जम्मू - कश्मीर को फिर से भारत से अलग करने का षडयंत्र
जम्मू - कश्मीर को फिर से भारत से अलग करने का षडयंत्र
कश्मीरी अलगाववादी गुलाम नबी फई प्रकरण के प्रकाश में आने के बाद उसके निमंत्रण पर जाने वाले वार्ताकारों की काफी किरकिरी हो चुकी है। इस कारण त्रि-सदस्यीय पैनल की देश के प्रति निष्ठा भी संदिग्ध मानी जाने लगी है। फई वॉशिंगटन स्थित कश्मीरी अमेरिक...न कौंसिल (केएसी) का प्रमुख है। वह 1990 अमेरिका में रह रहा है। उसको कश्मीर मसले पर लाबिंग और पाकिस्तान सरकार व उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम करने के आरोप में एफबीआई ने 19 जुलाई को वर्जीनिया में गिरफ्तार किया था। फिलहाल अमेरिकी अदालत ने फई को गहन निगरानी में रखने का आदेश सुनाते हुए 27 जुलाई को जमानत दे दी।
पडगांवकर और प्रो. कुमार पर आरोप लगा था कि उन्होंने फई द्वारा विदेशों में कश्मीर मसले पर आयोजित कई सम्मेलनों में हिस्सा लिया और पाकिस्तान के पक्ष में अपने विचार व्यक्त किये। हालांकि पडगांवकर और प्रो. कुमार के अलावा इस श्रेणी में कई और भारतीय बुद्धिजीवी भी हैं, जिन्होंने समय-समय पर भारत की कश्मीर नीति के खिलाफ बोला। कश्मीर मसले पर फई के सम्मेलनों में भागीदारी पर अंसारी ने पडगांवकर की तीखी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था- “अगर पडगांवकर की जगह मैं होता तो वार्ताकार पैनल से इस्तीफा दे देता।” अंसारी ने प्रो. कुमार पर भी काफी तीखी टिप्पणी की थी। अंसारी की टिप्पणी से नाराज कुमार ने गृह मंत्रालय को अपना इस्तीफा सौंपते हुए दो टूक कह दिया था कि अंसारी के साथ काम करना उनके लिए आसान नहीं होगा। हालांकि उन्होंने मंत्रालय के काफी मान-मनौव्वल के बाद अपना इस्तीफा वापस ले लिया।
ध्यान देने वाली बात है कि अफजल मसले पर नेशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी और अलगाववादी संगठन हुर्रियत कान्फ्रेंस ने भी पडगांवकर व प्रो. कुमार के सुर में सुर मिलाया है। पडगांवकर और कुमार का अफजल के संदर्भ में दिया गया यह बयान देश-विरोधी तो है ही; साथ ही आतंकियों के मनोबल को बढ़ाने वाला भी है। उनका बयान प्रत्येक भारतीय को यह सोचने के लिये मजबूर करता है कि क्या वे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के एजेंट तो नहीं हैं?
अब प्रश्न उठता है कि क्या देश का जनमानस कश्मीरी अलगाववादी फई की मेहमाननवाजी का लुफ्त उठाने, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में कश्मीर मसले पर कथित रूप से पाकिस्तान के पक्ष में बोलने, अलगाववादी संगठनों के सुर में सुर मिलाने और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी अफजल पर बयान देने वाले पडगांवकर और राधा कुमार पर क्या विश्वास किया जा सकता है? कश्मीर समस्या का संभावित हल तलाशने के निमित्त सितम्बर में आने वाली उनकी रिपोर्ट पर क्या सहज ही विश्वास किया जा सकेगा? पडगांवकर व कुमार की गतिविधियों और बयानों से अभी से स्पष्ट होने लगा है कि उनकी कश्मीर मसले पर संभावित रिपोर्ट ‘अलगाववाद का पुलिंदा’ ही होगी!
