गोरखनाथ : गोरक्षनाथ




गोरखनाथ अथवा गोरक्षनाथ एक 'नाथ योगी' थे। सिद्धों से सम्बद्ध सभी जनश्रुतियाँ इस बात पर एकमत हैं कि नाथ सम्प्रदाय के आदि प्रवर्तक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं शिव ही हैं। उनके दो शिष्य हुए, जालंधरनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ या मच्छन्दरनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य थे- 'कृष्णपाद' और मत्स्येंन्द्रनाथ के 'गोरख' अथवा 'गोरक्ष' नाथ। इस प्रकार ये चार सिद्ध योगीश्वर नाथ सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं।

अनुश्रुतियाँ
परवर्ती नाथ सम्प्रदाय में मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दन्त कथाएँ प्रचलित हैं, उनसे आसानी से इन निष्कर्षों पर पहुँचा जा सकता है-

मत्स्येन्द्र और जालंधर समसामयिक गुरुभाई थे और दोनों के प्रधान शिष्य क्रमश: गोरखनाथ और कृष्णपाद थे।
मत्स्येन्द्रनाथ किसी विशेष प्रकार के योग मार्ग के प्रवर्तक थे, परन्तु बाद में किसी ऐसी साधना में जा फँसे थे, जहाँ पर स्त्रियों का अबाध संसर्ग माना जाता था, 'कौलज्ञान निर्णय' से जान पड़ता है कि यह वामाचारी कौल साधना थी, जिसे सिद्ध कौशल मत कहते थे; गोरखनाथ ने अपने गुरु का वहाँ से उद्धार किया था। शुरू से ही मत्स्येन्द्र और गोरख की साधना पद्धति जालंधर और कृष्णपाद की साधना पद्धति से भिन्न थी।

समय काल
गोरखनाथ के समय के बारे में निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-
मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा लिखित कहे जाने वाले ग्रन्थ 'कौलज्ञान निर्णय' की प्रति का लिपिकाल डाक्टर प्रबोधचन्द्र बाग़ची के अनुसार 11 शती के पूर्व का है। यदि यह ठीक हो तो मत्स्येन्द्रनाथ का समय ईस्वी 11वीं शती से पहले होना चाहिए।
सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त के तन्त्रालोक में मच्छन्द विभु को बड़े आदर से स्मरण किया गया है। अभिनव गुप्त निश्चित् रूप से सन् ई. की दसवीं शती के अन्त और ग्यारवीं शती के प्रारम्भ में विद्यमान थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ इस समय से काफ़ी समय पहले हुए होंगे।

मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम 'मीननाथ' है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताये गये हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे।

तिब्बती परम्परा के अनुसार कानपा राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन के नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए।

कुछ ऐसी भी दन्तकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का संकेत करती हैं, जैसे कबीर और नानक से उनका संवाद, परन्तु ये बहुत बाद की बातें हैं। जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। गूँगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बंगाल की दन्तकथाएँ और धर्मपूजा सम्प्रदाय की प्रसिद्धियाँ, महाराष्ट्र के सन्त ज्ञानेश्वर आदि की परम्पराएँ इस काल को 1200 ई. के पूर्व ले जाती हैं। इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि ईस्वी तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसीलिए इसके बहुत से पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरक्षनाथी सम्प्रदाय में अंतर्भुक्त हो गये थे। इनकी अनुश्रुतियों का सम्बन्ध भी गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिए कभी-कभी गोरक्षनाथ का समय और भी पहले निश्चित् किया जाता है।  'नाथ-सम्प्रदाय' नामक पुस्तक में उन सम्प्रदायों के अंतर्भुक्त होने की प्रक्रिया का सविस्तार विवेचन किया है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईस्वी सन् की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही माना जाना ठीक जान पड़ता है।

कृतियाँ
गोरक्षनाथ के नाम से बहुत-सी पुस्तकें संस्कृत में मिलती हैं और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी चलती हैं। निम्नलिखित पुस्तकें गोरखनाथ की लिखी बतायी गयी हैं-

