देवर्षि नारद : कल्याणकारी पत्रकारिता की राह - लोकेन्द्र सिंह
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद ब्रह्मा के सात मानस पुत्रो मे से एक हैं। उन्होंने अति कठोर तपस्या करके ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया। नारद भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। देवर्षि नारद धर्म प्रचार व लोक-कल्याण हेतु सदैव तत्पर रहते हैं।
नारद देवताओं व दानवों ने में एक-समान आदरणीय माने जाते हैं।
देवर्षि नारद को ब्रह्माण्ड के प्रथम पत्रकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पिछले कुछ समय से इस दिन पत्रकारों को सम्मानित करने का चलन भी बढ़ रहा है।
प्रस्तुत है नारद मुनि से संबंधित कुछ सामग्री ।#
नारद दिखाते हैं कल्याणकारी पत्रकारिता की राह
- लोकेन्द्र सिंह
पत्रकारिता की तीन प्रमुख भूमिकाएं हैं- सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन करना। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में पत्रकारिता की इन तीनों भूमिकाओं को और अधिक विस्तार दिया है- लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना, यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको दिखाना। भारतीय परम्पराओं में भरोसा करने वाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता ऐसी ही थी। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते थे। देवताओं, दानवों और मनुष्यों, सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते थे। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर किया करते थे। इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करने वाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य किया करते थे। दादा माखनलाल चतुर्वेदी के उपन्यास 'कृष्णार्जुन युद्ध' को पढऩे पर ज्ञात होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर वे अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते। उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए। यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य, किसी भी कीमत पर समाज को सच से रू-ब-रू कराने से वे भी पीछे नहीं हटते थे। सच का साथ उन्होंने अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी दिया। यही तो है सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता, किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात कहना। मनोरंजन उद्योग ने भले ही फिल्मों और नाटकों के माध्यम से उन्हें विदूषक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया हो लेकिन देवर्षि नारद के चरित्र का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका प्रत्येक संवाद लोक कल्याण के लिए था। मूर्ख उन्हें कलहप्रिय कह सकते हैं। लेकिन, नारद तो धर्माचरण की स्थापना के लिए सभी लोकों में विचरण करते थे। उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणी-मात्र के आनंद का ध्यान रखते थे।
भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करने वाले 'बुद्धिजीवी' भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें। लेकिन, पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारद ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं। भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारद को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए। मिशन से प्रोफेशन बनने पर पत्रकारिता को इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कॉरपोरेट कल्चर के आने से हुआ है। पश्चिम की पत्रकारिता का असर भी भारतीय मीडिया पर चढऩे के कारण समस्याएं आई हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस पत्रकारिता ने 'एक स्वतंत्रता सेनानी' की भूमिका निभाई थी, वह पत्रकारिता अब धन्ना सेठों के कारोबारों की चौकीदार बनकर रह गई है। पत्रकार इन धन्ना सेठों के इशारे पर कलम घसीटने को मजबूर, महज मजदूर हैं। संपादक प्रबंधक हो गए हैं। उनसे लेखनी छीनकर, लॉबिंग की जिम्मेदारी पकड़ा दी गई है। आज कितने संपादक और प्रधान संपादक हैं जो नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं? कितने संपादक हैं, जिनकी लेखनी की धमक है? कितने संपादक हैं, जिन्हें समाज में मान्यता है? 'जो हुक्म सरकारी, वही पकेगी तरकारी' की कहावत को पत्रकारों ने जीवन में उतार लिया है। मालिक जो हुक्म संपादकों को देता है, संपादक उसे अपनी टीम तक पहुंचा देता है। तयशुदा ढांचे में पत्रकार अपनी लेखनी चलाता है। अब तो किसी भी खबर को छापने से पहले संपादक ही मालिक से पूछ लेते हैं- 'ये खबर छापने से आपके व्यावसायिक हित प्रभावित तो नहीं होंगे।' खबरें, खबरें कम विज्ञापन अधिक हैं। 'लक्षित समूहों' को ध्यान में रखकर खबरें लिखी और रची जा रही हैं। मोटी पगार की खातिर संपादक सत्ता ने मालिकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। आम आदमी के लिए अखबारों और टीवी चैनल्स पर कहीं जगह नहीं है। एक किसान की 'पॉलिटिकल आत्महत्या' होती है तो वह खबरों की सुर्खी बनती है। पहले पन्ने पर लगातार जगह पाती है। चैनल्स के प्राइम टाइम पर किसान की चर्चा होती है। लेकिन, इससे पहले बरसों से आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध कभी मीडिया ने नहीं ली। जबकि भारतीय पत्रकारिता की चिंता होना चाहिए- अंतिम व्यक्ति। आखिरी आदमी की आवाज दूर तक नहीं जाती, उसकी आवाज को बुलंद करना पत्रकारिता का धर्म होना चाहिए, जो है तो, लेकिन व्यवहार में दिखता नहीं है। पत्रकारिता के आसपास अविश्वसनीयता का धुंध गहराता जा रहा है। पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए कॉरपोरेट कल्चर ही एकमात्र दोषी नहीं है। बल्कि पत्रकार बंधु भी कहीं न कहीं दोषी हैं। जिस उमंग के साथ वे पत्रकारिता में आए थे, उसे उन्होंने खो दिया। 'समाज के लिए कुछ अलग' और 'कुछ अच्छा' करने की इच्छा के साथ पत्रकारिता में आए युवा ने भी कॉरपोरेट कल्चर के साथ सामंजस्य बिठा लिया है।
बहरहाल, भारतीय पत्रकारिता की स्थिति पूरी तरह खराब भी नहीं हैं। बहुत-से संपादक-पत्रकार आज भी उसूलों के पक्के हैं। उनकी पत्रकारिता खरी है। उनकी कलम बिकी नहीं है। उनकी कलम झुकी भी नहीं है। आज भी उनकी लेखनी आम आदमी के लिए है। लेकिन, यह भी कड़वा सच है कि ऐसे 'नारद पत्रकारों' की संख्या बेहद कम है। यह संख्या बढ़ सकती है। क्योंकि सब अपनी इच्छा से बेईमान नहीं हैं। सबने अपनी मर्जी से अपनी कलम की धार को कुंद नहीं किया है। सबके मन में अब भी 'कुछ' करने का माद्दा है। वे आम आदमी, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए लिखना चाहते हैं लेकिन राह नहीं मिल रही है। ऐसी स्थिति में देवर्षि नारद उनके आदर्श हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता और पत्रकार नारद से सीख सकते हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियां होने के बाद भी कैसे प्रभावी ढंग से लोक कल्याण की बात कही जाए। पत्रकारिता का एक धर्म है-निष्पक्षता। आपकी लेखनी तब ही प्रभावी हो सकती है जब आप निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करें। पत्रकारिता में आप पक्ष नहीं बन सकते। हां, पक्ष बन सकते हो लेकिन केवल सत्य का पक्ष। भले ही नारद देवर्षि थे लेकिन वे देवताओं के पक्ष में नहीं थे। वे प्राणी मात्र की चिंता करते थे। देवताओं की तरफ से भी कभी अन्याय होता दिखता तो राक्षसों को आगाह कर देते थे। देवता होने के बाद भी नारद बड़ी चतुराई से देवताओं की अधार्मिक गतिविधियों पर कटाक्ष करते थे, उन्हें धर्म के रास्ते पर वापस लाने के लिए प्रयत्न करते थे। नारद घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, प्रत्येक घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, इसके बाद निष्कर्ष निकाल कर सत्य की स्थापना के लिए संवाद सृजन करते हैं। आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है। जल्दबाजी में घटना का सम्पूर्ण विश्लेषण न करने के कारण गलत समाचार जनता में चला जाता है। बाद में या तो खण्डन प्रकाशित करना पड़ता है या फिर जबरन गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। आज के पत्रकारों को इस जल्दबाजी से ऊपर उठना होगा। कॉपी-पेस्ट कर्म से बचना होगा। जब तक घटना की सत्यता और सम्पूर्ण सत्य प्राप्त न हो जाए, तब तक समाचार बहुत सावधानी से बनाया जाना चाहिए। कहते हैं कि देवर्षि नारद एक जगह टिकते नहीं थे। वे सब लोकों में निरंतर भ्रमण पर रहते थे। आज के पत्रकारों में एक बड़ा दुर्गुण आ गया है, वे अपनी 'बीट' में लगातार संपर्क नहीं करते हैं। आज पत्रकार ऑफिस में बैठकर, फोन पर ही खबर प्राप्त कर लेता है। इस तरह की टेबल न्यूज अकसर पत्रकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देती हैं। नारद की तरह पत्रकार के पांव में भी चक्कर होना चाहिए। सकारात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधा देवर्षि नारद को आज की मीडिया अपना आदर्श मान ले और उनसे प्रेरणा ले तो अनेक विपरीत परिस्थितियों के बाद भी श्रेष्ठ पत्रकारिता संभव है। आदि पत्रकार देवर्षि नारद ऐसी पत्रकारिता की राह दिखाते हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है।
- लोकेन्द्र सिंह
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लेखक परिचय : युवा साहित्यकार लोकेन्द्र सिंह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पदस्थ हैं। वे स्वदेश ग्वालियर, दैनिक भास्कर, पत्रिका और नईदुनिया जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। देशभर के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों पर आलेख, कहानी, कविता और यात्रा वृतांत प्रकाशित। उनके राजनीतिक आलेखों का संग्रह 'देश कठपुतलियों के हाथ में' और काव्य संग्रह 'मैं भारत हूं' प्रकाशित हो चुका है।
