गरीबी के मायने ?
आखिर गरीबी के मायने क्या ?
हर्ष मंदर 08/06/2012
http://www.bhaskar.com/articleपिछले साल के अंतिम दिनों की बात है। दो युवकों ने तय किया कि वे अपने जीवन का एक माह उतने पैसों में बिताएंगे, जो एक औसत गरीब भारतीय की मासिक आय है। उनमें से एक युवक हरियाणा के एक पुलिस अधिकारी का बेटा है। उसने पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की है और अमेरिका और सिंगापुर में बैंकर के रूप में काम कर चुका है। दूसरा युवक अपने माता-पिता के साथ किशोरावस्था में ही अमेरिका चला गया था और उसने एमआईटी में पढ़ाई की है।
दोनों ने अलग-अलग समय पर भारत लौटना तय किया था। बेंगलुरु में उन्होंने यूआईडी प्रोजेक्ट में शिरकत की, संयोग से वे रूममेट बने और गहरे दोस्त बन गए। दोनों इस उम्मीद के साथ भारत लौटे थे कि शायद वे देश के कुछ काम आ पाएंगे, लेकिन वे भारतीयों के बारे में बहुत कम जानते थे। एक दिन उनमें से एक ने कहा : क्यों न हम एक औसत भारतीय की औसत आय पर एक महीना बिताकर भारतीयों के जीवन को समझने की कोशिश करें? दूसरे युवक को यह बात जंची। दोनों इस विचार को अमली जामा पहनाने निकल पड़े। लेकिन यह अनुभव उन दोनों के जीवन को बदलकर रख देने वाला था।
यहां पहला सवाल तो यही उठता है कि एक भारतीय की औसत आय क्या है? उन्होंने हिसाब लगाकर निष्कर्ष निकाला : 4500 रुपए प्रतिमाह या 150 रुपए प्रतिदिन। दुनियाभर में लोगों की आय का एक तिहाई हिस्सा किराये-भाड़े पर खर्च होता है। इसके लिए उन्होंने 50 रुपए काटकर 100 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से एक माह बिताना तय किया।
उन्हें लगा था कि इससे वे गरीब नहीं हो जाएंगे, लेकिन 75 प्रतिशत भारतीय इस आंकड़े के नीचे अपना जीवन बिताते हैं। वे दोनों एक छोटे-से अपार्टमेंट में रहने चले गए। उन्होंने पाया कि अब वे अपने समय का एक बड़ा हिस्सा यह सोचने में बिता रहे थे कि वे दो वक्त के भोजन का प्रबंध कैसे करेंगे। बाहर खाना खाने का तो सवाल ही नहीं उठता था। यहां तक कि ढाबों पर मिलने वाला खाना भी उनकी औसत आय के अनुपात से महंगा था।
दूध और दही भी उनकी पहुंच से बाहर थे, इसलिए उन्हें इनका उपयोग भी किफायत से ही करना था। घी या मक्खन जैसी सुविधाएं भी वे वहन नहीं कर सकते थे, लिहाजा उन्हें रिफाइंड तेल का ही उपयोग करना था। दोनों के साथ यह बात अच्छी थी कि उन्हें खाना बनाना आता था। उन्होंने पाया कि वे सोयाबीन की बड़ियों का इस्तेमाल कर सकते हैं, क्योंकि वे सस्ती होने के साथ ही पौष्टिक भी थीं। उन्होंने सोयाबीन की बड़ियों पर प्रयोग करते हुए अनेक व्यंजन बनाए। बिस्किट भी उनके लिए मददगार साबित हुए, क्योंकि इनकी वजह से उन्हें मात्र २५ पैसे में २७ कैलोरी मिल रही थी। उन्होंने केले को तलकर बिस्किट के साथ खाने का प्रयोग किया। यह उनकी रोज की दावत थी।
लेकिन सौ रुपए रोज पर जीवन बिताने के कारण उनके जीवन का दायरा बहुत सिमट गया। अब वे बस से एक दिन में पांच किलोमीटर से अधिक लंबी दूरी तय नहीं कर सकते थे, वे दिन में केवल पांच या छह घंटे बिजली का उपयोग कर सकते थे और नहाने के लिए वे एक साबुन को दो भाग में काटकर उसका उपयोग करते थे। जाहिर है वे फिल्में देखने नहीं जा सकते थे। बीमार पड़ना तो वे कतई वहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने पूरा महीना यह प्रार्थना करते हुए बिताया कि कहीं वे बीमार न पड़ जाएं, नहीं तो उनका पूरा बजट गड़बड़ा जाएगा।
अंतत: वे 100 रुपए रोज पर एक महीना बिताने में कामयाब रहे। लेकिन बुनियादी सवाल अपनी जगह पर कायम है। क्या वे 32 रुपए प्रतिदिन की आय पर भी एक महीना बिता सकते थे? भारत में गरीबी के निर्धारण का यही आधिकारिक आंकड़ा है। जब योजना आयोग ने सर्वोच्च अदालत को सूचित किया कि यह मानदंड भी शहरी गरीबों के लिए है, ग्रामीण गरीबों के लिए यह 26 रुपए प्रतिदिन है, तो इस पर विवाद होना स्वाभाविक ही था।