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हम सभी ने कुछ नारे बचपन से सुनते आ रहे हैं, जैसे -
1. धारा 370 खत्म करो - खत्म करो2. दूध मांगोगे खीर देंगें, कश्मीर मांगोगे चीर देंगें,
3. एक देश में दो निशान दो विधान दो प्रधान, नहीं चलेंगें - नहीं चलेंगें
4. जहाँ हुये बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है।
जो कश्मीर हमारा है वह सारे का सारा है।
अर्थात ये वे नारे हैं जिनकी उम्र भी 60 वर्ष से भी अधिक की हो गई हे और आज कश्मीर भारत का अंग है तो इसका बडा श्रेय इन नारों के नेतृत्व में चले बडे - बडे जन आंदोलनों को है, जिन्होने अखण्डता के लियं देशहित का संर्घष किया और कश्मीर प्रांत को भारत में बनाये रखा। भारत से उसे अलग करने के हर प्रयास को विफल किया। किन्तु एक बार फिर से इस प्रांत को भारत से अलग करने की योजना हमारे सामने दस्तक दे रही है और सबसे बडा दुर्भाग्य यह है कि इस योजना में खुद यूपीए - 2 के रूप में चल रही भारत सरकार अगुआ हो कर सम्मिलित है।
आपकी जानकारी में होगा ही कि भारत सरकार ने - कश्मीर मुद्दे के राजनीतिक समाधान के उद्देश्य से वार्ताकारों वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, की अध्यक्षता में शिक्षाविद् राधा कुमार एवं पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी आदि के त्रिसदस्यीय समूह को सुझाव देने हेतु नियुक्त किया था। उनके इस रिर्पोट बनाने के काम करने के दौरान जो बयान आये वे भी विवादास्पद और राष्ट्रविरोधी थे। इन्होने केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट सौंपी दी थी , जिसमें बहुत से राष्ट्रहित और देश की अखण्डता के विरूद्ध सुझावों के साथ साथ मोटे तौर पर यह है कि ” जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से अलग रखने वाली संविधान की अस्थायी धारा 370 को स्थायी किया जाये, राज्य की संवैधानिक स्थिती 1952 की जैसी की जाये, सैन्यबल कम किये जायें , पाकिस्तान से सलाह मशविरा किया जाये और जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू केंद्रीय कानूनों की समीक्षा की जाये। अर्थात इन बातों को कह कर इस समूह ने देश की एकता और अखण्डता तथा राष्ट्रवादी सोच को गंभीर ठेस पहुंचाई है और अलगाववाद को नये सिरे से खडा होने को प्रेरित किया हे। इस तरह के कुप्रयास पूर्व में भी अन्य समीतियां बना कर मनमोहनसिंह सरकार करती रही है।“
केंद्रीय कानूनों की समीक्षा का अर्थ है कि जम्मू और कश्मीर प्रांत में सर्वोच्च न्यायालय, भारतीय निर्वाचन आयोग एवं भारतीय महालेखाकार आदी महत्वपूर्ण संस्थाओं तक का दायरा समाप्त करना, नियंत्रण रेखा के आर-पार सामाजिक और व्यापारिकता को बढ़ावा देने के नाम पर कश्मीर में दोहरी मुद्रा को मान्यता देने की मांग फिर से हवा देना तथा 1952 से पूर्व की स्थिती बहाल करने का सुझाव फिरसे नई विसंगतियां उत्पनन करेगा। यथा जम्मू -कश्मीरं प्रांत में प्रवेश हेतु परमिट व्यवस्था होगी, समानांतर प्रधानमंत्री पद हो जायेगा , अलग झंडा और अलग विधान हांगें। जो कि राष्ट्र की एकता और अखण्डता को भारी नुकसान पहुचाने का एक नया कुप्रयास तो होगा ही साथ ही इन व्यवस्थाओं के बदलाव की अगली सीडी देश से जम्मू-कश्मीर प्रांत अलग होने प्रबल मांग को पुनः जाग्रत करना है।
सबसे बडी बात यह हे कि देश के प्रथम व ततृकालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू जम्मू - कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में 1947 में ही ले गये थे और यह मामला अभी तब वहां विचाराधीन है, यह एक मात्र येशा सरकारी दस्तावेज होगा जो कि भारत के पक्ष को संयुक्त राष्ट्र संघ में कमजोर करेगा और पाकिस्तान की मदद करेगा।
हलांकी केन्द्र सरकार को इस पाकिस्तान परस्त तथा भारत के लिये अहितकारी रिपोर्ट को तुरंत रद्द करना चाहिये था तथा सार्वजनिक भी नहीं करना चाहिये थी। मगर उन्होने इसे पिछले दिनों जारी कर दिया है। जिससे केन्द्र सरकार की नियत पर भी सवाल उठ खडा हुआ है और यह देश की अखण्डता को लेकर गंभीर खतरे का संकेत भी है। इस कारण देशहित में व्यापक जन जागरण करना आवश्यक है, सरकार के राष्ट्रविरोधी कृत्य के विरूद्ध जनमत तैयार किया जाना जरूरी है। इस कारण यह जनजागरण अभियान पूरे देश में जारी ।