(1)अमवस्क, (2) अवरोधशासनम्, (3) अवधूत गीता, (4) गोरक्षकाल, (5) गोरक्षकौमुदी, (6) गोरक्ष गीता, (7) गोरक्ष चिकित्सा, (8) गोरक्षपंचय, (9) गोरक्षपद्धति, (10) गोरक्षशतक, (11) गोरक्षशास्त्र, (12) गोरक्षसंहिता, (13) चतुरशीत्यासन, (14) ज्ञान प्रकाश शतक, (15) ज्ञान शतक, (16) ज्ञानामृत योग, (17) नाड़ीज्ञान प्रदीपिका, (18) महार्थमंजरी, (19) योगचिन्तामणि, (20) योगमार्तण्ड, (21) योगबीज, (22) योगशास्त्र, (23) योगसिद्धासन, पद्धति, (24) विवेक मार्तण्ड, (25) श्रीनाथसूत्र, (26) सिद्धसिद्धान्त पद्धति, (27) हठयोग, (28) हठ संहिता। इसमें महार्थ मंजरी के लेखक का नाम पर्याय रूप में महेश्वराचार्य भी लिखा है और यह प्राकृत में है। बाकी संस्कृत में हैं। कई एक दूसरे से मिलती हैं; कई पुस्तकों के गोरक्षलिखित होने में सन्देह है।

हिन्दी में सब मिलाकर 40 छोटी-बड़ी रचनाएँ गोरखनाथ की कही जाती हैं, जिनकी प्रामाणिकता असन्दिग्ध नहीं है-
(1) सबदी, (2) पद, (3) सिष्यादर्सन, (4) प्राणसंकली, (5) नरवे बोध, (6) आतम बोध (पहला), (7) अभैमात्रा योग, (8) पन्द्रह तिथि, (9) सप्नवाद, (10) मछींद्रगोरख बोध, (11) रोमावली, (12) ग्यानतिलक, (13) ग्यान चौंतीस, (14) पंचमात्रा, (15) गोरखगणेश गोष्ठी, (16) गोरादत्तगोष्ठी, (17) महादेवगोरख गुष्ट, (18) सिस्टपुराण, (19) दयाबोध, (20) जाती भौरावली (छन्द गोरख), (21) नवग्रह, (22) नवरात्र, (23) अष्ट परछाया, (24) रहरास, (25)ग्यानमाल, (26) आतमाबोध (दूसरा), (27) व्रत, (28) निरंजन पुराण, (29) गोरखवचन, (30) इन्द्री देवता, (31) मूल गर्मावती, (32) खाणवारूणी, (33) गोरखससत, (34) अष्टमुद्रा, (35) चौबी सिधि, (36) डक्षरी, (37) पंच अग्नि, (38) अष्टचक्र, (39) अवलि सिलूक, (40) क़ाफ़िर बोध।

इन ग्रन्थों से अधिकांश गोरखनाथी मत के संग्रहमात्र हैं। ग्रन्थ रूप में स्वयं गोरखनाथ ने इनकी रचना की होगी, यह बात संदिग्ध है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी, जैसे-बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि में इसी प्रकार की रचनाएँ प्राप्त होती हैं।

