कश्मीर घाटी से हिन्दू संहारक अफगान शासन को उखाड़ फेंकने में सफल हुआ एक हिन्दू नेता पंडित बीरबल धर
गौरवशाली इतिहास-9
कश्मीर घाटी से हिन्दू संहारक अफगान शासन को उखाड़ फेंकने में सफल हुआ एक हिन्दू नेता
पंडित बीरबल धर -नरेन्द्र सहगल
तारीख: 6/23/2012
कश्मीर प्रदेश की अंतिम हिन्दू साम्राज्ञी कोटा रानी के आत्म बलिदान के पश्चात् सत्ता पर काबिज हुए प्रथम मुस्लिम शासक शाहमीर के राज्यकाल से प्रारंभ हुआ बलात् मतान्तरण का सिलसिला अंतिम सुल्तान सूबेदार आजम खान के राज्य तक निरंतर 500 वर्षों तक अबाध गति से चलता रहा। पूर्व का हिन्दू कश्मीर अब तलवार के जोर से मुस्लिम कश्मीर में बदल दिया गया। इस कालखंड में हिन्दू समाज और संस्कृति को समाप्त करने के लिए सभी प्रकार के घृणित एवं नृशंस उपायों का इस्तेमाल किया गया। क्रूरतम और अमानवीय हथकंडों के बावजूद ये विधर्मी विदेशी शासक कश्मीर के मूल समाज को पूर्णतया समाप्त नहीं कर सके। कश्मीर के हिन्दू समाज ने लगातार पांच सौ वर्षों तक बलिदानों की अद्भुत परंपरा को बनाए रखते हुए भारतीय जीवन मूल्यों की रक्षा की।
हिन्दू रक्षा का संकल्प
सूबेदार आजम खान के कालखंड में भी कश्मीर के संभ्रांत पंडितों ने कश्मीर एवं हिन्दू समाज को बचाने का निर्णय किया। किसी भी ढंग से अपने देश और समाज को बचाने के पवित्र राष्ट्रीय उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण गुप्त बैठक का आयोजन किया गया। इस समय पड़ोसी राज्य पंजाब में एक शक्तिशाली सिख महाराजा रणजीत सिंह का राज्य था। पंडित नेताओं ने गहरे विचार-विमर्श के बाद महाराजा रणजीत सिंह से वार्तालाप करने और सैनिक सहायता प्राप्त करने का फैसला किया। राजनीतिक दृष्टि से चतुर हिन्दू नेता पंडित बीरबल धर को यह कार्य सम्पन्न करने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
इस योजना की कुछ धुंधली सी जानकारी किसी तरीके से सूबेदार को मिल गई। उसने तुरंत अपने एक विश्वस्त हिन्दू नेता मिर्जा पंडित को बुलाकर पूछताछ की। परंतु मिर्जा पंडित ने अत्यंत चतुराई से काम लेकर सूबेदार को शांत कर दिया। उस समय तक पंडित बीरबल धर अपने युवा बेटे राजा काक के साथ अपने ध्येय की पूर्ति हेतु घर से निकल चुका था। महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में पहुंचना उसका उद्देश्य था। उस समय पंजाब की राजधानी लाहौर थी।
देशभक्त मुसलमानों का योगदान
श्रीनगर से थोड़ी दूर देवसर नामक स्थान पर थोड़ी देर रुककर दोनों पिता पुत्र आगे की यात्रा पर निकले। स्थानीय मुस्लिम समाज की सहायता से दोनों पीर पंजाल पर्वत को पार करने में सफल हो गए। इस राष्ट्रीय कार्य के लिए स्थानीय मुस्लिम बंधुओं ने सहायता करके अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन देशभक्त मुसलमानों का नाम भी कश्मीर के इतिहास में उज्ज्वल है।
पंडित बीरबल और उसके पुत्र का इस प्रकार सूबेदार को चकमा देकर सुरक्षित निकल जाना और वह भी स्थानीय मुसलमानों की मदद से, यह बात सूबेदार और उसके दरबारियों के कलेजे पर सांप की तरह लोटने लगी। समाचार प्राप्त होते ही सूबेदार ने चारों ओर अपने सैनिक छोड़ दिए। उन्होंने बीरबल धर और उसके पुत्र काक को पकड़ने के लिए प्रदेश का कोना-कोना छान मारा। परंतु तीर धनुष से छूट चुका था।
वीर पत्नी की देशभक्ति
सूबेदार आजम खान पागलों की तरह छटपटाने लगा। उसने हिन्दुओं और मतान्तरित मुसलमानों पर जुल्मों की चक्की चला दी। जिसने भी विरोध किया, तलवार की भेंट चढ़ा दिया गया। इस एकतरफा विनाशलीला से जब वह थक गया तो उसने पंडित बीरबल धर के परिवार की स्त्रियों को जबरदस्ती पकड़कर उसके हरम में लाने का आदेश अपने सैनिकों को दिया। परंतु यहां भी उसको मुंह की खानी पड़ी। कुछ हिन्दुओं ने अपनी चतुराई से उनके घर की स्त्रियों के सम्मान को आजम खान की हवस का शिकार होने से बचा लिया। सूबेदार हाथ मलता रह गया।