नारद देवताओं व दानवों ने में एक-समान आदरणीय माने जाते हैं।
देवर्षि नारद को ब्रह्माण्ड के प्रथम पत्रकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पिछले कुछ समय से इस दिन पत्रकारों को सम्मानित करने का चलन भी बढ़ रहा है।
प्रस्तुत है नारद मुनि से संबंधित कुछ सामग्री ।#
- लोकेन्द्र सिंह
पत्रकारिता की तीन प्रमुख भूमिकाएं हैं- सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन करना। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में पत्रकारिता की इन तीनों भूमिकाओं को और अधिक विस्तार दिया है- लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना, यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको दिखाना। भारतीय परम्पराओं में भरोसा करने वाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता ऐसी ही थी। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते थे। देवताओं, दानवों और मनुष्यों, सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते थे। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर किया करते थे। इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करने वाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य किया करते थे। दादा माखनलाल चतुर्वेदी के उपन्यास 'कृष्णार्जुन युद्ध' को पढऩे पर ज्ञात होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर वे अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते। उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए। यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य, किसी भी कीमत पर समाज को सच से रू-ब-रू कराने से वे भी पीछे नहीं हटते थे। सच का साथ उन्होंने अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी दिया। यही तो है सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता, किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात कहना। मनोरंजन उद्योग ने भले ही फिल्मों और नाटकों के माध्यम से उन्हें विदूषक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया हो लेकिन देवर्षि नारद के चरित्र का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका प्रत्येक संवाद लोक कल्याण के लिए था। मूर्ख उन्हें कलहप्रिय कह सकते हैं। लेकिन, नारद तो धर्माचरण की स्थापना के लिए सभी लोकों में विचरण करते थे। उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणी-मात्र के आनंद का ध्यान रखते थे।
भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करने वाले 'बुद्धिजीवी' भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें। लेकिन, पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारद ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं। भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारद को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए। मिशन से प्रोफेशन बनने पर पत्रकारिता को इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कॉरपोरेट कल्चर के आने से हुआ है। पश्चिम की पत्रकारिता का असर भी भारतीय मीडिया पर चढऩे के कारण समस्याएं आई हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस पत्रकारिता ने 'एक स्वतंत्रता सेनानी' की भूमिका निभाई थी, वह पत्रकारिता अब धन्ना सेठों के कारोबारों की चौकीदार बनकर रह गई है। पत्रकार इन धन्ना सेठों के इशारे पर कलम घसीटने को मजबूर, महज मजदूर हैं। संपादक प्रबंधक हो गए हैं। उनसे लेखनी छीनकर, लॉबिंग की जिम्मेदारी पकड़ा दी गई है। आज कितने संपादक और प्रधान संपादक हैं जो नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं? कितने संपादक हैं, जिनकी लेखनी की धमक है? कितने संपादक हैं, जिन्हें समाज में मान्यता है? 'जो हुक्म सरकारी, वही पकेगी तरकारी' की कहावत को पत्रकारों ने जीवन में उतार लिया है। मालिक जो हुक्म संपादकों को देता है, संपादक उसे अपनी टीम तक पहुंचा देता है। तयशुदा ढांचे में पत्रकार अपनी लेखनी चलाता है। अब तो किसी भी खबर को छापने से पहले संपादक ही मालिक से पूछ लेते हैं- 'ये खबर छापने से आपके व्यावसायिक हित प्रभावित तो नहीं होंगे।' खबरें, खबरें कम विज्ञापन अधिक हैं। 