शाखाएँ
गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित 'योगिसम्प्रदाय' मुख्य रूप से बारह शाखाओं में विभक्त है। इसीलिए इसे 'बारहपन्थी' कहते हैं। इस मत के अनुयायी कान फड़वाकर मुद्रा धारण करते हैं। इसीलिए उन्हें 'कनफटा', 'भाकतफटाँ' योगी भी कहते हैं। बारह में से छ: तो शिव द्वारा प्रवर्तित माने जाते हैं और छ: गोरखनाथ द्वारा- (1) भुज के कंठरनाथ, (2) पागलनाथ, (3) रावल, (4) पंख या पंक, जिससे सतनाथ, धरमनाथ, ग़रीबनाथ और हाड़ीभरंग सम्बद्ध हैं, (5) वन और (6) गोपाल या राम के सम्प्रदाय कहे जाते हैं और (7) चाँदनाथ कपिलानी, जिससे गंगानाथ, मायनाथ, कपिलानी, नीमनाथ, पारसनाथ आदि के सम्बन्ध हैं, (8) हेठनाथ, जिससे लक्ष्मणनाथ या कालनाथ, दरियांथ, नाटसेरी, जाफ़र पीर आदि का सम्बन्ध बताया जाता है। (9) आई पन्थ के चोलीनाथ जिससे मस्तनाथ, आई पन्थ से छोटी दरग़ाह, बड़ी दरग़ाह आदि का सम्बन्ध है, (10) वेराग पन्थ, जिससे भाईनाथ, प्रेमनाथ, रतननाथ आदि का सम्बन्ध है और कायानाथ या कायमुद्दीन प्रवर्तित सम्प्रदाय भी सम्बन्धित है, (11) जैपुर के पावनाथ, जिससे पापन्थ, कानिया, बाराराग आदि का सम्बन्ध है और (12) घजनाथ, जो हनुमानजी के द्वारा प्रवर्तित कहा जाता है, गोरखनाथ के सम्प्रदाय कहे जाते हैं। इसका विश्लेषण करने से पता चलता है कि इनमें पुराने मत, जैसे कपिल का योगमार्ग लकुलीशमत, कापालिक मत, वाममार्ग आदि सम्मिलित हो गये हैं।

अंग
गोरक्षमत के योग को पंतजलि वर्णित 'अष्टांगयोग' से भिन्न बताने के लिए 'षडंग योग' कहते हैं। इसमें योग के केवल छ: अंगों का ही महत्व है। प्रथम दो अर्थात् यम और नियम इसमें गौण है। इसका साधनापक्ष या प्रक्रिया-अंग हठयोग कहा जाता है। शरीर में प्राण और अपान, सूर्य और चन्द्र नामक जो बहिर्मुखी और अंतर्मुखी शक्तियाँ हैं, उनको प्राणायाम, आसन, बन्ध आदि के द्वारा सामरस्य में लाने से सहज समाधि सिद्ध होती है। जो कुछ पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है। इसीलिए हठयोग की साधना पिण्ड या शरीर को ही केन्द्र बनाकर विश्व ब्रह्माण्ड में क्रियाशील शक्ति को प्राप्त करने का प्रयास है।

गोरक्षनाथ के नाम पर चलने वाले ग्रन्थों में विशेष रूप से इस साधना प्रक्रिया का ही विस्तार है। कुछ अंग दर्शन या तत्त्ववाद के समझाने के उद्देश्य से लिख गये हैं। अवरोधशासन, सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति, महार्थ मंजरी आदि ग्रन्थ इसी श्रेणी में आते हैं। अवरोध शासन में गोरखनाथ ने वेदान्तियों, मीमांसकों, कौलों, व्रजयानियों और शाक्त तान्त्रिकों के मोक्षसम्बन्धी विचारों को मूर्खता कहा है। असली मोक्ष वे सहज समाधि को मानते हैं। सहज समाधि उस अवस्था को बताया गया है, जिसमें मन स्वयं ही मन को देखने लगता है। दूसरे शब्दों में स्वसंवेदन ज्ञान की अवस्था ही सहज समाधि है। यही चरम लक्ष्य है।

प्रामाणिकता
आधुनिक देशी भाषाओं के पुराने रूपों में जो पुस्तकें मिलती हैं, उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। इनमें अधिकतर योगांगों, उनकी प्रक्रियाओं, वैराग्य, ब्रह्मचर्य, सदाचार आदि के उपदेश हैं और माया की भर्त्सना है। तर्क-वितर्क को गर्हित कहा गया है, भवसागर में पच-पचकर मरने वाले जीवों पर तरस खाया गया है और पाखण्डियों को फ़टकार बतायी गयी है। सदाचार और ब्रह्मचर्य पर गोरखनाथ ने बहुत बल दिया है। शंकराचार्य के बाद भारतीय लोकमत को इतना प्रभावित करने वाला आचार्य भक्तिकाव्य के पूर्व दूसरा नहीं हुआ। निर्गुणमार्गी भक्ति शाखा पर भी गोरखनाथ का भारी प्रभाव है। निस्सन्देह गोरखनाथ बहुत तेजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व लेकर आये थे।
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गोरखनाथ मंदिर