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हामिद अंसारी, एस के रसगोत्रा और सगीर अहमद के नेतृत्व वाली समितियों की सिफारिशों के पीछे भी यही
जम्मू और कश्मीर खतरे में: देश को सच बताना बेहद जरूरी,वर्तमान आंदोलन - संभावनायें और आशंकायें
वर्ष 2005-06 में अपनी मुस्लिम वोट की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय दबाव में मनमोहन सिंह सरकार ने पाकिस्तान से गुपचुप वार्ता प्रारंभ की। इसका खुलासा करते हुए पिछले दिनों लंदन में मुशर्रफ ने कहा कि ट्रेक-2 कूटनीति में हम एक समझौते पर पहुंच गये थे। वास्तव में परवेज कियानी- मुशर्रफ की जोड़ी एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोनों पक्ष एक निर्णायक समझौते पर पहुंच गये थे। परस्पर सहमति का आधार था -
1. नियंत्रण रेखा (एलओसी) को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लेना।
2. बंधन एवं नियंत्रण मुक्त सीमा ( Porous and Irrelevant borders )
3. विसैन्यीकरण ( Demilitarization )
4. सांझा नियंत्रण ( Joint Contro )
5. सीमा के दोनों ओर के जम्मू-कश्मीर क्षेत्रों को अधिकतम स्वायत्तता ( Autonomy or self&rule to both the regions of J&K )
इस सहमति को क्रियान्वित करते हुये, कुछ निर्णय दोनों देशों द्वारा लागू किये गये -
1. पाकिस्तान ने उतरी क्षेत्रों (गिलगित-बाल्टिस्तान) का विलय पाकिस्तान में कर अपना प्रांत घोषित कर दिया। वहां चुनी हुई विधानसभा, पाकिस्तान द्वारा नियुक्त राज्यपाल आदि व्यवस्था लागू हो गई। पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर का यह कुल 65,000 वर्ग किमी. क्षेत्रफल है। भारत ने केवल प्रतीकात्मक विरोध किया और इन विषयों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोई कोशिश नहीं की।
2. भारत ने जम्मू-कश्मीर में 30 हजार सैन्य बल एवं 10 हजार अर्धसैनिक बलों की कटौती की ।
3. दोनों क्षेत्रों में परस्पर आवागमन के लिये पांच मार्ग प्रारंभ किये गये, जिन पर राज्य के नागरिकों के लिए वीजा आदि की व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
4. कर मुक्त व्यापार दो स्थानों पर प्रारंभ किया गया।
जम्मू-कश्मीर के इतिहास में 60 वर्षों में पहली बार प्रदेश के सभी राजनैतिक दलों और सामाजिक समूहों को साथ लेकर स्थायी समाधान का प्रयास किया गया और 25 मई 2005 को आयोजित दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिये पांच कार्य समूहों की घोषणा की गई।
इन कार्यसमूहों में तीनों क्षेत्रों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व था, हर समूह में सामाजिक नेतृत्व, भाजपा, पैंथर्स पार्टी, जम्मू स्टेट मोर्चा आदि के प्रतिनिधि तथा शरणार्थी नेता भी थे।
24 अप्रैल 2007 को दिल्ली में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में जब 4 कार्यसमूहों ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो सभी जम्मू, लद्दाख के उपस्थित नेता व शरणार्थी नेता हैरान रह गये कि उनके सुझावों एवं मुद्दों पर कोई अनुशंसा नहीं की गई। उपस्थित कश्मीर के नेताओं ने तुरंत सभी अनुशंसाओं का समर्थन कर लागू करने की मांग की क्योंकि यह उनकी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुसार था।
कार्य समूहों की इन रिर्पोटों से यह स्पष्ट हो गया कि अलगाववादी, आतंकवादी समूहों और उनके आकाओं से जो समझौते पहले से हो चुके थे, उन्हीं को वैधानिकता की चादर ओढ़ाने के लिये यह सब नाटक किया गया था।
बैठक के अंत में तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने पहले से तैयार वक्तव्य हस्ताक्षर के लिये प्रस्तुत किया जिसमें केन्द्र सरकार से इन समूहों की रिपोर्टों को लागू करने के लिये उपस्थित सभी प्रतिनिधियों द्वारा आग्रह किया गया था।
भाजपा, पैंथर्स, बसपा, लद्दाख यूटी फ्रंट, पनुन कश्मीर एवं अनेक सामाजिक नेताओं ने दो टूक कहा कि यह सारी घोषणायें उनको प्रसन्न करने के लिए हैं जो भारत राष्ट्र को खंडित एवं नष्ट करने में जुटे हुए हैं। यह भारत विरोधी, जम्मू-लद्दाख के देशभक्तों को कमजोर करने वाली, पीओके, पश्चिम पाक शरणार्थी विरोधी एवं कश्मीर के देशभक्त समाज की भावनाओं एवं आकांक्षाओं को चोट पहुंचाने वाली हैं।
बाद में सगीर अहमद के नेतृत्व वाले पांचवे समूह ने अचानक नवम्बर 2009 में अपनी रिपोर्ट दी तो यह और पक्का हो गया कि केन्द्र-राज्य के संबंध की पुनर्रचना का निर्णय पहले ही हो चुका था। रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले संबंधित सदस्यों को ही विश्वास में नहीं लिया गया। इन पांच समूहों की मुख्य अनुशंसायें निम्नानुसार थीं-
