विश्व क्षितिज पर भारत का गौरव स्थापित करना है : साध्वी ऋतम्भरा
विश्व क्षितिज पर भारत का गौरव स्थापित करना है
-साध्वी ऋतम्भरा उपाख्य दीदी मां, संस्थापक, वात्सल्य ग्राम, वृन्दावन
पूर्णाहुति समारोह में दीदी मां के वक्तव्य के प्रमुख अंश-
परम पूज्य श्री गुरुजी कहा करते थे कि निष्क्रियता सभी प्रकार के श्रेष्ठत्व को नष्ट कर देती है। इसलिए सज्जनों को सक्रिय, संगठित और समाज के लिए अपनी योग्यता का योगदान देना बहुत जरूरी है। आज आवश्यकता यह है कि भारत, भारत के रूप में स्थापित हो। भारत को भारत के रूप में देखने की दृष्टि हमारे ऋषि-पुरखों ने कुछ यूं बताई है-
कोई खुशी नहीं अपनी भर,
कोई पीड़ा नहीं पराई,
चाहे मरघट का मातम हो,
चाहे बजे कहीं शहनाई,
हर घटना मुझमें घटती है,
मैं सबका मानस विराट हूं,
सात स्वरों की बांसुरिया में,
कहीं हंसी है कहीं रुलाई,
जग मुझमें हंसता गाता है,
मैं सबका मानस मंथन हूं,
चाहे कोई जगे योग से,
समझो मैं समयुक्त हो गया,
कोई बुद्ध हुआ क्या जैसे,
मुझमें ही कुछ बुद्ध हो गया,
कोई मुक्त हुआ क्या जैसे,
मुझमें ही कुछ मुक्त हो गया,
हर पनघट मेरा पनघट है,
हर गागर मेरी गागर है,
चाहे कोई भी पानी पिए,
कंठ मेरा ही सिंचित होता है।
एकात्मता का यह भाव जब हमारे ह्मदय में प्रगाढ़ होता है तब हम सीमित होकर भी असीमित को अपने आलिंगन में बांध लेते हैं। तब दायरे टूट जाते हैं, एकत्व का दर्शन होता है और हम इस अणु के भीतर ही विराट का दर्शन करने की क्षमता अर्जित कर लेते हैं। यह भाव मन में जगता है तभी तो हमारी भारतभूमि पर जन्मे ऋषि उस कुत्ते के पीछे डंडा लेकर नहीं, घी का कटोरा लेकर भागते हैं जो उनकी रोटी उठाकर ले गया-
नामदेव ने बनाई रोटी, कुत्ते ने उठाई
पीछे नामदेव चल दिए कि
प्रभु रूखी तो न खाओ, थोड़ा घी भी लेते जाओ
कैसी शक्ल बनाई तूने श्वान की
मुझे ओढ़नी ओढ़ा दी इनसान की
...यह उदाहरण बताता है कि हम भिन्न-भिन्न रूपों और नामों में व्याप्त एक ही सत्ता का दर्शन करने वाले लोग हैं। हम हिन्दू हैं और सारी दुनिया को अपना परिवार मानते हैं और उस परिवार में मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी और जंगल सब समा जाते हैं। हमारी संस्कृति ऐसी है कि बचपन में बालक जब मां से पूछता है तो मां यह नहीं कहती कि जो रात में चमक रहा है वह चन्द्रमा है बल्कि वह कहती है कि वो तेरा चन्दा मामा है। धरित्री के भीतर हम देवता का दर्शन करते हैं। हम हिन्दू हैं इसलिए हमारे लिए कोई सीमा, कोई दायरा संभव ही नहीं है। हमारे प्रेम की धारा किसी दीवार में बांधकर नहीं रखी जा सकती, हम इस प्रेम के संदेश को सर्वत्र बांटना चाहते हैं। क्योंकि हमारे पुरखों ने यह सूत्र दिया है कि जो बटोरा जाता है वह विषाद होता है और जो बांटा जाता है वह प्रसाद होता है। जब यह करुणा और प्रेम का भाव समाज में बढ़ना और बंटना प्रारंभ होता है तब यह कैसे संभव है कि कोई वर्ग इससे वंचित रह जाए, हमारी उपेक्षा का पात्र बन जाए। तब यह कैसे संभव है कि किसी को लगे कि अपमान ही मेरा आहार है, किसी को लगे कि उपेक्षा ही मेरी सम्पत्ति है, किसी को लगे कि दारुण दु:ख झेलना ही मेरी नियति है। भारत में इस प्रकार का बहुत बड़ा समाज यदि हमारे प्रेम-स्नेह से वंचित है तो निश्चित रूप से यह हमारा स्खलन है। यह हमारे पुरखों द्वारा बताए गए मार्ग से च्युत हो जाना है। इसीलिए पूज्य श्रीगुरुजी की जन्मशताब्दी में पूरे वर्ष रा.स्व.संघ के कार्यकर्ताओं ने गली-गली-गांव-गांव जाकर प्रेम के दीपक को प्रज्ज्वलित किया है। इस बात को प्रगाढ़ता से प्रकट किया है कि-
एक ज्योति है सब दीपों में,
सारे जग में नूर एक है,
सच तो यह है इस दुनिया का,
हाकिम और हुजूर एक है,
हर मानव माटी का पुतला,
जीवन का आधार एक है,
गहराई तक जाकर देखो,
सब धर्मों का सार एक है,
एक वाहे गुरु एक परमेश्वर,
कृष्ण और श्रीराम एक हैं,
नाम भले ही अलग-अलग हों,
भक्तों के भगवान एक हैं,
नाम रूप की बात छोड़ दो,
इनसानों की जात एक है,
मन से मन के तार जोड़ लो,
सीधी सच्ची बात एक है।
इस एकात्मता के सूत्र में बंधे हम, कारुण्य और समरसता के प्रवाह में वर्ष भर प्रवाहित होते रहे। आवश्यकता इसी बात की है कि हिन्दू जाति का कारुण्य प्रबल हो, साथ ही हिन्दू जाति का तारुण्य भी प्रबल होना चाहिए। हम जानते हैं कि शक्ति ही शांति का आधार होती है और संगठन ही शक्ति का आधार है। सारा विश्व इस समय संघर्षों में निमग्न है, प्रतिस्पर्धाएं ह्मदय को जलाती हैं, छोटा-बड़ा हो जाने या श्रेष्ठता अथवा हीनता का भाव हमें एक दूसरे से अलग करता है। इसलिए हम सबके भीतर यह भाव प्रबल होना चाहिए कि यदि हम शांति स्थापित करना चाहते हैं तो हमें शक्तिशाली बनना होगा। अगर हमने तलवार गलाकर तकली गढ़ने का प्रयत्न किया, अगर अपने सिंहत्व को खोकर बकरे का धर्म अपनाया तो निश्चित रूप से हम शांति की स्थापना नहीं कर पाएंगे। अहिंसा, प्रेम, सत्य और शांति की स्थापना करने की हमारी प्रबल इच्छा तभी पूरी होगी जब हम जातियों, भेदभावों और सम्प्रदायों से ऊ‚पर उठकर अपने हिन्दू स्वरूप को स्वीकार करेंगे और इस स्वरूप की पहचान करेंगे। और हिन्दू स्वरूप है-
जिस हिन्दू ने नभ में जाकर नक्षत्रों को दी है संज्ञा
जिसने हिमगिर का वक्ष चीर भू को दी है पावन गंगा
जिसने सागर की छाती पर पाषाणों को तैराया है
हर वर्तमान की पीड़ा को हर जिसने इतिहास बनाया है
जिसके आर्यों ने घोष किया कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का
जिसका गौरव कम कर न सकी रावण की स्वर्णमयी लंका
जिसके यज्ञों का एक हव्य सौ-सौ पुत्रों का जनक रहा
जिसके आंगन में भयाक्रांत धनपति वर्षाता कनक रहा
जिसके पावन वलिष्ठ तन की रचना तन दे दधीचि ने की
राघव ने वन में भटक-भटक जिस तन में प्राण प्रतिष्ठा की