गोरखनाथ अथवा गोरक्षनाथ मंदिर नाथ संप्रदाय का प्रमुख केन्द्र है। हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अंतर्गत विभिन्न संप्रदायों और मत-मतांतरों में 'नाथ संप्रदाय' का प्रमुख स्थान है। संपूर्ण देश में फैले नाथ संप्रदाय के विभिन्न मंदिरों तथा मठों की देख रेख यहीं से होती है। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार सच्चिदानंद शिव के साक्षात् स्वरूप 'श्री गोरक्षनाथ जी' सतयुग में पेशावर (पंजाब) में, त्रेतायुग में गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, द्वापर युग में हरमुज, द्वारिका के पास तथा कलियुग में गोरखमधी, सौराष्ट्र में आविर्भूत हुए थे। चारों युगों में विद्यमान एक अयोनिज अमर महायोगी, सिद्ध महापुरुष के रूप में एशिया के विशाल भूखंड तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, सिंघल तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपने योग से कृतार्थ किया।

गोरखनाथ मंदिर का निर्माण
गोरक्षनाथ मंदिर गोरखपुर में अनवरत योग साधना का क्रम प्राचीन काल से चलता रहा है। ज्वालादेवी के स्थान से परिभ्रमण करते हुए 'गोरक्षनाथ जी' ने आकर भगवती राप्ती के तटवर्ती क्षेत्र में तपस्या की थी और उसी स्थान पर अपनी दिव्य समाधि लगाई थी, जहाँ वर्तमान में 'श्री गोरखनाथ मंदिर (श्री गोरक्षनाथ मंदिर)' स्थित है। नाथ योगी सम्प्रदाय के महान प्रवर्तक ने अपनी अलौकिक आध्यात्मिक गरिमा से इस स्थान को पवित्र किया था, अतः योगेश्वर गोरखनाथ के पुण्य स्थल के कारण इस स्थान का नाम 'गोरखपुर' पड़ा। महायोगी गुरु गोरखनाथ की यह तपस्याभूमि प्रारंभ में एक तपोवन के रूप में रही होगी और जनशून्य शांत तपोवन में योगियों के निवास के लिए कुछ छोटे- छोटे मठ रहे, मंदिर का निर्माण बाद में हुआ। आज हम जिस विशाल और भव्य मंदिर का दर्शन कर हर्ष और शांति का अनुभव करते हैं, वह ब्रह्मलीन महंत श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज जी की ही कृपा से है। वर्तमान पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ जी महाराज के संरक्षण में श्री गोरखनाथ मंदिर विशाल आकार-प्रकार, प्रांगण की भव्यता तथा पवित्र रमणीयता को प्राप्त हो रहा है। पुराना मंदिर नव निर्माण की विशालता और व्यापकता में समाहित हो गया है।

यौगिक साधना का स्थल
भारत में मुस्लिम शासन के प्रारंभिक चरण में ही इस मंदिर से प्रवाहित यौगिक साधना की लहर समग्र एशिया में फैल रही थी। नाथ संप्रदाय के योग महाज्ञान की रश्मि से लोगों को संतृप्त करने के पवित्र कार्य में गोरक्षनाथ मंदिर की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। विक्रमीय उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में गोरक्षनाथ मंदिर का अच्छे ढंग से जीर्णोद्धार किया गया। तभी से निरन्तर मंदिर के आकार- प्रकार के संवर्धन, समलंकरण व मंदिर से संबन्धित उसी के प्रांगण में स्थित अनेकानेक विशिष्ट देव स्थानों के जीर्णोद्धार, नवनिर्माण आदि में गोरक्षनाथ मंदिर की व्यवस्था संभाल रहे महंतों का ख़ासा योगदान रहा है।

