कौन थे बंदा बैरागी ?

सेक्यूलर इतिहास की काल कोठरी में बंद, बंदा बैरागी की अमर बलिदानी गाथा !
- Harihar Sharma   शुक्रवार, 1 जुलाई 2016
साभार आधार - नया इंडिया

अभी पिछले दिनों पंजाब सरकार ने बन्दा बैरागी का शहादत दिवस मनाया ! उनकी स्मृति में एक सिक्का भी जारी किया गया ! कौन थे ये बंदा बैरागी ?

बन्दा जम्मू-कश्मीर की रियासत पूंछ का राजकुमार था। एक बार जब वह हिरण का शिकार कर रहा था तो उसका तीर लगने से एक गर्भवती हिरणी ने तड़पते हुए उसने एक शावक को जन्म दिया। जिसके बाद हिरणी और उसके शावक की मौत हो गई। इन दोनों की मौत ने बन्दा का पूरा जीवन ही बदल दिया। वह राज-पाट छोड़कर बैरागी बन गया।

15 वर्ष की उम्र में वह जानकीप्रसाद नाम के एक बैरागी का शिष्य हो गया और उसका नाम माधोदास पड़ा। तदन्तर उसने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहे । वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चला गया जहाँ गोदावरी के तट पर उसने एक आश्रम की स्थापना की।

जब गुरु गोविन्द सिंह जी की मुगलो से पराजय हुयी और उनके दो सात और नौ वर्ष के शिशुओं की नृशंस हत्या कर दी गयी इससे विचलित होकर वे दक्षिण की और चले गए 3 सितंबर, 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम को देखा और वह वो लक्ष्मण देव (बाँदा बहादुर) से मिले और उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा और उपदेश दिया की “हिन्दू अगर सन्यासी बनेगा तो देश धर्म को कौन बचाएगा हिन्दू का पहला कर्तव्य रक्षा करना है ! गुरुजी ने उन्हें उपदेश दिया अनाथ अबलाये तुमसे रक्षा की आशा करती है, गौ माता म्लेच्छों की छुरियो क़े नीचे तडपती हुई तुम्हारी तरफ देख रही है, हमारे मंदिर ध्वस्त किये जा रहे है, यहाँ किस धर्म की आराधना कर रहे हो तुम एक बीर अचूक धनुर्धर हो, इस समय धर्म पर आयी आपत्ति काल में राज्य छोड़कर तपस्वी कैसे हो सकते हो ?” गुरु की प्रेरणा से माधवदास नामक इस बैरागी ने मुगलों के अत्याचारों का बदला लेने का संकल्प लिया।

गुरु महाराज ने उसे अपना एक नगाड़ा, एक कमान और पांच तीर दिए। इसके अतिरिक्त गुरु के 21 अनुयायियों की कमान भी उसे सौंप दी। गुरुजी ने माधवदास को बन्दा बहादुर का नाम प्रदान किया। बंदा तूफान की तरह दक्षिण से उत्तरप्रदेश पहुंचा। बन्दा का पहला निशाना सोनीपत बना। इसके बाद बन्दा ने कैथल, समाना को भी जीत लिया। 12 मई 1710 को चपरसिरी के युद्ध में सिखों ने सरहिन्द के नवाब वजीर खां और उसके दीवान सुच्चानंद को गिरफ्तार कर लिया। इन दोनों ने गुरु गोबिन्द सिंह के दोनों अबोध बच्चों को जिन्दा दीवार में चिनवाया था। बन्दा के आदेश पर इनके सिर काट दिए गए और सरहिन्द पर कब्जा कर लिया। सतलुज से यमुना तक पूरा क्षेत्र बन्दा के कब्जे में आ गया।

बन्दा ने पहला फरमान यह जारी किया कि जागीरदारी व्यवस्था का खात्मा करके सारी भूमि का मालिक खेतिहर किसानों को बना दिया जाए। निरंतर हार से बौखलाए मुगल सम्राट फरुखसियर ने एक कुटिल चाल चली। उन दिनों दिल्ली में गुरु गोबिन्द सिंह की दो पत्नियां बीबी साहिब कौर और माता सुंदरी मुगलों के संरक्षण में रह रही थीं। बन्दा के सैनिकों में विभाजन करने के लिए मुगल सम्राट ने इनमें से माता सुंदरी का सहारा लिया। माता सुंदरी ने बन्दा को यह निर्देश दिया कि वह मुगलों के सामने आत्मसमर्पण कर दें। बन्दा ने इसे मानने से इंकार कर दिया। उसका कहना था कि गुरु महाराज के सामने मुगलों का नामोनिशान मिटाने का जो संकल्प लिया है उसे वह भंग नहीं कर सकता।

इससे चिढ़कर माता सुंदरी ने सिखों का यह निर्देश दिया कि वह बन्दा का साथ छोड़ दें। गुरु माता के आदेश पर बन्दा के सैनिकों में भारी विभाजन हुआ। तत खालसा नामक एक बड़ा गुट बन्दा का साथ छोड़कर मुगल सेना में शामिल हो गया जबकि हिन्दू सैनिक जो बंदई खालसा कहलाते थे, उन्होंने अंत तक बन्दा का साथ दिया। अपने पुराने साथियों की हत्या करना बन्दा के लिए कठिन कार्य था। तत खालसा और मुगलों की संयुक्त शक्ति के कारण बन्दा को लौहगढ़ के किले में शरण लेनी पड़ी। चार महीने के घेरे के बाद उसे विवश होकर अपने दुश्मनों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। मुगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी।

मुगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों की निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा। बन्दा को एक पिंजरे में बंद किया गया था और उनके गले और हाथ-पांव की जंजीरों को इस पिंजरे के चारो ओर नंगी तलवारें लिए मुगल सेनापतियों ने थाम रखा था। इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 11 सौ सिख बन्दा के सैनिक कैदियों के रुप में इस जुलूस में शामिल थे।

मुगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली की कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था। काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते। इसके बाद उन्हें जल्लाद तलवारों से निर्ममतापूर्वक कत्ल कर देते। यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा। अपने सहयोगियों की हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें।

बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया। इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई हथकंडे का इस्तेमाल किया गया। जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा की आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति की हत्या की जाने लगी। जब यह प्रयास भी विफल रहा तो 19 जून 1716 को बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया। काजी ने इस्लाम कबूल करने का फतवा जारी किया जिसे बन्दा ने ठुकरा दिया।

बन्दा के मनोबल को तोड़ने के लिए उसके चार वर्षीय अबोध पुत्र अजय सिंह को उसके पास लाया गया और काजी ने बन्दा को निर्देश दिया कि वह अपने पुत्र को अपने हाथों से हत्या करे। जब बन्दा इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो जल्लादों ने इस अबोध बालक का एक-एक अंग निर्ममतापूर्वक बन्दा की आंखों के सामने काट डाला। इस मासूम के धड़कते हुए दिल को सीना चीरकर बाहर निकाला गया और बन्दा के मुंह में जबरन ठूंस दिया गया। वीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे। अगले दिन जल्लाद ने उनकी दोनों आंखों को तलवार से बाहर निकाल दिया। जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग हर रोज काटा जाने लगा। अंत में 24 जून को उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई। बन्दा न तो गिड़गिड़ाया और न उसने चीख पुकार मचाई। मुगलों की हर प्रताड़ना और जुल्म का उसने शांति से सामना किया और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान हो गया।

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