एम. हामिद अंसारी (वर्तमान में उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता वाली समिति के सुझाव
1. एम. हमीद अंसारी (वर्तमान में उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता में विभिन्न तबकों में विश्वास बहाली के उपायों के अंतर्गत उन्होंने सुझाव दिये कि कानून-व्यवस्था को सामान्य कानूनों से संभाला जाये। उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनियम ( Disturbed area act and AFSPA ) को हटाया जाये।
2. पूर्व आतंकियों को पुनर्वास एवं समर्पण करने पर सम्मानपूर्वक जीवन की गांरटी दी जाये।
3. राज्य मानवाधिकार आयोग को मजूबत किया जाय।
4. आतंकवाद पीडितों के लिये घोषित पैकेज को मारे गये आतंकियों के परिवारों के लिये भी क्रियान्वित करना।
5. फर्जी मुठभेड़ों को रोकना।
6. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में पिछले बीस वर्ष से रह रहे आतंकवादियों को वापिस आने पर स्थायी पुनर्वास एवं आम माफी।
7. कश्मीरी पंडितों के लिये एसआरओ-43 लागू करना, उनका स्थायी पुनर्वास।
एम के रसगोत्रा के नेतृत्व की कमेटी द्वारा दिये गये सुझाव:-
1. नियंत्रण रेखा के आर-पार दोनों ओर के 10-10 विधायकों के सांझा नियंत्रण समूह (श्रवपदज ब्वदजतवस ळतवनच) द्वारा व्यापार, पर्यटन, संस्कृति, आपदा प्रबंधन, पर्यावरण, बागवानी आदि पर सामूहिक विचार-विमर्श कर सुझाव देना।
2. आवागमन के 5 वर्तमान मार्गों के अतिरिक्त सात नये मार्ग खोलना। व्यापार, पर्यटन, तीर्थदर्शन, चिकित्सा के लिये आवागमन की खुली छूट देना।
3. परस्पर दूरसंचार की सुविधा प्रारंभ करना।
4. सभी बारूदी सुरंगों को सीमा से हटाना।
केन्द्र-राज्य संबंधों पर सगीर अहमद कमेटी की रिपोर्ट - सरकार नेशनल कांफ्रेंस के स्वायत्तता के प्रस्ताव पर विचार करे, पीडीपी के स्वशासन पर भी विचार किया जा सकता है। धारा 370 पर एक बार अन्तिम निर्णय कर लेना चाहिए, पर यह निर्णय का अधिकार जम्मू-कश्मीर के लोगों को हो। अनुच्छेद 356 की समाप्ति, चुना हुआ राज्यपाल, परस्पर बातचीत के आधार पर अधिक अधिकारों के लिये संवैधानिक गारंटी आदि की भी अनुशंसा की गई।
वास्तव में ये दोनों रिपोर्ट लागू होने पर मुशर्रफ-मनमोहन समझौते के तीन सूत्र - विसैन्यीकरण, नाम-मात्र की सीमा (नियंत्रण मुक्त सीमा) व सांझा नियंत्रण व्यवहार में आ जायेंगे और सगीर अहमद के समूह के सुझावों के मानने से स्वायत्तता वाला प्रस्ताव स्वयमेव लागू हो जायेगा।
इस ट्रेक-2 की कूटनीति को व्यवहार में पूरी तरह लाने से पूर्व ही पाकिस्तान में मुशर्रफ के कार्यकाल का अंत हो गया और जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ आंदोलन के कारण अचानक हालात बदल गये जिसके चलते सरकार को पीछे हटना पड़ा।
पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद भी इस ट्रेक-2 कूटनीति को आगे बढ़ाने का कार्य प्रारंभ हुआ क्योंकि वर्तमान सेनाध्यक्ष परवेज कियानी ही सभी वार्ताओं में शामिल थे। यूपीए के दूसरे कार्यकाल में फिर इसी सहमति पर आगे बढ़ने का निर्णय हुआ। अमेरिका ने भी अफगानिस्तान में पाक सहायता-समर्थन प्राप्त करने बदले पाकिस्तान को सैन्य, आर्थिक सहायता के अतिरिक्त उसी की इच्छानुसार कश्मीर समस्या के समाधान के लिए भी भारत पर दबाव बढ़ा दिया है।
इसी प्रक्रिया के अंतर्गत गत दो वर्षों से नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व में राज्य की सांझा सरकार और केन्द्र में कांग्रेसनीत गठबंधन सरकार ने तेजी से कदम आगे बढ़ाये हैं।
वास्तव में उपरोक्त समितियों की रिपोर्ट को यदि आंशिक रूप से भी स्वीकार कर लिया जाता है तो एक प्रकार से वह मुशर्रफ-मनमोहन के फार्मूले का ही क्रियान्वयन होगा। केन्द्र सरकार जानती है कि यदि इन निर्णयों को पाकिस्तान के साथ समझौते के रूप में प्रस्तुत किया जायेगा तो उसे देश कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन यदि उन्हीं को विशेषज्ञ समूहों के सुझावों की शक्ल में सामने लाया जाये तो संभवतः इन्हें स्वीकार करा पाना सरल होगा।