अखंड ज्योति
मुस्लिम शासन काल में हिन्दुओं और बौद्धों के अन्य सांस्कृतिक केन्द्रों की भांति इस पीठ को भी कई बार भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके व्यापक प्रसिद्धि के कारण शत्रुओं का ध्यान विशेष रूप से इधर आकर्षित हुआ। विक्रमी चौदहवीं सदी में भारत के मुस्लिम सम्राट अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में यह मठ नष्ट किया गया और साधक योगी बलपूर्वक निष्कासित किये गये थे। मठ का पुनर्निर्माण किया गया और पुनः यौगिक संस्कृति का प्रधान केंद्र बना। विक्रमी सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में अपनी धार्मिक कट्टरता के कारण मुग़ल शासक औरंगजेब ने इसे दो बार नष्ट किया परन्तु शिव गोरक्ष द्वारा त्रेता युग में जलाई गयी अखंड ज्योति आज तक अखंड रूप से जलती हुई आध्यात्मिक, धार्मिक आलोक से उर्जा प्रदान कर रही है। यह अखंड ज्योति श्री गोरखनाथ मंदिर के अंतरवर्ती भाग में स्थित है।

भव्यता और रमणीयता
क़रीब 52 एकड़ के सुविस्तृत क्षेत्र में स्थित इस मंदिर का रूप व आकार-प्रकार परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर बदलता रहा है। वर्तमान में गोरक्षनाथ मंदिर की भव्यता और पवित्र रमणीयता अत्यन्त कीमती आध्यात्मिक सम्पत्ति है। इसके भव्य व गौरवपूर्ण निर्माण का श्रेय महिमाशाली व भारतीय संस्कृति के कर्णधार योगिराज महंत दिग्विजयनाथ जी व उनके सुयोग्य शिष्य वर्तमान में गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ जी महाराज को है, जिनके श्रद्धास्पद प्रयास से भारतीय वास्तुकला के क्षेत्र में मौलिक इस मंदिर का निर्माण हुआ।

मंदिर परिसर के दर्शनीय स्थल
मान्यता है कि मंदिर में गोरखनाथ जी द्वारा जलायी अखण्ड ज्योति त्रेतायुग से आज तक अनेक झंझावातों के बावजूद अखण्ड रूप से जलती आ रही है। यह ज्योति आध्यात्मिक ज्ञान, अखण्डता और एकात्मता का प्रतीक है।

अखण्ड धूना

यह गोरखनाथ मंदिर परिसर में विशेष प्रेरणास्रोत का काम करती है। इसमें गोरखनाथ जी द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि आज भी विद्यमान है।

मंदिर के भीतर देवप्रतिमाएं

मंदिर के भीतरी कक्ष में मुख्य वेदी पर शिवावतार अमरकाय योगी गुरु गोरखनाथ जी महाराज की श्वेत संगमरमर की दिव्य मूर्ति, ध्यानावस्थित रूप में प्रतिष्ठित है, इस मूर्ति का दर्शन मनमोहक व चित्ताकर्षक है। यह सिद्धिमयी दिव्य योगमूर्ति है। श्री गुरु गोरखनाथ जी की चरण पादुकाएं भी यहाँ प्रतिष्ठित हैं, जिनकी प्रतिदिन विधिपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। परिक्रमा भाग में भगवान शिव की भव्य मांगलिक मूर्ति, विघ्नविनाशक श्री गणेशजी, मंदिर के पश्चिमोत्तर कोने में काली माता, उत्तर दिशा में कालभैरव और उत्तर की ओर पाश्र्व में शीतला माता का मंदिर है। इस मंदिर के समीप ही भैरव जी, इसी से सटा हुआ भगवान शिव का दिव्य शिवलिंग मंदिर है। उत्तरवर्ती भाग में राधा कृष्ण मंदिर, हट्टी माता मंदिर, संतोषी माता मंदिर, श्री राम दरबार, श्री नवग्रह देवता, श्री शनि देवता, भगवती बालदेवी, भगवान विष्णु का मंदिर तथा योगेश्वर गोरखनाथ जी द्वारा जलाई गयी अखंड धूना स्थित है। विशाल हनुमान जी मंदिर, महाबली भीमसेन मंदिर, योगिराज ब्राहृनाथ, गंभीरनाथ और महंत दिग्विजयनाथ जी की प्रतिमाएं स्थापित हैं। जो भक्तों के हृदय में आस्था एवं श्रद्धा का भाव संचारित करती हैं। पवित्र भीम सरोवर, जल-यंत्र, कथा-मण्डपम यज्ञशाला, संत निवास, अतिथिशाला, गोशाला आदि स्थित हैं।