पंडित बीरबल ने घर से निकलने से पूर्व अपनी पत्नी से भेंट की। पत्नी ने सहर्ष पति को राष्ट्र पथ पर बढ़ने की प्रेरणा और अश्रुपूर्ण मौन स्वीकृति दे दी। इस वीर पत्नी ने स्वयं सब प्रकार के कष्ट सह लेने परंतु कर्तव्य से विमुख न होने का आश्वासन अपने राष्ट्रसेवी पति को दिया। उसने अपने पति के हाथ को अपने हाथ में लेकर भीष्म प्रतिज्ञा की कि वह किसी भी विधर्मी को अपने शरीर को छूने से पहले अपने प्राण त्यागने में संकोच नहीं करेगी। राष्ट्रीय कार्य के लिए जाते हुए पति के समक्ष पत्नी द्वारा भी समय आने पर आत्मबलिदान का निश्चय किया गया। कितना भावुक और प्रेरणास्पद रहा होगा वह ऐतिहासिक क्षण।
फिर सामने आया देशद्रोह
पास ही खड़े युवा बेटे काक ने भी मां के चरण छूकर आशीर्वाद मांगा। मां ने बेटे को सीने से लगा लिया। उसने मालूम था कि बेटे के साथ भी उसका यह अंतिम मिलन है। वीर माता ने वीर पुत्र की अंगुली वीर पिता के हाथ में थमा दी। जाने से पूर्व पंडित बीरबल ने अपने परिवार की सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने एक विश्वस्त मुसलमान मित्र कादिस खान को सौंप दी। दोनों महिलाएं सास और बहू (बेटे काक की पत्नी) कादिस खान के घर चली गईं।
सूबेदार आजम खान ने इन दोनों महिलाओं को ढूंढने में साम दाम दंड भेद का सब नीतियों का इस्तेमाल करके देख लिया, परंतु कुछ भी हाथ न लगा। कादिस खान ने भी इनकी रक्षा करने में पूरी बुद्धि और शक्ति झोंक दी। परंतु भाग्य ने साथ नहीं दिया। कादिस खान के एक नजदीकी दोस्त की स्वार्थलिप्सा और अराष्ट्रीय मनोवृत्ति के कारण यह खबर सूबेदार तक पहुंच गई। सूबेदार के आदेश से कादिस के घर को घेर लिया गया। कादिस ने पूरी ताकत के साथ दोनों स्त्रियों को छिपाने और बचाने की कोशिश की। परंतु लड़ते-लड़ते शहीद हो गया। सास-बहू को गिरफ्तार कर लिया गया।
सास-बहू का बलिदान
जब सूबेदार आजम खान के सैनिक पंडित बीरबल की पत्नी और युवा बहू को ले जा रहे थे, तो रास्ते में मौका देखकर सास ने अपनी हीरे की अंगूठी निगलकर अपने पेट में उतार ली। परंतु बहू ऐसा न कर सकी। इन दोनों को जब सूबेदार के सामने उपस्थित किया गया तो पंडित बीरबल की पत्नी ने नफरत भरी निगाहों से आजम खान को देखा और शेरनी की तरह दहाड़ते हुए कहा कि 'मेरा पति और बेटा महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में पहुंच चुके हैं। शीघ्र ही विधर्मी और नीच शासकों द्वारा कश्मीर के हिन्दुओं पर ढाए जा रहे अत्याचारों का अंत होगा और अफगान शासन भी तबाह होगा।' उसकी यह बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि उसकी मृत्यु हो गई।
इस तरह बीरबल पंडित की पत्नी द्वारा आत्मबलिदान देने के बाद उसकी बहू को जालिमों ने एक अफगान सूबेदार के साथ काबुल भेज दिया। वहां उसके साथ मजहबी उन्मादियों ने क्या किया होगा इसकी कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
दो सभ्यताओं में अंतर
कितना अंतर है दोनों सभ्यताओं और जीवन मूल्यों में। सर्वविदित है कि जब मराठा सैनिकों ने कल्याण (पुणे के पास) के मुस्लिम सूबेदार को एक युद्ध में पराजित कर दिया तो सूबेदार का तोपखाना और महिलाओं का हरम मराठा सैनिकों के हाथ लगा। मराठा सैनिकों ने सूबेदार की जवान बेटी को लाकर छत्रपति शिवाजी महाराज के समक्ष उपस्थित कर दिया।
शिवाजी ने अपने सैनिकों को डांटा और भविष्य में फिर कभी ऐसा घृणित कार्य न करने की आज्ञा दी। फिर शिवाजी ने सूबेदार की बेटी को मां जैसा सम्मान देकर उसे स्वर्ण आभूषण देकर सुरक्षित सूबेदार के पास भिजवा दिया। बस यही अंतर है दोनों सभ्यताओं में।
रणजीत सिंह ने बदला इतिहास