जौहर कुण्डों में कूद-कूद सतियों ने जिसे दिया सत्व
गुरुओं, गुरुपुत्रों ने जिसमें चिर बलिदानी भर दिया तत्व
वह शाश्वत हिन्दू जीवन क्या स्मरणीय मात्र रह जाएगा
इसकी पावन गंगा का जल क्या नालों में बह जाएगा
इसके गंगाधर शिवशंकर क्या ले समाधि सो जाएंगे
इसके पुष्कर इसके प्रयाग, क्या गर्त मात्र हो जाएंगे
यदि तुम ऐसा नहीं चाहते तो फिर तुमको जगना होगा
हिन्दू राष्ट्र का बिगुल बजाकर दानव दल को दलना होगा।
इसलिए हिन्दू समाज को समर्थ, स्वाभिमानी हिन्दू राष्ट्र के निर्माण करने तथा वन्दनियों के वन्दन करने का निश्चय करना है। हिन्दुओं को समझना होगा कि यदि राष्ट्रद्रोही सूली पर नहीं चढ़ाया गया तो यह पूरा देश ही सूली पर चढ़ जाएगा। समझना होगा कि कातिलों की भक्ति के विधान इस देश में नहीं होने चाहिए। देशद्रोहियों की आरती इस देश में नहीं होनी चाहिए। इस सत्य को स्वीकार करने, कहने का साहस साधना से प्राप्त होता है। हिन्दू समाज को निश्चय करना है कि वह इस सत्य को कहने का अपने भीतर साहस उत्पन्न करेगा और किसी भी प्रकार के भय-प्रलोभन के आगे झुकेगा नहीं। पूज्य श्रीगुरुजी की जन्मशताब्दी पर हिन्दू समाज को संकल्प लेना चाहिए कि समरसता की बयार भारत में बहे, भारत के किसी घर में कन्या भ्रूण हत्या न हो, मातृशक्ति अपनी गरिमा और गौरव का परिचय देगी। विश्व के मानस पटल पर प्रखर भारत की तस्वीर तभी प्रकट होगी जब हमारी माताएं-बहनें अपने गौरव को पहचानेंगी और राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभाएंगी। भारत की मातृशक्ति का परिचय यह है-
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं,
मातृभूमि पर मिटने वाले मतवालों की तीर हूं
उन वीरों की दुहिता हूं जो हंस-हंस झूला झूल गए
उन शेरों की माता हूं जो रण-प्रांगण में जूझ गए
मैं जीजा की अमर सहेली, पन्ना की प्रतिछाया हूं
हाड़ी की हूं अमर निशानी मैं जसवंत की माया हूं
कृष्ण के कुल की मर्यादा, लक्ष्मी की शमशीर हूं
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं
हल्दी घाटी की रज का सिंदूर लगाया करती हूं
अरि शोणित की लाली से मैं पांव रचाया करती हूं
पद्मावती हूं रतन सिंह की, चूडावति की सेनानी
मैं जौहर की भीषण ज्वाला, रणचण्डी हूं पाषाणी
मां की ममता नेह बहन का और पत्नी का धीर हूं
मेरा परिचय इतना की मैं भारत की तस्वीर हूं।
कालिदास का अमर काव्य हूं मैं तुलसी का रामायण
अमृतवाणी हूं गीता की, घर-घर होता पारायण
मैं भूषण की शिवा बाबली आल्हा का हुंकारा हूं
सूरदार का मधुर गीत मैं मीरा का एक तारा हूं
वरदायी की अमर कथा हूं रण गर्जन गंभीर हूं
मेरा परिचय इतना की मैं भारत की तस्वीर हूं।
भारत की इस तस्वीर को विश्व पटल पर साक्षात प्रकट करने के लिए भारत की आत्मा को समझना होगा।
जबरदस्त, बहुत सही
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