हामिद अंसारी, एस के रसगोत्रा और सगीर अहमद के नेतृत्व वाली समितियों की सिफारिशों को हमें समेकित रूप में देखना और विश्लेषित करना होगा। इसके अंतर्गत उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, बीस साल से पाक अधिकृत कश्मीर में रह रहे अतंकवादियों के वापस आने पर आम माफी और उनका पुनर्वास, नियंत्रण रेखा के आर-पार के विधायकों का साझा नियंत्रण समूह, परस्पर दूरसंचार की सुविधा और सीमा पार आवागमन की खुली छूट आदि सुझाव यदि मान लिये जाते हैं तो यह संभवतः उससे भी अधिक है जिसकी मांग अलगाववादी करते रहे हैं। इन्हें स्वीकार करने के बाद कश्मीर की आजादी केवल एक कदम दूर रह जाती है।
स्व. नरसिम्हाराव के वक्तव्य- “आजादी से कम कुछ भी” का यह कूटनीतिक फलन है जिसमें अलगाववादियों के ही नहीं बल्कि विदेशी शक्तियों के भी मंसूबे पूरे हो रहे हैं। इसमें कश्मीर से विस्थापित हुए लाखों लोगों के लिये उम्मीद की किरण कहीं नजर नहीं आती है। वहीं इन फैसलों के कारण जम्मू और लद्दाख की सामाजिक - आर्थिक - राजनैतिक स्थितियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका भी आकलन किया जाना बाकी है। जम्मू और लद्दाख के नागरिक इस स्थिति की कल्पना करके भी सिहर उठते हैं ।
किस ओर संकेत दे रहे हैं यह तथ्य उमर अब्दुल्ला के बयान
- जम्मू-कश्मीर की समस्या आर्थिक व रोजगार के पैकेज से हल होने वाली नहीं है। यह एक राजनैतिक समस्या है और समाधान भी राजनैतिक होगा।
- जम्मू-कश्मीर का भारत में बाकी राज्यों की तरह पूर्ण विलय नहीं हुआ। विलय की कुछ शर्तें थीं जिन्हें भारत ने पूरा नहीं किया।
- जम्मू-कश्मीर दो देशों (भारत एवं पाकिस्तान) के बीच की समस्या है जिसमें पिछले 63 वर्षों से जम्मू-कश्मीर पिस रहा है।
- स्वायत्तता ही एकमात्र हल है। 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल करनी चाहिए।
पी. चिदंबरम के बयान
- जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है।
- जम्मू-कश्मीर का एक विशिष्ट इतिहास एवं भूगोल है, इसलिये शेष भारत से अलग इसका समाधान भी विशिष्ट ही होगा।
- समस्या का समाधान जम्मू व कश्मीर के अधिकतम लोगों की इच्छा के अनुसार ही होगा।
- गुपचुप वार्ता होगी, कूटनीति होगी और समाधान होने पर सबको पता लग जायेगा।
- हमने 1952, 1975 और 1986 में कुछ वादे किये थे, उन्हें पूरा तो करना ही होगा।
- विलय कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था, यह बाकी राज्यों से अलग था, उमर ने विधानसभा के भाषण में विलय पर बोलते हुये कुछ भी गलत नहीं कहा।
- स्वायत्तता पर वार्ता होगी और उस पर विचार किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राजनैतिक समाधान की आवश्यकता, सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनिययम को नरम करना, कुछ क्षेत्रों से हटाना, सबकी सहमति होने पर स्वायत्तता के प्रस्ताव को लागू करना आदि संकेत देकर वातावरण बनाने की कोशिश की।
प्रधानमंत्री द्वारा घोषित त्रि-सदस्यीय वार्ताकारों के समूह के सदस्य दिलीप पड़गांवकर, राधा कुमार और एम.एम. अंसारी ने तो ऐसा वातावरण बना दिया कि शायद जल्द से जल्द कुछ ठीक (अलगाववादियों की इच्छानुसार) निर्णय होने जा रहे हैं। आखिर क्या कहते हैं वार्ताकारों के निम्नलिखित बयान -
-उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या के लिये पाकिस्तान से वार्ता पर बल दिया।
-उन्होंने आश्वासन दिया- आजादी का रोडमेप बनाओ, उस पर चर्चा करेंगे।
-हमारा एक खूबसूरत संविधान है, जिसमें सबकी भावनाओं को समाहित किया जा सकता है, 400 बार संशोधन हुआ है, आजादी के लिये भी रास्ता निकल सकता है।
वार्ताकारों की अनुशंसा पर अलगाववादियों को रिहा करना, सीमापार के आतंकवादियों की सुरक्षित वापसी के लिये समर्पण नीति आदि घोषणाएं क्रियान्वित होनी भी प्रारंभ हो गयी हैं।
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कश्मीर के वार्ताकार बनवाएंगे एक और पाकिस्तान
जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के दायरे से बाहर करने (1952) के तुष्टीकरण की प्रतीक और अलगाववाद की जनक अस्थाई धारा 370 को विशेष कहने, भारतीय सुरक्षा बलों की वफादारी पर प्रश्नचिन्ह लगाने, पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे पर एक पक्ष बनाने, पाक अधिकृत कश्मीर को पाक प्रशासित मानने और प्रदेश के 80 प्रतिशत देशभक्त नागरिकों की अनदेखी करके मात्र 20 प्रतिशत पृथकतावादियों की मांगों / ख्वाइशों / जज्बातों की कदर करने जैसी सिफारिशें किसी देशद्रोह से कम नहीं हैं।
लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकारों ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एक रपट तैयार की है। यदि मुस्लिम तुष्टीकरण में डूबी सरकार ने उसे मान लिया तो देश के दूसरे विभाजन की नींव तैयार हो जाएगी। यह रपट जम्मू-कश्मीर की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या की इच्छाओं, जरूरतों की अनदेखी करके मात्र बीस प्रतिशत संदिग्ध लोगों की भारत विरोधी मांगों के आधार पर बनाई गई है। तथाकथित प्रगतिशील वार्ताकारों द्वारा प्रस्तुत यह रपट स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र का रोड मैप है।
रपट का आधार अलगाववाद
1952-53 में जम्मू केन्द्रित देशव्यापी प्रजा परिषद महाआंदोलन के झंडे तले भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखने के लिए अपना बलिदान देकर जो जमीन तैयार की थी उसी जमीन को बंजर बनाने के लिए अलगाववादी मनोवृत्ति वाले वार्ताकारों ने यह रपट लिख दी है। इस रपट के माध्यम से भारत के राष्ट्रपति, संसद, संविधान, राष्ट्र ध्वज, सेना के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिए गए हैं। देश के संवैधानिक संघीय ढांचे अर्थात एक विधान, एक निशान और एक प्रधान की मूल भावना को चुनौती दी गई है।
आईएसआई के एक एजेंट गुलाम नबी फाई के हमदर्द दोस्त दिलीप पडगांवकर, वामपंथी चिंतक एम. एम. अंसारी और मैकाले परंपरा की शिक्षाविद् राधा कुमार ने अपनी रपट में जो सिफारिशें की हैं वे सभी कश्मीर केन्द्रित राजनीतिक दलों, अलगाववादी संगठनों, आतंकी गुटों और कट्टरपंथी मजहबी जमातों द्वारा पिछले 64 वर्षों से उठाई जा रहीं भारत विरोधी मांगें और सरकार, तथा सेना विरोधी लगाए जा रहे नारे हैं। स्वायत्तता, स्वशासन, आजादी, पाकिस्तान में विलय, भारतीय सेना की वापसी, सुरक्षा बलों के विशेषाधिकारों की समाप्ति, जेलों में बंद आतंकियों की रिहाई, पाकिस्तान गए कश्मीरी आतंकी युवकों की घर वापसी, अनियंत्रित नियंत्रण रेखा और जम्मू-कश्मीर एक विवादित राज्य इत्यादि सभी अलगाववादी तथ्यों को इस रपट का आधार बनाया गया है।
तुष्टीकरण की पराकाष्ठा
रपट के अनुसार एक संवैधानिक समिति का गठन होगा जो 1953 के पहले की स्थिति बहाल करेगी। 1952 के बाद भारतीय संसद द्वारा बनाए गए एवं जम्मू-कश्मीर में लागू सभी कानूनों को वापस लिया जाएगा, जो धारा 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को दी गई स्वायत्तता का हनन करते हैं। इस सीमावर्ती प्रदेश के विशेष दर्जे को स्थाई बनाए रखने के लिए धारा 370 के साथ जुड़े अस्थाई शब्द को विशेष शब्द में बदल दिया जाएगा, ताकि स्वायत्तता कायम रह सके।
रपट में स्पष्ट कहा गया है कि प्रदेश में तैनात भारतीय सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों की टुकड़ियां कम की जाएं और उनके विशेषाधिकारों को समाप्त किया जाए। वार्ताकार कहते हैं कि राज्य सरकार के मनपसंद का राज्यपाल प्रदेश में होना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में कार्यरत अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों की संख्या पहले घटाई जाए और बाद में समाप्त कर दी जाए। जिन्होंने पहली बार अपराध किया है उनके केस (एफ आई आर) रद्द किए जाएं। अर्थात् एक-दो विस्फोट माफ हों, भले ही उनमें सौ से ज्यादा बेगुनाह मारे गए हों।
पाकिस्तान का समर्थन
रपट की यह भी एक सिफारिश है कि कश्मीर से संबंधित किसी भी बातचीत में पाकिस्तान, आतंकी कमांडरों और अलगाववादी नेताओं को भी शामिल किया जाए। रपट में पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को पाक प्रशासित जम्मू-कश्मीर (पीएजेके) कहा गया है। वार्ताकारों के अनुसार कश्मीर विषय में पाकिस्तान भी एक पार्टी है और पाकिस्तान ने दो तिहाई कश्मीर पर जबरन अधिकार नहीं किया, बल्कि पाकिस्तान का वहां शासन है, जो वास्तविकता है। ध्यान से देखें तो स्पष्ट होगा कि वार्ताकारों ने पूरे जम्मू-कश्मीर को आजाद मुल्क की मान्यता दे दी है। इसी मान्यता के मद्देनजर रपट में यह कहा गया है कि पीएजेके समेत पूरे जम्मू-कश्मीर को एक इकाई माना जाए। इसी एक सिफारिश में सारे के सारे जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले करने के खतरनाक इरादे की गंध आती है। पाकिस्तान के जबरन कब्जे वाले कश्मीर को पाक प्रशासित जम्मू-कश्मीर मानकर वार्ताकारों ने भारतीय संसद के उस सर्वसम्मत प्रस्ताव को भी अमान्य कर दिया है जिसमें कहा गया था कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न भाग है। 1994 में पारित इस प्रस्ताव में पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने का संकल्प भी दुहराया गया था।