उधर पंडित बीरवल धर और उसका युवा पुत्र राजा काक जम्मू के महाराजा गुलाब सिंह के दरबार में पहुंचने में सफल हो गए। राजा गुलाब सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री राजा ध्यान सिंह के नाम एक परिचय पत्र देकर उन्हें लाहौर भेजने की व्यवस्था कर दी। लाहौर पहुंचने पर राजा ध्यान सिंह ने प्रयासपूर्वक इन्हें महाराजा रणजीत सिंह से मिलवा दिया। पंडित बीरबल ने सारी व्यथा महाराजा को सुना दी।
महाराजा रणजीत सिंह ने सारी बात ध्यान से सुनी। उन्हें लगा कि इस समय कश्मीर में हिन्दुओं की समस्या को राष्ट्रीय संदर्भ में देखा जाना चाहिए। वे एक सच्चे सिख थे। महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी शरण में आए कश्मीरी पंडितों की रक्षा करने का निश्चय किया। इस महापुरुष ने अफगानी शासन को शक्ति के साथ जड़मूल से समाप्त करके कश्मीर प्रदेश और वहां के हिन्दुओं की रक्षा करने का सीधा फैसला कर लिया। महाराजा ने अपनी विशाल सिख सेना को कश्मीर की ओर कूच करने के आदेश दे दिए।
अत्याचारी शासन समाप्त
महाराजा रणजीत सिंह ने अपने पांच सर्वश्रेष्ठ वीर सेनाधिकारियों के साथ पचास हजार चुने हुए सैनिकों को पंडित बीरबल के मार्गदर्शन में भेजा। पंडित बीरबल धर ने बाकायदा सैन्याधिकारियों के साथ रहकर उन्हें पूरी भौगोलिक जानकारी दी। इस समाचार को सुनते ही कश्मीर का शासक सूबेदार आजम खान काबुल भाग गया। उसके बेटे जबर खान ने शासन संभाला। ठीक इसी समय रणजीत सिंह की सेना ने धावा बोल दिया।
जम्मू के राजा गुलाब सिंह, लाहौर के हरिसिंह नलवा, फिरोजपुर के ज्वाला सिंह, अमृतसर के हुकुम सिंह और अटारी के श्याम सिंह इत्यादि सेनापतियों ने अपनी पूरी शक्ति से जबर खान की सेना के पांव उखाड़ दिए। जबर खान भी अपने बाप की तरह दुम दबाकर भाग गया। सिख सेना की विजय हुयी। 20 जून 1819 ई.को पंडित बीरबल ने सिख फौज के साथ श्रीनगर में प्रवेश किया।
पंडित बीरबल अगर चाहते तो अपनी विजय के बाद बदला ले सकते थे। पांच सौ वर्षों में बर्बाद कर दिए गए मठ, मंदिरों, जला दिए गए शिक्षा केन्द्रों और अपनी पत्नी और बहू सहित लाखों हिन्दू महिलाओं के अपमान का बदला मस्जिदों, मकबरों और मुस्लिम समाज से ले सकते थे परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे हिन्दुओं को वापस अपने धर्म में लाकर राष्ट्रवाद का धरातल भी तैयार कर सकते थे, परंतु ऐसा भी नहीं किया गया।
फिर लौट आया वैभव काल
महाराजा रणजीत सिंह की कश्मीर विजय के बाद कश्मीर पर सत्ताईस वर्ष तक उनका आधिपत्य रहा। इस कालखंड में कश्मीर में दस गवर्नर नियुक्त किए गए। शासन की नीतियां उदार थीं। हिन्दुओं पर जुल्मों का दमनचक्र पूर्णतया थम गया। मुस्लिम जागीरदार जो हिन्दुओं पर एकतरफा अत्याचार करते थे, सभी काबुल भाग गए। हिन्दू स्त्रियां अब सम्मान एवं स्वतंत्रता-पूर्वक कश्मीर घाटी में आने जाने लगीं। मंदिरों में आरती वंदन के स्वर फिर गूंजने लगे। ऐसा आभास होने लगा कि वैभवकाल पुन: लौट आया है। परंतु इस वैभव को स्थाई बनाने के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करने के ठोस प्रयास नहीं हुए। बस अल्पकाल के लिए कहीं छिप गया विधर्मी कट्टरवाद।
ऐतिहासिक मापदंड, राजनीतिक चातुर्य और भविष्य के लिए विदेशी ताकतों को खबरदार करने की दृष्टि से पंडित बीरबल को शठे शाठ्यं समाचरेत की नीति पर चलते हुए कश्मीर की धरती से विदेशी आक्रांताओं और उनके सभी चिन्हों तक को पूर्णतया समाप्त करना चाहिए था या नहीं, इस बात को आज की कश्मीर समस्या के संदर्भ में सोचना अत्यंत जरूरी है। आखिर हिन्दुओं की उदारता कब तक अपने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर पड़ने वाली चोटों को बर्दाश्त करती रहेगी?
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