के
संगठन का लक्ष्य था। इन उदात्त विचारों ने ही चमत्कार किये है।
महान विचार के साथ लोग जुड़ते है तभी संगठन का स्वरूप बनता है। केवल
कुछ लोगों तक विचार पहुँचाने मात्र से संगठन का काम नहीं हो जाता। अधिक
से अधिक लोगों के जीवन में यह विचार उतारना ही संगठन
का ध्येय है। ध्येयवादी संगठन सत्य पर आधृत होता है। इस विचार
की सार्वभौमिकता के कारण ही यह सबके लिये
स्वीकार्य हो सकता है। सनातन हिन्दू धर्म इन्हीं शाश्वत
सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में उतारने का नाम है। जब संगठन का आधार
भी ऐसा ही पूर्णतः शास्त्रीय सनातन सिद्धांत
होता है तब संगठन सार्वजनिक हो जाता है और उससे जुड़ने
से लोगों की संख्या असीम
होती है। वास्तव में कोई भी ऐसे संगठन से विचार के स्तर पर
जुड़ सकता है। कार्यप्रणाली व पद्धति के अनुसार रूचि रखनेवाले लोग
ही संगठन से जुड़ेंगे किन्तु विचार के स्तर पर
किसी को भी कोई
आपत्ती नहीं होगी। इन सनातन सत्यों को अनेक
प्रकार से पुकारा जाता है। उनमें से एक नाम है ब्रह्म। संगठन का ध्येय
ही ब्रह्म है।
ब्रह्मचर्य का सही अर्थ है – ब्रह्मकी ओर चलना।
ब्रह्मैव चरति इति ब्रह्मचारी। संगठनात्मक सन्दर्भ में इसका अर्थ
हुआ सतत ध्येय की ओर चलना। मार्ग में आनेवाले अन्य
प्रलोभनों अथवा आकर्षणों की ओर किंचित भी ध्यान ना बंटनें
देना। नवरात्री के दूसरे दिन की देवी है
माँ ब्रह्मचारीणी। माता पार्वती द्वारा पूर्ण
एकाग्रता से दीर्घकाल तक किये तप के कारण उन्हें यह नाम मिला है।
अपने ध्येय शिवकृपा के लिये सबकुछ दांव पर लगानेवाले तप की अवधि में
माता ने पूर्ण कठोरता के साथ ब्रह्मचर्य का पालन किया। यहाँ तक
की आहार का भी पूर्ण त्याग कर दिया। एक समय पेड़ के
पत्तों का सेवन भी त्याग देने के कारण ही उनका एक नाम
पड़ा – अपर्णा। पार्वती की तपस्या से विव्हल
उनकी माता ने करूण पुकार के साथ उन्हे कहा ‘अरी मत’
संस्कृत में उSSमा और पार्वती का नाम ही पड़ गया उमा।
माता ब्रह्मचारिणी इस तप की प्रतिक हैं।
इसीलिए उनके हाथ में जपमाल है। जप मन की उकतानता से
की गई धारणा का द्योतक है। यह जपमाल रूद्राक्ष की है।
रूद्र के अक्ष की आस में ही तो सारा तप चल रहा है ना?
संगठन में ब्रह्मचारिणी की साधना का क्या अर्थ होगा?
यहाँ केवल एक व्यक्ति की व्यक्तिगत निष्ठा की बात
नहीं है। पूरे संगठन का ही एकसाथ एक विचार पर एकाग्र
होना संगठनात्मक ब्रह्मचर्य होगा। इसलिये ये लम्बी प्रक्रिया है।
अत्यंत सुव्यवस्थित योजना से संगठन के मन का संस्कार करना होता है। सब एक विचार
पर एकाग्र हो सके इस हेतु संगठन को एक सामान्य शब्दावली का निर्माण
करना होता है। संगठनात्मक अनुशासन
की रचना करनी होती है। विविध स्वभाव के
कार्यकर्ता संगठन में एक विचार से एक ध्येय के लिये एकसाथ आकर कार्य कर रहे
होते है। थोड़ासा भी व्यवधान होने से व्यक्तिगत आकांक्षायें, क्षुद्र
अहंकार उपर आ जाते हैं। यह सब संगठन की एकाग्रता को भग्न करने
के लिये पर्याप्त होते है। उपाय एक ही है सतत ध्येयस्मरण। पर फिर
याद रहे कि एक व्यक्ति के मन की बात नहीं है। अनेक
विविधताओं से भरे, कई बार मीलों की दूरी पर
फैली शाखाओं में कार्यरत व्यक्तियों के समूह को अनेक प्रकार
की स्थितियों के मध्य इस ध्येयस्मरण को जीवित रखना है।
संगठन के किसी भी सदस्यों को, कार्यकर्ता,
पदाधिकारी सभी को एक मन से एक विचार पर एकाग्र होना है।
एक संकल्प के साथ एकसमान स्वप्न देखने से ही यह सम्भव है।
सबके स्वप्न एक हो, संकल्प एक हो और वे एक मन से किये गये एक विचार पर
आधृत हो। इस अद्वितीय एकात्मता हेतु विशिष्ठ तकनिक का प्रयोग
करना होता है। इस तकनिक को नित्य कार्यपद्धति कहते है।
ब्रह्मचारिणी माता की जपमाल ही संगठन
की कार्यपद्धति है। संगठन के विचार, ध्येय व स्वभाव के अनुरूप
ही संगठन की कार्यपद्धति को गढ़ना होता है। जैसे जपमाल में
एक एक मणके को फेरने के साथ इष्ट का नामस्मरण किया जाता है वैसे
ही कार्यपद्धति में नियमित अंतराल में नियत गतिविधि के द्वारा ध्येयस्मरण
किया जाता है। कार्यपद्धति की नियमितता उसका सबसे प्रमुख लक्षण है।
नियमित समय के अंतराल पर आयोजित होने कारण इसकी आदत
पड़ती है मन को संस्कारित करने का यही एकमात्र उपाय है।
कार्यपद्धति की गतिविधि सबके लिये होती है। अतः उसके
बहुत अधिक क्लिष्ट होने से नहीं चलेगा। कार्यपद्धति के कार्यक्रम
सहज सरल होने चाहिये। बहुत अधिक साधनों अथवा स्थान आदि में
विशिष्ठता की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये।
कार्यपद्धति जितनी सरल
होगी उतनी ही प्रभावी होग
ी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव का सबसे प्रमुख कारण
उसक अत्यंत सरल कार्यपद्धति में है। प्रतिदिन लगनेवाली शाखा के लिये
किसी भी विशेष साधन अथवा प्रशिक्षण
की आवश्यकता नहीं होती। सहज, सरल, सुलभ
होना ही इसकी सफलता का रहस्य है।
प्रत्येक संगठन को अपनी कार्यपद्धति की रचना करनी होती है। जो संगठन ऐसा कर पाते है वे संगठन लम्बे चलते है और एक मन,
विचार, संकल्प और स्वप्न के साथ ध्येय की ओर अग्रसर होते है।
ब्रह्मचारिणी की कृपा का यही माध्यम है। आइये
अपनी कार्यपद्धति की माला जपे और संगठनात्मक
ब्रह्मचर्य के द्वारा ध्येय की ओर बढ़ें।
पृथ्वी सिंह"चित्तौड़"

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