राष्ट्रद्रोह की झलक
कश्मीर विषय पर पाकिस्तान को भी एक पक्ष मानकर वार्ताकारों ने जहां जम्मू-कश्मीर में सक्रिय देशद्रोही अलगाववादियों के आगे घुटने टेके हैं, वहीं उन्होंने पाकिस्तान द्वारा कश्मीर को हड़पने के लिए 1947, 1965, 1972 और 1999 में भारत पर किए गए हमलों को भी भुलाकर पाकिस्तान के सब गुनाह माफ कर दिए हैं। भारत विभाजन की वस्तुस्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञ इन तीनों वार्ताकारों ने महाराजा हरिसिंह द्वारा 26 अक्तूबर, 1947 को सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर का भारत में किया गया विलय, शेख अब्दुल्ला के देशद्रोह को विफल करने वाला प्रजा परिषद् का आंदोलन, 1972 में हुआ भारत-पाक शिमला समझौता, 1975 में हुआ इन्दिरा-शेख समझौता और 1994 में पारित भारतीय संसद का प्रस्ताव इत्यादि सब कुछ ठुकराकर जो रपट पेश की है वह राष्ट्रद्रोह का जीता-जागता दस्तावेज है।
केन्द्र सरकार के इशारे और सहायता से लिख दी गई 123 पृष्ठों की इस रपट में केवल अलगाववादियों की मंशा, केन्द्र सरकार का एक तरफा दृष्टिकोण और पाकिस्तान के जन्मजात इरादों की चिंता की गई है। जो लोग भारत के राष्ट्र ध्वज को जलाते हैं, संविधान फाड़ते हैं और सुरक्षा बलों पर हमला करते हैं, उनकी जी-हुजूरी की गई है। यह रपट उन लोगों का घोर अपमान है, जो आज तक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को थामकर भारत माता की जय के उद्घोष करते हुए जम्मू-कश्मीर के लिए जूझते रहे, मरते रहे।
कांग्रेस और एनसी की मिलीभगत
वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर की आम जनता के अनेक प्रतिनिधिमंडलों से वार्ता करने का नाटक तो जरूर किया है, परंतु महत्व उन्हीं लोगों को दिया है जो भारत के संविधान की सौगंध खाकर सत्ता पर काबिज हैं (कांग्रेस के समर्थन से) और भारत के संविधान और संसद को ही धता बताकर स्वायत्तता की पुरजोर मांग कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अनेक बार अपने दल नेशनल कांफ्रेंस (एन.सी.) के राजनीतिक एजेंडे पूर्ण स्वायत्तता की मांग की है। स्वायत्तता अर्थात् 1953 के पूर्व की राजनीतिक एवं संवैधानिक व्यवस्था। इस रपट से पता चलता है कि इसे केन्द्र की कांग्रेसी सरकार, नेशनल कांफ्रेंस, आईएसआई के एजेंटों और तीनों वार्ताकारों की मिलीभगत से घढ़ा गया है।
अगर यह मिलीभगत न होती तो जम्मू-कश्मीर की 80 प्रतिशत भारत-भक्त जनता की जरूरतों और अधिकारों को नजर अंदाज न किया जाता। देश विभाजन के समय पाकिस्तान, पीओके से आए लाखों लोगों की नागरिकता का लटकता मुद्दा, तीन- चार युद्धों में शरणार्थी बने सीमांत क्षेत्रों के देशभक्त नागरिकों का पुनर्वास, जम्मू और लद्दाख के लोगों के साथ हो रहा घोर पक्षपात, उनके राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिकारों का हनन, पूरे प्रदेश में व्याप्त आतंकवाद, कश्मीर घाटी से उजाड़ दिए गए चार लाख कश्मीरी हिन्दुओं की सम्मानजनक एवं सुरक्षित घर वापसी और प्रांत के लोगों की अनेकविध जातिगत कठिनाइयां इत्यादि किसी भी समस्या का समाधान नहीं बताया इन सरकारी वार्ताकारों ने।
फसाद की जड़ धारा 370
इसे देश और जनता का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पिछले छह दशकों के अनुभवों के बावजूद भी अधिकांश राजनीतिक दलों को अभी तक यही समझ में नहीं आया कि एक विशेष मजहबी समूह के बहुमत के आगे झुककर जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के तहत दिया गया विशेष दर्जा और अपना अलग प्रांतीय संविधान ही वास्तव में कश्मीर की वर्तमान समस्या की जड़ है। संविधान की इसी अस्थाई धारा 370 को वार्ताकारों ने अब विशेष धारा बनाकर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता देने की सिफारिश की है। क्या यह भारत द्वारा मान्य चार सिद्धांतों, राजनीतिक व्यवस्थाओं-पंथ निरपेक्षता, एक राष्ट्रीयता, संघीय ढांचा और लोकतंत्र का उल्लंघन एवं अपमान नहीं है?