जब उन युवकों को यह पता चला तो उन्होंने तय किया कि वे केरल के करुकाचल गांव में जाएंगे और 26 रुपए रोज की आय पर जीवन बिताने का प्रयास करेंगे। उन्हें चावल, केले और चाय के सहारे जीने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन इतनी खुराक पर भी रोज 18 रुपए खर्च हो जाते थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने पाया कि उनका पूरा दिन कम से कम रुपयों में भोजन का बंदोबस्त करने में ही बीत रहा है। अब उन्होंने परिवहन के किसी भी साधन की सहायता लेना छोड़ दिया और पैदल ही चलने लगे। साबुन के पैसे बचाने के लिए उन्होंने एक माह अपने कपड़े भी नहीं धोए। ऐसे में यदि उनमें से कोई बीमार पड़ जाता तो वे भूखों ही मर जाते। उन युवकों के लिए ‘आधिकारिक मानदंडों की गरीबी’ के वे दिन एक हिला देने वाला अनुभव था।
एक माह पूरा होने पर उन्होंने लिखा
‘हम खुश हैं कि अब हम फिर से ‘सामान्य’ जीवन बिता सकेंगे। माह के अंत पर हमने जोरदार दावत मनाई, लेकिन यह सोचकर मन उदास हो जाता है कि देश के 40 करोड़ लोगों के लिए गरीबी कोई ‘प्रयोग’ नहीं, बल्कि जीवन की वास्तविकता है और वे इस तरह की दावत कभी नहीं मना सकते। हम तो एक महीने बाद अपनी आरामदेह जिंदगी में लौट आए, लेकिन उनके बारे में क्या, जिनका पूरा जीवन ही आजीविका के लिए एक कठोर संघर्ष है? एक ऐसा जीवन, जिसमें भूख सबसे बड़ी सच्चाई है और स्वतंत्रता सबसे बड़ा भ्रम।हमारा जीवन फिर से पहले की तरह जरूर हो गया है, लेकिन अब हम पहले की तरह पैसा खर्च नहीं कर सकेंगे। क्या वाकई हमें हेयर प्रोडक्ट्स और ब्रांडेड कोलोन की जरूरत है? क्या महंगे रेस्तरां में भोजन करना सप्ताहांत बिताने का अनिवार्य तरीका है? क्या वाकई हम इस सुख-वैभव के योग्य हैं? यह महज संयोग ही था कि हमारा जन्म एक समृद्ध परिवार में हुआ था और हम एक आरामदेह जीवन बिता सकते हैं, लेकिन उन लोगों के बारे में क्या, जो अपनी क्रूर नियति से संघर्ष करने को मजबूर हैं? हमें इन सवालों के जवाब नहीं पता, लेकिन अब हम इतना जरूर जानते हैं कि गरीबी के मायने क्या होते हैं। हमें यह भी याद रहेगा कि जिन लोगों के साथ हमने ताउम्र अजनबियों की तरह व्यवहार किया, उन्होंने तंगहाली के उन दिनों में खुले दिल से हमारा साथ दिया।’
इन युवकों के जीवन के इस अनुभव से हमें सबक मिलता है कि सभी लोगों के लिए आवश्यक पोषक आहार सुनिश्चित करने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून अनिवार्य है, क्योंकि भूख और गरीबी के कारण इंसान अपने छोटे से छोटे सपने भी पूरे नहीं कर सकता। और सबसे जरूरी बात यह कि लोकतंत्र की सफलता के लिए समानुभूति की भावना का होना सबसे जरूरी है।
लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।
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UESDAY, OCTOBER 04, 2011
गरीबी रेखा की गरीबी
देश के करोड़ों गरीबों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है
http://teesraraasta.blogspot.inमशहूर लेखक थामस कार्लाइल ने कभी खिन्न होकर अर्थशास्त्र को ‘निराशापूर्ण या कहिये, शोक का विज्ञान’ (डिज्मल साइंस) कहा था. यह बात कहीं और लागू होती हो या नहीं लेकिन अपने योजना आयोग के अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों पर जरूर लागू होती है. उनका अर्थशास्त्र देश-काल-समाज की वास्तविकताओं और आम भारतीयों के जीवन से किस कदर कट चुका है, इसका अंदाज़ा सुप्रीम कोर्ट में पेश उस हलफनामे से लगाया जा सकता है.इसमें आयोग ने गरीबी रेखा को स्पष्ट करते हुए दावा किया है कि अगर कोई व्यक्ति अपने दैनिक उपभोग पर शहरी इलाके में ३२ रूपये और ग्रामीण इलाके में २६ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करता है तो वह गरीब नहीं है. आयोग के अर्थशास्त्र के मुताबिक, इस राशि से कम पर गुजारा करनेवाले ही गरीब माने जाएंगे.