'लक्षित समूहों' को ध्यान में रखकर खबरें लिखी और रची जा रही हैं। मोटी पगार की खातिर संपादक सत्ता ने मालिकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। आम आदमी के लिए अखबारों और टीवी चैनल्स पर कहीं जगह नहीं है। एक किसान की 'पॉलिटिकल आत्महत्या' होती है तो वह खबरों की सुर्खी बनती है। पहले पन्ने पर लगातार जगह पाती है। चैनल्स के प्राइम टाइम पर किसान की चर्चा होती है। लेकिन, इससे पहले बरसों से आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध कभी मीडिया ने नहीं ली। जबकि भारतीय पत्रकारिता की चिंता होना चाहिए- अंतिम व्यक्ति। आखिरी आदमी की आवाज दूर तक नहीं जाती, उसकी आवाज को बुलंद करना पत्रकारिता का धर्म होना चाहिए, जो है तो, लेकिन व्यवहार में दिखता नहीं है। पत्रकारिता के आसपास अविश्वसनीयता का धुंध गहराता जा रहा है। पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए कॉरपोरेट कल्चर ही एकमात्र दोषी नहीं है। बल्कि पत्रकार बंधु भी कहीं न कहीं दोषी हैं। जिस उमंग के साथ वे पत्रकारिता में आए थे, उसे उन्होंने खो दिया। 'समाज के लिए कुछ अलग' और 'कुछ अच्छा' करने की इच्छा के साथ पत्रकारिता में आए युवा ने भी कॉरपोरेट कल्चर के साथ सामंजस्य बिठा लिया है।
बहरहाल, भारतीय पत्रकारिता की स्थिति पूरी तरह खराब भी नहीं हैं। बहुत-से संपादक-पत्रकार आज भी उसूलों के पक्के हैं। उनकी पत्रकारिता खरी है। उनकी कलम बिकी नहीं है। उनकी कलम झुकी भी नहीं है। आज भी उनकी लेखनी आम आदमी के लिए है। लेकिन, यह भी कड़वा सच है कि ऐसे 'नारद पत्रकारों' की संख्या बेहद कम है। यह संख्या बढ़ सकती है। क्योंकि सब अपनी इच्छा से बेईमान नहीं हैं। सबने अपनी मर्जी से अपनी कलम की धार को कुंद नहीं किया है। सबके मन में अब भी 'कुछ' करने का माद्दा है। वे आम आदमी, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए लिखना चाहते हैं लेकिन राह नहीं मिल रही है। ऐसी स्थिति में देवर्षि नारद उनके आदर्श हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता और पत्रकार नारद से सीख सकते हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियां होने के बाद भी कैसे प्रभावी ढंग से लोक कल्याण की बात कही जाए। पत्रकारिता का एक धर्म है-निष्पक्षता। आपकी लेखनी तब ही प्रभावी हो सकती है जब आप निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करें। पत्रकारिता में आप पक्ष नहीं बन सकते। हां, पक्ष बन सकते हो लेकिन केवल सत्य का पक्ष। भले ही नारद देवर्षि थे लेकिन वे देवताओं के पक्ष में नहीं थे। वे प्राणी मात्र की चिंता करते थे। देवताओं की तरफ से भी कभी अन्याय होता दिखता तो राक्षसों को आगाह कर देते थे। देवता होने के बाद भी नारद बड़ी चतुराई से देवताओं की अधार्मिक गतिविधियों पर कटाक्ष करते थे, उन्हें धर्म के रास्ते पर वापस लाने के लिए प्रयत्न करते थे। नारद घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, प्रत्येक घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, इसके बाद निष्कर्ष निकाल कर सत्य की स्थापना के लिए संवाद सृजन करते हैं। आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है। जल्दबाजी में घटना का सम्पूर्ण विश्लेषण न करने के कारण गलत समाचार जनता में चला जाता है। बाद में या तो खण्डन प्रकाशित करना पड़ता है या फिर जबरन गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। आज के पत्रकारों को इस जल्दबाजी से ऊपर उठना होगा। कॉपी-पेस्ट कर्म से बचना होगा। जब तक घटना की सत्यता और सम्पूर्ण सत्य प्राप्त न हो जाए, तब तक समाचार बहुत सावधानी से बनाया जाना चाहिए। कहते हैं कि देवर्षि नारद एक जगह टिकते नहीं थे। वे सब लोकों में निरंतर भ्रमण पर रहते थे। आज के पत्रकारों में एक बड़ा दुर्गुण आ गया है, वे अपनी 'बीट' में लगातार संपर्क नहीं करते हैं। आज पत्रकार ऑफिस में बैठकर, फोन पर ही खबर प्राप्त कर लेता है। इस तरह की टेबल न्यूज अकसर पत्रकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देती हैं। नारद की तरह पत्रकार के पांव में भी चक्कर होना चाहिए। सकारात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधा देवर्षि नारद को आज की मीडिया अपना आदर्श मान ले और उनसे प्रेरणा ले तो अनेक विपरीत परिस्थितियों के बाद भी श्रेष्ठ पत्रकारिता संभव है। आदि पत्रकार देवर्षि नारद ऐसी पत्रकारिता की राह दिखाते हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है।
- लोकेन्द्र सिंह
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लेखक परिचय : युवा साहित्यकार लोकेन्द्र सिंह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पदस्थ हैं। वे स्वदेश ग्वालियर, दैनिक भास्कर, पत्रिका और नईदुनिया जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। देशभर के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों पर आलेख, कहानी, कविता और यात्रा वृतांत प्रकाशित। उनके राजनीतिक आलेखों का संग्रह 'देश कठपुतलियों के हाथ में' और काव्य संग्रह 'मैं भारत हूं' प्रकाशित हो चुका है।
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