यह एक सच्चाई है कि भारतीय संविधान की धारा 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान ने कश्मीर घाटी के अधिकांश मुस्लिम युवकों को भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा से जुड़ने नहीं दिया। प्रादेशिक संविधान की आड़ लेकर जम्मू-कश्मीर के सभी कट्टरपंथी दल और कश्मीर केन्द्रित सरकारें भारत सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय महत्व के प्रकल्पों और योजनाओं को स्वीकार नहीं करते। भारत की संसद में पारित पूजा स्थल विधेयक, दल बदल कानून और सरकारी जन्म नियंत्रण कानून को जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जा सकता।
देशघातक और अव्यवहारिक सिफारिश
सरकारी वार्ताकारों ने आतंकग्रस्त प्रदेश से सेना की वापसी और अर्धसैनिक सुरक्षा बलों के उन विशेषाधिकारों को समाप्त करने की सिफारिश की है जिनके बिना आधुनिक हथियारों से सुसज्जित प्रशिक्षित आतंकियों का न तो सफाया किया जा सकता है और न ही सामना। आतंकी अड्डों पर छापा मारने, गोली चलाने एवं आतंकियों को गिरफ्तार करने के लिए सामूहिक कार्रवाई के अधिकारों के बिना सुरक्षा बल स्थानीय पुलिस के अधीन हो जाएंगे जिसमें पाक समर्थक तत्वों की भरमार है। वैसे भी जम्मू-कश्मीर पुलिस इतनी सक्षम और प्रशिक्षित नहीं है जो पाकिस्तानी घुसपैठियों से निपट सके।
अलगाववादी, आतंकी संगठन तो चाहते हैं कि भारतीय सुरक्षा बलों को कानून के तहत इतना निर्बल बना दिया जाए कि वे मुजाहिद्दीनों (स्वतंत्रता सेनानियों) के आगे एक तरह से समर्पण कर दें। विशेषाधिकारों की समाप्ति पर आतंकियों के साथ लड़ते हुए शहीद होने वाले सुरक्षा जवान के परिवार को उस आर्थिक मदद से भी वंचित होना पड़ेगा जो सीमा पर युद्ध के समय शहीद होने वाले सैनिक को मिलती है।
क्या आजाद मुल्क बनेगा कश्मीर ?
1953 से पूर्व की राज्य व्यवस्था की सिफारिश करना तो सीधे तौर पर देशद्रोह की श्रेणी में आता है। इस तरह की मांग, सिफारिश का अर्थ है कश्मीर में भारतीय प्रभुसत्ता को चुनौती देना, देश के किसी प्रदेश को भारतीय संघ से तोड़ने का प्रयास करना और भारत के राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान, संविधान एवं संसद का विरोध करना। सर्वविदित है कि 1953 से लेकर आज तक भारत सरकार ने अनेक संवैधानिक संशोधनों द्वारा जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ जोड़कर ढेरों राजनीतिक एवं आर्थिक सुविधाएं दी हैं। जम्मू-कश्मीर के लोगों द्वारा चुनी गई संविधान सभा ने 14 फरवरी, 1954 को प्रदेश के भारत में विलय पर अपनी स्वीकृति दे दी थी। 1956 में भारत की केन्द्रीय सत्ता ने संविधान में सातवां संशोधन करके जम्मू-कश्मीर को देश का अभिन्न हिस्सा बना लिया।
इसी तरह 1960 में जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में लाया गया। 1964 में प्रदेश में लागू भारतीय संविधान की धाराओं 356-357 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन की संवैधानिक व्यवस्था की गई। 1952 की संवैधानिक व्यवस्था में पहुंचकर जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के जबड़े में फंस जाएगा। पाक प्रेरित अलगाववादी संगठन यही तो चाहते हैं। तब यदि राष्ट्रपति शासन, भारतीय सुरक्षा बल और सर्वोच्च न्यायालय की जरूरत पड़ी तो क्या होगा? क्या जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले कर देंगे?
भारत की अखण्डता से खिलवाड़
पाकिस्तान का अघोषित युद्ध जारी है। वह कभी भी घोषित युद्ध में बदल सकता है। जम्मू-कश्मीर सरकार अनियंत्रित होगी। हमारी फौज किसके सहारे लड़ेगी। जब वहां की स्वायत्त सरकार, सारी राज्य व्यवस्था, न्यायालय सब कुछ भारत सरकार के नियंत्रण से बाहर होंगे तो उन्हें भारत के विरोध में खड़ा होने से कौन रोकेगा? अच्छा यही होगा कि भारत की सरकार इन तथा कथित प्रगतिशील वार्ताकारों के भ्रम जाल में फंसकर जम्मू-कश्मीर सहित सारे देश की सुरक्षा एवं अखंडता के साथ खिलवाड़ न करे।
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