यही नहीं, योजना आयोग के महान अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि कोई व्यक्ति अपने दैनिक उपभोग पर शहरी इलाके में ३२ रूपये और ग्रामीण इलाके में २६ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करके आराम से गुजर-बसर कर सकता है. इसलिए आयोग ऐसे लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर (ए.पी.एल) की श्रेणी में रखता है. लेकिन आयोग के यह कहने का असली मतलब यह है कि ऐसे लोगों और परिवारों को गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों (बी.पी.एल) के लिए लक्षित विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलेगा. स्वाभाविक तौर पर योजना आयोग की इस नायाब खोज या कहिये कि गरीबों के साथ क्रूर मजाक ने न सिर्फ पूरे देश को स्तब्ध और हैरान कर दिया है बल्कि उसकी चारों ओर तीखी आलोचना हुई है.
इसकी प्रतिक्रिया में स्वाभाविक मांग हुई है कि योजना आयोग के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के अलावा आयोग के अन्य अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों को कुछेक महीनों के लिए ३२ से ३५ रूपये प्रतिदिन के उपभोग पर ‘आराम से जीने’ और अपना गुजारा चलाने के लिए कहा जाए. यही नहीं, इस पायलट परियोजना में संसद सदस्यों, विभिन्न मंत्रालयों के उच्च अधिकारियों, कैबिनेट मंत्रियों को भी शामिल किया जाना चाहिए और इसे बिना किसी विलम्ब के तुरंत लागू किया जाना चाहिए ताकि सच्चाई सामने आ सके. अगर देश के ये सभी भाग्य विधाता ३२ रूपये प्रतिदिन से कुछ अधिक के दैनिक उपभोग में कुछ महीने गुजारा कर लेते हैं तो देश को बिना किसी संकोच के गरीबी की इस परिभाषा को स्वीकार कर लेना चाहिए.
गरीबी की परिभाषा गढ़ने वाले अपने अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्रियों पर योजना आयोग को इतना विश्वास है तो उसे इस चुनौती को जरूर स्वीकार करना चाहिए अन्यथा गरीबों के साथ इस मजाक को तुरंत बंद करना चाहिए. गरीबों के साथ यह मजाक बहुत लंबा चल चुका है. याद रहे कि ७० के दशक से ही गरीबी रेखा के मानदंडों और उसके निर्धारण को लेकर गंभीर और तीखे सवाल उठते रहे हैं.जिस तरह से गरीबी के निर्धारण के लिए ग्रामीण इलाके में प्रतिदिन २४०० कैलोरी और शहरी इलाके में २१०० कैलोरी के उपभोग को पैमाना बनाया गया, उससे शुरू से साफ़ हो गया था कि यह गरीबी की नहीं भूखमरी की रेखा है. आखिर गरीबी को सिर्फ दो जून भोजन की उपलब्धता तक कैसे सीमित किया जा सकता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि एक ऐसे देश में जो खुद को ‘सभ्य स्वतंत्र जनतांत्रिक गणराज्य’ मानता है और अपने संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में सभी नागरिकों के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और घर के अधिकार की वकालत करता है, वहां गरीबी की यह परिभाषा कैसे स्वीकार की जा सकती है जो किसी व्यक्ति के सिर्फ दो जून भोजन का जुगाड़ कर लेने को गरीबी रेखा से बाहर रखने के लिए पर्याप्त मानती है?
क्या गरीबी के मायने वह हर सामाजिक-आर्थिक-मानवीय वंचना नहीं है जो किसी भी व्यक्ति और उसके परिवार के सम्पूर्ण मानवीय विकास को बाधित करती है? क्या हर उस व्यक्ति और परिवार को गरीब नहीं माना जाना चाहिए जो एक स्वस्थ-सम्मानपूर्ण मानवीय जीवन के लिए जरूरी बुनियादी अधिकारों और जरूरतों से वंचित है? लेकिन इसके उलट भारतीय अर्थशास्त्रियों की गरीबी की परिभाषा वैचारिक तौर पर इतनी दरिद्र रही है कि उसे गरीबी के बजाय भूखमरी की रेखा कहना ज्यादा बेहतर होगा. सच पूछिए तो गरीबी की मौजूदा रेखा एक ऐसी काल्पनिक गल्प रेखा है जिसका मकसद गरीबों की ईमानदारी से पहचान करना नहीं बल्कि किसी भी तरह से उनकी संख्या को कम से कम करके दिखाना है.