खिचड़ी मेला
प्रतिदिन मंदिर में भारत के सुदूर प्रांतों से आये पर्यटकों, यात्रियों और स्थानीय व पास- पड़ोस के असंख्य लोगों की भीड़ दर्शन के लिए आती है। मंगलवार को यहां दर्शनार्थियों की संख्या ख़ासी होती है। मंदिर में गोरखबानी की अनेक सबदियां संगमरमर की भित्ति पर अर्थ सहित जगह-जगह अंकित हैं और नवनाथों के चित्रों का अंकन भी मंदिर में भव्य तरीके से किया गया है। मकर संक्रान्ति के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है जो खिचड़ी मेला के नाम से प्रसिद्ध है।

शैक्षिक व सामाजिक महत्त्व
मंदिर प्रांगण में ही गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ है। इसमें विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क आवास, भोजन व अध्ययन की उत्तम व्यवस्था है। गोरखनाथ मंदिर की ओर से एक आयुर्वेद महाविद्यालय व धर्मार्थ चिकित्सालय की स्थापना की गयी है। गोरक्षनाथ मंदिर के ही तत्वावधान में 'महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद्' की स्थापना की गयी है। परिषद् की ओर से बालकों का छात्रावास प्रताप आश्रम, महाराणा प्रताप, मीराबाई महिला छात्रावास, महाराणा प्रताप इण्टर कालेज, महंत दिग्विजयनाथ स्नातकोत्तर महाविद्यालय, महाराणा प्रताप शिशु शिक्षा विहार आदि दो दर्जन से अधिक शिक्षण-प्रशिक्षण और प्राविधिक संस्थाएं गोरखपुर नगर, जनपद और महराजगंज जनपद में स्थापित हैं।

मंदिर के महंत
गुरु गोरखनाथ जी के प्रतिनिधि के रूप में सम्मानित संत को महंत की उपाधि से विभूषित किया जाता है। इस मंदिर के प्रथम महंत श्री वरद्नाथ जी महाराज कहे जाते हैं, जो गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य थे। तत्पश्चात परमेश्वर नाथ एवं गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने वालों में प्रमुख बुद्ध नाथ जी (1708-1723 ई), बाबा रामचंद्र नाथ जी, महंत पियार नाथ जी, बाबा बालक नाथ जी, योगी मनसा नाथ जी, संतोष नाथ जी महाराज, मेहर नाथ जी महाराज, दिलावर नाथ जी, बाबा सुन्दर नाथ जी, सिद्ध पुरुष योगिराज गंभीर नाथ जी, बाबा ब्रह्म नाथ जी महाराज, ब्रह्मलीन महंत श्री दिग्विजय नाथ जी महाराज[4] क्रमानुसार वर्तमान समय में महंत श्री अवैद्यनाथ जी महाराज गोरक्ष पीठाधीश्वर के पद पर अधिष्ठित हैं। नाथ योग सिद्धपीठ गोरखनाथ मंदिर के योग तपोमय पावन परिसर में शिव गोरक्ष महायोगी गुरु गोरखनाथ जी के अनुग्रह स्वरुप 15 फरवरी 1994 को गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्य नाथ जी महाराज द्वारा मांगलिक वैदिक मंत्रोच्चारपूर्वक शिष्य योगी आदित्यनाथ जी का दीक्षाभिषेक संपन्न हुआ। योगी जी व्यवहारकुशलता, दृढ़ता, कर्मठता, वाक्पटुता के आदर्श मार्गों का अनुसरण करते हुए हिंदुत्व के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हैं। योगी जी के युवा नेतृत्व में थोड़े ही समय में पूरे भारत वर्ष में हिंदुत्व का तेजोमय पुनर्जागरण अवश्यम्भावी है। महंत अवैद्यनाथ के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ ने 1998 में सबसे कम उम्र का सांसद बनने का गौरव प्राप्त किया। योगी आदित्यनाथ ने 'हिन्दू युवा वाहिनी' का गठन किया जो हिन्दू युवाओं को हिन्दुत्वनिष्ठ बनाने के लिए प्रेरणा देते है।

टिप्पणियाँ

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