गरीबों की संख्या को कम करके दिखाने का मकसद भी किसी से छुपा नहीं है. एक तो भारतीय शासक वर्ग गरीबों की संख्या कम दिखाके देश की कथित तरक्की और आर्थिक नीतियों की सफलता के ढिंढोरे पीटता और उनकी वैधता साबित करता है. दूसरे, कृत्रिम तरीके से गरीबों की संख्या कम करके राष्ट्रीय संसाधनों में उन्हें उनके संवैधानिक हकों से वंचित किया जाता है.
यही नहीं, गरीबों की संख्या इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि इसके आधार पर ही राष्ट्रीय प्राथमिकताएं और राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक नीतियों की दिशा तय होती है. अगर योजना आयोग का सर्वेक्षण यह बता रहा है कि गरीबों की संख्या न सिर्फ कम हुई है बल्कि लगातार घट रही है तो नीतिगत तौर पर इसका अर्थ यह होता है कि मौजूदा आर्थिक-सामाजिक नीतियां सही हैं और उनसे गरीबी को खत्म करने में सफलता मिल रही है.
जाहिर है कि इससे न सिर्फ उन नीतियों को जारी रखने का औचित्य सिद्ध किया जाता है बल्कि आर्थिक नीति और योजनाओं/कार्यक्रमों के एजेंडे की प्राथमिकता सूची से गरीबी को बाहर करने तर्क गढा जाता है.साफ है कि गरीबी की परिभाषा और गरीबी रेखा के निर्धारण के पैमाने सिर्फ सैद्धांतिक और शैक्षणिक चर्चा और बहस के मुद्दे भर नहीं हैं. सच्चाई यह है कि उनकी वास्तविक गणना नहीं करने का अर्थ उन्हें राष्ट्रीय सरोकारों और चिंताओं से बेदखल करना है. यही नहीं, देश के करोड़ों गरीबों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है.
खासकर ९० के दशक से जब से नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत पहले से ही सीमित और आधे-अधूरे मन से लागू सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी कार्यक्रमों को और सीमित करने के लिए उन्हें लक्षित (टारगेट) करने करने का फैसला हुआ ताकि सब्सिडी में कटौती की जा सके. इसके तहत न सिर्फ लोगों को मनमाने तरीके से गरीबी रेखा से नीचे (बी.पी.एल) और गरीबी रेखा से ऊपर (ए.पी.एल) के दो कृत्रिम वर्गों में बाँट दिया गया बल्कि योजना आयोग के सरकारी अर्थशास्त्रियों का सारा जोर और परिश्रम बी.पी.एल परिवारों की संख्या को कम से कमतर करने पर लगने लगा.
जाहिर है कि इस प्रक्रिया में बी.पी.एल रेखा और उसकी पहचान का पूरा उपक्रम गरीबों के साथ एक धोखा और क्रूर मजाक साबित हुआ है. इसमें वास्तविक गरीबों का हक मारने और मनमानी, भ्रष्टाचार, और अनियमितताओं के लिए न सिर्फ गुंजाइश बनी है बल्कि खुलकर लूटने की छूट मिल गई है.
यह बी.पी.एल रेखा कितना बड़ा धोखा बन गई है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कितने लोग गरीब हैं, इसे लेकर पिछले चार-पांच सालों से खुद सरकारी हलकों और उनके अर्थशास्त्रियों में बहस छिड़ी हुई है. सबसे पहले योजना आयोग ने कहा कि देश में गरीब २८ फीसदी हैं.
लेकिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति के अध्ययन के लिए गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने कहा कि देश में ७८ फीसदी यानी करीब ८३ करोड़ लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर कर रहे हैं. इसके बाद शुरू हुई बहस और विवाद के कारण मजबूर होकर योजना आयोग ने सुरेश तेंदुलकर समिति गठित की जिसने माना कि ३७ फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं.
इसी बीच, ग्रामीण विकास मंत्रालय की एन.सी. सक्सेना समिति ने काफी झिझकते हुए कहा कि वैसे तो देश में गरीबों की वास्तविक संख्या ८० फीसदी के आसपास है लेकिन कम से कम ५० प्रतिशत को बी.पी.एल परिवारों में जरूर शामिल कर लेना चाहिए. एक गैर सरकारी आकलन (प्रो. ज्यां द्रेज और डेटन) के मुताबिक, कैलोरी पैमाने पर भी देश में गरीबों की कुल संख्या ७५.८ फीसदी है जिसमें ग्रामीण इलाकों में ७९.८ प्रतिशत और शहरी इलाकों में ६३.९ प्रतिशत गरीब हैं.
सबसे मजे की बात यह है कि गरीबों की संख्या के बारे में ये सभी अनुमान एन.एस.एस.ओ के २००४-०५ के सर्वेक्षण पर आधारित हैं. एक ही सर्वेक्षण से इतने अंतर्विरोधी और भिन्न नतीजों से साफ है कि न सिर्फ गरीबी मापने के पैमाने बल्कि उनके आकलन के तरीकों में भी गंभीर समस्याएं हैं.
यही नहीं, गरीबी के मौजूदा सरकारी अनुमानों के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह भी है कि एक बार जब योजना आयोग राष्ट्रीय स्तर और राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का आकलन घोषित कर देता है तो राज्य सरकारों की जिम्मेदारी उस घोषित संख्या के अंदर वास्तविक गरीब परिवारों की पहचान करने भर की रह जाती है.
इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वास्तविक गरीब चाहे जितने हों लेकिन राज्य सरकारें गरीबों की संख्या को उसी सीमा के अंदर रखने के लिए बाध्य हैं. अगर वे बी.पी.एल परिवारों की संख्या बढाती हैं तो बढ़ी हुई संख्या के लिए सरकारी योजनाओं को लागू करने के वास्ते जरूरी संसाधनों का इंतजाम उन्हें खुद करना होगा. जाहिर है कि इस कारण सभी राज्य सरकारें योजना आयोग के बी.पी.एल अनुमानों का विरोध करने के बावजूद उसे चुपचाप स्वीकार कर लेती हैं.
दरअसल, गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों के ये सभी, खासकर योजना आयोग अनुमान कितने बेमानी हैं, इसका अंदाज़ा अनेक सामाजिक-आर्थिक-मानवीय विकास के सूचकांकों पर भारत के प्रदर्शन से लगाया जा सकता है. आखिर यह कैसे हो सकता है कि देश में गरीब तो सिर्फ ३७ फीसदी हों लेकिन कुपोषणग्रस्त बच्चों की संख्या लगभग ४७ फीसदी हो?
ऐसे बीसियों आंकड़े यहाँ दिए जा सकते हैं जो गरीबी रेखा को झूठा साबित करते हैं. साफ है कि गरीबी के मौजूदा पैमानों को सिरे से ख़ारिज करने का समय आ चुका है. इसके अलावा आज जब गरीबी निर्धारण के पैमानों पर बहस चल रही है तो इस बहस के दायरे को बढ़ाने और उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. आखिर २६ और ३२ रूपये की बहस में इस सच्चाई को कैसे नजरंदाज किया जा सकता है कि पिछले सात सालों में महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई कई गुना बढ़ चुकी है जबकि उस अनुपात में कामगारों के बड़े हिस्से की मजदूरी और वेतन में वृद्धि नहीं हुई है. शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के बढ़ते निजीकरण के बीच उनके खर्चों में बेतहाशा बढोत्तरी हुई है.
दूसरे, गरीबी को देश में कुछ वर्गों की तेजी से बढ़ती अमीरी के सापेक्ष में भी देखा जाना चाहिए. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में अमीरों और गरीबों के बीच फासला और बढ़ा है. देश में गैर बराबरी और आर्थिक विषमता और बढ़ी है. इसके कारण गरीबों का जीना दिन पर दिन और मुश्किल होता जा रहा है.
इसलिए अब समय आ गया है कि गरीबी की परिभाषा को व्यापक करके उसमें पर्याप्त और पोषण युक्त भोजन के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, घर, यातायात से लेकर अन्य बुनियादी जरूरतों को भी शामिल किया जाए जो किसी भी नागरिक के गरिमापूर्ण जीवन के लिए जरूरी हैं. यही नहीं, इन मदों पर होनेवाले वास्तविक खर्च की ईमानदार गणना की जाए.
लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति कभी ऐसा होने देगी, इसकी उम्मीद बहुत कम है. गरीबों के राजनीतिक संघर्षों और हस्तक्षेप से ही स्थिति बदल सकती है. वैसे भी गरीबों को बिना लड़े शायद ही कुछ मिला है.
('जनसत्ता' के ३ अक्तूबर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
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